बात कुछ दिन पहले की है.. पूर्णिया के आर. एन. शॉ. चौक हनुमान मंदिर से सटी साहित्य पुस्तकों की एक मंदिर..। हमेशा की तरह मंदिर में पूजा कर उस साहित्य सदन को साधा.. तो ठीक सामने रखी एक पुस्तक.. साहित्य सम्राट कालिदास रचित "अभिज्ञान शाकुन्तलॅम" दिख गई। इस दिव्य रचना को पढ़ने का मन तो बहूत दिनो पहले से था.. पर अब तक अपने साहित्य संग्रह में इसके स्थान का सौभाग्य मिला न था। ..रात को भोजन पश्चात थोड़ा दुष्यंत बन.. उस विधा को पढ़ता चला गया..। फिर उस दुष्यंत व शकुंतला के अद्भूत मधुर-रस योग में नींद ने भी अपनी खलल डाल ही दी..।
http://abhigyanshakuntlam.blogspot.in/2012/03/introduction-to-abhigyanshakuntalam.html
सुबह उठते ही पहला ध्यान जो आया.. वो ये था की इस माधुर्य व विरही रसों की वृत्तियों को आज के साहित्यकारों ने भी कितना सहेज कर रखा हुआ है.. अपनी अपनी रचनाओं में..। फिर इनकी कुछ झलक शरतचंद्र के उपन्यासो में तो कुछ फणीस्वर नाथ रेणु की कहानी संग्रहों में भी दिखाई दे ही जाती है..। वर्ष 2007 में रेणु ग्राम की यात्रा के बाद तो जैसे... साहित्य भी बहुत कुछ विरह आवेशित ही प्रतीत होता नजर आने लगा है..।
मन में चल रहे कुछ ऐसे ही उथल पुथल आभाशों के साथ अपने घर के दैनिक प्रक्रियाओं में पटना के कबाड़ से खरीदी एक पुरानी शोध पुस्तक हाथ लगी.. साहेबगंज कॉलेज हिन्दी विभाग के प्रो. डॉ. जगन्नाथ ओझा की.. " हिन्दी उपन्यास और शरतचंद्र "..फिर उस पुस्तक के कुछ शुरुआती पन्नो के उल्लेखों को देख दंग रह गया की.. कैसे शरतचंद्र की रचनाओं को पारंपरिक बांग्ला साहित्यकारों के साथ साथ हिन्दी साहित्यकारों ने भी सराहा है.. और तो और उनकी रचनाओं के तुलनात्मक अध्ययन में अभिज्ञान शाकुनतलम के छंदों का भी स्पष्ट ज़िक्र किया गया है। ..इन संदर्भों को देख फिर तो जैसे मेरे अल्प-साहित्य भावों को भी थोड़ा रचनात्मक समर्थन मिल ही गया। मन में मनोकुल प्रसन्नता भी छायी तो असीम संतुष्टि मिलती भी दिखी.. जैसे मैं अपने आरोहन में बढ चला था।
http://forum.banglalibrary.org/viewtopic.php?pid=23965#p23965
http://ianwoolford.wordpress.com/2014/03/04/happy-birthday-phanishwarnath-renu/
जीवन में मिलने वाली इस तरह संपुष्टियों के रचयिता तो आप ही हैं.. और फिर तो जैसे इस साहित्योलोलुप क्रियेटिव प्रक्रिया में मिलने वाली पहली पुष्टि का ज़िक्र तो मैं कर ही सकता हूँ..।
बात नागपुर महाराष्ट्र के उन दिनो की है... जब २००१ में अपने इंजिनियरिंग के दौरान फाइनल ईयर में.. एक लघु-नाट्य का निर्देशन किया था.. शीर्षक था.. " Implementation of Artificial Intelligence on Human Life"....उस स्किट के सफल प्रस्तुतीकरण के कुछ दिनो बाद मेरे एक मित्र ने मुझे अपने घर पे बुलाया। दोस्तों में कुछ ही ऐसे दोस्त होते है... जिन्हे आपकी थोड़ी फ़िक्र तो थोड़ी कद्र भी होती है। वो अक्सर मेरे ऐसे प्रयासों को ध्यान पूर्वक देखता... समीक्षा करता... और फिर फीडबॅक भी देता..। जैसे ही मैं उसके घर पे गया... उसने मुझे एक फिल्म दिखाई... हॉलीवुड के विख्यात निर्देशक स्टीवन स्पीलबर्ग की.. " आर्टिफिशियल इंटेलिजेन्स"। उस फिल्म को देख मन ही मन मैं अभिभूत हो रहा था... ये देख मेरे मित्र ने मुस्कुरा कर कहा... तुम अपने उस स्किट में इसी थीम को दिखाना चाह रहे थे ना..।
आज लग रहा मानो ये सब कुछ आर्टिफिशियल इंटेलिजेन्स (Artificial Intelligence) सब्जेक्ट की बॅक्वर्ड चेनिंग (Backward Chaining) जैसा ही था...
http://www.webopedia.com/TERM/B/backward_chaining.html
Vipra Prayag
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