Saturday, 10 November 2018

३० घंटे नवाबी के.. दरभंगा राज यूनिवर्सिटी से हैदराबाद यूनिवर्सिटी का सफर..


   पटना से पूर्णियाँ सुबह पहुँचते ही, रिक्शे में बैठ घर को आते वक्त जो दो शब्द मैं अपनी प्रकृति को आदरपूर्वक दे पाया था.. वो सुबह सुबह का "प्रणाम विनय भैय्या" मेरे स्वर साक्षात्कार का एक विनम्र संबोधन ही था। समय की कमी थी और फिर दायित्वों के साथ आगे का सफर भी तय करना था। पूर्णियाँ का ये विजीट मात्र ३ घंटे का ही था। करीब ९ बजे पूर्णियाँ से निकल फारबीसगंज जाने वाले एक नए रास्ते को देख लेना भी मानों इस बार तय ही था.. और फिर "दुनियां गोल है" कि पुष्टि नजदीक ही सिद्ध होने वाली थी कि बीच रास्ते जो एक सिद्धि क्षेत्र जान पड़ी। एक बड़े से भगवती स्थान को देख मैने गाड़ी रोकने को कही। ये बनैली राज का चंपानगर दुर्गा स्थान था।

प्रवेश द्वार के ग्रिल फाटक बंद थे और ऊपर अंकित था.. रानी प्रभावती सिंह द्वार। फिर आगे की एक छोटे से गेट से अंदर जा इस शक्तिपीठ की राजशाही शानों शौकत से बने स्थापत्य को अपने मोबाईल कैमरे में सजा लिया। अब तो फोटोग्राफी के एक एक क्लिक भी पूजा में चढते फूलों के समान ही हैं। वापस गाड़ी में बैठते ही बनैली राज परिवार के इतिहास को जानने की इच्छा प्रबल हो उठी। गूगल सर्च इंजन पे शब्दों को डालते ही.. बनैली शब्द से जुड़े दो नाम तो पहले से ही सामने थे.. एक पूर्णियाँ के पास का गढबनैली और दुसरा गंगा पार भागलपुर का टी एन बी कॉलेज.. मतलब तेज नारायण बनैली कॉलेज। विकीपिडिया पे मिले कुछ अंकित दस्तावेजों को पढते आगे बढा ही था कि कुछ दिमाग पे कौंध गया। एक जमाने में चंपा नगर के तालाबों की मछलियाँ ताँगे पे लद पूर्णियाँ सिटी के राजा पी सी लाल.. पृथ्वीचंद लाल स्टेट हाऊस को रोजाना आती थी। उस समय मेरे दादाजी पूर्णियाँ एस पी अॉफिस के साथ मॉर्निंग शिफ्ट में राजा पीसी लाल के स्टेट हाऊस में कुछ अॉफिसीयल स्टेनोग्राफी वर्क भी किया करते थे और फिर डे आवर में पूर्णियाँ एस पी अॉफिस आ जाते.. कहते अगर एक आदमी को टाईम पे तीन दफे मन मुताबिक भोजन मिल जाऐ तो वो १६ घंटे काम कर सकता है।

चंपानगर वाले रास्ते पे केवल कृषि आधारित जीवन ही दिखा। इस रास्ते कितने स्टेटों के नाम भी सुनने को मिल जाते हैं.. भले ही ये राज अंशों में संवंर्धित हो पर धर्म व जात पात से परे श्रमजीवी मानवीय सभ्यताओं को जोड़े रखनें में भी इन राजवंशों ने अपना अच्छा खासा योगदान दिया है। फारबिसगंज पहुंचते ही अपने पूर्णियाँ मधुबनी के रास्ते बीचोबीच समाता श्रीनगर गढबनैली प्रक्षेत्र अब मैं समझ चुका था.. अब तक फारबिसगंज जो गुलाबबाग कसबा वाले रास्ते से ही जो आया जाया करता था। हे प्रभु दुनियां गोल है.. और हम सब एक ही जमीन से जुड़े हुए.. फिर सिद्ध हुआ। दिन के उजाले में आगे बढते ही पक्की लंबी चौड़ी प्रधानमंत्री योजना वाली सड़क और सड़क से सटे दोनों ओर का हरियाली युक्त खेती बारी वाला मंजर साफ दिख रहा था। धीरे धीरे हम कोशी रैंज के नजदीक समाते जा रहे थे। डेवलपमेंट के रुप में रोड तो दिखी थी.. मगर ऐसे डेवलपमेंट के इर्द गिर्द एक सन्नाटा भी पसरा था। हम हर दिन इधर भले ना आते हों.. लेकिन गाड़ी चालकों के अनुभवों से जान पड़ा की यहाँ की रोड भले ही अच्छी हो मगर मन मुताबिक रिसेप्शन प्वाइंट्स की बहुत कमी है। रोड बनने के इतने दिनों बाद भी डेवलपमेंट में तेजी बहुत धीमी है। इंस्टीट्युशन्स, इंडस्ट्रीज, होटल, मेडिकल व अन्य आम सुविधाएं अपना रुख ही नहीं उठा रही इस ओर आने की। बरसात व बाढ के दिनों में कोसी नदी की विभिषीका भी आऐ दिन मर्माहत सा कर देती है। रेल लाईन की सुविधा भी अपने स्टैगनेंट मोड पे ही है। सरकारी रुझान भी बड़ा चुनावी सा है.. मानों आज भी ये प्रक्षेत्र राजवंशों की गरिमामयी चादर ओढ ही अपने जख्मों पे लेप लगाता खुश हो।

एकमात्र बाढ की विषम परिस्थितियों एवं मौजूदा कुछ विशुद्ध बाहुबली पांडित्य प्रपंचों के कारण ही ये कृषि प्रधान क्षेत्र की गति कुछ धीमी हो चली हो.. अन्यथा ऐसी सुसज्जित जगहों पे अगर समय रहते ऐग्रो फार्मिंग, एग्रो फुड प्रोसेसिंग व ऐग्रो बेस्ड बिजनेस युनिट के साथ इंडस्ट्रीज डेवलपमेंट व चुनिंदा संकायों के साथ यूनिवर्सिटी निर्माण को सकारात्मक बल मिले तो मध्य एशिया को जोड़ने वाला ये कॉरिडोर और भी नायाब हो निकले और काम व उचित शिक्षा की तलाश में अन्य राज्यों को जानेवाले श्रमिकों व पाठकों को भी मनचाहा वरदान अपनी जन्मभूमि पे ही मिलता दिखे।

आगे था दरभंगा.. जी हाँ.. सिर्फ इस सफर में ही नहीं.. अपने ऐतिहासिक विवरणों में भी। अब तक तो सिर्फ सुन ही रखा था.. समाचारपत्र पत्रिकाओं व इंटरनेट के माध्यम ही जो कुछ पढ और देख भी रखा था। बचपन से ही एक टेटना वाले पंडित जी आते.. रामायण गीता सत्संग व पूजा पाठ करवाते.. नाम था पंडित वलभद्र झा.. वो भी दरभंगा व सहरसा के उन्हीं गुणात्मक गोष्ठियों से आते.. पवित्र कर जाते। अपने सामाजिक अभिष्टों में भी दरभंगा तत्व घुला रचा बसा देखता.. ब्रह्मण्त्व के सरनेमों में मिश्र, झा, ठाकुर व पाठकों का एक सीधा कनेक्शन दरभंगा का ही होता। माँ की बी एड की डिग्री में भी दरभंगा का एल एन एम यु.. ललित नारायण मिथिला युनिवर्सिटी दरभंगा समकक्ष ही दिखता.. तो अपने शैक्षणिक प्रभारों को लिए इंदुबाला सिंह मौसी का वाईस चांसलर माननीय पद का एक कार्यकाल भी दरभंगा जाता दिखता.. साथ ही दरभंगा युनिवर्सिटी का संचालन दरभंगा महाराज के स्टेट कैंपस से ही संचालित होता.. ऐसा मालूम पड़ता। अपने इंजीनियरिंग कार्याननुभव में.. साथ काम करते कितने ही शिक्षक तो शक्तिपीठों मंदिरों में मिले कितने ही शास्त्रज्ञ दरभंगा व मिथिलांचल जोन से ही आते। अब तो जैसे जानने देखने समझने की इच्छा शक्ति और बढ चली थी। पंडित वलभद्र झा के मुख से तो अपने बांग्ला भाषा मे ही देवी दुर्गा महात्म्य सुन रखा था.. फिर ये किस बंगाल से आते हैं? बचपन के दिनों में अक्सर अचरज ऐसी जो बार बार होती। इधर विगत कुछ वर्षों से यहाँ के यूनिवर्सिटी कैंपस स्थित एक प्रसिद्ध मंदिर.. माँ कं काली मंदिर की भव्यता को भी सुन रखा था.. तो इस बार घर से बस मन बनाकर ही निकल पड़ा था.. माँ काली के चरणों में अर्पित करने अपराजिता पुष्पों को घर से ही तोड़ एक अर्पण के संग हो चला था.. देवी कं काली का दरभंगा राज जो आगे था।

मेन हाईवे से दरभंगा प्रवेश करते ही बाँयी ओर वाले निर्माणाधीन मार्ग पे गाड़ी को लिए हम बढ चले थे। दरभंगा राज की आज की गति कुछ धीमी मिली। ऐसा ही होता है शायद.. अपने भागलपुर को प्रवेश करते वक्त भी ऐसा ही लगता है। मानों परिदृश्य जितना पुरा पुरातन.. इन पौराणिक आवरणों पे चढती आज की गति भी उतनी ही धीमी कम। आगे मिले चौराहे से एक राह जो सीधे युनिवर्सिटी को प्रवेश करती.. प्रवेश द्वार पे लिखा मिला "कामेश्वर सिंह दरभंगा संस्कृत विश्वविद्यालय".. मन थोड़ा अचरजों में घिर आया ..आखिर कितने विश्वविद्यालय हैं यहाँ!!

गेट के बाहर सामने लगे फलों के जुस वाले ठेले, चाय व चाट की दुकान और अगल बगल के पान सिगरेट व गुटखों के कटघरा काउंटर.. संस्कृति में रचे बसे विद्यापीठों को नव अलंकृत करते। इस द्वार से बड़े वाहनों का जाना वर्जित था.. लोहे की जंजीर से दो फाटकों के बीच सर झुकाकर अंदर बाहर जाते कुछ विद्यार्थी व अभिभावक गण।

फिर इस मेन गेट से हमने बाँयी ओर का रुख किया और कैंपस की उँची दिवारों को देखते दाँयी ओर मुड़ हम सीधे कैंपस के मंदिर वाले छोर पे जा पहुँचे। दाँयी ओर की गली पूजा के फल, फूल व मिठाईयों की दुकानों से सुसज्जित और हर दुकान के बाहर माँ काली की तस्वीरें। दोपहर के दो बज चुके थे.. मंदिरों के पट बंद होने की संभावना लिए हम जल्द ही चढावें की मिठाईयों को लिए मंदिर परिसर की ओर आ पहुँचे। अंदर की भव्यता मध्य एक बड़े से तालाब के चारों ओर.. अनेकों मंदिरों से सजा धजा एक राज परिसर दर्शा रही थी। आगे बढते ही अपने लाल रंग में पुरे परिसर को अभिषेक लगाती बाँयी ओर माँ श्यामा देवी का मंदिर।

इस ओर पीछे से जाते समय ही कॉलेज के कुछ छात्र छात्राओं को अपने फुल कॉलेज यूनिफॉर्म में मंदिर के पीछे बाँयी ओर वाली सीढीयों पे बैठ कॉलेजिया ज्ञान के साथ आराम के कुछ पलों को साथ जीते देखा। मंदिर के सम्मुख जा पता चला जो पट बंद हो चुका है अब तीन बजे के बाद खुलेंगे.. फिर भी सफलता ये कि हम यहाँ तक पहुँच चुके थे। परिसर की भावाकृति मन शांत किऐ जा रही थी। आगे बढ तालाब के बगल एक और पुरानी मंदिर माँ लक्ष्मीश्वर तारा की दिखी.. और साथ ही उछलकदमी करते आदिमानवों लाल मुँह वाले वानरों का पूरा भरा पुरा समूह.. अपने उछलते कुदते नयनभिराम बच्चों के साथ.. कुछ इस मंदिर से सटे पीछे ओर की मंदिर व पेड़ों की ओट में अपने बच्चों संग वात्सल्य प्रेम में खोऐ.. अघाऐ। इस जीवंत प्राण प्रतिष्ठानों और मंदिरों से सजा एक राज परिसर.. अब मैं भी मुझमें कैद मेरे फोटोग्राफिक इंस्टिंक्ट् को कब तक दबाऐ रख सकता था.. जितना हो सका इन दृश्यों को चलते मोबाईल क्लिक्सों के साथ एक चलंत डॉक्युमेंट्री बना अपने स्मृतिकारिता में समेटता चला गया। मंदिर परिसर से निकलते वक्त ही लगा कि अब भी ये आधा अधूरा ही छूट रहा है.. फिर से एक बार इस परिसर को आने का मन ही मन निमंत्रण दे गया।

बाहर निकल पता चला एक और सिद्ध माँ कं काली मंदिर है युनिवर्सिटी कैंपस के दुसरे छोड़ पे.. फिर गाड़ी पे बैठते ही लगा एक नजर जो बरबस मुझको घूर रहा है.. पास बुलाना जो चाह रहा है। बनते आज के नए स्टैच्यू के दौर में.. खड़ा वर्षों से सुर्ख सफेद संगमरमरी तालिस्मानी नक्काशियों में.. आसमानी साँसे जो ले रहा है। ठिठक मैं भी बढ चला था.. उनके सामने.. गुजरे वक्त के विलक्षण माईलस्टोनों को थामने। श्री श्री ठाकुर जो बैठते होंगे कभी अपने सिंह सिंहासन.. आज मूर्त खड़े थे सामने अपने ही प्रांगण। एक लोहे की कुंडी सी लगी थी उस ग्रीलनुमा घेरे में.. कभी बनती बिगड़ती होगी कितनी ही कुंडलियाँ उस राजशाही डेरे में। थोड़ा एक और गुस्ताख जो कर लेना था.. मेरे ज्ञान में इस बार.. जानकर बस इतना की.. कितने शास्त्रियों, पुरोहितों व पंडितों के भी होंगे ये एक पनाहगार। उन सफेद संगमरमरी पट्टिका में नाम जो खुदा मिला.. महाराजा मिथिलेश महेश्वर सिंह.. जन्म १८३० मृत्यु १८६० राजगद्दी १८५०.. सहसा याद आया एक तथ्य.. बक्सर के दिनों में जो कुछ सुन रखा था.. क्षत्रियों की उम्र जो २५-३० बरस ही होती उस वक्त.. ४० पार तो निकम्मे ही कहलाते सारे। जीवन साक्ष्य जो अब सेल्फी मोड पे था.. झट चार-पाँच क्लिकों में हम भी शुमार हुऐ उनके नवरत्नों में दिन दहाड़े.. फिर मिलेंगे कह निकल पड़ा मैं ये जान.. कि बहुत ठोस है मिथिलांचल दरभंगा राज का ये कुनबा.. ज्ञान प्रकाश में अब जानने हैं तथ्य जो सारे।

गाड़ी अब बढ चली थी देवी माँ कं काली दर्शन की ओर। शहर वाले एक पुराने चौक से दाँयी ओर आगे बढते ही एक किलानुमा दृश्य उभर आया। मैं हैरान हुआ जा रहा था.. दिल्ली के लाल किले के बाद एक दुसरा जमीनी लाल किला जो सामने था। मैं अपने बिहार के मध्य बने इस दुर्ग से अब तक अछूता रहा था। टकटकी लगाऐ चलती गाड़ी के अंदर बैठे ही अपने मोबाईल कैमरे से मिलते उस जीवंत किलेनुमा धरोहर की विडियो क्लिपों को सृजित करता रहा।

किले की बड़ी सी लंबी उँची दिवारें.. खेतीहर जमीनी सभ्यता को बचाने की ये कैसी मोर्चाबंदी रही होगी.. और फिर इस दुर्गनुमा मोर्चाबंदी के छाये तले कितने जीवन अध्यात्म खुद को बचाऐ रखने की संतुष्टि पा सके होंगें.. मानों डेग डेग पे एक नया प्रश्न आज के आधुनिक संदर्भों में भी नयी चुनौतियां पेश करता हुआ!! दिशा अज्ञानता में तत्क्षण किले की एक गेट से अंदर बाँयी ओर प्रवेश होते ही.. एक नक्काशीदार स्वागत द्वार मिला और फिर आगे बढ वहाँ से दाँयी दिशा की और अंदर बसे एक मुहल्ले के बीच हम माँ कं काली मंदिर के प्रवेश द्वार के सम्मुख जा पहुंचे।

मंदिर का वैभव दुर से ही शाक्त शक्तियों को लिए साफ दिख रहा था। फिर तो इस मंदिर का भी प्रवेश द्वार था जो थोड़ा जीर्ण शीर्ण सा खड़ा आज भी नव आगुन्तकों को इस मंदिर की पुरातन भव्यता का भान करवाता। सामने की कुछ चौड़ी सीढियों को चढ हम मंदिर परिसर में थोड़े दुर से ही माँ के दर्शन कर पाऐ। माथे पे चमकता बड़ा सा मुकुट और लाल अड़हुल के फूल तो दूर से ही दिख रहे थे.. शायद गर्भ वेदी के नजदीक जाने की शख्त मनाही हो। कुछ देर बाद मंदिर के पुजारी जी के आने के बाद हमने पूजा की और मैने घर से लाऐ अपराजिता के फूलों को भी चरण स्थल पे अर्पित किया। मन को शांति मिली और फिर आसपास की फोटोग्राफी के बाद पटना की ओर बढ गए।

पटना आने के बाद भी जैसे दरभंगा राज से जुड़े ढेरों प्रश्न रह रहकर आते जाते.. जैसे ब्राह्मण बहुलता होने के बाबजूद भी वहाँ के प्रशासकों के नामों में सिंह सरनेम का दिख जाना। फिर कम समय में राज परिसर के अन्य मंदिरों को नहीं देख पाना और ऐतिहासिक विवरणों को भी सटीक ढंग से नहीं मिल जान पाना। आजादी के इतने दिनों के बाद भी केन्द्र व राज्य सरकारों का किलेनुमा ऐसे राष्ट्रीय धरोहरों को सहेज रख पाने में एक उदासीन भाव का होना। आध्यात्म से जुड़े पुराने मंदिरों की मरम्मत व देख रेख में भी जागरुकता का अभाव होना.. आदि ढेरों प्रश्न उमड़े जा रहे थे.. कि कुछ सवालों के हल गूगल विकीपीडिया व फेसबुक के माध्यम से मिल सके।
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दरभंगा राज बिहार के मिथिला क्षेत्र में लगभग 6,200 किलोमीटर के दायरे में था। इसका मुख्यालय दरभंगा शहर था। इस राज की स्थापना मैथिल ब्राह्मण जमींदारों ने 16वीं सदी की शुरुआत में की थी। ब्रिटिश राज के दौरान तत्कालीन बंगाल के 18 सर्किल के 4,495 गांव दरभंगा नरेश के शासन में थे। राज के शासन-प्रशासन को देखने के लिए लगभग 7,500 अधिकारी बहाल थे। भारत के रजवाड़ों में दरभंगा राज का अपना खास ही स्थान रहा है। दरभंगा-महाराज खण्डवाल कुल के थे जिसके शासन-संस्थापक महेश ठाकुर थे। उनकी अपनी विद्वता, उनके शिष्य रघुनन्दन की विद्वता तथा महाराजा मानसिंह के सहयोग से अकबर द्वारा उन्हें राज्य की प्राप्ति हुई थी।

१.महेश ठाकुर - गद्दी १५५६-१५६९ ई.. इनकी राजधानी वर्तमान मधुबनी जिले के भउर (भौर) ग्राम में थी, जो मधुबनी से करीब १० मील पूरब लोहट चीनी मिल के पास है।

२.गोपाल ठाकुर - गद्दी १५६९-१५८१.. इनके काशी-वास ले लेने के कारण इनके अनुज परमानन्द ठाकुर गद्दी पर बैठे।

३.परमानन्द ठाकुर - (इनके पश्चात इनके सौतेले भाई शुभंकर ठाकुर सिंहासन पर बैठे।)

४.शुभंकर ठाकुर - (इन्होंने अपने नाम पर दरभंगा के निकट शुभंकरपुर नामक ग्राम बसाया।) इन्होंने अपनी राजधानी को मधुबनी के निकट भउआरा (भौआरा) में स्थानान्तरित किया।

५.पुरुषोत्तम ठाकुर - (शुभंकर ठाकुर के पुत्र) - गद्दी १६१७-१६४१ तक।

६.सुन्दर ठाकुर (शुभंकर ठाकुर के सातवें पुत्र) - गद्दी १६४१-१६६८ तक।

७.महिनाथ ठाकुर - गद्दी १६६८-१६९० तक। ये पराक्रमी योद्धा थे। इन्होंने मिथिला की प्राचीन राजधानी सिमराओं परगने के अधीश्वर सुगाओं-नरेश गजसिंह पर आक्रमण कर हराया था।

८.नरपति ठाकुर (महिनाथ ठाकुर के भाई) - गद्दी १६९०-१७०० तक।

९.राजा राघव सिंह - १७००-१७३९ तक। (इन्होंने 'सिंह' की उपाधि धारण की।) इन्होंने अपने प्रिय खवास वीरू कुर्मी को कोशी अंचल की व्यवस्था सौंप दी थी। शासन-मद में उसने अपने इस महाराज के प्रति ही विद्रोह कर दिया। महाराज ने वीरतापूर्वक विद्रोह का शमन किया तथा नेपाल तराई के पँचमहाल परगने के उपद्रवी राजा भूपसिंह को भी रण में मार डाला। इनके ही कुल के एक कुमार एकनाथ ठाकुर के द्वेषवश उभाड़ने से बंगाल-बिहार के नवाब अलीवर्दी खाँ इन्हें सपरिवार बन्दी बनाकर पटना ले गया तथा बाद में भाद्रपद शुक्ल चतुर्थी को कर निर्धारित कर मुक्त कर दिया। माना गया है कि इसी कारण मिथिला में यह तिथि पर्व-तिथि बन गयी और इस तिथि को कलंकित होने के बावजूद चन्द्रमा की पूजा होने लगी। मिथिला के अतिरिक्त भारत में अन्यत्र कहीं चौठ-चन्द्र नहीं मनाया जाता है। यदि कहीं है तो मिथिलावासी ही वहाँ रहने के कारण मनाते हैं।

१०.राजा विसुन (विष्णु) सिंह - १७३९-१७४३ तक।

११.राजा नरेन्द्र सिंह (राघव सिंह के द्वितीय पुत्र) - १७४३-१७७० तक। इनके द्वारा निश्चित समय पर राजस्व नहीं चुकाने के कारण अलीवर्दी खाँ ने पहले पटना के सूबेदार रामनारायण से आक्रमण करवाया। यह युद्ध रामपट्टी से चलकर गंगदुआर घाट होते हुए झंझारपुर के पास कंदर्पी घाट के पास हुआ था। बाद में नवाब की सेना ने भी आक्रमण किया। तब नरहण राज्य के द्रोणवार ब्राह्मण-वंशज राजा अजित नारायण ने महाराजा का साथ दिया था तथा लोमहर्षक युद्ध किया था। इन युद्धों में महाराज विजयी हुए पर आक्रमण फिर हुए।

१२.रानी पद्मावती - १७७०-१७७८ तक।

१३.राजा प्रताप सिंह (नरेन्द्र सिंह का दत्तक पुत्र) - १७७८-१७८५ तक। इन्होंने अपनी राजधानी को भौआरा से झंझारपुर में स्थानान्तरित किया।

१४.राजा माधव सिंह (प्रताप सिंह का विमाता-पुत्र) - १७८५-१८०५ तक। इन्होंने अपनी राजधानी झंझारपुर से हटाकर दरभंगा में स्थापित की। लार्ड कार्नवालिस ने इनके शासनकाल में जमीन की दमामी बन्दोबस्ती करवायी थी।

१५.महाराजा छत्र सिंह - १८०७-१८३९ तक। इन्होंने १८१४-१५ के नेपाल-युद्ध में अंग्रेजों की सहायता की थी। हेस्टिंग्स ने इन्हें 'महाराजा' की उपाधि दी थी।

१६.महाराजा रुद्र सिंह - १८३९-१८५० तक।

१७.महाराजा महेश्वर सिंह - १८५०-१८६० तक। इनकी मृत्यु के पश्चात् कुमार लक्ष्मीश्वर सिंह के अवयस्क होने के कारण दरभंगा राज को कोर्ट ऑफ वार्ड्स के तहत ले लिया गया। जब कुमार लक्ष्मीश्वर सिंह बालिग हुए तब अपने पैतृक सिंहासन पर आसीन हुए।

१८.महाराजा लक्ष्मीश्वर सिंह - १८८०-१८९८ तक। ये काफी उदार, लोक-हितैषी, विद्या एवं कलाओं के प्रेमी एवं प्रश्रय दाता थे। रामेश्वर सिंह इनके अनुज थे। पराधीन भारत के ईस्ट इंडिया कंपनी के समय के रेलवे लाईन विस्तार के स्वर्णिम इतिहास से दरभंगा महाराज लक्ष्मीश्वर सिंह का गहरा नाता रहा है। अंग्रेजी हुकूमत के दौरान महाराज ने तिरहुत स्टेट रेलवे कंपनी बना खुद अपनी रेलगाड़ी चलाई थी। कई स्टेशनों का निर्माण कराया था। उस दौर की अंग्रेजी हुकूमत में दरभंगा महाराज की १४ कंपनियों में उनके द्वारा स्थापित रेलवे कंपनी भी विश्वविख्यात थी। महाराज लक्ष्मेश्वर सिंह ने इसकी स्थापना १८७३ में तिरहुत स्टेट रेलवे नाम से की थी।

१८७३-७४ में जब उत्तर बिहार भीषण अकाल का सामना कर रहा था, तब राहत व बचाव के लिए लक्ष्मेश्वर ने अपनी कंपनी के माध्यम से बरौनी के समयाधार बाजितपुर से दरभंगा तक रेल लाइन का निर्माण कराया।
इस रेलखंड का परिचालन एक नवंबर १८७५ को शुरू हुआ था। महाराज ने तीन स्टेशनों का निर्माण भी करवाया था। दरभंगा स्टेशन आम लोगों के लिए था, जबकि लहेरियासराय अंग्रेजों के लिए। उन्होंने अपने लिए नरगौना में निजी टर्मिनल स्टेशन का निर्माण कराया था। वहां उनकी सैलून कोच रुकती थी। उनकी ट्रेन व सैलून कोच से महात्मा गांधी और डॉ. राजेंद्र प्रसाद जैसे स्वतंत्रता सेनानी सफर कर दरभंगा आते थे। 1922, 1929 और 1934 सहित पांच बार महात्मा गांधी इस ट्रेन से दरभंगा आए थे। आज के पूर्व मध्य इंडियन रेलवे ने उनके १४५ वर्ष पुराने एक इंजन को धरोहर के रूप में संरक्षित भी किया है। रेलवे इससे पूर्व भी दो जगहों पर दरभंगा राज के रेल इंजनों को संरक्षित कर चुका है। हाजीपुर जोनल कार्यालय में तिरहुत स्टेट रेलवे के इंजन को धरोहर के रूप में रखा गया है। समस्तीपुर डीआरएम कार्यालय में भी एक इंजन संरक्षित है। दरभंगा राज की बंद सकरी चीनी मिल में एक पुराना रेलवे इंजन भी जंग खा रहा है। इसे भी संरक्षित करने की जरूरत है।

(कोलकाता के डलहौजी चौक पर महाराजा लक्ष्मीश्वर सिंह की प्रतिमा)

दरभंगा महाराज के तिरहुत स्टेट रेलवे का अधिग्रहण भारतीय रेलवे में 1929 में किया था। धीरे-धीरे दरभंगा महाराज के योगदान को भुला दिया गया था। पिछले कुछ सालों में रेलवे ने दरभंगा महाराज की यादों व धरोहरों को संजोने में दिलचस्पी दिखाई है। रेलवे की150वीं जयंती पर प्रकाशित स्मारिका में दरभंगा महाराज के शाही सैलून की तस्वीर छापी गई। पूर्व नियुक्त एक डीआरएम ने दरभंगा जंक्शन पर एक भव्य बोर्ड लगाया था, जिसमें दरभंगा रेलवे की स्थापना में महाराज के योगदान का उल्लेख है। डीआरएम ने दरभंगा स्टेशन से जुड़ीं कई दुर्लभ पेंटिंग्स को एकत्रित कर प्लेटफार्म संख्या एक पर लगाने का काम किया है।

दरभंगा महाराज लक्ष्मीश्वर सिंह की कंपनियों में एक थैकर्स एंड स्प्रंक कंपनी स्टेशनरी का निर्माण करती थी। तब यह पूर्वी भारत की सबसे बड़ी कंपनी थी। यह भारतीय रेलवे की समय तालिका छापने वाली इकलौती कंपनी थी। इसके बंद होने के बाद यह अधिकार रेलवे के पास चला गया।

१९.महाराजाधिराज रामेश्वर सिंह - १८९८-१९२९ तक। इन्हें ब्रिटिश सरकार की ओर से 'महाराजाधिराज' का तमगा दिया गया तथा और इसके अलावे भी इन्हें अनेक उपाधियाँ मिलीं थी। अपने अग्रज की भाँति ये भी विद्वानों के संरक्षक, कलाओं के पोषक एवं निर्माण-प्रिय अति उदार नरेन्द्र थे। इन्होंने भारत के अनेक नगरों में अपने भवन बनवाये तथा अनेक मन्दिरों का निर्माण करवाया। वर्तमान मधुबनी जिले के राजनगर में इन्होंने विशाल एवं भव्य राजप्रासाद तथा अनेक मन्दिरों का निर्माण करवाया था। यहाँ का सबसे भव्य भवन (नौलखा) १९२६ ई. में बनकर तैयार हुआ था, जिसके आर्चिटेक डाॅ. एम.ए.कोर्नी थे। ये अपनी राजधानी दरभंगा से राजनगर लाना चाहते थे लेकिन कुछ कारणों से ऐसा न हो सका, जिसमें कमला नदी में भीषण बाढ़ से कटाई भी एक मुख्य कारण था। जून १९२९ में इनकी मृत्यु हो गयी। ये भगवती के परम भक्त एवं तंत्र-विद्या के ज्ञाता थे।

(माधवेश्वर समाधि परिसर के सामने महाराजाधिराज रामेश्वर सिंह की स्मृति-शिल्प)

२०. महाराजाधिराज कामेश्वर सिंह - पिता के निधन के बाद ये गद्दी पर बैठे। इन्होंने अपने भाई राजा बहादुर विश्वेश्वर सिंह को अपने पूज्य पिता द्वारा निर्मित राजनगर का विशाल एवं दर्शनीय राजप्रासाद देकर उस अंचल का राज्य-भार सौंपा था। १९३४ के भीषण भूकम्प में अपने निर्माण का एक दशक भी पूरा होते न होते राजनगर के वे अद्भुत नक्काशीदार वैभवशाली भवन क्षतिग्रस्त हो गये। महाराजाधिराज कामेश्वर सिंह के समय में ही भारत स्वतंत्र हुआ और जमींदारी प्रथा समाप्त हुई। देशी रियासतों का अस्तित्व समाप्त हो गया। महाराजाधिराज कामेश्वर सिंह को संतान न होने से उनके भतीजे (राजा बहादुर विश्वेश्वर सिंह जी के ज्येष्ठ पुत्र) कुमार जीवेश्वर सिंह संपत्ति के अधिकारी हुए।

दरभंगा नरेश कामेश्वर सिंह गौतम अपनी शान-शौकत के लिए पूरी दुनिया में विख्यात थे। यह देख ही अंग्रेज शासकों ने इन्हें 'महाराजाधिराज' की उपाधि भी दी थी। राज दरभंगा ने नए जमाने के रंग को भांप कर कई कंपनियों की शुरुआत की थी। नील के व्यवसाय के अलावा महाराजाधिराज ने चीनी मिल, कागज मिल आदि खोले। इससे बहुतों को रोजगार मिला और राज सिर्फ किसानों से खिराज की वसूली पर ही आधारित नहीं रहा। आय के नये स्रोत बने। इससे स्पष्ट होता है कि दरभंगा नरेश आधुनिक सोच के व्यक्ति थे। महाराज कामेश्वर सिंह के जमाने में तो दरभंगा किले के भीतर तक रेल लाइनें बिछी थी और ट्रेनें आती-जाती थीं। इतना ही नहीं दरभंगा महाराज के लिए रेल के अलग-अलग सैलून कोच भी थे। लोगों की मानें तो इसमें न केवल कीमती फर्नीचर थे, बल्कि राजसी ठाठ-बाट के तहत सोने-चांदी भी जड़े गए थे। बाद में इन सैलून रेलवे कोचों को बरौनी के रेल यार्ड में रख दिया गया। दरभंगा महाराज के पास कई बड़े जहाज भी थे।

पत्रकारिता के क्षेत्र में भी दरभंगा महाराज ने महत्त्वपूर्ण काम किया था। उन्होंने 'न्यूजपेपर एंड पब्लिकेशन प्राइवेट लिमिटेड' की स्थापना की और कई अखबार व पत्रिकाओं का प्रकाशन शुरू किया। अंग्रेजी में 'द इंडियन नेशन', हिंदी में 'आर्यावर्त' और मैथिली में 'मिथिला मिहिर' साप्ताहिक मैगजीन का प्रकाशन किया। एक जमाना था जब बिहार में आर्यावर्त सबसे लोकप्रिय अखबार था। दरभंगा नरेश कामेश्वर सिंह ने इण्डियन नेशनल प्रेस पटना से १९४१ में 'आर्यावर्त्त 'का प्रकाशन प्रारम्भ किया था। इसके प्रथम सम्पादक पं दिनेश दत्त झा थे। उनके बाद ब्रजनन्दन आजाद तथा श्रीकांत ठाकुर विद्यालंकार इसके सम्पादक रहे। २० वर्ष के सम्पादन के बाद विद्यालंकार ने हिन्दी के इस श्रेष्ठ पत्र की बागडोर १ जून १९६८ में जयकांत मिश्र को सौंपी थी। अपने उच्च स्तर के कारण इसका तब के दौर में राज्यव्यापी प्रसार हो रहा था। बाद के दिनों में हीरानन्द झा शास्त्री `आर्यावर्त्त' के सम्पादक रहे। यह समाचार पत्र तात्कालिन राष्ट्रवादी नीतियों का पोषक था।

दरभंगा महाराज संगीत और अन्य ललित कलाओं के बहुत बड़े संरक्षक थे। १८वीं सदी से ही दरभंगा हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत का बड़ा केंद्र बन गया था। उस्ताद बिस्मिल्ला खान, गौहर जान, पंडित रामचतुर मल्लिक, पंडित रामेश्वर पाठक और पंडित सियाराम तिवारीदरभंगा राज से जुड़े विख्यात संगीतज्ञ थे। उस्ताद बिस्मिल्ला खान तो कई वर्षों तक दरबार में संगीतज्ञ रहे। कहते हैं कि उनका बचपन दरभंगा में ही बीता था। गौहर जान ने साल १८८७ में पहली बार दरभंगा नरेश के सामने प्रस्तुति दी थी। फिर वह दरबार से जुड़ गईं। दरभंगा राज ने ग्वालियर के मुराद अली खान का बहुत सहयोग किया। वे अपने समय के मशहूर सरोदवादक थे। महाराजा लक्ष्मीश्वर सिंह स्वयं एक सितारवादक थे। ध्रुपद को लेकर दरभंगा राज में नये प्रयोग हुए। ध्रुपद के क्षेत्र में दरभंगा घराना का आज अलग स्थान है। महाराज कामेश्वर सिंह के छोटे भाई राजा विश्वेश्वर सिंह प्रसिद्ध फिल्म अभिनेता और गायक कुंदनलाल सहगल के मित्र थे। जब दोनों दरभंगा के बेला पैलेस में मिलते थे तो बातचीत, ग़ज़ल और ठुमरी का दौर चलता था। दरभंगा राज का अपना फनी ऑरकेस्ट्रा और पुलिस बैंड था।

खेलों के क्षेत्र में दरभंगा राज का महत्त्वपूर्ण योगदान रहा। स्वतंत्रतापूर्व बिहार में लहेरिया सराय में दरभंगा महाराज ने पहला पोलो मैदान बनवाया था। राजा विश्वेश्वर सिंह ऑल इंडिया फुटबॉल फेडरेशन के संस्थापक सदस्य में थे। दरभंगा नरेशों ने कई खेलों को प्रोत्साहन दिया।

शिक्षा के क्षेत्र में दरभंगा राज का योगदान अतुलनीय है। दरभंगा नरेशों ने बनारस हिंदू विश्वविद्यालय, कलकत्ता विश्वविद्यालय, इलाहाबाद विश्वविद्यालय, पटना विश्वविद्यालय, कामेश्वर सिंह संस्कृत विश्वविद्यालय, दरभंगा मेडिकल कॉलेज एवं हॉस्पिटल, ललितनारायण मिथिला विश्वविद्यालय, अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय और कई संस्थानों को काफी दान दिया। महाराजा रामेश्वर सिंह बहादुर पंडित मदनमोहन मालवीय के बहुत बड़े समर्थक थे और उन्होंने बनारस हिंदू विश्वविद्यालय को ५,०००,००० रुपये कोष के लिए दिए थे। महाराजा रामेश्वर सिंह ने पटना स्थित दरभंगा हाउस (नवलखा पैलेस) पटना विश्वविद्यालय को दे दिया था। सन् १९२० में उन्होंने पटना मेडिकल कॉलेज हॉस्पिटल के लिए ५००,००० रुपये देने वाले सबसे बड़े दानदाता थे। उन्होंने आनंद बाग पैलेस और उससे लगे अन्य महल कामेश्वर सिंह संस्कृत विश्वविद्यालय को दे दिए। कलकत्ता विश्वविद्यालय के ग्रन्थालय के लिए भी उन्होंने काफी धन दिया। ललितनारायण मिथिला विश्वविद्यालय को राज दरभंगा से ७०,९३५ किताबें मिलीं।

इसके अलावा, दरभंगा नरेशों ने स्कूली शिक्षा के क्षेत्र में काफी योगदान किया। महाराजा लक्ष्मेश्वर सिंह बहादुर भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के संस्थापक सदस्य थे। अंग्रेजों से मित्रतापूर्ण संबंध होने के बावजूद वे कांग्रेस की काफी आर्थिक मदद करते थे। डॉ. राजेन्द्र प्रसाद, अबुल कलाम आजाद, सुभाष चंद्र बोस और महात्मा गांधी से उनके घनिष्ठ संबंध थे। सन् १८९२ में कांग्रेस इलाहाबाद में अधिवेशन करना चाहती थी, पर अंग्रेज शासकों ने किसी सार्वजनिक स्थल पर ऐसा करने की इजाजत नहीं दी। यह जानकारी मिलने पर दरभंगा महाराजा ने वहां एक महल ही खरीद लिया। उसी महल के ग्राउंड पर कांग्रेस का अधिवेशन हुआ। महाराजा ने वह किला कांग्रेस को ही दे दिया। महाराजा कामेश्वर सिंह गौतम ने भी राष्ट्रीय आंदोलन में काफी योगदान दिया। महात्मा गांधी उन्हें अपने पुत्र के समान ही मानते थे।

दरभंगा राज वस्तुतः एक बेहद समृद्ध जमीदारी व्यवस्था थी, किन्तु, औपचारिक रूप से राजाओं का दर्जा नहीं होने की बात महाराजा कामेश्वर सिंह को यह बात अक्सर खटकती रहती थी। इतिहास के बदलते घटनाक्रम में जब देश की तत्कालीन अंग्रेज सरकार ने यह तय किया की वह दरभंगा महाराज श्री कामेश्वर सिंह को ‘नेटिव प्रिंस’ की उपाधि देगी तो इसका अर्थ यह निकाला गया की उस स्थिति में दरभंगा राज एक ‘प्रिंसली स्टेट’ अर्थात एक स्वतंत्र राजशाही बन जाएगी। इस ऐतिहासिक क्षण की याद में दरभंगा राज किले का निर्माण १९३४ ई० में आरम्भ किया गया। किले के निर्माण के लिए कलकत्ता की एक कम्पनी को ठेका दिया गया। किन्तु जब तीन तरफ से किले का निर्माण पूर्ण हो चूका था और इसके पश्चिम हिस्से की दीवार का निर्माण चल रहा था कि भारत देश को अंग्रेजी हुकूमत से आजादी मिल गयी। भारत में तब सत्ता में आयी नयी सरकार ने ‘प्रिंसली स्टेट’ और जमींदारी प्रथा बंद कर दी। फलस्वरूप, अर्धनिर्मित दीवार जहाँ तक बनी थी, वहीँ तक रह गयी और किले का निर्माण बंद कर दिया गया।

आज भी दरभंगा बस स्टैंड के समीप स्थित दरभंगा राज का किला, सामने वाली सड़क से गुजरने वालों का ध्यान बरबस खीच ही लेता हैं। दरभंगा के महाराज का यह किला उत्तर बिहार के दुर्लभ और आकर्षक इमारतों में से एक है। भारत सरकार के पुरातत्व विभाग ने १९७७-७८ में इस किले का सर्वेक्षण भी कराया था, तब इसकी ऐतिहासिक महत्वता को स्वीकार करते हुए किले की तुलना दिल्ली के लाल किले से की थी। किले के अन्दर रामबाग पैलेस स्थित होने के कारण इसे ‘राम बाग़ का किला’ भी कहा जाता है। वैसे दुखद बात यह है की दरभंगा महाराज की यह स्मृति है अब रख-रखाव के अभाव में एक खंडहर में तब्दील हो रहा है। शहर की पहचान के रूप में जाने वाले इस किले की वास्तुकारी पर फ़तेहपुर सीकरी के बुलंद दरवाजे की झलक भी मिलती है। किले के निर्माण से काफी पूर्व यह इलाका इस्लामपुर नामक गाँव का एक हिस्सा था जो की मुर्शिदाबाद राज्य के नबाब,अलिबर्दी खान के नियंत्रण में था। नबाब अलिबर्दी खान ने दरभंगा के आखिरी महाराजा श्री कामेश्वर सिंह के पूर्वजों को यह गाँव दे दिया था। इसके उपरांत सन १९३० ई० में जब महाराजा कामेश्वर सिंह ने भारत के अन्य किलों की भांति यहाँ भी एक किला बनाने का निश्चय किया तो यहाँ की मुस्लिम बहुल जनसँख्या को जमीन के मुआवजे के साथ शिवधारा, अलीनगर, लहेरियासराय-चकदोहरा आदि जगहों पर बसाया गया था।

रामबाग कैम्पस चारों ओर से दीवार से घिरा हुआ है और लगभग ८५ एकड़ जमीन में फैला हुआ है। किले की दीवारों का निर्माण लाल ईंटों से हुई है। इसकी दीवार एक किलोमीटर लम्बी और करीब ५०० मीटर चौड़ी है। किले के मुख्य द्वार जिसे सिंहद्वार कहा जाता है पर वास्तुकला से दुर्लभ दृश्य उकेड़े गयें है। किले के भीतर दीवार के चारों ओर खाई का भी निर्माण किया गया था। उस वक्त खाई में बराबर पानी भरा रहता था। ऐसा किले और वस्तुतः राज परिवार की सुरक्षा के लिए किया गया था। किले की दीवार काफी मोटी थी। दीवार के उपरी भाग में वाच टावर और गार्ड हाउस बनाए गए थे। बदलते समय के साथ दरभंगा राज की अन्य धरोहरों की तरह रामबाग किले की हालत भी अब ज्यादा अच्छी नहीं रही। संरक्षण के अभाव में किले की दीवारें क्षतिग्रस्त हो रहीं है और इसके ढहने का भी खतरा बना हुआ है। इसकी चाहरदीवारियों पर ढेर सारे विज्ञापन भी इसे बदरंग बना रहें हैं और दीवारों के उपरी हिस्से में उग आये पीपल के पौधे अपनी जड़ो से दीवारों को कमजोर करते जा रहें हैं।

महाराजा कामेश्वर सिंह की मृत्यु के बाद उनके उत्तराधिकारियों ने रामबाग़ परिसर की कीमती जमीन को भी बेचना शुरू कर दिया। देखते ही देखते जमीन खरीदने वालों ने भी अपने-अपने मकान बना कर कॉलोनियों का निर्माण कर लिया और आलीशान होटल एवं सिनेमा घर की भी स्थापना हो गयी।

महाराजा महेश ठाकुर १५६९-८१ के द्वारा स्थापित माँ काली की एक दुर्लभ कंकाली मंदिर भी इसी किले के अंदर स्थित है। कहा जाता है कि दरभंगा राज के प्रथम महाराजा महेश ठाकुर को देवी कंकाली की मूर्ति यमुना में स्नान करते समय मिली थी। प्रतिमा को उन्होंने लाकर रामबाग के किले में स्थापित किया था। यह मंदिर राज परिवार की कुल देवी के मन्दिर से भिन्न है और आज भी लगातार श्रद्धालुओं को अपनी ओर आकर्षित करती है।किले के अंदर दो महल भी स्थित हैं। १९७० के भूकम्प में किले की पश्चिमी दीवार क्षतिग्रस्त हो गयी, इसके साथ ही दो पैलेस में से एक पैलेस भी आंशिक रूप से क्षतिग्रस्त हो गयी। इसी महल में राज परिवार की कुल देवी भी स्थित हैं। यह महल आम लोगों के दर्शनार्थ हेतु नहीं खोले गए हैं। किन्तु इस सबके बावजूद दरभंगा का राज किला और परिसर की मंदिरें आज भी दरभंगा अपितु सम्पूर्ण मिथिलांचल के लिए एक आकर्षण का केंद्र बना हुआ है। जिला प्रशासन एवं पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग को इस एतिहासिक विरासत की सुरक्षा और सरंक्षण का जिम्मा उठाना चाहिए। पर्यटन के दृष्टिकोण से इसे विकसित किया जाना चाहिए था जिससे यह राज्य के लिए एक आय का स्रोत हो सकता था। वैसे अभी तक इसकी कोई संभावना नज़र नहीं आ रही है।

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महाराजा कामेश्वर सिंह के बाद दरभंगा राज का पतन:

महाराजा डा. सर कामेश्वर सिंह, सांसद (राज्यसभा) दुर्गा पूजा के अवसर पर अपने निवास दरभंगा हाउस मिड्लटन स्ट्रीट, कोलकता से अपने रेलवे सैलून से नरगोना स्थित अपने रेलवे टर्मिनल पर कुछ दिन पूर्व उतरे थे। १ अक्टुबर १९६२ आश्विन शुक्ल तृतीया को नरगोना पैलेस के अपने सूट के बाथरूम के नहाने के टब में मृत पाये गए। माधवेश्वर में इनका दाह संस्कार दोनों महारानी की उपस्थिति में कर दिया गया। बड़ी महारानी राजलक्ष्मी जी ने महाराज कामेश्वर सिंह के चिता पर माधवेश्वर में मंदिर का निर्माण करवायी थी। छोटी महारानी कामसुन्दरी जी महाराज कामेश्वर सिंह कल्याणी ट्रस्ट बनवायी जिसके तहत किताबों का प्रकाशन, महाराजा कामेश्वर सिंह जयंती आदि कराती हैं।

दरभंगा राज परिवार का शमशान स्थल माधवेश्वर परिसर महाराजा माधव सिंह के नाम पर रखा गया है। जिन्होंने राज गद्दी १७८५ से १८०५ तक सँभाली थी। इस परिसर में राज परिवारों के कई महाराजों व राजकुमारों के समाधि स्थल हैं।

*महाराज रुद्रसिंह की चिता पर रुद्रेश्वर काली *महाराज माधव सिंह की चिता पर महादेव मंदिर *महाराज लक्ष्मीश्वर सिंह की चिता पर तारा मंदिर *महाराज रामेश्वर सिंह की चिता पर श्यामा माई मंदिर *महाराज कामेश्वर सिंह की चिता पर श्यामा माई का छोटा मंदिर पूर्वी ओर पे है, जिसका निर्माण उनके निधन वर्ष १९६२ के बाद उनकी सबसे बड़ी पत्नी महारानी राजलक्ष्मी ने अपना सबसे कीमती हार बेचकर करवाया था। इन सभी मंदिरों के बगल में अन्नपूर्णा मंदिर या महादेव मंदिर हैं जो इन महाराजाओं की महारानियों के समाधी स्थल हैं। बाँकि इस परिसर के पूर्वी ओर जो भी पीपल और बरगद के पेड़ हैं वो सभी दरभंगा राज परिवार के राजकुमारों के समाधी स्थल की निशानी है।

दरभंगा राज का पतन महाराजा कामेश्वर सिंह के निधन के ४-५ साल के बाद ही शरू हो गया था जो १९७५-७६ तक अधोगति को प्राप्त हो गया। १९८९-९० में इंडियन नेशन और आर्यावर्त समाचार के प्रकाशन बंद होना दरभंगा राज के ताबूत में अंतिम कील के समान है; हालाँकि १९९५ में तमाम व्यवधानों के किसी तरह इसका प्रकाशन प्रारम्भ भी करवाया गया लेकिन ज्यादा दिन वह टिक नहीं पाया।

दरभंगा महाराज के नामी संपत्तियों में दरभंगा का बेला पैलेस, रामबाग पैलेस, यूरोपियन गेस्ट हाउस, राज ट्रेज़री का मशहुर Marie Antoinette हार, धोलपुर क्राउन, नेपाली हार और हीरे-जवाहरात थे।

अन्य संपत्तियों में रामेश्वर जूट मील, वाल्फोर्ड ट्रांसपोर्ट कंपनी, दरभंगा हवाई अड्डा, सुगर फैक्ट्री लोहट और सकरी, अशोक पेपर मील, हायाघाट, दरभंगा-लहेरियासराय इलेक्ट्रिक सप्लाई स्टेशन, कलकत्ता ४२ चौरंगी लेन का इंडियन नेशन प्रेस न्यूज़ पेपर & पब्लिकेशन लि. आदि थे। दरभंगा व देश के अन्य प्रांतों के गेस्ट हाऊस व विश्राम कोठियों में दरभंगा गेस्ट हाऊस, दरभंगा, दरभंगा हाऊस पटना, दरभंगा हाऊस कलकत्ता, बॉम्बे पेडर रोड का दरभंगा हाऊस , दरभंगा हाउस शिमला, दरभंगा हाउस दिल्ली और रांची का दरभंगा हाऊस मुख्य हैं।

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..फिर दरभंगा राज दरभंगा का नरगोना पैलेस, राज हेड ऑफिस, यूरोपियन गेस्ट हाउस, मोतीमहल, राज फील्ड, राज प्रेस, देनवी कोठी, लालबाग गेस्ट हाउस, राज अस्तबल, श्रोत्रि लाइन, सहित सैकड़ों एकड़ जमीन मिथिला विश्वविद्यालय को दे दी गई। इनके सबके अलावे हजारों मील में बिछे रेल ट्रैक, रेलवे सैलून, वाटर बोट, बग्घी, फर्नीचर, बेशकीमती कारों में रॉल्स रायस, बेंटले, बियुक, पेकार्ड, शेवेर्लेट, प्लायमौथ व ५० एच्.पी जॉर्ज ५ बॉडी आदि दर्शनीय कारें थी।

महाराजा कामेश्वर सिंह मेमोरियल हॉस्पिटल के लिए महाराजा कामेश्वर सिंह ट्रस्ट व राजनगर के मंदिरों एवं इसी तरह के १०८ मंदिरों के लिए दरभंगा रिलीजियस ट्रस्ट और सीताराम ट्रस्ट है। जिसके अधीन बनारस के बांस फाटक, गोदोलिया चौक के नजदीक राममंदिर, रामबाग, दिलखुश बाग, मधुबनी स्थित भौरा गढ़ी तालाब आदि संपत्तियाँ थी।

संयुक्त बिहार-बंगाल के तात्कालिक जमींदारों को राजा, महाराजा, महाराजाधिराज की उपाधियाँ मिलना भी दरभंगा राज के परिप्रेक्ष्य में कम रोचक नहीं है। सर्वप्रथम मुगलों के शासनकाल में ही तिरहुत का राज्य दरभंगा राज के संस्थापक महेश ठाकुर को मिला था। जिन्होंने मुगल बादशाह को समय समय पर नजराना देना शुरू किया और कालान्तर.. नरपति ठाकुर के पुत्र विष्णु ठाकुर को मुगल शासकों ने लगातार लड़ाई करने के कारण "सिंह" की उपाधि दी थी। १८६० में महाराजा महेश्वर सिंह के मरने के बाद लक्ष्मीश्वर सिंह के नाबालिग होने के कारण दरभंगा "कोर्ट ऑफ वार्ड्स" के अधीन चला गया था और यहाँ ब्रिटिश शासन की ओर से मुजफ्फरपुर के डिप्टी कलक्टर मिस्टर सी पी कैस्पर्ज़ के निर्देशन में मिस्टर जेम्स फरलाँग मैनेजर मुकर्रर किए गए थे। कोर्ट ऑफ वार्ड्स के अधीन दरभंगा को एक से एक मैनेजर मिलता रहा और दरभंगा अन्य सूबों की अपेक्षा तेजी से तरक़्क़ी की ओर निकल गया।

25 सितम्बर,1879 बृहस्पतिवार के दिन 21 वर्ष की उम्र में अजिमाबाद के मोकाम कॉलेज (कॉलेजिएट) स्कूल में हुजूर नवाब लेफ्टिनेंट गवर्नर मिस्टर सीएस बेली बहादुर से ख़िलअत राजगी का पोशाक महाराजा लक्ष्मीश्वर सिंह को पहनाया गया। लक्ष्मीश्वर सिंह की पढ़ाई अंग्रेजों ने अपने दिशानिर्देश में उच्च स्तरीय माहौल में करवाया था और यही कारण था कि दरभंगा लक्ष्मीश्वर सिंह के समय में अपने समकालीन अन्य स्थलों से आगे निकल रहा था। अपने शासनकाल में अंग्रेजों ने विभिन्न प्रकार के जमींदार और रूलिंग किंग बनाया। इसके लिये अंग्रेजों ने कई प्रकार के खिताब दिये, जो पूर्ववर्ती काल में पद के लिए दिया जाता था। जैसे चौधरी, ठाकुर, राय, राजा, महाराजा, महाराजाधिराज आदि. इसके इतर अंग्रेजों के शासन काल में किसी को ‘राय बहादुर’ की उपाधि मिलती थी तो किसी को ‘खान बहादुर’ की।

अंग्रेजों ने लैंड सेटलमेंट नीति के तहत माधव सिंह को महाराजा का खिताब दिया जो महेश्वर सिंह और लक्ष्मीश्वर सिंह तक चलता रहा। महाराज के खिताब के बाद सर की उपाधि रमेश्वर सिंह के बाद कामेश्वर सिंह को भी मिला। इसके इतर कहा जाता है कि महाराज रामेश्वर सिंह को सैनिक ओहदा के रूप में कमाण्डर और महाराज कामेश्वर सिंह को सैनिक ओहदा के रूप में कर्नल का सम्मान भी मिला था।

उत्तरी बिहार में तिरहुत के क्षेत्र में 19 वीं शताब्दी के दौरान कई राजा, बहादुर आदि उपाधिधारी/खिताबधारी लोग विद्यमान थे, जैसे – राजा टेकनारायन सिंह (मौजा बरुआरी) आमदनी लगभग लाख रुपये सलाना, राजा हरबल्लभ नारायण सिंह बहादुर (मौजा सोनवर्षा) आमदनी लगभग 80 लाख रुपये सालाना, राय नंदीपतमहथा बहादुर (बंगाल सरकार ने जिला तिरहुत में (सबसे) पहले इन्हीं को “राय बहादुर” की उपाधि भेंट किया था) राय बनवारी लाल साहु बहादुर अग्रवाल (दरभंगा, वंशीघाट पर पुल बनाने पर 1875 में खिलअत (सम्मान में दिया गया पोशाक) और राय बहादुर की उपाधि मिली)। बाबू देवी प्रसाद (दरभंगा, बेनीवाद के निकट लखनदेई नदी पर एक लोहे का पुल बनाने के कारण ईनाम में “राय बहादुर” की उपाधि मिली थी। किन्तु मर जाने के कारण जीवनकाल में खिलअत नहीं मिल पाया)। राय गोवरधनलाल (दरभंगा, खिलअत और “राय बहादुर” की उपाधि 1875 में पटना में मिली) आदि।

स्वतंत्रता के बाद संविधान बनाने के क्रम में संविधान सभा में चर्चा के दौरान सेठ गोविंद दास ने कहा था कि ‘फ्रांस की क्रांति और रूस की क्रांति के बाद वहां पर जितनी उपाधियां थीं, वे तमाम वापस ले ली गईं। क्या गुलामी के उन तमगों से हम लोगों का उद्धार करना नहीं चाहते? मैं चाहता हूं कि इस समय के उपाधिधारी भी स्वतंत्र भारत में उसी प्रकार के व्यक्तियों की तरह रह सकेंगे जिस तरह अन्य व्यक्ति रहेंगे ‘।

विभिन्न तरह की विस्तृत चर्चा के उपरांत भारतीय कुलीन उपाधियों और अंग्रेजों द्वारा प्रदान की गई अभिजात्य उपाधियों को समाप्त कर दिया गया। दरअसल संविधान निर्मातागण आजाद भारत में ऐसे नागरिक चाहते थे, जो किसी उपाधि के दबाव में आकर निर्णय नहीं कर सकें। इस प्रकार, संविधान निर्माताओं ने अंग्रेजों के जमाने की उपाधियों पर रोक लगा दी और भारतीय संविधान के अनुच्छेद 18 में स्प्ष्ट रूप से लिखा कि “राज्य को सैन्य या शैक्षणिक विशिष्टता को छोड़कर किसी को भी कोई पदवी देने से रोकता है तथा कोई भी भारतीय नागरिक किसी विदेशी राज्य से कोई पदवी स्वीकार नहीं कर सकता “।

इसको आधार बनाकर ही आजादी के बाद की भारत सरकार ने भारतरत्न और पद्म पुरस्कार जैसे अलंकरण प्रदान करने शुरू कर दिए। अंग्रेजों के उपाधि का स्वरूप स्वतंत्र भारत में बदल गया है। ब्रिटिश भारत में उपाधि के बाद नाम लेकर संबोधित किया जाता था, स्वतंत्र भारत में ब्रिटिश नागरिक की तरह भारतीय नागरिक अपने नाम के पूर्व अपनी उपाधि नहीं लगा सकते हैं।

अर्थात भारत के नये गणतंत्र में अब किसी रूलिंग किंग के बेटे/बेटी न तो कोई राजकुमार रहा न कोई राजकुमारी। महाराज सर कामेश्वर सिंह ने किले का निर्माण शुरु किया किन्तु दरभंगा को रूलिंग किंग का दर्जा अंततः प्राप्त नहीं हो सका। चूंकि अंग्रेजों के द्वारा दरभंगा के कामेश्वर सिंह को “महाराज” की उपाधि दी गई थी इसलिए संविधान सभा में भी इन्हें उपाधि के साथ महाराज कामेश्वर सिंह ही कहा गया। जैसे किसी अन्य व्यक्ति के नाम के पूर्व “रायबहादुर” या “खानबहादुर” लगाकर सम्बोधित किया जाता हैं। संविधान सभा के एक सदस्य के रूप में कामेश्वर सिंह का नाम महाराज कामेश्वर सिंह के रूप में ही दर्ज है।


वस्तुतः दरभंगा के महाराज कामेश्वर सिंह सम्पूर्ण ब्रिटिश भारत के सबसे बड़े जमींदार में से एक थे.. वस्तुतः इनका ओहदा जमींदारों का रहा और प्राप्त उपाधि महाराजाधिराज की थी।

दरभंगा राज ट्रेजरी के पास था विश्वस्तरीय जवाहरातों का एक नायाब संग्रह था।सन १९४७ में लगाए गए एक अनुमान के अनुसार उस वक्त भारत में लगभग १५० विश्वस्तर के अनमोल रत्न एवं जवाहरातों का संग्रह था। बैसे ये बात सर्वविदित है कि भारत में सबसे बेहतरीन जवाहरातों का संग्रह हैदराबाद के निजाम के पास था तथा उनके बाद दूसरा स्थान बड़ौदा के गायकवाड़ को दिया जाता है। पर ये भी आश्चर्य ही है कि इस प्रकार के विश्वस्तरीय जवाहरातों का संग्रह करने वालों में तीसरा स्थान ना तो जयपुर के राजाओ का था और ना ही ग्वालियर अथवा मैसूर के नरेशों के पास था। ये स्थान रखते थे भारत के सबसे बड़े, धनी और प्रभावशाली ज़मींदारी एस्टेट दरभंगा राज के अंतिम महाराजा कामेश्वर सिंह। सन १९५० से १९६० के दशक के सबसे अमीर और शक्तिशाली व्यक्तियों में उनका शुमार होता था।

एक बहुमूल्य नौलखा हार भी था, जो शोभता था दरभंगा महाराज रामेश्वर सिंह के गले में। दरभंगा राज परिवार के पास जो जवाहरात थे उसमे सबसे प्रसिद्ध हार नौलखा हार था जो कि विश्व के सबसे शानदार हारों में से एक माना जाता था। मूल रूप से यह हार मराठा बाजीराव पेशवा का था जिसे उन्होंने ९ लाख रूपये में खरीदा था। इस हार में मोती, हीरा और पन्ना जड़ा हुए थे। पेशवा के बाद आनेवाले पीढ़ियों में जो भी पेशवा बने वे उस हार में एक-एक जवाहरात जोड़ते गए जिसकी कीमत बढ़ कर तब तक ९० लाख हो गयी थी। १८५७ की क्रान्ति के बाद नाना साहेब पेशवा इसे अपने साथ नेपाल ले गए और इस हार को नेपाल के राजा जंग वहादुर के हाथों बेच दिया। उन्हें इस हार को इसलिए बेचना पड़ा क्योकि उनको पास दान देने के लिए धन की आवयश्कता थी। उनके पास एक अन्य असाधारण ‘शिरोमणि’ हार भी था जो ३ इंच लंबा था और जिसमे पन्ने जड़े हुए थे। इस हार में उन्होंने मुहर लगा रखा था जिसमे नाना साहेब को घुड़सवारी करते हुए दिखाया गया है।

(दरभंगा महाराजा कामेश्वर सिंह नेपाल राज दरबार में)

..नाना साहेव के हारों का संग्रह दरभंगा महाराज को कैसे हाथ लगा उसकी एक रोचक और दिलचस्प कहानी भी है। नेपाल के राजा जंग बहादुर राणा के बाद ये हार धीर शमशेर राणा के अधिकार में आ गया। १९०१ मे तख्ता पलट विद्रोह के बाद शमशेर राणा को नेपाल का प्रधान मंत्री पद त्यागकर पलायन करना पड़ा। उसके पास धन की कमी हो गयी। वह अपना हार बेचने के लिए दबाव में आ गये। उन्हें अपना हार 24 घंटे में ही बेचना था वो भी नकद में, पर इतने कम समय में इतने नकद रूप में हार खरीदने वाले दरभंगा राज के महाराजा रामेश्वर सिंह के अलावा और कौन हो सकते था। इस प्रकार यह दुर्लभ हार भी दरभंगा राज परिवार के पास आ गया।

दरभंगा राज के अंतिम महाराज कामेश्वर सिंह को अनमोल जवाहरातों को संग्रह करने का बड़ा शौक भी था। दरभंगा राज परिवार ने जर्मनी के लिपजिंग शहर में नीलाम होने वाले रुसी जार के कई जवाहरातों को खरीदा था। महाराज कामेश्वर सिंह ने इन हारों को लाखों रूपये में खरीद कर भारत लाया जहाँ यह हार १९६० तक रहा। इसके बाद विश्वप्रसिद्ध मुग़ल पन्ना था राजपरिवार का दूसरा सबसे बड़ा संग्रह।

महाराज कामेश्वर सिंह के अनुज कुमार विश्वेश्वर सिंह द्वारा पहना गया हार जो इस चित्र में दिख रहा है वह राज परिवार संकलित महान मुग़ल कालीन पन्ना है जो कि विश्व का सबसे बड़ा नक्काशी किया हुआ पन्ना का हार था। इसका वजन २१७ कैरेट था और यह दो इंच लंबा था। यह १.७५ इंच चौड़ा और डेढ़ इंच मोटा था। मूल रूप से पन्ने के हार पर कुरान के छंदों से नक्कासी किया हुआ था। यह हार राज परिवार के पास कैसे आया , इसके पीछे भी एक कहानी है। १९०० ई० के पूर्व कुचबिहार के महाराजा दरभंगा के महाराजा से कर्ज में बड़ी रकम ली हुई थी जिसके एवज में उन्होंने दरभंगा महाराज के पास पन्ना बंधक रखा हुआ था। जब कूचबिहार के महाराजा के सचिब ऋण चुकाने के लिए दरभंगा महाराजा के पास आये और पन्ना वापस माँगा तो दरभंगा महाराजा ने उस सचिव से कहा कि जो हार दरभंगा आता है वह दरभंगा से वापस नहीं जाता है , और तब से यह बहुमूल्य पन्ना का हार दरभंगा महाराज के पास ही रह गया।

इन हारों का खजाना जो हैदराबाद के निजाम या इरान के शाहों के समकक्ष ही बेशकीमती थे १०० वर्षों तक दरभंगा राज के पास रहे। महाराजा कामेश्वर सिंह की मृत्यु १९६० ई० में हो गयी। उनके मृत्यु काल तक ये सब हार दरभंगा राज परिवार में ही रहा। उनकी मृत्यु के बाद ये सब हार दरभंगा से बाहर कैसे चला गया यह एक रोचक एवं दिलचस्प कहानी है। इन हारों का दरभंगा आगमन की कहानी से ज्यादा रोचक इन हारों का दरभंगा से बाहर जाना है। अंतिम महाराजा की मृत्यु के बाद दरभंगा की महारानी और महाराजा के भतीजों के बीच सम्पति बिवाद चला। इन आभूषनो का बहुत बड़ा भाग बम्बई के नाना भाई ज्वेलर्स के हाथों बेच दिया गया। न्यूयार्क के प्रसिद्ध जौहरी वैन क्लीफ और आर्पेल्स को जब दरभंगा के राजघरानों के द्वारा इस बिक्री के बारे में पता चला तो उसने अपना एक सन्देश-वाहक को दरभंगा राज भेजा और उनसे अनुरोध किया हारों के खजाना यदि उनके हाथों बेचते हैं तो उन्हें दोगुना रकम मिलेगा। हारों में धोलपुर का ताज , मैरी ऐन्टोइनेट हार , नेपाल का नेकलेस और कई शानदार हीरे एवं पन्नों के टुकडे आदि महत्वपूर्ण थे। दरभंगा महाराज जब जीवित थे तब उन्होंने १९५४ ई० में न्यूयार्क के जौहरी आर्पेल्स को इन हारों के संग्रह को लिपिबद्ध करने के लिए बुलाया था। अतः आर्पेल्स इन सब हारों और उसकी एतिहासिकता के बारे में जानता था।

धीरे धीरे दरभंगा राज परिवार में सम्पति विवाद इतना बढ़ गया कि पटना हाईकोर्ट ने हारों की सूची देखने की इच्छा जताई जो दरभंगा राज के खजाने में रखा हुआ था। राज घराने में एक रजिस्टर था जिसमे राजघराने के सभी हारों की विस्तार से एक सूचि बनायी गयी था की कितना हार उनके पास था और कितना हार निकाला गया। महारानीयों द्वारा कार्य के वक्त खजाने से हार ले लिया जाता था और उपयोग करने के बाद वापस कर दिया जाता। संदेहास्पद स्थितियों में हार और हारों का रजिस्टर खो दिया गया। फिर पटना हाईकोर्ट के आदेश पर दरभंगा राज परिवार के हारों की सूची १९५४ ई० में वैन क्लीफ और आर्पेल्स ने बनाया। साथ ही गुम हुए हारों की सूची भी कोर्ट के आदेश पर बनाया गया। किन्तु कोई यह नहीं जानता कि हार क्या हुआ।

दरभंगा का शक्तिशाली राज परिवार को कभी भारत में वैभव और समृद्धि के लिए जाना जाता था इतिहास के गर्त में खो गया है। किन्तु आज भी दरभंगा राज परिवार के जवाहरातों के लन्दन या पेरिस में नीलाम होने के खबरें आती रहती हैं। जैसे २००१ के सितम्बर में मुगलकालीन पन्ना लन्दन के क्रिस्टी नीलामी घर में बिक्री के लिए आया था।

हीरे जवाहरातों की तरह दरभंगा राज में बने कुछ भवन, महलों व पैलेसों की भी कुछ अलग ही शानों शौकत रही है। इनमें ही एक दरभंगा राज का आनंदबाग स्थित लक्ष्मेश्वर विलास पैलेस भी है। १९वीं शताब्‍दी में निर्मित एशिया के सर्वश्रेष्ठ महलों में इसका नाम सबसे ऊपर रखा जाता है। फ्रेंच वास्तुशिल्प से बना लक्ष्मेश्वर विलास पैलेस आज एक यूनिवर्सिटी के रूप में प्रयोग किया जा रहा है, लेकिन इसकी खूबसूरती और सुविधाओं के चर्चे १८८४ में प्रकाशित लंदन टाइम्‍स के मुख्‍य पन्‍ने पर जगह बना चुकी है। वैसे हाल के वर्षों में हुए एक ताजा सर्वे में भी इस महल को भारत का १५वां सबसे सुदर वास्तुशिल्प वाला महल बताया गया है। बिहार सरकार की उपेक्षा और दरभंगा के लोगों की उदासीनता के बावजूद इसका स्‍थान पाना, एक प्रकार से मरा हुआ हाथी भी नौ लाख का वाली कहावत को सही ठहराता है।

इसके निर्माण के पीछे कुछ जरुरत, तो कुछ परंपरा मानी जाती है। दरअसल खंडवाला राजवंश में नये डीह को नयी शुरुआत का बोधक माना जाता है। महेश्‍वर सिंह के निधन के बाद उनके दोनों बेटों के नबालिग होने के कारण तिरहुत की सत्‍ता कोर्ट आफ वार्डस को चली गयी। अंग्रेजों के हाथों तिरहुत का प्रशासन जाने से कई चीजें व्‍यवस्थित हुई और तिरहुत के राजस्‍व में एतिहासिक बढोतरी हुई। यही कारण रहा कि जब पटना कॉलेज में तिरहुत के नये महाराजा के रूप में लक्ष्‍मेश्‍वर सिंह का राज्‍याभिषेक हुआ, तो उनकी पूंजी उनके पिता के मुकाबले कई गुणा अधिक हो चुकी थी। अंग्रेजी शिक्षा व आधुनिक सोच वाले तिरहुत के महाराजा के लिए पुराना छत्र निवास पैलेस छोटा और पारंपरिक था। ऐसे में १८८० में तय हुआ कि नये महाराज के लिए एक महल और एक सचिवालय का निर्माण कराया जाये। लक्ष्‍मेश्‍वर सिंह चाहते थे कि उनका महल छत्र विलास पैलेस से पूर्व बने, लेकिन मिथिला के पंडितों ने नरगौना तहसील से आगे जाने पर सत्‍ता जाने की आशंका जता दी, इसके बाद छत्र विलास पैलेस के पीछे आनंद बाग में नया महल बनाने की योजना तैयार हुई, जबकि सचिवालय छत्रविलास पैलेस से दक्षिण मोती महल के नाम से बनाने का फैसला हुआ।

१९वीं और प्रारंभिक २०वीं शताब्दी में पश्चिमी देशों में बड़ी शीघ्रता से विकास हुआ, फ्रांस इसका केंद्र था। इसलिए महाराजा लक्ष्‍मेश्‍वर सिंह ने अपने नये पैलेस के लिए भी फ्रांस को ही याद किया। कला, वास्तुशिल्प और विदेशी भवन निर्माण शैली के जुनूनी महाराजा की विरासत आज भी उस दौर की समृद्धि की साक्षी है। फ्रांस के प्रसिद्ध पैलेस ऑफ वरसाइलज व पैलेस ऑफ फाउंटेन ब्लू के डिज़ाइन पर निर्मित लक्ष्‍मेश्‍वर विलास पैलेस फ्रांसीसी वास्तुकार द्वारा निर्मित महल उनके वास्तु प्रेम को बयां करते हैं। तकरीबन ५०० सौ एकड़ में फ्रांसीसी आर्किटेक्ट डीबी मारसेल द्वारा डिजाइन किये गये इस महल को ब्रिटिश अभियंता मेजर सी मंट ने बनाया है। लाल व पीले रंग का यह पैलेस विभिन्‍न प्रकार के करीब १०० कमरो से सुसज्जित है। इस महल का शिलान्‍यास ७ अक्‍टूबर,१८८० को हुआ था और इसका शिलान्‍यास करने तत्‍कालीन ले. गर्वनर सर आशले हेडन खुद दरभंगा आये थे। इसके निर्माण में लगे आठ वर्ष इसकी भव्यता के परिचायक हैं।

इस महल का दरबार हॉल, फ्रांस के दरबार हॉल का नैनो वर्जन माना जाता है। फाल्‍स सिलिंग पर रत्‍न जरित कलात्‍मक छवि के साथ-साथ चारो ओर युवतियों की प्रतिमाओं की ऐसी छवि शायद ही भारत के किसी अन्‍य दरबाल हॉल में देखने को मिलती है। इसके बेंकेट हॉल की खूबसूरती मुगल और राजस्‍थानी शैली को भी कहीं पीछे छोड देती है। दीवालों पर रत्‍न जरित कलाकारी देखने दूर-दूर से लोग आते थे। १९३२ में भारत के तत्‍कालीन वायसराय इस महल को देखकर इतना रोमांचित हुए थे कि इसके डांस रूम में नाचने से खुद को नहीं रोक पाये। संयोग से उस महत्‍वपूर्ण क्षण का विडियो आज भी मौजूद है। छत्र विलास पैलेस के जमाने तक समय का ज्ञान महल में लगे घंटे बजाकर कराया जाता था, लेकिन इस पैलेस में पहली बार लंदन से लायी गयी घड़ी से समय का ज्ञान कराया जाने लगा। यह भारत का संभवत: पहला महल है, जिसके अंदर महिलाओं के स्‍नान के लिए तरणताल का निर्माण हुआ था। इससे पूर्व तालाबों और नदियों में ही स्‍नान की पंरपरा रही थी। इसके दरबार हॉल में भी महिलाओं के लिए खास तौर पर जगह निर्धारित किया गया था।

इस में पहले दीये से रोशनी की व्‍यवस्‍था थी लेकिन १९३९ में इसमें बिजली ममुहैया करा दी गयी। इस महल का रोशनदान आज भी अपने सौंदर्य की कहानी कहता है। आज इस महल की हालत बेहद खराब है। दरबार हॉल में पानी रिसता है। लकडी की सीढियां हिलने लगी हैं। फायरवॉल में कागजात रखे जाते हैं तो तरणताल में कार्यालय चलता है। कहने को राज्‍य सरकार ने इसे धरोहर घोषित कर रखा है, लेकिन इसके आसपास बेतरकीब निर्माण बदस्‍तूर जारी है और खतरनाक जगहों पर भी लोगों को जाने से प्रतिबंधित नहीं किया गया है। कमाल की बात यह भी है कि इस हल के बनने के करीब पांच साल बाद बने कूचबिहार पैलेस को सौ साल पूरे होने से पूर्व ही एएसआइ ने अपने अधीन कर लिया, जबकि सौ वसंत देख चुके इस पैलेस के प्रति उसका रवैया आज भी उदासीन है।

लक्ष्मेश्वर विलास पैलेस अपने बगान के लिए भी विश्‍व प्रसिद्ध है। २०वीं शताब्‍दी के महान बागवान चाल्‍स मैरिज को इस महल का मुख्‍य बागवान नियुक्‍त किया गया था। करीब ४१ हजार पेडों से सुसज्जित इसका बगान एशिया का सबसे समृद्ध बोटेनिकल व जुलसॅजिकल गार्डेन माना गया है। अकेले आम की ही ऐसी ४० प्रजाति यहां विकसित की गयी जो दुनिया में और कहीं नहीं थी। नरगौना तहसील आम के बगान के लिए अकबरनामा में भी उल्‍लेखित है। चाल्‍स मैरिज ने पुराने आम बगान में विभिन्‍न प्रकार के अन्‍य महत्‍वपूर्ण पेड लगाकर इसे सर्वश्रेष्‍ट बना दिया। बाद में चाल्‍स मैरिज ब्रिटेन की महारानी का मुख्‍य बागवान के रूप में नियुक्‍त होकर इंग्‍लैड चले गये। आज इस बगयान की लगभग ६० फीसदी पेड़ काटे जा चुके हैं।

इस महल का दरबार हॉल भारतीय इतिहास के कई ऐसे पहलुओं का गवाह रहा है, जिसकी आज चर्चा तक नहीं होती। १८८४ पंडौल में नील के खिलाफ हुए आंदोलन के बाद इसी दरबार हॉल में नील के विकल्‍प पर विचार करने के लिए एक समिति का गठन किया गया। इसी दरबार हॉल में तिरहुत के विकास को तेज करने के लिए तिरहुत रेलवे की स्‍थापना की घोषणा की गयी। १८९७ में गांधी ने जब द अफ्रीका में अंगेजों के खिलाफ आंदोलन चलाने के लिए तिरहुत सरकार से मदद मांगी थी, तो महाराजा ने इसी दरबार हॉल में गांधी को मदद देने की घोषणा की थी। माना जाता है कि १९१५ में भारत आने से पहले मोहनदास को गांधी बनाने में दरभंगा महाराज की वो मदद मील का पत्‍थर साबित हुआ। इसी प्रकार इसी महल में महाराजा लक्ष्‍मेश्‍वर सिंह ने १८५७ के विद्रोह के सबसे बडे नायक बहादुर शाह जफर के पोते जबुरुद़दीन को राज्‍य अतिथि का दर्जा देने की घोषणा की। उस वक्‍त उसे पनाह देना अंग्रेजों के खिलाफ एक बडा कदम माना गया था। इस कारण अंग्रेज ने अंतिम सांस तक दरभंगा को स्‍वतंत्र राज्‍य की मान्‍याता नहीं दी और न ही लक्ष्‍मेश्‍वर सिंह को महाराजाधिराज का टाइटिल ही प्रदान किया। इसी महल के दरबार हॉल में कांग्रेस की स्‍थापना के लिए आर्थिक मदद का प्रस्‍ताव स्‍वीकार किया गया और इसी दरबार हॉल में बंगाल भू‍मि अधिग्रहण कानून १८८४ के खिलाफ निर्णय लिया गया। जमीन पर किसानों को पहला हक देने की बात करनेवाले महाराजा लक्ष्‍ेमश्‍वर सिंह पहले आदमी थे। इसके साथ ही लक्ष्‍मेश्‍वर सिंह ने तिरहुत में बहु विवाह, बाल विवाह को प्रतिबंधित किया, साथ ही नारी शिक्षा को बढावा देने के लिए ठोस पहल की। महज ५० वर्ष की अल्‍प आयु में स्‍वर्गवासी हो गये, लेकिन महज १७ साल के शासन काल में उन्‍होंने मिथिला को २०वीं सदी के लिए तैयार कर दिया। विदेशी कलात्मक वस्तुओं के संग्रह के जुनूनी महाराजा लक्ष्‍मेश्‍वर सिंह के संग्रह में दुर्लभ कलाकृतियां, पेंटिंग्स, फर्नीचर, वर्ल्ड क्लॉक, फोटो गैलरी आदि शामिल हैं, जो आज दरभंगा के लक्ष्‍मेश्‍वर सिंह संग्रहालय में उपेक्षा का दंश झेल रहा है।

संतानहीन होने के कारण महाराजा लक्ष्‍मेश्‍वर सिंह के निधन के बाद उनके छोटे भाई राजनगर के जमींदार रामेश्‍वर सिंह तिरहुत सरकार बने। उन्‍होंने इस महल में किसी प्रकार का बदलाव नहीं किया, सच पूछा जाये तो इस महल का भाेग रामेश्‍वर सिंह ने ही किया, क्‍योंकि महाराजा लक्ष्‍मेश्‍वर सिंह इस महल के पूर्ण निर्मित होने के कुछ वर्षों बाद ही स्‍वर्गवासी हो गये। रामेश्‍वर सिंह के बाद उनके पुत्र कामेश्‍वर सिंह ने इसी महल में राजतिलक करबाया। १९३४ के भूकंप में यह महल बुरी तरह क्षतिग्रस्‍त हो गया। खासकर इसका घंटाघर टूट गया। महाराजा कामेश्‍वर सिंह ने पूरे महल को उसी अंदाज में बनवाया और लंदन से मंगवा कर दूसरी घडी वहां लगावा दी। लेकिन उन्‍होंने अपना नया आसियाना छत्र विलास पैलेस की जगह पर बनवाया। माना जाता है कि पूर्व दिशा में जाने के कारण ही उनकी सत्‍ता हमेशा के लिए चली गयी। युवराज घोषित हुए कुमार जीवेश्‍वर सिंह तिरहुत सरकार नहीं बन सके। वैसे १९५० में ही जमींदारी के जाने के बाद राज सिंहासन एक दार्शनीय वस्तु बन कर रह गया।

महाराजा कामेश्‍वर सिंह इस महल को पहला निजी विश्‍वविद्यालय के रूप में सरकार को दान दे दिया। १९६० में दान देने के उपरात यह महल कामेश्‍वर सिंह संस्‍कृत विश्‍वविद्यालय के मुख्‍यालय के रूप में पहचाना जाता है।

दरभंगा राज के ऐतिहासिक रोचक तथ्यों व दरभंगा स्थित राज परिसर के भवनों में एक ही कैंपस में दो युनिवर्सिटी.. एक "महाराजा कामेश्वर सिंह संस्कृत विश्वविद्यालय" व दुसरा "ललित नारायण मिथिला विश्वविद्यालय" को देखना खुद में सुखद था। फिर इन राजशाही दर्शनों का शांत सुसंस्कृत व ओजपूर्ण द्रष्टव्यों के साथ दरभंगा से पटना आना और अगले ही दिन एक और नवाबों के शहर हैदराबाद आकर.. "हैदराबाद युनिवर्सिटी" के किसी गेट के सामने समक्ष खुद को देख पाना..

..वास्तव में हैरत भरा था। शैक्षणिक परिप्रेक्ष्य में अपने अनुभवों से इतना कुछ तो कह ही सकता हूँ कि.. कालखंडों के अग्निचक्र में भौगोलिक या राजनीतिक अस्तित्व भले ही बदलते रहेंगे.. लेकिन शैक्षणिक मुखरता का दिव्यमान ध्वज अपने ज्ञान सृजन में अडिग लहराता ही रहेगा।

जय हिन्द.. जय भारत..

Vinayak Ranjan

www.vipraprayag.wordpress.com

Monday, 5 November 2018

यात्रा साहित्य के महापंडित राहुल सांकृत्यायन के रेफरेंस से..

“ मेरी समझ में दुनिया की सर्वश्रेष्ठ वस्तु है घुमक्कड़ी। घुमक्कड़ से बढ़कर व्यक्ति और समाज का कोई हितकारी नहीं हो सकता। दुनिया दुख में हो चाहे सुख में, सभी समय यदि सहारा पाती है तो घुमक्कड़ों की ही ओर से। प्राकृतिक आदिम मनुष्य परम घुमक्कड़ था। आधुनिक काल में घुमक्कड़ों के काम की बात कहने की आवश्यकता है, क्योंकि लोगों ने घुमक्कड़ों की कृतियों को चुरा के उन्हें गला फाड़–फाड़कर अपने नाम से प्रकाशित किया। जिससे दुनिया जानने लगी कि वस्तुत: तेली के कोल्हू के बैल ही दुनिया में सब कुछ करते हैं। आधुनिक विज्ञान में चार्ल्स डारविन का स्थान बहुत ऊँचा है। उसने प्राणियों की उत्पत्ति और मानव–वंश के विकास पर ही अद्वितीय खोज नहीं की, बल्कि कहना चाहिए कि सभी विज्ञानों को डारविन के प्रकाश में दिशा बदलनी पड़ी। लेकिन, क्या डारविन अपने महान आविष्कारों को कर सकता था, यदि उसने घुमक्कड़ी का व्रत न लिया होता। आदमी की घुमक्कड़ी ने बहुत बार खून की नदियाँ बहायी है, इसमें संदेह नहीं और घुमक्कड़ों से हम हरगिज नहीं चाहेंगे कि वे खून के रास्ते को पकड़ें। किन्तु घुमक्कड़ों के काफले न आते जाते, तो सुस्त मानव जातियाँ सो जाती और पशु से ऊपर नहीं उठ पाती। "

#हिन्दी यात्रा वृतांत/यात्रा साहित्य के महापंडित राहुल सांकृत्यायन के रेफरेंस से..


२१वीं सदी के इस दौर में जब संचार-क्रान्ति के साधनों ने समग्र विश्व को एक ‘ग्लोबल विलेज’ में परिवर्तित कर दिया हो एवं इण्टरनेट द्वारा ज्ञान का समूचा संसार क्षण भर में एक क्लिक पर सामने उपलब्ध हो, ऐसे में यह अनुमान लगाना कि कोई व्यक्ति दुर्लभ ग्रन्थों की खोज में हजारों मील दूर पहाड़ों व नदियों के बीच भटकने के बाद, उन ग्रन्थों को खच्चरों पर लादकर अपने देश में लाए, रोमांचक लगता है। पर ऐसे ही थे भारतीय मनीषा के अग्रणी विचारक, साम्यवादी चिन्तक, सामाजिक क्रान्ति के अग्रदूत, सार्वदेशिक दृष्टि एवं घुमक्कड़ी प्रवृत्ति के महान पुरूष राहुल सांकृत्यायन।


राहुल सांकृत्यायन के जीवन का मूलमंत्र ही घुमक्कड़ी यानी गतिशीलता रही है। घुमक्कड़ी उनके लिए वृत्ति नहीं वरन् धर्म था। आधुनिक हिन्दी साहित्य में राहुल सांकृत्यायन एक यात्राकार, इतिहासविद्, तत्वान्वेषी, युगपरिवर्तनकार साहित्यकार के रूप में जाने जाते है।

राहुल जी का समग्र जीवन ही रचनाधर्मिता की यात्रा थी। जहाँ भी वे गए वहाँ की भाषा व बोलियों को सीखा और इस तरह वहाँ के लोगों में घुलमिल कर वहाँ की संस्कृति, समाज व साहित्य का गूढ़ अध्ययन किया। राहुल सांकृत्यायन उस दौर की उपज थे जब ब्रिटिश शासन के अन्तर्गत भारतीय समाज, संस्कृति, अर्थव्यवस्था और राजनीति सभी संक्रमणकालीन दौर से गुजर रहे थे। वह दौर समाज सुधारकों का था एवं काग्रेस अभी शैशवावस्था में थी। इन सब से राहुल अप्रभावित न रह सके एवं अपनी जिज्ञासु व घुमक्कड़ प्रवृत्ति के चलते घर-बार त्याग कर साधु वेषधारी संन्यासी से लेकर वेदान्ती, आर्यसमाजी व किसान नेता एवं बौद्ध भिक्षु से लेकर साम्यवादी चिन्तक तक का लम्बा सफर तय किया। सन् १९३० में श्रीलंका जाकर वे बौद्ध धर्म में दीक्षित हो गये एवं तभी से वे ‘रामोदर साधु’ से ‘राहुल’ हो गये और सांकृत्य गोत्र के कारण सांकृत्यायन कहलाये। उनकी अद्भुत तर्कशक्ति और अनुपम ज्ञान भण्डार को देखकर काशी के पंडितों ने उन्हें महापंडित की उपाधि दी एवं इस प्रकार वे केदारनाथ पाण्डे से महापंडित राहुल सांकृत्यायन हो गये। सन् १९३७ में रूस के लेनिनग्राद में एक स्कूल में उन्होंने संस्कृत अध्यापक की नौकरी कर ली। छत्तीस भाषाओं के ज्ञाता राहुल ने उपन्यास, निबंध, कहानी, आत्मकथा, संस्मरण व जीवनी आदि विधाओं में साहित्य सृजन किया परन्तु अधिकांश साहित्य हिन्दी में ही रचा। राहुल तथ्यान्वेषी व जिज्ञासु प्रवृत्ति के थे सो उन्होंने हर धर्म के ग्रन्थों का गहन अध्ययन किया। अपनी दक्षिण भारत यात्रा के दौरान संस्कृत-ग्रन्थों, तिब्बत प्रवास के दौरान पालि-ग्रन्थों तो लाहौर यात्रा के दौरान अरबी भाषा सीखकर इस्लामी धर्म-ग्रन्थों का अध्ययन किया। निश्चितत: राहुल सांकृत्यायन की मेधा को साहित्य, अध्यात्म, ज्योतिष, विज्ञान, इतिहास, समाज शास्त्र, राजनीति, भाषा, संस्कृति, धर्म एवं दर्शन के टुकड़ों में बाँटकर नहीं देखा जा सकता वरन् समग्रतः ही देखना उचित है।

१९१६ तक आते-आते इनका झुकाव बौद्ध -धर्म की ओर होता गया। बौद्ध धर्म में दीक्षा लेकर, वे राहुल सांकृत्यायन बने। बौद्ध धर्म में लगाव के कारण ही ये पाली, प्राकृत, अपभ्रंश, आदि भाषाओ के सीखने की ओर झुके। १९१७ की रुसी क्रांति ने राहुल जी के मन को गहरे में प्रभावित किया। वे अखिल भारतीय किसान सभा के महासचिव भी रहे। उन्होंने तिब्बत की चार बार यात्रा की और वहा से विपुल साहित्य ले कर आए। १९३२ को राहुल जी यूरोप की यात्रा पर गए। १९३५ में जापान, कोरिया, मंचूरिया की यात्रा की। १९३७ में मास्को में यात्रा के समय भारतीय-तिब्बत विभाग की सचिव लोला येलेना से इनका प्रेम हो गया। और वे वही विवाह कर के रूस में ही रहने लगे। लेकिन किसी कारण से वे १९४८ में भारत लौट आए।

राहुल जी वास्तव के ज्ञान के लिए गहरे असंतोष में थे, इसी असंतोष को पूरा करने के लिए वे हमेशा तत्पर रहे। उन्होंने हिन्दी साहित्य को विपुल भण्डार दिया। उन्होंने मात्र हिन्दी साहित्य के लिए ही नही बल्कि वे भारत के कई अन्य क्षेत्रों के लिए भी उन्होंने शोध कार्य किया। वे वास्तव में महापंडित थे। राहुल जी की प्रतिभा बहुमुखी थी और वे संपन्न विचारक थे। धर्म, दर्शन, लोकसाहित्य, यात्रासहित्य, इतिहास, राजनीति, जीवनी, कोष, प्राचीन ग्रंथो का संपादन कर उन्होंने विविध क्षेत्रों में महत्वपूर्ण कार्य किया। उनकी रचनाओ में प्राचीन के प्रति आस्था, इतिहास के प्रति गौरव और वर्तमान के प्रति सधी हुई दृष्टि का समन्वय देखने को मिलता है। यह केवल राहुल जी थे, जिन्होंने प्राचीन और वर्तमान भारतीय साहित्य चिंतन को पूर्ण रूप से आत्मसात् कर मौलिक दृष्टि देने का प्रयास किया। उनके उपन्यास और कहानियाँ बिल्कुल नए दृष्टिकोण को हमारे सामने रखते हैं। तिब्बत और चीन के यात्रा काल में उन्होंने हजारों ग्रंथों का उद्धार किया और उनके सम्पादन और प्रकाशन का मार्ग प्रशस्त किया, ये ग्रन्थ पटना संग्रहालय में है। यात्रा साहित्य में महत्वपूर्ण लेखक राहुल जी रहे है। उनके यात्रा वृतांत में यात्रा में आने वाली कठिनाइयों के साथ उस जगह की प्राकृतिक सम्पदा, उसका आर्थिक और सांस्कृतिक जीवन और इतिहास अन्वेषण का तत्व समाहित होता है। "किन्नर देश की ओर", "कुमाऊ", "दार्जिलिंग परिचय" तथा "यात्रा के पन्ने" उनके ऐसे ही ग्रन्थ है।

राहुल सांकृत्यायन का मानना था कि घुमक्कड़ी मानव-मन की मुक्ति का साधन होने के साथ-साथ अपने क्षितिज विस्तार का भी साधन है। उन्होंने कहा भी था कि- "कमर बाँध लो भावी घुमक्कड़ों, संसार तुम्हारे स्वागत के लिए बेकरार है।" राहुल ने अपनी यात्रा के अनुभवों को आत्मसात् करते हुए ‘घुमक्कड़ शास्त्र’ भी रचा। वे एक ऐसे घुमक्कड़ थे जो सच्चे ज्ञान की तलाश में था और जब भी सच को दबाने की कोशिश की गई तो वह बागी हो गया। उनका सम्पूर्ण जीवन अन्तर्विरोधों से भरा पड़ा है। वेदान्त के अध्ययन के पश्चात जब उन्होंने मंदिरों में बलि चढ़ाने की परम्परा के विरूद्ध व्याख्यान दिया तो अयोध्या के सनातनी पुरोहित उन पर लाठी लेकर टूट पड़े। बौद्ध धर्म स्वीकार करने के बावजूद वह इसके ‘पुनर्जन्मवाद’ को नहीं स्वीकार पाए। बाद में जब वे मार्क्सवाद की ओर उन्मुख हुए तो उन्होंने तत्कालीन सोवियत संघ की कम्युनिस्ट पार्टी में घुसे सत्तालोलुप सुविधापरस्तों की तीखी आलोचना की और उन्हें आन्दोलन के नष्ट होने का कारण बताया। सन् १९४७ में अखिल भारतीय साहित्य सम्मेलन के अध्यक्ष रूप में उन्होंने पहले से छपे भाषण को बोलने से मना कर दिया एवं जो भाषण दिया, वह अल्पसंख्यक संस्कृति एवं भाषाई सवाल पर कम्युनिस्ट पार्टी की नीतियों के विपरीत था। नतीजन पार्टी की सदस्यता से उन्हें वंचित होना पड़ा, पर उनके तेवर फिर भी नहीं बदले। इस कालावधि में वे किसी बंदिश से परे प्रगतिशील लेखन के सरोकारों और तत्कालीन प्रश्नों से लगातार जुड़े रहे। इस बीच मार्क्सवादी विचारधारा को उन्होंने भारतीय समाज की ठोस परिस्थितियों का आकलन करके ही लागू करने पर जोर दिया। अपनी पुस्तक ‘वैज्ञानिक भौतिकवाद’ एवं ‘दर्शन-दिग्दर्शन’ में इस सम्बन्ध में उन्होंने सम्यक् प्रकाश डाला। अन्तत: सन् १९५३-५४ के दौरान पुन: एक बार वे कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्य बनाये गये।

एक कर्मयोगी योद्धा की तरह राहुल सांकृत्यायन ने बिहार के किसान-आन्दोलन में भी प्रमुख भूमिका निभाई। सन् १९४० के दौरान किसान-आन्दोलन के सिलसिले में उन्हें एक वर्ष की जेल हुई तो देवली कैम्प के इस जेल-प्रवास के दौरान उन्होंने ‘दर्शन-दिग्दर्शन’ ग्रन्थ की रचना कर डाली। १९४२ के भारत छोड़ो आन्दोलन के पश्चात् जेल से निकलने पर किसान आन्दोलन के उस समय के शीर्ष नेता स्वामी सहजानन्द सरस्वती द्वारा प्रकाशित साप्ताहिक पत्र ‘हुंकार’ का उन्हें सम्पादक बनाया गया। ब्रिटिश सरकार ने फूट डालो और राज करो की नीति अपनाते हुए गैर कांग्रेसी पत्र-पत्रिकाओं में चार अंकों हेतु ‘गुण्डों से लड़िए’ शीर्षक से एक विज्ञापन जारी किया। इसमें एक व्यक्ति गाँधी टोपी व जवाहर बण्डी पहने आग लगाता हुआ दिखाया गया था। राहुल सांकृत्यायन ने इस विज्ञापन को छापने से इन्कार कर दिया पर विज्ञापन की मोटी धनराशि देखकर स्वामी सहजानन्द ने इसे छापने पर जोर दिया। अन्तत: राहुल ने अपने को पत्रिका के सम्पादन से ही अलग कर लिया। इसी प्रकार सन् १९४० में ‘बिहार प्रान्तीय किसान सभा’ के अध्यक्ष रूप में जमींदारों के आतंक की परवाह किए बिना वे किसान सत्याग्रहियों के साथ खेतों में उतर हँसिया लेकर गन्ना काटने लगे। प्रतिरोध स्वरूप जमींदार के लठैतों ने उनके सिर पर वार कर लहुलुहान कर दिया पर वे हिम्मत नहीं हारे। इसी तरह न जाने कितनी बार उन्होंने जनसंघर्षों का सक्रिय नेतृत्व किया और अपनी आवाज को मुखर अभिव्यक्ति दी।

घुमक्कड़ी स्वभाव वाले राहुल सांकृत्यायन सार्वदेशिक दृष्टि की ऐसी प्रतिभा थे, जिनकी साहित्य, इतिहास, दर्शन संस्कृति सभी पर समान पकड़ थी। विलक्षण व्यक्तित्व के अद्भुत मनीषी, चिन्तक, दार्शनिक, साहित्यकार, लेखक, कर्मयोगी और सामाजिक क्रान्ति के अग्रदूत रूप में राहुल ने जिन्दगी के सभी पक्षों को जिया। यही कारण है कि उनकी रचनाधर्मिता शुद्ध कलावादी साहित्य नहीं है, वरन् वह समाज, सभ्यता, संस्कृति, इतिहास, विज्ञान, धर्म, दर्शन इत्यादि से अनुप्राणित है जो रूढ़ धारणाओं पर कुठाराघात करती है तथा जीवन-सापेक्ष बनकर समाज की प्रगतिशील शक्तियों को संगठित कर संघर्ष एवं गतिशीलता की राह दिखाती है। ऐसे मनीषी को अपने जीवन के अंतिम दिनों में ‘स्मृति लोप’ जैसी अवस्था से गुजरना पड़ा एवं इलाज हेतु उन्हें मास्को भी ले जाया गया। पर घुमक्कड़ी को कौन बाँध पाया है, सो अप्रैल १९६३ में वे पुन: मास्को से दिल्ली आ गए और १४ अप्रैल १९६३ को सत्तर वर्ष की आयु में दार्जिलिंग में सन्यास से साम्यवाद तक का उनका सफर पूरा हो गया पर उनका जीवन दर्शन और घुमक्कड़ी स्वभाव आज भी हमारे बीच जीवित है।

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लौह-पुरुष सरदार वल्लभ भाई पटेल.. एक टाईम लाईन समीक्षा..

बड़ी दीदी के स्कूल से आते ही.. नए स्टैंडर्ड के नए किताबों के साथ और उसमें जेनेरल नॉलेज या हिस्ट्री के किताबों से झाँकती सरदार वल्लभ भाई पटेल की तस्वीर.. लौह-पुरुष सरदार वल्लभ भाई पटेल। अचरज भरे नजरों से देखता.. और बस देखता ही जाता। बिल्कुल साधारण एक आम व्यक्तित्व। ना कोई टोपी.. ना कोई सफेदकोट गुलाब.. ना हाथों में कोई लाठी या लेफ्टिनेंट ड्रेस। बिल्कुल ही आम.. साधारण धोती, कुर्ता और कंधे पे शॉल.. फिर ये लौह-पुरुष। लोहा कहीं दिखता नहीं.. तो क्या लोहा खाते थे.. शायद ये हो सकता है.. जो हम नहीं खा पाते। दादाजी तो रोज चावल के भूज्जे खाते हैं.. भूजा चना खाते हैं.. कहते हैं इससे दाँतें मजबूत रहती है.. हो ना हो ये लोहे की भूज्जे खाते हों.. हाँ इनकी दाँते भी चमक रही हैं और सर भी चमक रहा है.. हो ना हो ये लोहे की भूज्जे का ही कमाल है।

ये बात तकरीबन १९८३-८४ की थी.. मैं उस वक्त ६-७ सालों का था। फिर एक दिन खबर ये आई की भारत की प्राईम मिनिस्टर इंदिरा गाँधी को गोली मार दी गई है.. निर्मम हत्या.. दुखद निधन.. भारत की दुर्गा.. आईरन लेडी अब नहीं रही.. जबतक सूरज चाँद रहेगा.. इंदिरा तेरा नाम रहेगा.. सबलोग अगल बगल के घरों में जाकर लाईव टेलेकास्ट देख रहे थे.. इंदिरा गाँधी अमर रहें.. मेरे खुन का एक एक कतरा वाला डायलॉग.. इंदिरा गाँधी के पेपर कटिंग्स.. देश विदेशों में श्रद्धांजलि.. फ्रंटलाईन मैगजीन का वो पोस्टर साईज फोटो.. जिसे बाद में मढवाकर ड्राईंग रुम के दिवाल पे सजा दिया गया था.. सतवंत और बेअंत सिंह.. फिल्म शोले वाले गब्बर जैसे हिट थे। दादाजी श्रद्धांजलि हेतु कविता बनाकर सुना रहे थे.. प्रधानमंत्री कार्यालय उस कविता को भेजने की बात बता रहे थे.. देख मैने भी दीदी से पूछा "दीदी ये आयरन लेडी क्या होती है?" "जैसे सरदार वल्लभ भाई पटेल लौह पुरुष थे.. लोहे को इंग्लिश में आयरन कहते हैं।" "समझा.. वो जेन्ट्स थे ये लेडिज थी.. दोनो लोहे खाते थे।" "हाँ.. रे बुद्धु लोहे खाते थे.. चलो अब चुप हो जाओ"।

..चुप ही रहा ..कितने साल चुप रहा। चुप्पी साधे.. कभी कॉमिक्सों की दुनियां तो कभी पेंटिंग.. चित्रकारी। उस दौर के फेमस राजनेताओं में एक बार चन्दशेखर, रामकृष्ण हेगड़े, लालकृष्ण आडवाणी, वी.पी. सिंह आदि नेताओं की पेंसिल स्केच कार्टून भी खूब बनाया करता था। फिर हल्के फुल्के कुछ पेंटिंग प्रतियोगिता के मिलते सर्टिफिकेटों के साथ मैट्रिक पास करते ही.. पेंटिंग की धुन खो सी गई। लेकिन हाँ.. चित्र हमेशा ही रोचक लगते रहे.. और इस कारण पत्र-पत्रिकाओं की ओर रुझान भी बढने लगा। स्पोर्ट्स से रिलेटेड मैगजीन पहली पसंद रहते.. तो फिर इन पसंदों में भी इजाफा होता गया। १९९२ से स्पोर्ट्स स्टार मैगजीन की एक अच्छी खासी क्लेक्शन घर की आलमारी में सँजोयी रखी है। इस दौर में पसंदीदा सचिन तेंदुलकर के कवर पिक्चर वाले मैगजीन मैं खरीदना नहीं भूलता.. और फिर सचिन तेंदुलकर के स्टैट्स पे हिन्दू पब्लिकेशन की स्पोर्ट्स स्टार कवरेज व एडिटोरियल तो मानों शेक्सपीयर ही छा गए हो अपने इंग्लिशिया स्टाईल में। लिटरेचर.. चाहे वो हो इंग्लिश या हिन्दी.. मेरा काफी इम्प्रूव हुआ। फिर तो एक से एक नए मैगजीन.. इंडिया टूडे, आउट लुक, फ्रंट लाईन, स्पोर्ट्स टूडे, स्टार डस्ट, फिल्म फेयर आदि आदि भी इस फेहरिस्त में आते दिखे। नागपुर इंजीनियरिंग कॉलेज के दिनों में भी.. ट्रेनों के कितने ही सफरों के साथ ये मैगजीन वाला सफर भी जारी रहा।

 ..और फिर एक दिन जो पता चला "सचिन तेंदुलकर" अमेरिकी टाईम मैगजीन के कवर पेज पे आ गए हैं ..लेकीन अफसोस वो मैगजीन जो मेरी पहुँच से बाहर था। ये बात १९९८-९९ की थी.. फिर एक लंबे अंतराल के बाद सचिन तेंदुलकर ने क्रिकेट को अलविदा कहा। मिडिया बाजार अब पत्र पत्रिकाओं से उठ टेलीविजन और मोबाईली सभ्यता में बस चुका था। देश भर की तमाम पत्र-पत्रिकाओं के हेडलाईंस.. कवर पेज.. एडिटोरियल्स.. टीवी इंटरनेटिया चैनल्स व ब्लॉग.. सचिन तेंदुलकर को अपना सलाम ठोकते रहे। सचिन तेंदुलकर का क्रिकेटिया कद तमाम चाहने वालों को "क्रिकेट का भगवान" सरीखे दिख रहा था। अलविदा सचिन.. अलविदा सचिन.. के नारे चारो ओर गुंज रहे थे.. क्रिकेटिया महारथ के इसी समापन पे एक अंतिम कड़ी जो जुड़नी बाकी थी। ..टाईम मैगजीन ने एक बार फिर "सचिन तेंदुलकर" को अपने कवर पेज पे जगह दी.. टाईटल था.. "गॉड अॉफ क्रिकेट"!!!

..सचिन तेंदुलकर के लिए टाईम मैगजीन का ये संबोधन मानों एक बंद होते करामाती संदूक पे गड़ते अंतिम कील के सामान था। संपूर्ण मिडिया जगत की ओर से सचिन तेंदुलकर को मिलने वाला.. वाकई ये एक काफी बड़ा सम्मान था.. जिसे वे और उनके चाहने वाले दिलोजान से अपने सिर का ताज बनाकर ताउम्र शुकुन से रह सकते हैं। अलविदा सचिन फिर मिलेंगे.. कह तो दिया.. लेकीन एक बार फिर टाईम मैगजीन के इस संस्करण से अपनी दुरी बार बार कुरेदती रही। ..इंटरनेट के इस दौर में कॉलेज आवर के बाद शाम के वक्त.. मैं घंटों एक साईबर कैफे में बैठा.. तमाम नए वेबकास्ट को देखा करता। ..कि एक दिन टाईम मैगजीन का टोटल अॉपरेशन करने वाला कीड़ा दिमाग पे बैठ गया ..जैसे मैं सबकुछ देखना चाहता था ..पढना चाहता था। इसके हिस्ट्री से लेकर आज तक के सारे पब्लिशिंग पहलू.. विशेष कर कवर पेज पब्लिशिंग स्ट्रैटेजिक इस्युज्।

टाइम मैगजीन एक साप्ताहिक समाचार पत्रिका है जिसका प्रकाशन अमेरिका के न्यू यॉर्क शहर में सन् १९२३ से होता आ रहा है। इसके साथ ही टाइम मैगजीन के विश्व भर में कई विभिन्न संस्करण भी प्रकाशित होते हैं। यूरोपीय संस्करण टाइम यूरोप.. जिसका पूर्व नाम टाइम अटलांटिक था; का प्रकाशन लंदन से होता है और यह मध्य पूर्व, अफ़्रीका और पूरे लैटिन अमेरिका को कवर करता है। इसका एशियाई संस्करण टाइम एशिया हाँग काँग से संचालित होता है और दक्षिण प्रशांत संस्करण सिडनी से संचालित है.. जिसमें ऑस्ट्रेलिया व न्यूज़ीलैंड सहित प्रशांत महासागर के द्वीप समूह कवर किए जाते हैं। साप्ताहिक समाचार पत्रिकाओं की श्रेणी में टाइम मैगजीन का संचलन विश्व में सर्वाधिक है। वर्ष २०१४ के अनुसार, इसका कुल संचलन ३,२८१,५५७ प्रतियों का है, जो इसे अमेरिका की सर्वाधिक संचलन वाली सभी पत्रिकाओं में दसवाँ, तथा साप्ताहिक पत्रिकाओं में दूसरा स्थान देती है।

अपने शुरुआती दौर में प्रथम व द्वितीय विश्व युद्ध के समय इसके कवर पेज पे प्रायत: अमेरिकी व यूरोपियन राजनायकों के साथ ब्रिटेन के राजघरानों से संबंधित राज सदस्य ही छाए रहे। टाईम मैगजीन का ये पावर पैक कवरेज धीरे धीरे अन्य वर्गो व देशों में एक प्रतिष्ठा का परिचायक बन गया।

 भारतीय परिप्रेक्ष्य में जैसे जैसे महात्मा गाँधी के नेतृत्व में भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन तेज हुआ.. तेजी से उभरते जन समर्थन व अंग्रेजी सल्तनत पे एक दबाव के कारण महात्मा गाँधी का एक चितंन व कारुण्य भरा ब्लैक एंड व्हाइट व्यक्तित्व टाईम मैगजीन ३१ मार्च १९३० में पहली बार दिखा..

मगर आपको ये भी सोचकर हैरत होगी कि जिस महापुरुष के अहिंसात्मक रुप आज भी हम ओढे हुए से हैं.. तो गाँधी जी वाले टाईम कवर के पहले टाईम ने प्वाइंटर नामक नस्ल के एक कलर्ड पिक्चर को ३ मार्च १९३० वाले अंक में जगह दी थी.. जो आज भी टाईम मैगजीन के गैलरी में देखा जा सकता है। आज के देखे गए टाईम वॉल्ट में दिख रहे सभी तस्वीरों के बीच हमारे महात्मा गाँधी की ब्लैक एंड व्हाइट तस्वीर अन एवेलेबल दिख रही है.. बाकी बचता मनोविज्ञान आपका है।

फिर ब्रिटिश राज पराधीन भारत के समय जो दुसरे भारतीय या युं कहें कि भारतीय मूल से संबंध रखने वाले शख्स.. जिन्हें टाईम ने एक नवाबी शान के साथ अपने कवर पेज पे जगह दी.. वे थे हैदराबाद के निजाम। हैदराबादी निजाम कवर के साथ टाईम का ये प्रकाशन २२ फरवरी १९३७ को प्रकाशित हुआ था। प्रतिष्ठा के दौर के संभवतः वे भारतीय मूल से निकले नवाबी शान को बिखेरते राज रजवाड़ो के बीच टाईम मैगजीन के पहले पसंद थे। अंग्रेजों व अंग्रेज़ी सल्तनत से उनके अच्छे संबंध इससे ही जाहिर होते है।

७ मार्च १९३८ को भारतीय मूल के वे तीसरे शख्स जिनकी तस्वीर टाईम मैगजीन के कवर पे देखने को मिली वो थे आजाद हिंद फौज के संस्थापक नेताजी सुभाष चंद्र बोस.. जिन्होंने भारत की आजादी लिए जर्मनी व जापान के साथ मिलकर एक अच्छी खासी मोर्चाबंदी की थी और अंग्रेजो पे एक अच्छा दबाव बनाया था।

..फिर एक लंबे अर्शे के बाद २७ जनवरी १९४७ को हमारे प्रथम लौह पुरुष सरदार वल्लभ भाई पटेल का चेहरा टाईम मैगजीन के कवर पे आया। अघोषित आजादी के कुछ महिने पहले सरदार वल्लभ भाई पटेल का टाईम के कवर पेज पे अवतरित होना भी आजादी काल में उनके किऐ प्रयासों को बखूबी बता जाता है।
इसी वर्ष ३० जून १९४७ को महात्मा गाँधी का एक हँसता हुआ चेहरा.. मानों भारतीय आजादी को स्वीकृति देता टाईम के कवर पे चमक उठा। गाँधी जी का टाईम के कवर पे ये दुसरा अवतरण था।

..स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद टाईम ने स्वतंत्रता संग्राम से जुड़े दो अभिन्न शख्स.. पहले पाकिस्तान के पितामह मोहम्मद अली जिन्ना व बाद में भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू को अपने कवर पेज पे जगह दी थी। स्वतंत्रता के बाद नेहरु जी के किऐ कुछ सकारात्मक कार्यों व युरोपीयन अमेरिकी संबंधों के कारण चार पाँच दफे टाईम के कवर पेज पे दिखते रहे। नेहरु जी बाद कुछ राजनायकों व समाज धर्म सेवियों ने भी टाईम के कवर पेज पे जगह बनाई.. वे थे..
..लाल बहादुर शास्त्री, दलाई लामा, बाबा आमटे, मदर टेरेसा व भारत की एक मात्र घोषित लौह महिला दुर्गा स्वरुपी इंदिरा गाँधी।

भारत वर्ष के इन वीर सपूतों व अंगिकारों को मेरा कोटि कोटि नमन।।

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