कुछ दिनो पहले की ही बात है.. समाचार पत्र के माध्यम से जान पड़ा की हिन्दी साहित्य के प्रख्यात साहित्यकार श्री गोविंद मिश्र जी को उनकी कृति " धूल पौधों पे" के लिए के. के. बिड़ला फाउंडेशन द्वारा "सरस्वती सम्मान २०१४" से नवाजा गया है। करीब २० वर्षों के एक लंंबे अंतराल के बाद ये सम्मान पाने वाले.. वे प्रख्यात हरिवंश राय बच्चन के बाद दूसरे शख़्श् हैं। इस समाचार को पढ़ने के बाद ही.. एक पल के लिए मुझे लगा.. मानो मैं उनके निकट ही हूँ। सहसा सेल्फ़ पे रखे "वागर्थ" मासिक पत्रिकाओं के पुराने अंकों को टटोलने लगा। फिर एक अंक में प्रकाशित उनकी रचना "जीवन को पूरा नही पकड़ा जा सकता.." दिखाई दी। इसे मैंं कुछ माह पूर्व ही पढा था। मन ही मन आनंदित हो उठा.. ये जान कर की मेरा आभास तो सही ही था.. वो मेरे निकट ही थे। फिर देखा उनके नाम व उनकी लिस्टेड कृतियों के साथ उनका वर्तमान पता और मोबाइल नंबर भी नीचे अंकित है। फिर क्या था.. मैं तो अब उनके काफ़ी निकट ही था..।
एक लंबी साँस लेने के बाद मैने उस दिए मोबाइल नंबर पे फोन किया.. और फिर चार-पाँच रिंगो के बाद ही वृद्धावस्था की एक मीठी सी आवाज़ कानो में समा सी गयी। मैने उन्हें सर्व-प्रथम सरस्वती सम्मान के लिए बधाई दी और फिर अपना परिचय भी दिया.. वे गोविंद मिश्र ही थे। फिर हमारी बात- चित करीब १०-१२ मिनिट की रही होगी.. और फोन रखते ही एक अजीब सी शांति-छाया से खुद को घिरा देखा। जैसे लगा बातों-बातों में मेरे मंन की बातों की पुष्टि होती चली गयी.. और फिर लगा जैसे हम सब एक-दूसरे के कितने करीब पिरोए हुए हैं.. और हमें पता भी नहीं चलता। ये ब्रम्ह-दर्शन नहीं तो और क्या है!! हम जिस दृश्य-वीणा की गूँज को जग से सुनना चाहते हैं.. वो तो हमारे पास ही है। फिर तो मुझे इसी गुरुत्व में बैठना है.. और फिर हम जन्मोपरांत जिस भी गुरुत्व केंद्र की कक्षा में गये थोड़े उसी के अधीन हो गये.. ब्रम्ह की चाह में थोड़े ब्रम्हर्थि तो थोड़े ब्रम्हास्त्र हो गये। "सर्व-धर्म सम्भाव" वृहत आवरण के भीतरी चरम पे "सर्व-मान्य सम्भाव" के ब्रम्ह से भी तो स्वंय ही सिद्धि लेनी होती है।
साहित्य से थोड़ी बहूत अभिरुचि तो सभो को बचपन से ही रहती है.. चाहे हमारी भाषाएँ जो भी हो.. हम चाहे किसी भी धर्म या भौगोलिक भू-भागों से आतें हों। फिर या तो जीवन की अनेकानेक राहों में हम निकल भी पड़े हो.. लेकिन किसी भी विधा में हमसब अपने-अपने साहित्य की वृष्टि-छाया में खुद को भिंगोते ही रहते हैं.. चाहे वो हमारा आंशिक प्रतिरूप ही क्यों ना हो। ३१ अक्टोबर २०१४ को एक और खबर आई.. मश्हुर लेखक "रॉबिन शॉ पुष्प" के निधन को लेकर। मैं इस नाम से पहली बार मुखातिब हो रहा था। लेकिन जब हिन्दुस्तान दैनिक के स्मृति-शेष पन्ने में उनकी साहित्यिक जीवन-यात्रा से अभिभूत हुआ तो लगा मानो... "ब्रम्ह-विस्तार" का रूप अदृश्य ही होता है क्या..? मेरे जैसे कितने ही पाठक होंगे जिन्होने शायद इस नाम को पहली बार सुना और देखा हो। लेकिन इन साहित्यकारों के नाम उस नभ-सभा में नहीं छाते जिस तरह अन्य सभाओं में छा जाने की एक होड़ सी मची है.. चाहे वो हमारी गरिमामय संसद की लोक या राज्य-सभा जैसी सभायें ही क्यों ना हो। काश कि इन साहित्यकारो व कलाकारों से सजी एक "कला-साहित्य सभा" ही बन पाती। उँचे कदो के बैनरों में आज के हमारे इन साहित्य सभा-सदों का भी चित्र उकेरा हुआ होता। कुछ प्रेरण शक्ति में इज़ाफा होता.. वैचारिक बेरोज़गारी घटती.. कुछ बोझ घटता.. कुछ आपका.. कुछ हमारा।
http://www.khaskhabar.com/picture-news/news-prominant-writer-robin-shaw-pushp-no-more-1-27545.html
रॉबिन शॉ पुष्प के निधन पे फादर कामिल बुलके की एक प्रतिक्रिया जो पढ़ने को मिली.. " रॉबिन शॉ उन गिने-चुने ईसाइयों में हैं, जिन्होने हिन्दी साहित्य के संसार में भरपूर नाम कमाया। नि:संदेह श्री पुष्प आज हिन्दी के एक प्रतिष्ठित कलाकार हैं- नुकीले अनुभव, खंडों के कुशल शब्द-शिल्पी, संवेदनाओं की जटिल ग्रंथियों के अनूठे कथाकार।"
क्या कभी संवेदनाओं के चरम को गुरुत्वाकर्षण के दो-धुरियों पे चलते देखा है..? आज भी वह स्मरण सहसा ही याद दिला जाती है.. उस सफ़र की..। बात कुछ दिनो पहले की ही है.. मगर उसकी सरज़मीनी जुड़ी रुदन वर्षों पुरानी..। हमेशा की तरह बक्सर के इंजिनियरिंग कॉलेज से शाम को लौटते वक़्त टूडीगंज स्टेशन पे अपने व्याख्याता मंडली के साथ बक्सर से पटना की ओर जाने वाली ट्रेन का इंतेज़ार कर रहा था। ठंड के दिनो में शाम भी जल्द ही हो जाती है। शाम के करीब साढ़े पांच बजे होंगे.. लाउड स्पीकर पे आवाज़ आई की ट्रेन डुमराव स्टेशन पे आ गयी है। फिर कुछ देर के बाद ट्रेन आई। मगर ये क्या..?? ट्रेन पूरी की पूरी खचाखच भरी हुई। ट्रेन के अंदर जाने की बात तो दूर.. दरवाजे पे भी पांंव रखना मुश्किल था। एक ख्याल आया की इस ट्रेन को छोड़ दूँ.. लेकिन फिर दूसरी ट्रेन तीन घंटे बाद ही थी। ये सोच मैं तेज़ी से प्लेट-फॉर्म पे आगे की ओर बढ़ने लगा.. की कहीं कोई गुंजाइश बने ट्रेन पेे चढ़ने की..। ताज्जुब हो रहा था.. की पिछले दो साल के अनुभव में इतनी भीड़ मैने पॅसेंजर ट्रेन में कभी नहीं देखी थी..। तभी आगे की एक बॉगी से एक वृद्ध महिला को ब्मुश्किल उतरते देखा.. फिर तेज़ी से आगे बढ़ उनकी लाठी को हाथों में लिया और अपने बाजू का सहारा दे.. उन्हें उतरने में थोड़ी मदद की..। उनके ठीक पीछे एक महिला भी उस खचाखच भरे ट्रेन से उतरने की जद्दोजहद में लगी हुई..। गोद में एक बिलखता बच्चा और साथ एक छोटी सी बच्ची भी। शायद वो उस वृद्ध महिला की रिश्ते में थी। मैने फिर उस छोटे से बच्चे को गोद में लिया और उन्हें भी उतरने में थोडी मदद दे पाया। ट्रेन भी अब प्लेट-फॉर्म छोड़ चूकी थी.. मैने थोडी हिम्मत दिखाई और झटके से गेट के हॅंडल को पकड़ अंदर की ओर जाने की कोशिश की.. की तभी मेरे एक लेक्चरर मित्र ने भी पीछे से जोड़ का दबाव बनाया.. और हम दोनो चलती ट्रेन में खुद को सुरक्षित पाए।
अंदर की भीड़ इतनी की जो जहाँ थे.. वहीं खड़े रह थे। मगर ये क्या..?? इक्का दुक्का पुरुषों को छोड़ महिलाओं और बच्चों की संख्या ही ज़्यादा थी। ग्रामीण पृष्ठभूमि के इस सफ़र में.. भोजपुरी लोक-गीतों से सज़ा ये कैसा भाव्य था..। मैं सबकुछ बड़े ही अचरज से बस देखे जा रहा था। बीच-बीच में छोटे स्टेशन और हॉल्ट पे उतरने चढ़ने के क्रम में महिलाओं की तू-तू मैं मैं भी.. "मछली बाज़ार" के दृश्य जैसा ही कुछ दिखा जा रही थी। उम्रदराज महिलाओं का एक बड़ा तबका जिन्हें जगह नहीं मिली.. वो ट्रेन के फर्श पे ही बैठ कर अपने रस-मंजूषा में लीन थी। कुछ वृद्ध महिलायें तो थकान के कारण वहाँ चलती ट्रेन के फर्श पे लेटने से भी गुरेज़ नहीं कर रही थी। घुरमुराए बालों, मटमैले कपड़ों और अलसाए मन को लिए ये किस उन्माद को लिए लौट रही हैं? दिव्य-शक्तियों को समेटे पूरा का पूरा दृश्य दुर्गा-काली शक्ति-वाहिनी के विहंगम स्वरूप से से कम ना था..। मेरे मन में भी सकारात्मकता के साथ कई प्रश्नो का प्रज्वलन अपने चरम पे तो था ही.. लेकिन जैसे मेरे इस अनुभव ने ना जाने कितने ही जवाबों के स्वरूप को भी अंजाने में देख लिया हो। लेकिन फिर भी मुझसे रहा नही गया.. और मैंने थोड़ी हिम्मत दिखाई और पास खड़ी एक महिला से पूछ ही बैठा.... की आप सब कहाँ से लौट रहीं हैं? फिर जो जवाब मिला वो वाकई हैरान कर देने वाला था.. इसलिए नही की उस कृत में धर्म और अध्यात्म का सार था.. बल्कि इसलिए की इतने कष्ट को उठा ये किस सिद्ध-सृजन में तल्लिंन हैं। " बेटा, लिट्टी-चोखा मेला खातिर गेल रही..।" इतना कह वो मुस्कुराने लगी थी.. और मैं अचरज में था। आख़िर इतनी विषम परिस्थितियों में भी ये कैसा गुरुत्व का आकर्षण था। वृद्ध-अधेड़ महिलाओं और बच्चों को छोड़ कोई भी नहीं था साथ उनके इस सफ़र में.. फिर उस भीड़ से निकला एक लोक-गीत जो अब तक मेरे कानों में गूँज रहा है..
"बेटा ना पूछे.. बाबू ना पूछे.. ना पूछे पिरितया हमार हो.."। ब्रम्हांड की इतनी पुरातन सभ्यता का ये कैसा रुदन था? आज भी इन अभिसप्त रुदालियो का कैसा क्रंदन है.. जिनके मर्म की स्पष्टताओं को भेदने वाला कूदाली शायद ही चल सके.. फिर राम की मैली गंगा.. मैली ही सही..।
इसी तरह के एक सफ़र में.. ट्रेन में एक रोज़ बक्सर ग्रामीण अंचल के एक जुझारू व्यक्तित्व का भी साक्षात्कार मिला। बातों बातों में ही मेरी कुछ बातें उन्हें भी रोचक लगी.. और उन्होने मुझसे हिंदी कंप्यूटर टाइपिंग से रिलेटेड कुछ मदद भी माँगी। बक्सर स्टेशन पे उन्होने खादी के थैले से निकाल अपने भूभागीय डेवलपमेंट व सौन्दर्यीकरण से संबंधित अनेकानेक लेखों का जखीरा मुझे दिखाया। सब के सब.. कुछ यूँ कहें उस धरती की आवाज़ ही थी.. और बीते वर्षो के मेरे लेखों में भी ये बहुत कुछ परिलक्षित हो ही जाता है। वो वर्षों से अपनी इस आवाज़ को दिल्ली बैठे आला-कमान तक पहुँचाते रहे हैं.. और हस्र ये कि.. दिल्ली दूर जाते-जाते.. यहाँ के गुरुत्व स्वर ही गुम हो जाते हैं.. तो रुदन तो सुनने को मिलेगा ही.. एक ब्रम्ह के विज्ञान से कुछ कम तो नहीं..।
Vinayak Ranjan
www.vipraprayag1.blogspot.in
www.vipraprayag2.blogspot.in
एक लंबी साँस लेने के बाद मैने उस दिए मोबाइल नंबर पे फोन किया.. और फिर चार-पाँच रिंगो के बाद ही वृद्धावस्था की एक मीठी सी आवाज़ कानो में समा सी गयी। मैने उन्हें सर्व-प्रथम सरस्वती सम्मान के लिए बधाई दी और फिर अपना परिचय भी दिया.. वे गोविंद मिश्र ही थे। फिर हमारी बात- चित करीब १०-१२ मिनिट की रही होगी.. और फोन रखते ही एक अजीब सी शांति-छाया से खुद को घिरा देखा। जैसे लगा बातों-बातों में मेरे मंन की बातों की पुष्टि होती चली गयी.. और फिर लगा जैसे हम सब एक-दूसरे के कितने करीब पिरोए हुए हैं.. और हमें पता भी नहीं चलता। ये ब्रम्ह-दर्शन नहीं तो और क्या है!! हम जिस दृश्य-वीणा की गूँज को जग से सुनना चाहते हैं.. वो तो हमारे पास ही है। फिर तो मुझे इसी गुरुत्व में बैठना है.. और फिर हम जन्मोपरांत जिस भी गुरुत्व केंद्र की कक्षा में गये थोड़े उसी के अधीन हो गये.. ब्रम्ह की चाह में थोड़े ब्रम्हर्थि तो थोड़े ब्रम्हास्त्र हो गये। "सर्व-धर्म सम्भाव" वृहत आवरण के भीतरी चरम पे "सर्व-मान्य सम्भाव" के ब्रम्ह से भी तो स्वंय ही सिद्धि लेनी होती है।
साहित्य से थोड़ी बहूत अभिरुचि तो सभो को बचपन से ही रहती है.. चाहे हमारी भाषाएँ जो भी हो.. हम चाहे किसी भी धर्म या भौगोलिक भू-भागों से आतें हों। फिर या तो जीवन की अनेकानेक राहों में हम निकल भी पड़े हो.. लेकिन किसी भी विधा में हमसब अपने-अपने साहित्य की वृष्टि-छाया में खुद को भिंगोते ही रहते हैं.. चाहे वो हमारा आंशिक प्रतिरूप ही क्यों ना हो। ३१ अक्टोबर २०१४ को एक और खबर आई.. मश्हुर लेखक "रॉबिन शॉ पुष्प" के निधन को लेकर। मैं इस नाम से पहली बार मुखातिब हो रहा था। लेकिन जब हिन्दुस्तान दैनिक के स्मृति-शेष पन्ने में उनकी साहित्यिक जीवन-यात्रा से अभिभूत हुआ तो लगा मानो... "ब्रम्ह-विस्तार" का रूप अदृश्य ही होता है क्या..? मेरे जैसे कितने ही पाठक होंगे जिन्होने शायद इस नाम को पहली बार सुना और देखा हो। लेकिन इन साहित्यकारों के नाम उस नभ-सभा में नहीं छाते जिस तरह अन्य सभाओं में छा जाने की एक होड़ सी मची है.. चाहे वो हमारी गरिमामय संसद की लोक या राज्य-सभा जैसी सभायें ही क्यों ना हो। काश कि इन साहित्यकारो व कलाकारों से सजी एक "कला-साहित्य सभा" ही बन पाती। उँचे कदो के बैनरों में आज के हमारे इन साहित्य सभा-सदों का भी चित्र उकेरा हुआ होता। कुछ प्रेरण शक्ति में इज़ाफा होता.. वैचारिक बेरोज़गारी घटती.. कुछ बोझ घटता.. कुछ आपका.. कुछ हमारा।
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रॉबिन शॉ पुष्प के निधन पे फादर कामिल बुलके की एक प्रतिक्रिया जो पढ़ने को मिली.. " रॉबिन शॉ उन गिने-चुने ईसाइयों में हैं, जिन्होने हिन्दी साहित्य के संसार में भरपूर नाम कमाया। नि:संदेह श्री पुष्प आज हिन्दी के एक प्रतिष्ठित कलाकार हैं- नुकीले अनुभव, खंडों के कुशल शब्द-शिल्पी, संवेदनाओं की जटिल ग्रंथियों के अनूठे कथाकार।"
अंदर की भीड़ इतनी की जो जहाँ थे.. वहीं खड़े रह थे। मगर ये क्या..?? इक्का दुक्का पुरुषों को छोड़ महिलाओं और बच्चों की संख्या ही ज़्यादा थी। ग्रामीण पृष्ठभूमि के इस सफ़र में.. भोजपुरी लोक-गीतों से सज़ा ये कैसा भाव्य था..। मैं सबकुछ बड़े ही अचरज से बस देखे जा रहा था। बीच-बीच में छोटे स्टेशन और हॉल्ट पे उतरने चढ़ने के क्रम में महिलाओं की तू-तू मैं मैं भी.. "मछली बाज़ार" के दृश्य जैसा ही कुछ दिखा जा रही थी। उम्रदराज महिलाओं का एक बड़ा तबका जिन्हें जगह नहीं मिली.. वो ट्रेन के फर्श पे ही बैठ कर अपने रस-मंजूषा में लीन थी। कुछ वृद्ध महिलायें तो थकान के कारण वहाँ चलती ट्रेन के फर्श पे लेटने से भी गुरेज़ नहीं कर रही थी। घुरमुराए बालों, मटमैले कपड़ों और अलसाए मन को लिए ये किस उन्माद को लिए लौट रही हैं? दिव्य-शक्तियों को समेटे पूरा का पूरा दृश्य दुर्गा-काली शक्ति-वाहिनी के विहंगम स्वरूप से से कम ना था..। मेरे मन में भी सकारात्मकता के साथ कई प्रश्नो का प्रज्वलन अपने चरम पे तो था ही.. लेकिन जैसे मेरे इस अनुभव ने ना जाने कितने ही जवाबों के स्वरूप को भी अंजाने में देख लिया हो। लेकिन फिर भी मुझसे रहा नही गया.. और मैंने थोड़ी हिम्मत दिखाई और पास खड़ी एक महिला से पूछ ही बैठा.... की आप सब कहाँ से लौट रहीं हैं? फिर जो जवाब मिला वो वाकई हैरान कर देने वाला था.. इसलिए नही की उस कृत में धर्म और अध्यात्म का सार था.. बल्कि इसलिए की इतने कष्ट को उठा ये किस सिद्ध-सृजन में तल्लिंन हैं। " बेटा, लिट्टी-चोखा मेला खातिर गेल रही..।" इतना कह वो मुस्कुराने लगी थी.. और मैं अचरज में था। आख़िर इतनी विषम परिस्थितियों में भी ये कैसा गुरुत्व का आकर्षण था। वृद्ध-अधेड़ महिलाओं और बच्चों को छोड़ कोई भी नहीं था साथ उनके इस सफ़र में.. फिर उस भीड़ से निकला एक लोक-गीत जो अब तक मेरे कानों में गूँज रहा है..
"बेटा ना पूछे.. बाबू ना पूछे.. ना पूछे पिरितया हमार हो.."। ब्रम्हांड की इतनी पुरातन सभ्यता का ये कैसा रुदन था? आज भी इन अभिसप्त रुदालियो का कैसा क्रंदन है.. जिनके मर्म की स्पष्टताओं को भेदने वाला कूदाली शायद ही चल सके.. फिर राम की मैली गंगा.. मैली ही सही..।
इसी तरह के एक सफ़र में.. ट्रेन में एक रोज़ बक्सर ग्रामीण अंचल के एक जुझारू व्यक्तित्व का भी साक्षात्कार मिला। बातों बातों में ही मेरी कुछ बातें उन्हें भी रोचक लगी.. और उन्होने मुझसे हिंदी कंप्यूटर टाइपिंग से रिलेटेड कुछ मदद भी माँगी। बक्सर स्टेशन पे उन्होने खादी के थैले से निकाल अपने भूभागीय डेवलपमेंट व सौन्दर्यीकरण से संबंधित अनेकानेक लेखों का जखीरा मुझे दिखाया। सब के सब.. कुछ यूँ कहें उस धरती की आवाज़ ही थी.. और बीते वर्षो के मेरे लेखों में भी ये बहुत कुछ परिलक्षित हो ही जाता है। वो वर्षों से अपनी इस आवाज़ को दिल्ली बैठे आला-कमान तक पहुँचाते रहे हैं.. और हस्र ये कि.. दिल्ली दूर जाते-जाते.. यहाँ के गुरुत्व स्वर ही गुम हो जाते हैं.. तो रुदन तो सुनने को मिलेगा ही.. एक ब्रम्ह के विज्ञान से कुछ कम तो नहीं..।
Vinayak Ranjan
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