Friday, 25 October 2019

पत्थर दिली संसार से निकलती वीणा की तान..🏞🏞

पिछले साल वर्ष २०१८ दिसंबर माह.. खबर मिली.. की मेरी बुआ पीसीमाँ का इलाज सिल्लीगुड़ी के एक अस्पताल में चल रहा है। उन्हें देखने की मंशा को लेकर अपने भावावेश में पटना से सिल्लीगुड़ी की ओर चल पड़ा। जीवन मर्मों से भरे बुआ के अनेकों स्नेह व प्रेम वाले दृश्य एक एक कर उभरते साथ चलने लगे। फिर वहाँ सुबह सुबह पहुंचकर जो पता चला की उस हॉस्पिटल में मरीजों से मिलने का समय १२ बजे दिन के बाद है। मैं तब सिल्लीगुड़ी बस स्टैंड के पास ही था। कभी सोचा भी नहीं था.. कि दार्जीलिंग से नीचे वाले इस जगह पे कभी इस कारणवश आना भी होगा। मन में एक असह्य सा दर्द समाया हुआ था.. एक बोझिल सा अकेला मैं और फिर कुछ प्रतिक्षा। इसके पहले भी इस जगह पे आना हुआ था.. अपने स्कूली दिनों में वर्ष १९९०.. जब हम अपने डॉन बॉस्को स्कूल के दोस्तों व सीनियरों के साथ यहाँ सिल्लीगुड़ी स्थित डॉन बॉस्को स्कूल के वार्षिक खेलकूद के कार्यक्रमों को देखने आऐ थे और फिर यहाँ से हम यहाँ से महज २० किमी स्थित पहाड़ों को जोड़ते एक ब्रीज भी देखने गए थे। पुरानी यादों के खेमे से रह रहकर बहुत कुछ दिखने लगा और फिर वर्ष १९८६-८७ में बुआ के साथ ही फूफेरे भाईयों बहन के साथ दार्जीलिंग का वो टूर भी याद आया और फिर आज इसी जगह बुआ को देखने भी आ पहुंचा था।

हाथ में समय को देख गुगल मैप पे अपना कैलकुलेशन चलने लगा। वो ब्रीज वाला जगह जो उस बस स्टैंड से महज ४०-४५ मिनट की दुरी पे था.. फिर उसके पहले एक सफारी पार्क भी दिखा। १२ बजे के पहले समय व्यतीत करने के इरादे और उस विषम परिस्थिति में भी खुद को कुछ पुष्ट किऐ रखने की चाह में.. पहले पास के ही होटल में चाय नाश्ता किया.. और सिल्लीगुड़ी से सटे कैलिम्पोंग वाले उस रास्ते पे निकल पड़ा। सिल्लीगुड़ी शहर से बाहर निकलते क्रम और ऊँचे ढलान पे उस मिनी बस का बढते चले जाना। सड़क के आसपास के खुबसुरत ऊँचे ऊँचे पेड़ों वाले खुबसूरत नजारों के बीच दिखते वे टीन व लकड़ी वाले पहाड़ों पे बसे घर। बस की खिड़की से बाहर की ओर मेरी नजर रह रहकर अपने गंतव्य ब्रीज वाले उस लोकेशन को भी गूगल मैप पे पास आते देख रही थी। अब तो मोबाईल वाली फोटोग्राफी के साथ मेरे साथ चलने वाला डिजीटल कैमरा भी बैग से निकल चुका था.. और इसी बीच आँखों में दूर से समाती एक सुरमयी हरी व नीली आभा उभर सी पड़ी.. वो इन पहाड़ों के बीच बहने वाली तिस्ता नदी थी.. और जैसे अब मैं अपने स्कूली दिनों में देखे गए उस ब्रीज के पास ही था।

..फिर जल्द ही उस ब्रिज के पास जा पहुंचा ..हवाऐं बड़ी तेज चल री थी। फिर उस ब्रिज के पास आकर जो नाम दिखा कोरोनेशन ब्रिज.. वहाँ इसे सेवोक या बाघ ब्रीज भी कहते हैं.. और फिर जान पड़ा सिल्लीगुड़ी व जलपाईगुड़ी को जोड़ता इसका रॉयल इतिहास भी। कुछ देर वहाँ व्यतीत करने और अपने दर्द को कम करते वहाँ के नैचुरल फोटोग्राफिक मनोरम दृश्यों को कैमरे में कैद कर ही.. वहाँ से वापस सिल्लीगुड़ी के ढलान वाले रास्ते पे अवस्थित एक सफारी पार्क आ पहुँचा और फिर ठीक १२ साढे १२ तक हॉस्पिटल आ गया और एक दिन वहाँ रुकने के बाद वापस पटना रिटर्न। https://en.m.wikipedia.org/wiki/Coronation_Bridge

करीब १० दिनों बाद जो बुआ के नहीं रहने की खबर आयी तो फिर सिल्लीगुड़ी आ पहुँचा और पूर्णियाँ से आते कुछ रिश्तेदारों के इंतज़ार में सिल्लीगुड़ी रेलवे स्टेशन वाले परिसर की ओर चला गया। एक शोकाकुल भाव को सांत्वना देते.. हिम्मत बनाऐ रखने के ख्याल से और आते परिजनों को राह बताने के ख्याल से वहीं कुछ देर रुके रहने को उचित समझ.. वहाँ स्टेशन से दार्जिलिंग की ओर  चलने वाली टॉय ट्रेन पे ध्यान गया तो उसे भी देखने समझने स्टेशन प्लेटफॉर्म की ओर निकल पड़ा। स्टेशन परिसर में पूछने पे पता चला कि यहाँ से दार्जिलिंग की ओर जाने वाली वो टॉय ट्रेन अब बंद हो चूकी है.. फिर किसी ने बताया कि अब वो जलपाईगुड़ी से चलती है।

इन सभी बातों के बीच स्टेशन के पूछताछ काउंटर से ज्ञात हुआ कि ये ट्रेन करीब आधे घंटे में जलपाईगुड़ी से यहाँ आऐगी और अब इस ट्रेन की टिकट बुकिंग अॉन लाईन इंटरनेट के माध्यम से महिने पहले ही करवानी होती है.. जो भी हो पास से ही सही अपने जमाने की इस विंटेज ट्रेन को थोड़ा निहारने के लिए.. इसकी फोटोग्राफी के लिए प्लेटफार्म टिकट लेकर रेलवे स्टेशन के भीतरी प्लेटफॉर्म वाले परिसर की ओर निकल गया.. और मेरे फोटोग्राफिक क्लिक्स एक एक कर उन दृश्यों को कैद करने लगे। पल में ख्याल आया.. राजेश खन्ना व शर्मिला टैगोर अभिनीत 'आराधना' फिल्म की 'मेरे सपनों की रानी' वाला मेलोडियस गाना.. फिर शर्मिला टैगोर के बेटे सैफ अली खान पे फिल्माऐ 'परिणिता' फिल्म का गाना और कितने ही वैसे फिल्मी शॉट्स जो यहाँ से ऊपर पहाड़ों की ओर जाते रास्तों व नजारों के बीच फिल्माऐ गए थे।

अब तो धीरे धीरे प्लेटफॉर्म में लोगों की भीड़ भी बढती जा रही थी.. और ट्रेन के प्लेटफार्म लगते ही एक संतुष्टि दायक फोटोग्राफिक मोमेंट्स के साथ.. अपने कुछ परिजनों को लिए तीस्ता नदी के बगल वाले उस मोक्षधाम को पहुंच पाया जहाँ मैं अपनी बीना फुआ का अंतिम दर्शन कर रहा था। ये मेरी पीसीमाँ की खुबसूरती से निकलती तानें ही थी.. जो इतने विपरीत क्षणों में भी मुझे कुछ अच्छा दिखा देने की जद्दोजहद में तल्लीन थी.. मैं पत्थरदिल बना रहा.. वक्त के सुलगते तानों में निकलते सजते मेरी बीना पीसीमाँ एक नए नदी सभ्यता को गले लगाती.. हमेशा के लिए हम सभों के आँखों से ओझल होती चली गयी।
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किस मिट्टी की वो वीणा गूंज है..


किस मिट्टी की वो वीणा गूंज है..
सुबह के उजाले में छिपता वो कैसा पूंज है..
मयुर की तानें मुंडेरों से निकलती..
धरा के वाशिन्दों में छाया जो धुंध है..
किस मिट्टी की वो वीणा गूंज है..

मंदिर के घड़ी घंटों की टन टन..
निकलते अजानों की पौ फट सन सन..
गिरजा भी गाते.. गुरुद्वारे सजाते..
खुद में समाते ये किसका रुंज है..
किस मिट्टी की वो वीणा गूंज है..
सुबह के उजाले में छिपता वो कैसा पूंज है..

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Tuesday, 22 October 2019

देवप्रयाग व प्रयागराज के संगमों से निकलता विप्रप्रयाग का ब्लूप्रिंट..

ये बात वर्ष २०१३ जनवरी की है। वर्ष २०१२ दिसंबर माह में बक्सर कॉलेज जॉय्न करने के बाद.. वहाँ आसपास की ग्रामीण नैसर्गिकताओं व प्राकृतिक संसाधनों ने मानों जैसे वर्षों से चल रहे एक आक्रांत मन को थोड़ा उपचार देने का काम करना प्रारंभ कर दिया था। मन वहाँ के असीमित लोक लुभावन वाले परिदृश्यों में ही जी भर कर जा घुलने को आतुर था। स्पष्टताऐं सृजित होती चली जा रही थी.. अपने शब्दों को एक निर्बाध शुद्धिकृत वर्णनों में छनता देख रहा था। साथ चल रहा क्लिक्स लेते कैमरे के जूमिंग लेंस उन नए चित्रों को जा मिल रहे थे.. जिन्हें शायद वर्षों से उकेर लिए जाने की एक तलाश सी थी.. आज के फिल्मांकन प्रसंगों में संभवतः ऐसे उद्धरणों को हम "वर्जिन लोकेशन" ही कहते हैं।
फिर जो भी हो.. उस कॉलेज के चेयरमैन के आभार व परस्पर समर्थनों से कॉलेज की ओर से प्रकाशित एक अर्धमासिक न्यूज बुलेटिन "संघतिया" में जीवन का पहला लेख प्रकाशित होते देख पाया। मानों एक सुखे पड़े अभिव्यक्त संसार को दवात की सुराही मिल गई हो। ये प्रकाशित लेख वी पी घोष के नाम से था.. प्रथम द्रष्टया मेरे चेयरमैन भी ये देख आश्चर्यचकित हुए कि मैने अपना नाम उस प्रकाशित लेख में सही सही क्यों नहीं दिया.. तो मैने ये कहते हुए जवाब दिया कि मेरे उस नाम को यहाँ कि पृष्ठभूमि ने अभी तक वो अधिकार नहीं दिऐ हैं जो मेरे स्वभाविक बल से है और फिर आज के मंजर में आपके अभिव्यक्तियों की आजादी कहाँ है.. हर कोई तो जैसे एक खामोशी की चादर ओढे गुमशुदा है ..इसलिए सर वी पी घोष ही ठीक है "विप्र प्रयाग घोष"।

..और फिर "विप्र प्रयाग" नाम का उस वक्त सहस ही दिख पड़ना ..ये आज भी अचंभित कर जाता है या फिर तो इस नाम को लिए मुझे जीवन के इस "विप्र वर्ण" में संभवतः एकबार तो उतरना ही था। यहाँ पहली बार इंटरव्यू को आते वक्त सोचा भी ना था कि यहाँ के जीवन का ये वृहत विस्तार मुझमें इस प्रकार प्रभावी हो जाऐगा.. मानों अनंत कालों की जठर अदृश्य शक्तियां ही थी जो तपस्या में लीन अपने हठ योगियों को थोड़ी पास बुलाने की जद्दोजहद में लगी हुई सी थी।

ग्रामीण व हरे भरे सनातन परिदृश्यों में खेतों के बीच पीपल व वट वृक्षों की छाया में ब्रह्म स्थलों का खिलखिलाता स्वरूप तो जैसे शीत मासों के गिरते ओसों में रची सनी गुदगुदाती सी। पटना दानापुर से पैसेंजर ट्रेनों से बनारस मुगलसराय रुट पे मेन स्टेशन आरा होकर जा पहुंचती कॉलेज के पास वाली वो एक छोटी से रेलवे स्टेशन "ट्रुलीगंज".. बस इस इंग्लिशिया नाम के सिवा दुर दुर तक कुछ भी इंग्लिश सा अब नहीं था वहाँ। फिर उस स्टेशन से दक्षिण की ओर जाती डुमराँव राज से पहले की वो पक्की सड़क.. और वहाँ से कॉलेज की ओर बढते इस क्रम में कभी पैदल का सफर तो कभी सवारी अॉटो जीप का मिल जाना।
राह से गुजरते शहरी आवरणों से कोसों दूर बसी एक मानवीय अवस्था रोड सटे इन कस्बों कुचों में दिख सी जाती। छप्पर व खपड़ैल वाले मिट्टी के घर.. बाहर जमें नादों के बगल बँधे गाय, बैलों व भैसों की कतारों में सजे पशुधन। पुआल के बोझों को माथे पे उठाए ले जाती ग्रामीण महिलाएँ तो रोजमर्रा के कामों में जूटे पुरुष वर्ग.. फिर तो बाहर ओसारे पे बैठे वृद्ध जनों को भी कंबल लपेटे देखता। ठूठ पड़ी उन आँखों पे लगे चश्में और उनके चौंधियाते दूर देखने की ललक परस्पर उनके अनुभवों को आज के बदलते परिदृश्य में जोड़े रखने में बड़े ही मुस्तैदी से अपना मोर्चा धान का कटोरा कहे जाने वाले इस पौराणिक प्रदेश में संभाले नजर आ ही जाते और.. मिलते इन सूक्ष्म अनुभूतियों को मैं अपने सूखे पड़े मस्तिष्क कोशिकाओं में रेगिस्तान के जहाज सा बखूबी सींचता चला जाता।

..अब मैं अचरजों को दूर किऐ स्थिर हो चला था ..भावुक प्रबलताओं के साथ एक मजबूत घेराबंदी की चादर बुनी जा रही थी। साँसे अनेकों विषमताओं से पड़े अपने मंजिल को पास देख पाने को
उन्मुक्त थी.. कि क्या इन जठर सुदूर हालातों में भी एक इंजीनियरिंग प्रतिष्ठान जन्म लेकर अपने वात्सल्य को जी सकता है.. और वो तो जीवित था उन वैज्ञानिक अनुक्रमों में। जीवन का एक श्रेष्ठतम प्रयास
शिक्षा के लिए.. महर्षि विश्वामित्र के क्षेत्र में। भारतीय उपमहाद्वीप के जिस पूरातन भूभाग ने सदियों से एक बर्बर व असभ्य प्रतिद्वंदों में खुद को अक्षुण्ण बनाए रखा और अपने योग शास्त्रों से ब्रह्मार्थ को बचा कर मानव सभ्यता को एक सटीक दिशा देने में अपनी उत्कृष्ट भूमिका निभायी तो इसी जमीन से निकले मनुस्वियों को अपना क्षेत्र तो सहस बुलाऐगा ही।

 फिर यही कुछ था जो यहाँ के एक प्रबुद्ध क्षत्रिय वर्गीय वैज्ञानिक ने एक नए स्तंभ निर्माण में इंजीनियरिंग कॉलेज की आधारशिला रखने का काम किया.. कि यहाँ आसपास के ग्रामीण युवा स्नातक स्तर की एक उच्च व विशेष इंजीनियरिंग पाठ्यक्रमों को अपने ही परिक्षेत्र में पढकर गौरवान्वित महसूस कर सकें.. और फिर इस साकारात्मक प्रयास को प्रारंभिक सफलता भी मिली.. लेकिन आज के राजनीतिक व जातिवादी शैक्षणिक ग्रहणों से खुद को बचा पाना भी एक गंभीर चुनौती समान साथ चलती दिख भी रही थी और वो भी तब जब आप भौगोलिक रुप से एक राजवंशीय सामंती परंपराओं के सन्निकट ही खड़े हो।
..पास के ही महाराजा डुमराँव राजगढ के दक्षिण पूर्व का ये क्षेत्र ..आतुरता ऐसी की कॉलेज से नजदीक के ही एक गाँव में चल रहे नवनिर्मित मंदिर की प्राण प्रतिष्ठा में चल रहे भजन कीर्तन के शंखनाद की गूंज में मन बरबस उस दृश्याग्नि की ओर निकल जाने को कर गया था। अंधेरे वाले सुबह की उस धुंध में खेत खलिहानों से होकर गुजरते प्रातः कालिन किरणों से जगमगाते मंजर में एक समृद्ध समाज के मध्य खुद को पाना ही सबकुछ था। फिर गाँव के ही एक दो परिवारों के वृद्ध जनों से परमहंस योगानन्द की "अॉटोबायोग्राफी अॉफ योगी" पुस्तक का मिल पाना और उस पुस्तक के लेख माध्यमों से युक्तेश्वर गिरि, लाहिड़ी महाशय व महावतार बाबाजी के हिमालय की अदृश्य श्रेणियों में छिपे योग तत्व का सहर्ष ही मिल पाना.. सच मानें तो ये सबकुछ एक चमत्कार से कम ना था और फिर मेरे उस विकट संघर्षों में भी जैसे मुझे अनुशासन की दीक्षा योग में बाँधे रखने का एक सटीक विकल्प.. जैसे गीता प्रेस गोरखपुर से प्रकाशित मासिक पत्रिका कल्याण के देवी देवताओं के सजीले चित्रों के बीच खेलते मेरे बचपन के उस मुख प्राण को अमृत की बूंदे मिल सी गयी हो।

मैं अपने एक अजीब से बचपने को जीवन के इस सूदूर अंत पे जीने को अब भी अमादा था तो मेरे पुत्र के रुप में एक बचपन मेरा पटना में इंतज़ार भी करता रहता। इसी क्रम में सप्ताह के अंत में
वापस पटना भी आना होता.. सबकुछ बचपना ही था.. और बनते इस जीवन अध्यात्म की नई कड़ी भी विप्र प्रयाग के रुप में स्वतः ही शब्दांकित होती चली जाती। वर्षों बाद जैसे मैं अब लिखने लगा था.. आत्म-बोध  से निकलती संतुष्टियाँ.. फिर इसे आप सेल्फ-रिऐलाईजेशन ही कह लें।

..कॉलेज के उस ग्राम्य परिसर व अन्यत्र दुर कस्बों से रोजाना की भांति बड़े मुस्तैदी से छात्र-छात्राओं को आता देखता। खेतों खलिहानों को लांघते इस दुरह अभियोजन में शालीनता सभ्य संस्कारों के साथ कूट कूट कर भरी हुई.. जैसे वैदिक संस्कारों की छाप आज भी यहाँ कुछ बची सी रह गई हो।

कॉलेज में आयोजित अनेकों कार्यक्रमों में भी प्रथम क्रम आसपास गाँवों के वृद्ध सज्जनों का ही होता। मानों सभामंडल की श्रेणियाँ आज भी सप्तर्षियों से सुसज्जित हो रखी हों। ग्रामीण परिवेश के
बीचोबीच इंजीनियरिंग निर्माण के इस अनूठे पहल ने जान ही फूँक रखी थी.. और फिर मैं भी अपने विशेष शोध क्रम में कैमरा लटकाऐ वहाँ पाऐ जाने वाले जीव-जंतुओं पक्षियों व
हरे भरे खेत खलिहानों के चित्रों को बटोर जाता.. ये सबकुछ एक चलंत चिड़िमारी से कम ना था। अपने रुझानों को पुख्ता किऐ आसपास के गाँवों को भी संध्या पहर में घूम आता.. कहीं गन्ने के रसों से बनते देशी मिठास के गुड़ चखने को मिल जाते तो कहीं मशीन से तैयार होते धान। अपने अपने अनुक्रमों में संलग्न एक जैविक तंत्र इन सुदूरों में भी खुद को एक उम्दा बाजार के लिए निरंतर तैयार करता ही रहता।

खेत खलिहानों व गाँवों के निरंतर भ्रमण में एक बार बक्सर के एक वरिष्ठ पत्रकार के साथ हम अपने कॉलेज चेयरमैन के पास ही के पैतृक गाँव के प्राईमरी स्कूल में थे। जिसका नाम था "संघतिया
प्राईमरी पाठशाला".. इस स्कूल में गाँव के ग्रामीण निर्धन बच्चे नि:शुल्क ही पढाई करते थे.. जिसकी देखरेख गाँव के ही रिटायर्ड वृद्ध जन करते तो इसके इस्टैबलिशमेंट व फाईनैंस की मॉनिटिरिंग मेरे कॉलेज के चेयरमैन के हाथों थी। सच में.. मेरे उस विजीट ने मन को काफी साहस देने का काम किया। मानों शैक्षणिक सार के एक वृहत विस्तृत व विराट स्वरूप को समझने बूझने की कोई सीमा ही नहीं रह गई हो। एक स्वरूप उच्च शिक्षाओं को ग्रहण कर मानवीय सेवाओं की ओर बढ जाती है तो नए कोपलों के सटीक संरक्षण की कोशिशें फिर से आतुर हो उठती हैं। मानव क्रम अपनी बौद्धिकता के साथ एक चेन प्रोसेस में आगे बढती दिखाई देने लगती है.. बगैर कौमा पूर्ण विराम के क्रमश: क्रमश: कतारबद्ध..

बक्सर के पूर्वी छोड़ पे खुले इस कॉलेज ने मानों समूचे क्षेत्र में एक नवीन संचार का काम किया था। कई सदियों से राजा महाराजाओं मुगलों सामंतों के हाथों जूझने के बाद भी जैसे भारतीय आजादी ने सही मायनों में इन इलाकों के बाशिंदों को एक खाली कटोरा पकड़ाने का ही काम किया था.. और फिर भी जीवटता ऐसी की ब्रह्म शक्तियों की चादर ओढे ये उन कटोरों को लिए ही चुपचाप बुद्ध की राह पकड़ लेने में ही मग्न थे।
फिर बौद्धिकता के रुप में जो कुछ भी प्राप्त था.. उनमें कृषि धन व पशुधन ही रोजमर्रा के साध्य थे तो ये फिर आज भी जीविका के आत्म केन्द्रित स्रोत बने ही हुए हैं। वर्षों बाद भी एक सही इंडस्ट्रियल मॉड्यूल.. चाहे वो एग्रो बेस्ड डेवलपमेंट के तर्ज पे क्यों ना हो.. लुप्त प्राय ही है। यहाँ के युवा एक साधारण सी टेक्निशियन के सर्टिफिकेट पे अपने घर बार को छोड़ आज भी नगर महानगर व खाड़ी देशों की ओर रोजगार की तलाश में विवशता वश
निकलते चले जाते हैं। राजाओं के समय के फैक्ट्रिओं के साथ अब तो पुराने मंदिरों में भी ताले जड़े दिख जाते हैं। काम की हताशा तो समझ में भी आती है लेकिन भक्ति भाव के इन मठों को भी आज किन शक्तियों का ग्रहण लग सा गया है.. जो जड़ से जुड़ी आस्था भी आज पलायित हो महज पास के काशी बनारस व प्रयागराज के घाटों की एक डुबकी से ही कुछ त्राण ले पाती हैं। जमीन से जुड़ी पशुधन संवर्धन के साथ बौद्धिक विस्तार के एक पहल को भी मैने यहाँ के कॉलेज में कुछ इस तरह देखा जो शायद दुनियां में एक अनोखा पहल हो। इंजीनियरिंग की चार साल की फीस महज पाँच गाय.. इन सचेष्ट प्रयासों से ही समझा जा सकता है कि यहाँ की मौलिक ऊर्जाओं के संवर्धन हेतु ये आज यहाँ क्यों आवश्यक है।

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शाम ऐ #गजल.. मेंहदी हसन के साथ.. 🎙🎙

हमेशा की तरह कैसेट सेल्फ के सामने टकटकी लगाऐ कैसेटों के कवरों को देखता रहता। फिर उन कैसेटों में हमेशा की तरह तीसरी मंजिल और एन ईवनिंग इन पेरिस फिल्म की कैसेट पैनासोनिक टेप रिकार्डर पे चलाया करता। १९८० दशक में लगभग सभी घरों पे ये म्युजिकल कॉर्नर कुछ कॉमन ही था। कहीं कम कैसेटे तो कहीं ज्यादा लेकिन इन कैसेटों का एक भरा पूरा कुनबा मौजूद तो लगभग सभी घरों में रहता था। फिर भला कौन हो जो उस वक्त की इन कैसेटों की इंजीनियरिंग से ना निकला हो.. और वो भी तब जब इन कैसेटों के रील टेप रिकॉर्डर के उस काले रबड़ वाले एक छोटे से पहिये में उलझ पड़ते हों। एक एक कर सारी बातें आज भी जेहन में ताजा हैं। फिर कुछ ऐसी ही फेहरिस्तों में वैसे कितने ही कैसेट्स टूटे उलछे रीलों में लिपटे सेल्फ का एक कोना पकड़े रहते जिनकी फिक्र करने वाला कोई नहीं होता। एक दिन ऐसा भी आया जब महीन चौमुखी ढांचे वाली छोटी सी स्क्रियु ड्राईवर से उन टूटे रील वाले कैसेटों के मरम्मत की बारी आयी। एक एक कर मैने लगभग सभी फिल्मी गानों व डायलॉग वाली कैसेटों की टूटी रीलों को सुलझा कर जोड़ तो दिया लेकिन कुछ टूटे रील वाले कैसेटों को यूं ही छोड़ दिया। ये छोड़े हुए कैसेट.. गजल संगीत के शहंशाह मेंहदी हसन के थे और फिर बचपन के दिनों में इनकी गजलों के उर्दू बोल और इन बोलों के मायने भला किस बच्चे के दिमागी पल्ले पड़े। हाँ कभी इनके कुछ नए एल्बम्स को पिताजी दोपहर को आराम के वक्त सुना करते। मेरी समझ में इनके सुर ताल बिल्कुल अजीब से थे.. और अन्य गानों के मुकाबले कुछ ज्यादा ही रुके हुए से जो ज्यादा समय लगाते। तब के समय की गजल गायकी में गुलाम अली, जगजीत व चित्रा सिंह, चंदन दास व तलत अजीज के गजलें कुछ समझ में आ भी जाती थी लेकिन मेंहदी हसन की शक्ल के साथ इनके शब्दों के व्याकरण अन्य कैसेट कवरों पे छाऐ बॉलीवुड स्टार्स व सिंगर्स के मुकाबले बड़े टेढे से लगते। हाँ एक "शोला था जल बुझा हूँ" पिताजी का पसंदीदा गजल जो आज भी याद है।

चहेते जगजीत सिंह की गजल फ्रेम से..🎶🎶🎙

१९८० के दौर में रीलिज होनें वाले बॉलीवुड फिल्मों के लाऊड स्पीकर वाले कान फोड़ू गानों से ठीक अलग कुछ गानें जो अक्सर रात के अंधेरे में हल्के से दस्तक दे जाते। एक कॉमन मैन कल्चर की जद्दोजहद के बीच खुद को तलाशती कितनी ही वजूदें अपने आशियाने में एक बड़े ही खुशमिजाजी से इन्हें पनाह दिऐ रहती। फिर उस वक्त के कुछ फेमस गानें जो दिन के शोर में आज भी बजते से लगते है.. "भँवरे ने खिलाया फूल फूल को.. ले गया राज कुँवर" "अरे कुछ नहीं है आता जब रोग ये लग जाता" फिल्म प्रेमरोग के गानें तो जैकी श्रॉफ स्टारर हीरो फिल्म का "तु मेरा जानु है" और पेंटर बाबु का "पेंटर बाबु आई लव यु"... लेकिन इन गानों से बिल्कुल अलग इंसानी जज्बातों की अंदरूनी कशीश से पिरोयी फिल्म प्रेमगीत, अर्थ और साथ-साथ के गानें और उन फिल्मों के कुछ कॉमन से दिखने वाले कलाकार। बिना किसी रॉक-स्टारनुमा राग आलाप के आखिर ऐसे फिल्मी कलाकार.. लाईफ के कौन से स्टोरीलाईन से निकले किरदारों को निभा रहे थे। क्या एक सभ्य सोसाइटी बिना किसी शोर गुल के इसी प्रकार रहती है.. मुस्कुराती और गाती है। आज भी फारुख शेख, नसीरूद्दीन शाह, कुलभूषण खरबंदा, स्मिता पाटील, शबाना आजमी, दीप्ति नवल जैसे उम्दा कलाकार एक खूबसूरत ख्यालों के इन नज्मों की फेहरिस्त में ही कसे हुए दिखते हैं तो फिर इन्हें इस फिराक में गुलफाम बनाने का काम किस आवाज ने किया था.. तो जेहन में सिर्फ और सिर्फ़ जगजीत सिंह की रुमानी आवाज ही सबसे पहले कौंधती दिखती है। "होंठों से छु लो तुम" फिल्म प्रेम गीत.. "झुकी झुकी सी नजर" "तुम इतना जो मुस्कुरा रहे हो" "तेरे खुशबू में बसे खत" फिल्म अर्थ और फिर फिल्म साथ-साथ का "प्यार मुझसे जो किया तुमने" "तुमको देखा तो ये ख्याल आया" जैसे वो तमाम गानें जिन्होने तब के भारतीय मिडिल क्लास लोकेशन वाले दिलों पे अपना झंडा बुलंद किया था।

उस दौर में ये सबकुछ कुछ ऐसा था कि तब के दौर के फिल्मों में गजलों का होंना एक सुपरहिट ऐलिमेंट जैसा था.. और फिर इन्हीं कुछ वजहों से बाद की बाजार, निकाह और उमराव जान जैसी लखनवी अंदाज वाली फिल्मों में सुप्रसिद्ध गजल गायक गुलाम अली के साथ नए उभरते गजल गायक तलत अजीज, भूपिंदर सिंह, पंकज उधास के गाऐ गजलें भी फिल्मों में हाथों हाथ ली गई। बाजार फिल्म में लता मंगेशकर का गाया "दिखाई दिऐ यूं".. भूपिंदर का "करोगे याद तो".. और तलत अजीज का "फिर छिड़ी रात.." आज भी जगजीत सिंह की सुपरहिट अर्थ और साथ-साथ फिल्म के साथ एक कम्पलीट कौम्बो पैक के रुप में याद आती है। निकाह फिल्म में गुलाम अली का कैटेलिस्टिक "चुपके चुपके रात दिन आँसू बहाना याद है.." भी अपने वक्त की माईलस्टोन बनी नजर आती है तो बाद के दिनों में पंकज उधास की गायी नाम फिल्म की सुपरहिट "चिट्ठी आयी है आयी है चिट्ठी आयी है"। १९८१ में आयी उमराव जान की एक गजल "जिंदगी जब भी तेरी बज्म लाती है हमें" तलत अजीज का गाया हुआ.. या यूं कहें इतने सारे समकालीन गजल गायकों के होते हुए भी.. इन सभों के बीच से जगजीत सिंह की गजलें जिस तरह से फिल्मी सर्किट से होती हुई एक मिडिल क्लास कॉमनमैन कल्चर की सौगात बन पायी.. ये खुद में बेमिसाल ही है।

वर्ष १९८८-८९ मेरी बड़ी बहन का कॉलेज में आने के बाद धीरे-धीरे जगजीत सिंह के म्यूजिकल एल्बम कैसेट्स बढते ही चले गए.. या यूं कहें उस वक्त भारतीय युवा वर्ग जगजीत सिंह के गजलों की चादर ओढे ही सोता था। वेस्ट में माईकल जैक्सन था तो भारत में जगजीत सिंह का कल्चर बन निकला था। मेंहदी हसन के बाद अब जगजीत सिंह और साथ में कुछ तलत अजीज के एल्बम कैसेट्स के तादाद भी बढते चले गए.. लेकिन फिर मेरे आरंभिक कॉलेजिया दिनों में जगजीत सिंह की गजलें मानों एक रियल जगत जीतने की तलाश में निकल पड़ी हो। "..एक ब्राह्मण ने कहा है कि ये साल अच्छा है" "..अब मैं राशन की कतारों में नजर आता हूँ" वस्तुत ऐसे एक्सपेरिमेंटल एट्रिब्यूट्स ही जगजीत सिंह को टकराते पैमानों की दिलकश महफिल से निकाल आज की बदलते भारत की सरजमीं पे गजल गायकी के एक मसीहा के रुप में स्थापित कर पाऐ। इनके एल्बम कैसेट्स मुबारक मौकों पर आर्चीस गैलेरी की ग्रीटिंग कार्डों के साथ एक गिफ्ट के रूप में एक विशेष मुकाम हासिल कर चूकी थी.. गजल गायकी का पॉपुलर कल्चर के रुप में इस कदर आगे बढ निकलना अपने तरह का एक आध्यात्मिक सूफिज्म नहीं तो और क्या है!!

https://youtu.be/JbwY0RIV7jo #JagjitSingh

- Vinayak Ranjan