Sunday, 28 September 2014

" बीते कल को भी थोड़ी... श्रधांजलि... !!! "

जब मानव अपने जीवन के संघर्ष को लिए सफलता के शिखर को छूने का प्रयत्न करता है, तो हमेशा उसकी आत्मशक्ति ही उसे आगे बढ़ने की प्रेरणा देने का काम करती है... और वह सहसा अपने सफ़र की ओर बढ़ता चला जाता है| सफ़र.. बिल्कुल ही अंजाना सफ़र... जिसने ना जाने कितने दिन और रातों को देखा | दिन में वो जितनी जीवटता से एक नये आयामो के उत्सर्जन को तलाशता, तो रातें उन भावों को अपने आगोश में समेत सी लेती.. की कल फिर तुम्हें एक नये संकल्प लिए आगे की ओर बढ़ना है | फिर इन स्पस्ट संकल्प-साधनाओं का खुद में अवतरित होना भी तो एक चमत्कार ही है.. जब वो सभो के हितो को भी नज़रअंदाज़ ना करे| इन्ही संकल्प-साधनाओं ने अशोक और अजातशत्रु को सम्राट भी बनवाया था, लेकिन वहाँ भी तो साभों के हित कुचले गये थे, और फिर बुद्ध शरण को जाना पड़ा था और त्याग को ही अपनाना पड़ा था| आज भी इन भावों में बचपन में सिखाए गये मूल मंत्रों की ही ख़ूसबू आती है, जब दादी बड़े प्यार से कहती की तुम बड़े हो ना, तुम्हें तो त्याग करना ही होगा और यही सुख का साधन भी| बचपन में सिखाए गये रामायण और महाभारत के तत्वों में भी तो त्याग और संघर्ष की ही गाथा रचाई और बसाई गयी| और फिर जिन्होने ने इन मंत्रों को पिया और जीया... सच्चे पात्र तो वो ही बने और वो हो समरसता के वाहक भी बने | आज भी हमारे भारत के सभी समुदायों में ऐसे कितने उदाहरण मिलते हैं... जहाँ अपनी निजी सफलता को छोड़ लोगों ने अपने गावों कस्बों में जाकर विकाश के नये विकल्पों के मार्ग बने| जब आप अपनी प्रतिभा से न्यू-यॉर्क में और आपके प्रिय-मित्र मंडली कस्बे की चौक में हो तो अंतर के इस दंश का विष भी आपको ही कम करना होता है, और ये भी खुद में एक विशेष प्रतिभा का परिलक्षण ही तो है, जिसे हम आज के वैज्ञानिक  भाषा में आर्टिफिशियल इंटेलिजेन्स कह लें | ईश्वर को धन्यवाद की आज हम ग्लोब-लाइज़ेशन की कसौटी में जी रहें हैं, नहीं तो इन सामंती मारकों का विष और भी ज़्यादा तीक्ष्ण होता| इसमें अतिशयोक्ति का भाव कतई नहीं, की इन्ही भावों के कारण आज भी जिस विकाश के रफ़्तार से हम आगे बढ़ रहें है, हमारा सामना भी इन वादों से कुछ ज़्यादा ही हो रहा है, मानो आज भी सुर-असुर अमृत मंथन में लिप्त हों| और इस कड़ी में हम इस भाव मंथन साहित्य के सारथि बने रहें और अपने बीते कल को भी थोड़ी श्रधांजलि अर्पित करते रहें... !!!

विप्र प्रयाग घोष


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Tuesday, 23 September 2014

" दुर्गाशक्ति, दशहरा, दशानन... इति विश्‍वरूपम...!!! "

मौसम ने फिर दश्तक दे दी है| नयी शक्ति लिए माँ जग को जगा रही है| हम अंधेरे में ही जागने की कोशिश कर रहे है| पौ फटने के पहले फूलों को बटोर रहे हैं, की माँ के चरणो में इसे अर्पित तो करूँ, जीवन के भ्रम को थोड़ा तो दूर करूँ...| ऐसा ही है माँ दुर्गा की शक्ति और दुर्गा पूजा का पावन पर्व| हम सभो के लिए कुछ खाश| साल भर के जोश को मानो यहाँ पुनर्जन्म मिल जाती हो| फिर आज भी साथ अगर अपना बचपना हो तो फिर कहना ही क्या...!!! बचपन के रोमांच को फिर हम दोबारा तो जी नहीं सकते, लेकिन समय समय इसे उकेर तो सकते ही हैं| दुर्गा पूजा की हलचल तो महीने पहले से ही दिख जाती है|जो घर पे हैं तो घर के साफ सफाई का ख्याल, जो घर से दूर हैं उनके अपने घर जाने की हौसला आफजाई का ख्याल भी तो बराबर रखना पड़ता है| माँ दुर्गा की शक्ति है ही ऐसी, आप खुद में रह ही नहीं पाते| आज भी महालया के आते ही याद आता है, पिताजी का रेडियो को ठीक सुबह ४ बजे ही महालया पाठ के लिए ऑन कर देना|


फिर तरह तरह के फूल जिनमें हर-शृंगार, अर्हूल और भी ना जाने कितने फूलों को तोड़ पौ फटते ही दोस्तों के साथ घर को वापस आना| फिर दोस्तों के साथ मधुबनी पूर्णियाँ के ठाकुर बारी में बन रहे माँ दुर्गा की प्रतिमा को देखने जाना| सुबह सुबह ही माँ का पूजा घर को सजाना, पुरोहित जी का दुर्गा पाठ के लिए आना, फिर सामूहिक पुष्पांजलि के साथ शंख और घंटों को बजाना... वास्तव में यही तो है दुर्गा शक्ति का आहवान करना और इनके समीप जाना| फिर ज्यों ही सप्तमी, अष्टमी, नवमी के जागरण को हम देखते हैं, दुर्गा शक्ति स्वरूप दशहरा उत्सव में परिणत हो उठती है| फिर नये नये वस्त्रों में मेले की ओर निकलना| पूजा पंडालों में माँ दुर्गा के विहंगम स्वरूपों का योग होना, वहाँ मिले प्रसादो का भोग, फिर मेले में कुछ खरीद-दारी कर घर को वापस आते हैं| खिलौने, मिठाई और तरह तरह के व्यापार भी होते हैं|  देखते ही देखते ये उत्सव एक महोत्सव का रूप ले लेती है|



फिर इस महोत्सव में सभी संप्रदायों के लोग एक साथ... क्या बूढ़े क्या जवान और क्या बच्चे... अपने नये स्वरूप.. विश्वरूप को धारण कर दशानन " रावण" वध के द्वंश का भी तो आनंद लेते हैं| बुराई पे अच्छाई की जीत का भास कर अपने अपने घर को लौटते हैं.... और फिर उस महोत्सव के विश्वरूपम की छाया को लेकर ही अपने विश्व-कर्म की ओर निकल पड़ते हैं...

|| इति दशहरा... इति विश्व-रूपम...||

विप्र प्रयाग