Friday, 25 October 2019

पत्थर दिली संसार से निकलती वीणा की तान..🏞🏞

पिछले साल वर्ष २०१८ दिसंबर माह.. खबर मिली.. की मेरी बुआ पीसीमाँ का इलाज सिल्लीगुड़ी के एक अस्पताल में चल रहा है। उन्हें देखने की मंशा को लेकर अपने भावावेश में पटना से सिल्लीगुड़ी की ओर चल पड़ा। जीवन मर्मों से भरे बुआ के अनेकों स्नेह व प्रेम वाले दृश्य एक एक कर उभरते साथ चलने लगे। फिर वहाँ सुबह सुबह पहुंचकर जो पता चला की उस हॉस्पिटल में मरीजों से मिलने का समय १२ बजे दिन के बाद है। मैं तब सिल्लीगुड़ी बस स्टैंड के पास ही था। कभी सोचा भी नहीं था.. कि दार्जीलिंग से नीचे वाले इस जगह पे कभी इस कारणवश आना भी होगा। मन में एक असह्य सा दर्द समाया हुआ था.. एक बोझिल सा अकेला मैं और फिर कुछ प्रतिक्षा। इसके पहले भी इस जगह पे आना हुआ था.. अपने स्कूली दिनों में वर्ष १९९०.. जब हम अपने डॉन बॉस्को स्कूल के दोस्तों व सीनियरों के साथ यहाँ सिल्लीगुड़ी स्थित डॉन बॉस्को स्कूल के वार्षिक खेलकूद के कार्यक्रमों को देखने आऐ थे और फिर यहाँ से हम यहाँ से महज २० किमी स्थित पहाड़ों को जोड़ते एक ब्रीज भी देखने गए थे। पुरानी यादों के खेमे से रह रहकर बहुत कुछ दिखने लगा और फिर वर्ष १९८६-८७ में बुआ के साथ ही फूफेरे भाईयों बहन के साथ दार्जीलिंग का वो टूर भी याद आया और फिर आज इसी जगह बुआ को देखने भी आ पहुंचा था।

हाथ में समय को देख गुगल मैप पे अपना कैलकुलेशन चलने लगा। वो ब्रीज वाला जगह जो उस बस स्टैंड से महज ४०-४५ मिनट की दुरी पे था.. फिर उसके पहले एक सफारी पार्क भी दिखा। १२ बजे के पहले समय व्यतीत करने के इरादे और उस विषम परिस्थिति में भी खुद को कुछ पुष्ट किऐ रखने की चाह में.. पहले पास के ही होटल में चाय नाश्ता किया.. और सिल्लीगुड़ी से सटे कैलिम्पोंग वाले उस रास्ते पे निकल पड़ा। सिल्लीगुड़ी शहर से बाहर निकलते क्रम और ऊँचे ढलान पे उस मिनी बस का बढते चले जाना। सड़क के आसपास के खुबसुरत ऊँचे ऊँचे पेड़ों वाले खुबसूरत नजारों के बीच दिखते वे टीन व लकड़ी वाले पहाड़ों पे बसे घर। बस की खिड़की से बाहर की ओर मेरी नजर रह रहकर अपने गंतव्य ब्रीज वाले उस लोकेशन को भी गूगल मैप पे पास आते देख रही थी। अब तो मोबाईल वाली फोटोग्राफी के साथ मेरे साथ चलने वाला डिजीटल कैमरा भी बैग से निकल चुका था.. और इसी बीच आँखों में दूर से समाती एक सुरमयी हरी व नीली आभा उभर सी पड़ी.. वो इन पहाड़ों के बीच बहने वाली तिस्ता नदी थी.. और जैसे अब मैं अपने स्कूली दिनों में देखे गए उस ब्रीज के पास ही था।

..फिर जल्द ही उस ब्रिज के पास जा पहुंचा ..हवाऐं बड़ी तेज चल री थी। फिर उस ब्रिज के पास आकर जो नाम दिखा कोरोनेशन ब्रिज.. वहाँ इसे सेवोक या बाघ ब्रीज भी कहते हैं.. और फिर जान पड़ा सिल्लीगुड़ी व जलपाईगुड़ी को जोड़ता इसका रॉयल इतिहास भी। कुछ देर वहाँ व्यतीत करने और अपने दर्द को कम करते वहाँ के नैचुरल फोटोग्राफिक मनोरम दृश्यों को कैमरे में कैद कर ही.. वहाँ से वापस सिल्लीगुड़ी के ढलान वाले रास्ते पे अवस्थित एक सफारी पार्क आ पहुँचा और फिर ठीक १२ साढे १२ तक हॉस्पिटल आ गया और एक दिन वहाँ रुकने के बाद वापस पटना रिटर्न। https://en.m.wikipedia.org/wiki/Coronation_Bridge

करीब १० दिनों बाद जो बुआ के नहीं रहने की खबर आयी तो फिर सिल्लीगुड़ी आ पहुँचा और पूर्णियाँ से आते कुछ रिश्तेदारों के इंतज़ार में सिल्लीगुड़ी रेलवे स्टेशन वाले परिसर की ओर चला गया। एक शोकाकुल भाव को सांत्वना देते.. हिम्मत बनाऐ रखने के ख्याल से और आते परिजनों को राह बताने के ख्याल से वहीं कुछ देर रुके रहने को उचित समझ.. वहाँ स्टेशन से दार्जिलिंग की ओर  चलने वाली टॉय ट्रेन पे ध्यान गया तो उसे भी देखने समझने स्टेशन प्लेटफॉर्म की ओर निकल पड़ा। स्टेशन परिसर में पूछने पे पता चला कि यहाँ से दार्जिलिंग की ओर जाने वाली वो टॉय ट्रेन अब बंद हो चूकी है.. फिर किसी ने बताया कि अब वो जलपाईगुड़ी से चलती है।

इन सभी बातों के बीच स्टेशन के पूछताछ काउंटर से ज्ञात हुआ कि ये ट्रेन करीब आधे घंटे में जलपाईगुड़ी से यहाँ आऐगी और अब इस ट्रेन की टिकट बुकिंग अॉन लाईन इंटरनेट के माध्यम से महिने पहले ही करवानी होती है.. जो भी हो पास से ही सही अपने जमाने की इस विंटेज ट्रेन को थोड़ा निहारने के लिए.. इसकी फोटोग्राफी के लिए प्लेटफार्म टिकट लेकर रेलवे स्टेशन के भीतरी प्लेटफॉर्म वाले परिसर की ओर निकल गया.. और मेरे फोटोग्राफिक क्लिक्स एक एक कर उन दृश्यों को कैद करने लगे। पल में ख्याल आया.. राजेश खन्ना व शर्मिला टैगोर अभिनीत 'आराधना' फिल्म की 'मेरे सपनों की रानी' वाला मेलोडियस गाना.. फिर शर्मिला टैगोर के बेटे सैफ अली खान पे फिल्माऐ 'परिणिता' फिल्म का गाना और कितने ही वैसे फिल्मी शॉट्स जो यहाँ से ऊपर पहाड़ों की ओर जाते रास्तों व नजारों के बीच फिल्माऐ गए थे।

अब तो धीरे धीरे प्लेटफॉर्म में लोगों की भीड़ भी बढती जा रही थी.. और ट्रेन के प्लेटफार्म लगते ही एक संतुष्टि दायक फोटोग्राफिक मोमेंट्स के साथ.. अपने कुछ परिजनों को लिए तीस्ता नदी के बगल वाले उस मोक्षधाम को पहुंच पाया जहाँ मैं अपनी बीना फुआ का अंतिम दर्शन कर रहा था। ये मेरी पीसीमाँ की खुबसूरती से निकलती तानें ही थी.. जो इतने विपरीत क्षणों में भी मुझे कुछ अच्छा दिखा देने की जद्दोजहद में तल्लीन थी.. मैं पत्थरदिल बना रहा.. वक्त के सुलगते तानों में निकलते सजते मेरी बीना पीसीमाँ एक नए नदी सभ्यता को गले लगाती.. हमेशा के लिए हम सभों के आँखों से ओझल होती चली गयी।
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किस मिट्टी की वो वीणा गूंज है..


किस मिट्टी की वो वीणा गूंज है..
सुबह के उजाले में छिपता वो कैसा पूंज है..
मयुर की तानें मुंडेरों से निकलती..
धरा के वाशिन्दों में छाया जो धुंध है..
किस मिट्टी की वो वीणा गूंज है..

मंदिर के घड़ी घंटों की टन टन..
निकलते अजानों की पौ फट सन सन..
गिरजा भी गाते.. गुरुद्वारे सजाते..
खुद में समाते ये किसका रुंज है..
किस मिट्टी की वो वीणा गूंज है..
सुबह के उजाले में छिपता वो कैसा पूंज है..

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1 comment:

  1. Such a marvelous description...

    Aap toh dard ko bhi dawa ki Tarah Bayaan karte hain...

    Zindagi k iss shashwat satya ka maarmik varnan...

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