Monday, 11 May 2015

ये है Mumbai.. मेरी जान...


"टेरेस खाली है क्या..?" जवाब जो मिला.. "ओए..  तू.. किधर से आया है बे..? तेरे को दिख नहीं रहा.. क्यूँ..  बाहर बारिश हो रेली  है.. क्या..!! " अगल-बगल की दो- तीन आँखें मुझ पे मुस्कुरा रही थी..| फिर कुछ देर रुकने के बाद.. मैं जिस रास्ते से गया था.. उसी रास्ते अकेले वापस लौट रहा था| गर्मी के दिनो में आसमान से गिरते मुंबई के बे-मौसम बरसात के बीच हाथ में छाता लिए.. मैं चला जा रहा था| ये बात १९९७ जुलाइ की है|

महाराष्ट्रा इंजिनियरिंग कॉलेज अड्मिशन की कौंसिलिंग के लिए मुंबई आया था.. और साथ में थे.. मेरे दादाजी| मेरिट लिस्ट में नाम होने के बावजूद.. कुछ डॉक्युमेंट ना होने की वजह से एक दिन के लिए मुंबई रुक जाना पड़ा था| आज भी याद है.. हम अपने बिहार से पुणे होते हुए.. डेक्कन क्वीन एक्सप्रेस पकड़ मुंबई को आए थे| फिर दादर से मुंबइया बेस्ट बस पकड़.. हम सरदार पटेल कॉलेज अंधेरी वेस्ट को आए थे| सरदार पटेल कॉलेज का नज़ारा चकरा देने वाला था| बॉलीवुड फिल्मों की कॉलेज कल्चर पहली बार आँखों के सामने जो थी| युवा फॅशन चरम पे थी..| ढीक-चीक ढीक-चीक करती गाड़ियाँ.. और उन कारों में जोश देखते ही बन रही थी| कुछ लड़के.. अपनी फर्राटा गाड़ियों से स्टंट पे स्टंट किए जा रहे थे.. | कुछ वर्षों पहले अजय देवगन की फिल्म "फूल और काँटे" जैसी..|



 मैं रोमांचित था.. मुंबई नगरी में खो सा गया था..| फिर अड्मिशन कौंसिलिंग के दौरान कुछ-एक डॉक्युमेंट के कमी के कारण.. मेरी अड्मिशन उस दिन नहीं हो पायी.. सो हमें अगले दिन तक का इंतेज़ार भी करना था| गर्मी काफ़ी थी.. और वो भी उमस भरी गर्मी..| कॉलेज के बाहर जगह-जगह दिखे नींबू पानी वाले.. और फिर मॅंगो-शेक भी पिया था.. वाकई मुंबई का मॅंगो-शेक..|

हम कॉलेज के बाहर निकले ही थे.. की दादाजी ने कहा.. यहाँ से चन्द कदमों में ही उनके बचपन के मित्र का फ्लैट है..| उनकी खुशी देखते ही बन रही थी..| मैने अपने जीवन में कभी-कभी ही उन्हें इतना खूश होते कभी देखा होगा शायद..| फिर उस दुपहरी हम दोनो मुंबई की धूप से बचते बचाते.. लोगो से पता पूछते आगे की ओर बढ़ते जा रहे थे| चलते-चलते अपने बचपन की कहानी भी बताते..| उनके मित्र यहाँ मुंबई टाइम्स ऑफ इंडिया के एडिटर थे.. और कुछ वर्षों पहले ही उनका निधन हुआ था.. इस बात को उन्होने मुझे उनके घर पहुँचने के करीब ही बताया| फिर भी उनके घरवालों से मिलने की उनकी खुशी बड़ी आत्मीय सी थी| अब उनके घर उनकी पत्नी और उनके बच्चे ही रहते थे| सौभाग्य से उनके घर पहुँचते ही.. उनके बेसमेंट वाले फ्लॅट के सामने एक वृद्ध महिला हमें दिखाई दी..| नज़दीक जाने पे.. मेरे दादाजी ने एक दूसरे को पहचान लिया..| हमें देख वो बड़ी आहलादित हो उठीं| वो भी हमारे भागलपुर गाँव की ही थी.. हमें सहर्ष अपने घर को ले गयीं.. और हमारे भागलपुर की बोलचाल की भाषा अंगीका के बोल.. बात-चित के क्रम में सुनने को मिलने लगे| उस दोपहर उनकी दोनो बहुओं ने भी हमारे स्वागत में कोई कमी ना की..| फिर हमने दिन का खाना भी खाया.. और आराम भी किया..|


दिन भर भारी थकान के कारण नींद भी अच्छी हुई..| हम जागे तो शाम के सात बज रहे थे| अब हमें चलना था.. लेकिन वो हमें जाने देना नहीं चाहती थी| कुछ देर बाद उनके बड़े बेटे के आने के बाद.. उन्होने कुछ पास के होटेलों में कमरे के लिए फोन लगाया.. फिर  मुझे एक होटेल का विजिटिंग कार्ड दिया और कहा.. पता कीजिए वहाँ टेरेस खाली है की नहीं..| इस टेरेस शब्द से मैं अंजान था.. और फिर बे-मौसम बरसात..| सच में यहाँ बहूत कुछ बे-मौसम ही तो है... बड़े शहरों की कुछ बात ही निराली है..| बड़े शहर.. कमरे छोटे-छोटे..| मगर... दिल और बिल दोनो बड़े-बड़े...| कल हमें कोंसिल्लिंग के लिए सरदार पटेल कॉलेज जल्दी पहुँचना था.. इसलिए हम आस-पास के होटेलों में कमरे देखने लगे.. लेकिन सारे-के-सारे हाउस-फुल..| लौटते वक़्त.. मैने उन वृद्ध आँखों में कुछ नमी सी देखी थी..| जैसे किसी अग्यातवास से लौटने के बाद भी.. फिर वो दूर जा रही हो मानो.. किसी अदृश्य की ओर..|

फिर अचानक दादाजी ने एक ऑटो को हाथ दिया.. और  हम अंधेरी रेलवे-स्टेशन की ओर चल पड़े| बाहर बारिश की बौछारें तेज हो गयी थी.. और रह-रह कर कौंधती बिजली..| अंधेरी पहुँच हमने.. लोकल ट्रेन को पकड़ा.. विक्टोरीया टर्मिनस के लिए| रात के नौ बज रहे होंगे.. उस फर्राटा भरती ट्रेन में.. इक्का-दुक्का लोग ही सफ़र कर रहे थे..| कुछ बच्चे दिखे.. उस चलती ट्रेन में भागा-दौड़ी करते हुए.. बिल्कुल भींगे हुए से..| ट्रेन की सीट के उपर-नीचे देखते.. जो कुछ कचरा मिलता.. अपनी झोली में भर लेते.. लेकिन थे काफ़ी खुश-मिज़ाज.. आख़िर उम्र के किस बे-मौसम मार से गुजर रहे थे..| उस बरसाती रात में भी उनकी खोज चालू जो थी.. या फिर मुंबइया जुनून..| फिर दूर से दिखाई पड़ा.. ब्रेबॉन क्रिकेट स्टेडियम.. दूधिया रोशनी से नहाता हुआ..| अरे हाँ.. मैं तो सचिन तेंदुलकर के शहर में था.. विनोद कांबली.. सुनील गावसकर भी.. सब तो इसी शहर में रहते हैं ना.. इन्ही सोचो में खोया हुआ सा मैं..|



 वी. टी. स्टेशन अब हम पहुँच चुके थे.. विक्टोरीया टर्मिनस का लिटिल फॉर्म वी. टी. | फिर हम उस बड़े स्टेशन की यात्री-निवास को जाने वाली सीढ़ियों को चढ़ने लगे.. जो की दूसरे मंज़िल पे थी| दर्शन बिल्कुल रॉयल सा.. अँग्रेजनुमा जो थी.. फर्श संगमरमर के.. एक दम फन्नास..| दादाजी ने कहा.. यहाँ काफ़ी जगह रहती है.. और सेफ भी है.. लेकिन ये क्या.. अंदर तो पैर रखने की जगह भी नहीं थी..| थक-हार हम बाहर उसके बरामदे पे ही खड़े रहे.. बाहर होती बारिश के कारण.. अंदर थोड़ी ठंड भी बढ़ गयी थी..| हमारे साथ वहाँ कुछ और लोग भी थे.. इतने में दादाजी ने इशारा कर मुझे दिखाया.. एक विदेशी युवा-जोड़ा.. एक दम साथ में चिपके हुए.. साथ बैठे.. शायद उन्हें भी ठंड लग रही थी..| दादाजी ने कहा.. "देखो ये फोरेंन से आए हैं.. वो भी यहीं इसी फर्श पे ही बैठे है.. चलो हम भी यहीं बैठ जाते हैं.. थोड़ा आराम भी कर सकते हो.." और अपने बॅग से कुछ पुराने न्यूज-पेपर को निकाल फर्श पे बिछा दिया..| वाकई शानदार अनुभव था.. फिर मैं एक एयर-बॅग को सिरहाने लिए.. थोड़ा लेट सा गया..| मुझको ठंड लगता देख.. दादाजी ने अपना भागलपुरी डल चादर मुझको ओढ़ा दिया.. और कहा.. "भूख तो लगी होगी..  मैं आता हूँ.. बाहर से कुछ लेके.. तुम यहीं रहना.."|


दादाजी के जाने के बाद.. उस जगह मैं अकेला फर्श पे लेटा हुआ था..| समय-समय पे आती रेलवे नियंत्रण कक्ष से.. ट्रेनो की आने-जाने की सूचना..| बॉलीवुड के कितने ही सितारे अपने सपने सजोयें मुंबई के इसी अंतिम स्टेशन पे आए होंगे..| उस विशाल स्टेशन की साजो-सज्जा मुझे गुरुदत्त के ब्लॅक एंड वाइट फ़िल्मो की यादों में लिए जाने लगी.. जिनकी फिल्मों को मैने बचपन में देख रखा था.. फिर कभी राज कपूर.. कभी देव आनंद.. तो कभी दिलीप कुमार.. सब तो इसी नगरी के दीवाने रहे होंगे| फिर कुछ मिनटों बाद दादाजी गरमागरम बड़ा पाव और ब्रेड-आमलेट लेकर आए| उन्होने कहा.. "ये बड़ा पाव यहाँ का फेवरेट है.."| मुझे भूख जोरों की लगी थी..| दादाजी ने कहा मैं खाकर आया हूँ.. तुम सारा खा लो..| खाने के बाद मैं और दादाजी ने अगले दिन की प्लानिंग की और फिर वहीं बातें-बातें करते करते सो गये|


बचपन से ही दादाजी के साथ का सफ़र हमेशा ही सुहाना होता..| नई-नई बातें सीखने को मिलती..| बातों-बातों में उन्होने कहा.. "ये शहर बहूत ही मँहगा है.. बहूत से लड़के यहाँ पढ़ाई के साथ-साथ पार्ट-टाइम जॉब भी करते हैं.. ऑटो.. टॅक्सी भी चलातें हैं.." और भी बहूत सारी दुनिया-दारी की बातें.. जैसे वे मेरी कंडीशनिंग कर रहे हों| बातें करते करते मुझे कब नींद आ गयी.. पता ही नही चला| फिर करीब एक-डेढ़ घंटे बाद नींद खुली तो देखा.. दादाजी जागे हुए हैं.. और अपने बिहार का सत्तू सान रहे हैं..| मैने कहा.. " दादूजी अभी तक सोए नहीं.."| वो बस मुस्कुराए जा रहे थे.. और मेरे अनुभव का भंडार बढ़ता जा रहा था| वो अपने सफ़र में थोड़ा घर का सत्तू.. चना.. मिर्च.. आचार.. चूड़ा.. सब लेकर ही चलते थे| फिर मैने भी एक सत्तू की गुल्ली खायी.. उस रात वी. टी. स्टेशन पे.. और फिर पानी पीकर सो गया..| सोते-सोते  जो ख्याल आया..  सुनील दत्त की फिल्म.. रेलवे-प्लॅटफॉर्म..किशोर कुमार की चलती का नाम गाड़ी और हाफ़-टिकट.. देव आनंद की बंबई का बाबू और टॅक्सी-ड्राइवर.. गुरुदत्त की मिसटर एंड मिसेज़ 55..|



 सब के सब इसी मुंबई की भेंट.. जिनके  नामों को अक्सर घर पे रखे पुराने गानों की कैसेटों के कवर पे देखा करता था| उस रात सब के सब बड़े नज़दीक ही थे.. बिल्कुल आसपास..|


अगली सुबह ४ बजे ही दादाजी ने उठा दिया.. जल्दी-जल्दी नहा-धोकर हम अंधेरी को पहुँचे| बॅंकिंग सिस्टम भी यहाँ मॉर्निंग शिफ्ट में पहली बार देखा.. फिर ट्रॅवेलर्स चेक से ड्राफ्ट बनवाई.. एक एड्वोकेट से कुछ अफिडेविट भी.. फिर जाके अड्मिशन संभव हो पाया था..| काफ़ी भागा-दौरी करनी पड़ी थी.. उस सुबह..| वहाँ से लौटते वक़्त दादाजी ने कहा.. कल हम जिनके घर गये थे.. उन्हें फोन करदो की अड्मिशन सकुशल हो गया..| पुरानी यादों के प्रति उनकी इतनी ईमानदारी से मैं हैरान था| फिर वहाँ से हम गेट्वे ऑफ इंडिया देखने गये.. और फिर मुंबई के ताज-होटल में कॉफ़ी भी पिए..| फिर निकलते वक़्त दाँयी ओर की एक गॅलरी को हो लिए..| मानो होटेल के अंदर ही एक मिनी मार्केट भी मौजूद है| कीमती आभूषण के साथ साजो-समान की दुकाने.. पुराने विंटेज कलेक्षन भी मन लुभाती हुई..| वहाँ से होते उसके अंतिम छोड़ पे.. बिल्कुल विहंगम दृश्य.. नीले-पानी लिए.. दिखा एक स्विम्मिंग पूल.. अगल-बगल मौजूद कुछ पर्यटक.. स्वच्छन्द वेश-भूषा में.. धूप-सेंकते.. आँखों में चश्मा जैसे उन्हें कोई नही देख रहा.. फिर वहाँ से आगे बढ़ते ही दादाजी ने कहा.. "ये धरती का इंद्राषण है.."|  उस दिन शाम वाली ट्रेन से पुणे होते हुए.. फिर नागपुर आना हुआ था.. जिस कॉलेज में मेरी अड्मिशन सीट अलॉट हुई थी| कॉलेज में अड्मिशन करवा.. अपने घर बिहार लौटते वक़्त नागपुर स्टेशन में मैने दादाजी के आँखों में आँसू देखे.. जैसे उनकी सहज और संघर्षपूर्ण भावों का सारथी आँखों से दूर जा रहा हो..और ये मेरे लिए भी असहनीय सा था|

नागपुर रोचक सा था.. इसलिए की पहली बार घर से बाहर इतनी दूर आना हुआ था| बिहार से  आकर ऐसे डेवेलप्ड स्टेट में जीवन का खुलापन देखना भी तो कम रोचक नहीं होता..| देश के लगभग सभी हिस्सों से छात्र यहाँ पढ़ाई को आते.. यहाँ तक की अपने कॉलेज में एक नायैजीरिया के लड़के को भी देख मैं भौचक्का रह गया था| फिर पता चला नागपुर में एक नेल्सन मंडेला होस्टेल भी है.. आफ्रिकन मूल के छात्रों के लिए.. जो यहाँ के प्रतिष्ठीत लॉ कॉलेज में पढ़ाई को आते थे| देश के पूर्व प्रधानमंत्री स्व. नरसिंहा राव ने भी इसी लॉ कॉलेज से लॉ की डिग्री ली थी| कॉलेज चयन के मामले में मैं भाग्यशाली रहा की उस इंजिनियरिंग कॉलेज में मेरा अड्मिशन हुआ था| कॉलेज था तो बिल्कुल ही नया.. लेकिन आपकी प्रतिभाओं को लगातार बल देता..| दोस्त भी अच्छे ख़ासे बने.. अभिनय कुशलता के कारण.. वार्षिक समारोहों में वाह-वाही और पॉप्युलॅरिटी भी जम के मिलती..| सच में काफ़ी अच्छा लगता.. जब घर से इतनी दूर आपके इतने प्रशंसक और वेल विशर्स बन जायें| कॉलेज इतनी ही अच्छी थी की  दो साल बाद  मैने अपने छोटे भाई का भी अड्मिशन उसी कॉलेज में करवा पाने में सफलता पायी| घर से दूर था.. लेकिन उन भावों को नज़दीक लाकर ही जीना चाहता था| सुखद जीवन परिवारिक भावों से ही परिपूर्ण होता है... शायद..|


वर्ष २००१ में मेरे कॉलेज के एक  पंजाबी के मित्र के साथ मुंबई जाने का मौका मिला| ख़ासकर इसलिए भी की "टेरेस" वाली घटना हमेशा कुरेदती रहती..| मैं मुंबई को थोड़ा और करीब से देखना चाहता था| वो मुंबई का ही रहनेवाला था| उसके पिताजी मुंबई के एक व्यावसायिक बॅंक में उच्च-पद पे कार्यरत थे| अगली सुबह मुंबई पहुँचते ही हमने टॅक्सी लिया.. और प्रभादेवी मुंबई की ओर निकल पड़े| सुबह-सुबह मुंबई सोयी हुई.. बस कुछ लोग सड़क पे.. मॉर्निंग वॉक के साथ स्वास्थ-लाभ लेते हुए.. और कुछ दूध और बेकरी वालों के दुकान भी खुले हुए| प्रभादेवी पहुँचते-पहुँचते ढेर सारे फूलों के दुकान भी दिखने लगे.. फिर मेरे मित्र ने बताया की प्रसिद्ध सिद्धिविनायक मंदिर भी यहीं है|



 हमारी टॅक्सी तब तक उसके अपार्टमेंट के नज़दीक ही थी.. फिर दिखे दो उँचे-उँचे अपार्टमेंट.. मेरे मित्र ने बताया हमें वहीं जाना है.. उसका फ्लॅट भी उसी अपार्टमेंट में है.. नाम था "ट्विन-टॉवेर्स"..| बेसमेंट में पहुँचते ही सामने लिफ्ट दिखी.. अंदर प्रवेश करते ही उसने टॉप फ्लोर वाली बटन को दबाया.. और लिफ्ट खामोशी के साथ अपनी मंज़िल की दूरियों को कम करने लगी| चन्द सेकेंडो में हम टॉप फ्लोर पे थे.. मैने कहा.. "ये लिफ्ट टेरेस को नहीं जाती क्या..?" जवाब जो मिला.. "बावला हो गया क्या.. बिहारी.. टेरेस पे जाएगा..कब्बड्डी खेलने..|" मन ही मन मैं मुस्कुरा रहा था.. जैसे टेरेस के शब्द-जाल से थोड़ी-बहूत निकलने की कोशिस में लगा हुआ..| फिर घर के अंदर जाते ही मित्र के परिवार से मिलना हुआ और फिर दिखाई दिया समुद्री नज़ारा.. वाकई हैरान कर देने वाला..| हमदोनो ने ट्रेन में ही अपनी दिन भर की प्लॅनिंग करली थी..सो जल्दी-जल्दी दोनो नहा-धोकर तैयार हो गये.. सुबह का नाश्ता किया.. और निकल पड़े| मेरे दोस्त को चर्च-गेट वाले ट्रांसपोर्ट ऑफीस में ड्राइविंग लाइसेन्स के लिए भी जाना था.. फिर हम बेसमेंट की ओर बढ़े..  जहाँ उसकी सफेद रंग की कार दिखी.. फ़िएट प्रिमियर एनी..| ८०-९० दशक की ये कार काफ़ी रोचक.. मैने तो अब तक मारुति वॅन ही चला रखी थी| फिर हम उसके कार से मुम्बईया ऑफीस आवर की हवा-खोरी करते चर्च-गेट वाले ट्रांसपोर्ट ऑफीस को पहुँचे..| दिन के धूप में मुंबई की सॉफ-सुथरी चौड़ी सड़कें... और उन सड़कों पे दौड़ती हमारी एनी... राजेश खन्ना.. अमिताभ बच्चन.. फ़िरोज़ ख़ान के जमाने की याद ताज़ा कर रही थी..|


चर्च-गेट वाले ऑफीस में कुछ देर रुकने के बाद.. हम इत्मिनान होकर बड़ी तेज़ी से निकले.. "जैसे डॉन को पकड़ना मुश्किल ही नही.."



मगर ये क्या..!! हमने जैसे ही गाड़ी मेन रोड की ओर घुमाई.. की आगे दो ट्रॅफिक हवलदार.. हमें गाड़ी रोकने का इशारा करने लगे.. "मारे गये बच्चू.. अब क्या.." मेरे दोस्त ने कहा.. " मेरे पास तो लाइसेन्स भी नहीं है.."| फ़ौरन मैने उसे पीछे आने को कहा.. गाड़ी धीमे कर मैने तेज़ी से अपनी जगह छोड़ स्टेरिंग संभाली.. और धीरे-धीरे गाड़ी.. साइड कर रोक दी..| वो शायद मरीन-ड्राइव वाला इलाक़ा था| फिर दोनो हवलदार.. ने हमें नीचे उतरने को कहा..| हमने कहा.. "क्या हुआ..??" "तुमने गाड़ी ग़लत जगह से काटी.. ये नो एंट्री ज़ोन है.." "चलो लाइसेन्स निकालो लाइसेन्स.."| मैने अपने बिहार की बनी.. बुकलेट लाइसेन्स बढ़ा दी..| "ये नहीं चलिंगा.. मुंबई है मुंबई.. इदरीच  मुंबई का लाइसेन्स माँगता.."| फिर क्या था.. हज़ार.. बारह-सौ का चलान काट दिया..| मैने कहा.." अंकल हम मुंबई पहली बार आयें हैं.. अभी-अभी अपने दोस्त के लाइसेन्स के लिए इधर आए थे.. और फिर एक जॉब इंटरव्यू भी है.. जल्दी जाना है.. स्टूडेंट हैं.. इतने पैसे हम कहाँ से लायें.. कुछ कन्सिडर कीजिए.."| बात मनाते-मनाते हम सौ रुपये देकर छूटे..| हमारी हालत खराब हो रही थी.. और डर के मारे कार भी सही ढंग से चल नहीं पा रही थी..  और मेरा दोस्त ठहाके पे  ठहाके मार  रहा था.. " वाह बिहारी.. मरीन-ड्राइव पे अगर सौ रुपये देकर कोई छूट सकता है तो ऐसा.. बिहारी ही कर सकता है..|" फिर धीरे-धीरे हम उसके  पिताजी के बॅंक पहुँचे.. गाड़ी की चाभी उन्हें थमायी.. और लोकल ट्रेन से प्रभादेवी को लौटे..| "जान बची तो लाखो पाए.. लौट के बुद्धू घर को आए.."| 


फिर थोड़ा आराम कर.. इस बार हमने काइनेटिक होंडा स्कूटर निकाली.. हेल्मेट लगा हम फिर.. मुंबई दर्शन को निकल पड़े..| सबसे पहले हम जुहू वाले इलाक़े पहुँचे| एक बड़ा सा शॉपिंग माल..|  एक से एक ब्रांड ड्रेस डिजाइनरों के शो-रूम.. और खाने-पीने के लिए.. मक्डोनल्ड्स.. पिज़्ज़ा हट.. वग़ैरह-वग़ैरह..| उन शो-रूमों के सामने खूब फोटोग्राफी करवायी..| फिर पास लगे स्ट्रीट-शॉप्स से कुछ खरीददारी भी हुई.. जो जेब के हिसाब से हमें ज़्यादा शूट करती थी.. और तो और मुंबई का फैशन भी इन्ही स्ट्रीट-शॉप्स से चलता है.. यहाँ फैशन यूँ आती है.. और यूँ चली भी जाती है|  वहाँ से अगला पड़ाव अब सीधा.. गेटवे ऑफ इंडिया थी| एक शौक जो मैं पूरी करना चाहता था.. स्टीमर की सवारी.. वो इस बार हो गयी..| समंदर की ओर से गेट्वे ऑफ इंडिया और साथ लगे ताज़ होटेल का नज़ारा अद्भुत था| वहाँ से लौटते वक़्त.. सचिन तेंदुल्कर की रेस्टोरेंट "तेंदुलकार्स" भी दिख गयी| अब शाम होता देख हम सीधे बांद्रा पहुँचे..| मेरे मित्र ने वहाँ मुझे "बास्किन रॉबिन्स" की बेहतरीन आइस-क्रीम खिलायी थी.. जो आज भी याद है| फिर वहाँ भी हमने कुछ स्ट्रीट-शॉपिंग की.. फिर एक रेस्टोरेंट में चिकेन-बिरयानी खाकर घर को लौटे| सच में.. वो दिन सुखद था.. मुंबई की सड़कों पे फ़र्राटे भरते.. वो भी अपनी मौज में.. गजब का अनुभव..| उस रात उसके टॉप फ्लोर वाले फ्लॅट से मुंबई नगरी का नज़ारा.. न्यू-यॉर्क शहर से कुछ कम ना था..|

अगली सुबह हम कुछ सॉफ्टवेर की खोज में निकले..| हमारा स्कूटर मुंबई के कुछ पुराने इलाक़ों से होकर निकल रहा था..| सुबह-सुबह बढ़ती ट्रफ़िक के साथ बाजार में बिकती तरह-तरह की समुद्री मछलियाँ..| इन मछलियों को देख तो मन ही उछल पड़ा..| फिर हम महालक्ष्मी वाले धोबी-घाट को पहुँचे..| कुछ दिन पहले आयी.. अक्षय कुमार.. प्रीटि ज़िंटा की "संघर्ष" मूवी में.. आशुतोष राणा का एक दमदार अंदाज़ इसी धोबी घाट पे फिल्माया गया था..| सच में काफ़ी बड़ा था.. ये धोबी-घाट..| फिर कुछ पर्यटकों को भी वहाँ बसों में आते देखा.. शायद ऐसे दृश्य भी तो खुद में कुछ अनूठे ही होतें हैं..| वहाँ से फिर हम विक्टोरीया टर्मिनस वाले इलाक़े को गये..| यहाँ एक सॉफ्टवेर बाज़ार है.. पाइरेटेड सॉफ्टवेर यहाँ बड़ी आसानी से सस्ते दामों में मिल जातें हैं..| हमने ढेर सारे सॉफ्टवेर खरीदे.. और फिर अपने घर की ओर निकल पड़े|


ये मुंबई की मेरी चौथी यात्रा थी..| पहली यात्रा परिवार से साथ १९८३-८४ में हुई थी..| उस वक्त मैं मात्र ६-७ साल का था.. और  अपने भाई-बहनो के साथ इस मुंबई को घुमा था| आज भी याद है.. एक पहाड़ पे वो जूता वाला घर.. और मुंबई की डबल-डेकर बस..| वो जितेंद्र का जमाना था.. बचपन में हमने जितेंद्र, श्रीदेवी और जया प्रदा की ढेर सारी फिल्में रिलीज़ होते देखी थी.. "हिम्मतवाला".. "तोहफा".. "मवाली".. "जस्टीस चौधरी.."|



उस दौरे में हमने अमिताभ बच्चन का घर भी रात में चलती कार से देखा था| सच में उस मुंबई के उस दौर को अगर याद करूँ तो.. मुंबई मतलब केवल और केवल.. एक फिल्म-नगरी और कुछ नहीं...| हम उत्तर भारतीयों का आकर्षण मुंबई की ओर एक फॅंटेसी से कम ना था..| दूसरी बार मुंबई १९९२ में आया था.. दो-दिनो के लिए..| उस समय हम वहाँ उत्तरी अंधेरी महाकाली केव्स  वाले इलाक़े में रुके थे..| फिल्मी-दुनिया और टेलीविज़न दुनिया के बहूत से कलाकार उन्ही इलाक़े में रहते..| रोजमर्रा के सारे समान.. नज़दीक के ही मार्केट एरिया में मिल जाती..| मानो मुंबई का एक सभ्य-समृद्ध समाज इसी इलाक़े में रहता है|

इंजिनियरिंग के बाद मैं अपने घर बिहार चला गया..| वर्ष २००३ में दादाजी के निधन के बाद तो जैसे मन को कुछ भाया ही नहीं..| वहीं के एक इंजिनियरिंग कॉलेज में लेक्चरर की नौकरी मिली गयी..| फिर २००६ में मुंबई आना हुआ था.. जब मेरे छोटे भाई को यहाँ एक सॉफ्टवेर कंपनी में नौकरी मिली..| जैसे भारत का ये फिल्मी सपनो का शहर.. सॉफ्टवेर डेवेलपमेंट एंड सर्वीसज़ में भी खुद को आगे लिए जा रहा है..| एक से एक विदेशी बॅंक और कंपनीयाँ.. इस समुद्री तट पे अपना लंगर डाल चूकी हैं..| सच में इस बार मुंबई आना एक सपने का सच होने जैसा था..| जिस मुंबई ने मुझे बरसाती रात में "टेरेस" का मतलब समझाया था.. वहीं मेरा छोटा भाई भी अब रहता था..| वो इलाक़ा कान्दीवली वाला था.. हमेशा की तरह पॉश..  उँचे अपार्टमेंट और सोसाइटी..|

"...मुंबई के प्रति मेरे भाव अब नम हो चले थे.. मन में शांति थी..| एक बीज को एक वृक्ष की काया में देख पा रहा था..| अचरज कहीं खो सी गयी थी.. जीवन को एक परिक्रमा के इर्द-गिर्द पा रहा था..| दादाजी की यादों में बस खोया हुआ था.. की कैसे मेरा हाथ पकड़ कर उन्होने ही हर-एक राहें मुझे दिखायी थी..| मेरा भाई भी मुझे बदला हुआ पा.. रहा था.. जैसे.. मेरी वो फॅशनबल बेचैनी कहीं खो सी गयी थी.. मैं था तो बस एक सिरमौर के अंश को लेकर..| "

मुंबई के इस दौरे पे मैने समुद्री तट का जम के लुफ्त उठाया| पहले ही दिन हम.. वहाँ से पास के गोराई बीच पे जा पहुँचे| हम दोनो भाई का उस रात वहीं रुकने का प्रोग्राम था| मुंबइया शोर-गुल से बिल्कुल दूर..| हम वहाँ एक स्टीमर से गये थे.. और  उसी दौरान दिखा था.. एस्सेल वर्ल्ड वॉटर पार्क भी..| वहाँ पहुँचते ही हमने समुद्री तट पे एक लंबी वॉक की... वो भी खाली पैर..| शाम को समुद्री लहर हमारे काफ़ी पास आ जा रहे थे.. पता चला शाम ढलते हाइ-टाइड तेज हो जाते हैं..| फिर हमने वहाँ के खूबसूरत रेसॉर्ट में कमरा लिया.. अपने सामानो को वहाँ रखा.. और फिर समुद्री तटों की ओर निकल पड़े..| रात को समुद्री लहरों से उठती आवाज़ें भी तेज होती हैं..| रेसॉर्ट बिल्कुल ही नारियल के पेड़ों से ढँका हुआ..| डिसेंबर के अंतिम हफ्ते में न्यू यियर सेलेब्रेशन्स और पार्टियाँ भी जमके होती हैं..| वो इस रेसॉर्ट में भी दिख रहा था..| फिर हमने भी रात भर खूब एंजाय किया.. तरह-तरह के फिश फ्राइ और ड्रिंक्स के साथ..| मुझे ऋषि कपूर की "बॉबी" और "सागर" फिल्मों की झलक उन दृश्यों में मिल रही थी..|



 सच में इन समुद्री तटों का जीवन भी साहस और उन्माद से भरा होता है..| फिर अगले दिन सुबह उठकर हम उस साफ नीले लहरों में जी भर कर नहाए... और फिर वहाँ से लौटते वक़्त.. "पोम्पलेट फिश फ्राइ" भी जमके खाया..| वाकई.. "पोम्पलेट फिश फ्राइ" का कोई.. जवाब नहीं..|

शाम होते.. समुद्री लहरों के बीच ढलते सूरज को देखने हम बांद्रा के बॅंड-स्टॅंड जा पहुँचे..| मुंबई के युवा जोश का इससे अच्छा नज़ारा और शायद कहीं नहीं मिल सकता..| काफ़ी देर हम वहाँ के पत्थरों पे बैठे रहे..| फिर मेरे भाई ने कहा.. फिल्म स्टार "शाहरुख ख़ान" का बंगला यहीं पीछे है.. और पास के इस ऊँचे अपार्टमेंट में सदाबहार अभिनेत्री "रेखा" रहती है..| सच में ऐसा आशियाना सभो को नसीब नहीं होता..| फिर हम वॉक करते हुए आगे बढ़े तो बॉलीवुड के फर्स्ट सूपर-स्टार "राजेश खन्ना" का बंगला भी दिख गया |  वहाँ से हम बांद्रा फ़ोर्ट के कुछ बचे अवशेषों को देखने भी गये.. और वहाँ से हमें बांद्रा-वर्ली सी-लिंक भी बड़ा सुंदर सा दिखाई दिया| ..फिर आगे बढ़ने पे दिखा.."सन एंड सॅंड होटेल" ..इस जगह १९८४ में भी हम आए थे.. उस वक़्त यहाँ संजय दत्त के फिल्म की शूटिंग चल रही थी.. और मैं स्वीमिंग पूल वाले साइड से समुद्री रेतों में बंदर का नाच देख रहा था| आज फिर बचपन की वे यादें इन जगहों पे आके ताज़ा हो गयीं| वहाँ से हम  कोलाबा के फेमस रेस्टोरेंट "बड़े मियाँ" को गये.. आज भी उस लज़ीज़.. रुमाली रोटी और कीमा मसाला के स्वाद से खुद को अलग नहीं कर पाया हूँ|


अगले दिन हम फिर मुंबई भ्रमण को निकले.. इस बार एक शॉपिंग माल से कुछ ब्रांडेड शॉपिंग की.. और हृतिक रोशन की फिल्म "कृष" को देखा..| ये मेरी अब तक की सबसे मंहगी फिल्म थी.. 700 Rs per ticket..| फिर मैं अपने भाई के साथ चर्च-गेट वाले आमदार "विधायक" निवास को आए..| जहाँ बड़ी मुश्किल से मेरे भाई ने छः महीने बिताए थे.. अपने सी-डॅक कोर्स के दौरान..| कभी-कभी तो संसदीय सत्रों में कमरे नहीं मिलने पे.. लिफ्ट के आगे वाली बरामदे पे ही सोना पड़ता..| बातों-बातों में मेरे भाई ने कहा.. एक अंकल थे.. जो मेरे लिए तकिये और बिस्तर बचा के रखते थे.. बस रोज के रोज उन्हें एक जगजीत सिंह की ग़ज़ल सुनानी पड़ती.. और वो अपने ड्रिंक्स में खोते चले जाते..| फिर हमने भी आमदार निवास के सामने वाले फेमस बार की ओर रुख़ किया.. और फिर बाजू के मुगल-दरबार के स्वाद भी चखे.. और वहाँ कुछ शॉपिंग भी की..|  अगले दिन..  इस बार समुद्र के बीच स्थित "बाबा हाजी अली की दरगाह" को भी गये..| सच में खुद में अनूठा और नायाब..|



 पूरे परिसर में सूफ़ियत की मजलीश.. " पिया हाजी अली.. पिया हाजी अली.. पिया हाजी अली.. पिया हो..." के गानो में झूमता वहाँ का मंज़र| वहाँ हमने चादर भी चढ़ाई..| यहाँ मैं वर्ष २००७ के डिसेंबर में शादी के बाद  दुबारा भी आया था| इस बार हम प्रसिद्ध "मुंबा देवी" और "सिद्धि-विनायक " मंदिर में पूजा-अर्चना भी किए.. फिर वहाँ से साई बाबा के शिर्डी और महाबालेश्वर को गये थे| सच में अपने बिहार से निकलने के बाद अगर मुंबई और महाराष्ट्रा की ऐसी दिव्य जगहों पे ना जाए.. शायद जीवन का सफ़र अधूरा ही छूट जाए..|

मुंबई के सपनो से आप कभी निकल ही नहीं सकते..| चाहे फिल्में हों या.. साटेलाइट चैनलो में दिखने वाले शो और सीरियल्स..| मुंबई से एक रिश्ते में अपने एक अभिन्न मित्र को भी मुंबइया फिल्मी दुनिया में संघर्ष करते और आगे बढ़ते देख रहा हूँ..| जीवन की इस जद्दोजहद में  बस आपकी सकारात्मक कोशिस जारी रहनी चाहिए..|


"... क्या लेके मिलें अब दुनिया से.. आँसू के सिवा कुछ पास नहीं..या फूल ही फूल थे दामन में.. काँटों की भी आस नहीं.. मतलब की दुनियाँ है सारी.. बिछड़े सभी बारी-बारी......  देखी जमाने की यारी.. बिछड़े सभी बारी-बारी... "|




 हाल के २०१५ मई के मुंबई विजिट में जैसे ही सुबह-सुबह कुर्ला स्टेशन से एक ऑटो पे बैठा.. की गुरुदत्त की फिल्म "कागज के फूल" का ये गाना.. कानों को जैसे छू सा गया..| मैने ऑटो ड्राइवर से पूछा "अंकल आप कब से हैं मुंबई में..?" उनकी उम्र यही कुछ ५५-६० की रही होगी.. उजले बाल.. माथे पे लाल टीका.. और खाकी ड्रेस..| जवाब मिला.. "पचास साल हो गये इधर आए हुए.. बनारस का हूँ.. आप बिहार से हो क्या..?" " हाँ.. मगर आपने कैसे पहचाना..?" मैने कहा..| " कौन सी आवाज़.. किधर से आ रही है.. मिज़ाज तो बन ही जाती है ना.. और फिर हम तो रोज हज़ारों लोगों को इधर से आते-जाते देखते हैं.. अपनी तहज़ीब को भी क्या.. भला ना पहचाने ..|" ऑटो के पीछे बैठा मैं यही सोच रहा था.. की अच्छा हुआ प्री-पेड ऑटो से नहीं आया.. नहीं तो ऐसे पोस्ट-पेड इत्तेफ़ाक़ों से पल्ला ही ना पड़े.. चलो थोड़ी बहूत गुफ्तगू ही हो जाए..| " मैं भी रोज आपके नज़दीक के इलाक़ों में ही जाता रहता हूँ.. मेरी नौकरी वहीं पे है.. बक्सर में.." मैने कहा..| "अब क्या नज़दीक बेटा.. सब कुछ तो वहाँ दूर-ही-दूर है.. बस नाम का बनारस जुड़ा है.. अब तो इसी मुंबई में गंगा भी है.. और जमुना भी.. इस मारीच की मायानगरी ने ऐसा फाँस रखा है की.. हम सब यहीं के हो गये..|" चलते गानो के वॉल्यूम को उन्होने थोड़ा कम किया..| मैने कहा.. " अंकल.. रहने दीजिए.. ऐसे गाने अब कहाँ जल्दी सुनने को मिलतें हैं..|" "हाँ.. हाँ.. सही कहा.. अब तो आज के रेडियो मिर्ची और एफ. एम. भी नये-नये गाने ही सुनातें हैं.. इसलिए मेरे पोते ने दादाजी के मनपसंद गानों को पेन-ड्राइव में दे रखी है.. बस दिनभर इसे ही सुनता रहता हूँ.. तो मेरे पुराने दिनो की  मुंबई.. मुंबई सी लगती है.. और थोड़ी बहूत खुराक भी मिलती रहती है....|" बस बातों का सिलसिला यूँ ही चलता रहा.. और मैं कुछ मिनटों में IIT Mumbai के पवई वाले इलाक़े में पहुँच गया.. जहाँ अब मेरा भाई अपने परिवार के साथ रहता है..| खुश था की इस बार मेरे भाई को नवरत्न की प्राप्ति हुई है.. परिवार और नव-शिशु को आशीर्वाद देने के बाद जैसे ही बेडरूम को गया की.. दादा-दादी की छाया-प्रति फोटो-फ्रेम्ड साइज़ में दिवाल पे दिखाई दी..| कुछ पल के लिए तो.. मैं रुक सा ही गया.. जीवन-संपूर्णता के मायने ढूँढने लगा.. शायद वर्षों के इन असीम जुड़ाव से हम खुद को कभी अलग नहीं कर सकते.. और फिर हम कहीं भी रहें.. हमारे माइल-स्टोन इनके इर्द-गिर्द ही संवर्धित और सुरक्षित हैं|




                             ☆Vipra Prayag☆

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