Friday, 14 September 2018

..आओ एक फिल्म बनाऐं

...आओ एक फिल्म बनाऐं ..कहीं दूर नहीँ ..यहीं कुछ पास में ..अपने गाँव से थोङी दूर ..उस आम बगीचे के पीछे पुरानी तालाब के पास। ..कितनी शांति है यहाँ ..पेङ के एक शाख पे बैठ ..रंग-बिरंगे चिङीयों की चहचहाहट कितनी प्यारी लगती है ..एक आवाज चुप क्या होती ..दुसरी चालू हो जाती। गिलहरियों के दौङ को देखो.. एक के पीछे एक कितनी सारी गिलहरियाँ..। जी करता है इन्हें छू लूं.. गोद में भर लूं। ..मगर पास आकर भी ये भाग जाती हैं ..शायद थोङा डर जाती हैं। तालाब के हरे पानी में खिले कमल पे इतराते भौंरे.. औऱ नीचे मछलियों का तरनताल साफ दिखता है। हाँ.. और वो मृगों का झुंड जो हर रोज यहाँ पानी पीने जो आतें हैं.. उनके पीछे कुछ नन्हे शावकों की उछल-कूद..। तालाब से सटे उस पूराने शिव मंदिर की घंटियां भी रह रहकर बज उठती.. दृश्य-परिवर्तन को थोड़ा फ्रेमिंग करती.. पुजारी जी के शंख भी बज उठते.. क्यों न इस पवित्र-पावन को थोङा कैद कर लूं .. सावन की तीसरी सोमवारी एक फिल्म ही बना लूं।  ऊँ नम: शिवाय्.. 

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