जब मानव अपने जीवन के संघर्ष को लिए सफलता के शिखर को छूने का प्रयत्न करता है, तो हमेशा उसकी आत्मशक्ति ही उसे आगे बढ़ने की प्रेरणा देने का काम करती है... और वह सहसा अपने सफ़र की ओर बढ़ता चला जाता है| सफ़र.. बिल्कुल ही अंजाना सफ़र... जिसने ना जाने कितने दिन और रातों को देखा | दिन में वो जितनी जीवटता से एक नये आयामो के उत्सर्जन को तलाशता, तो रातें उन भावों को अपने आगोश में समेत सी लेती.. की कल फिर तुम्हें एक नये संकल्प लिए आगे की ओर बढ़ना है | फिर इन स्पस्ट संकल्प-साधनाओं का खुद में अवतरित होना भी तो एक चमत्कार ही है.. जब वो सभो के हितो को भी नज़रअंदाज़ ना करे| इन्ही संकल्प-साधनाओं ने अशोक और अजातशत्रु को सम्राट भी बनवाया था, लेकिन वहाँ भी तो साभों के हित कुचले गये थे, और फिर बुद्ध शरण को जाना पड़ा था और त्याग को ही अपनाना पड़ा था| आज भी इन भावों में बचपन में सिखाए गये मूल मंत्रों की ही ख़ूसबू आती है, जब दादी बड़े प्यार से कहती की तुम बड़े हो ना, तुम्हें तो त्याग करना ही होगा और यही सुख का साधन भी| बचपन में सिखाए गये रामायण और महाभारत के तत्वों में भी तो त्याग और संघर्ष की ही गाथा रचाई और बसाई गयी| और फिर जिन्होने ने इन मंत्रों को पिया और जीया... सच्चे पात्र तो वो ही बने और वो हो समरसता के वाहक भी बने | आज भी हमारे भारत के सभी समुदायों में ऐसे कितने उदाहरण मिलते हैं... जहाँ अपनी निजी सफलता को छोड़ लोगों ने अपने गावों कस्बों में जाकर विकाश के नये विकल्पों के मार्ग बने| जब आप अपनी प्रतिभा से न्यू-यॉर्क में और आपके प्रिय-मित्र मंडली कस्बे की चौक में हो तो अंतर के इस दंश का विष भी आपको ही कम करना होता है, और ये भी खुद में एक विशेष प्रतिभा का परिलक्षण ही तो है, जिसे हम आज के वैज्ञानिक भाषा में आर्टिफिशियल इंटेलिजेन्स कह लें | ईश्वर को धन्यवाद की आज हम ग्लोब-लाइज़ेशन की कसौटी में जी रहें हैं, नहीं तो इन सामंती मारकों का विष और भी ज़्यादा तीक्ष्ण होता| इसमें अतिशयोक्ति का भाव कतई नहीं, की इन्ही भावों के कारण आज भी जिस विकाश के रफ़्तार से हम आगे बढ़ रहें है, हमारा सामना भी इन वादों से कुछ ज़्यादा ही हो रहा है, मानो आज भी सुर-असुर अमृत मंथन में लिप्त हों| और इस कड़ी में हम इस भाव मंथन साहित्य के सारथि बने रहें और अपने बीते कल को भी थोड़ी श्रधांजलि अर्पित करते रहें... !!!
विप्र प्रयाग घोष
विप्र प्रयाग घोष
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