"ये महलों, ये तख्तों, ये ताजों की दुनियाँ..
ये इंसान के दुश्मन समाजों की दुनियाँ..
ये दौलत के भूखे रवाजों की दुनियाँ..
ये दुनियाँ अगर मिल भी जाये तो क्या हैं..।
हर एक जिस्म घायल, हर एक रूह प्यासी..
निगाहो में उलझन, दिलों में उदासी..
ये दुनियाँ हैं या आलम-ए-बदहवासी..
ये दुनियाँ अगर मिल भी जाये तो क्या हैं..।
जहाँ एक खिलौना हैं, इंसान की हस्ती..
ये बस्ती हैं मुर्दा परस्तों की बस्ती..
यहाँ पर तो जीवन से मौत सस्ती..
ये दुनियाँ अगर मिल भी जाये तो क्या हैं..।
जवानी भटकती हैं बदकार बन कर..
जवां जिस्म सजते हैं बाजार बनकर..
यहाँ प्यार होता हैं व्योपार बनकर..
ये दुनियाँ अगर मिल भी जाये तो क्या हैं..।
ये दुनियाँ जहाँ आदमी कुछ नहीं है..
वफ़ा कुछ नहीं, दोस्ती कुछ नहीं हैं..
यहाँ प्यार की कद्र ही कुछ नहीं है..
ये दुनियाँ अगर मिल भी जाये तो क्या हैं..।
जला दो इसे, फूँक डालो ये दुनियाँ..
मेरे सामने से हटा लो ये दुनियाँ..
तुम्हारी हैं तुम ही संभालो ये दुनियाँ..
ये दुनियाँ अगर मिल भी जाये तो क्या हैं...।"
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इस गीत के बोल.. भारतीय सिनेमा के महान फिल्म-मेकर गुरुदत्त की १९५७ की बनी फिल्म "प्यासा" के है... आध्यात्मिक सूफिज़म को केंद्रित इस गीत को मैने सर्व-प्रथम १९८४-८५ में दूर-दर्शन में प्रसारित किए गये.. गुरुदत्त साहब की चुनिंदा फिल्में "कागज के फूल", "मिस्टर एंड मिसेज़ ५५", "साहब बीबी और गुलाम" को "प्यासा" के साथ देखा था..| उनकी फ़िल्मो में संवाद का आकर्षण और वस्तु-स्थिति की भव्यता देखते ही बनते थे| उस जमाने की कॉमेरसीयल फ़िल्मो को भी आर्ट फ़िल्मो के कॅन्वस पे सजोने में उन्हें महारत हासिल थी| पिछले साल २०१३ स्वतंत्रता दिवस के मौके पे.. पटना के इंदिरा गाँधी प्लानेटोरीयम में गुरुदत्त की प्यासा फिल्म का निःशुल्क प्रसारण किया गया| आज की युवा पीढ़ी में भारतीय सामाजिक संवेदनशीलता के प्रति पुनर्गठन को ऐसे प्रयास सराहनीय हैं, ताकि उन्हें आज की भ्रष्ट कॉंमेरसीयल सिनेमा के कोप से बचाया जा सके|
वर्षों बाद गुरुदत्त के जीवन पे.. उनके सहकर्मी रहे अबरार अल्वी के माध्यम से एक अच्छी किताब पढ़ने को मिली.. Ten Years with GURU DUTT: Abrar Alvi's Journey... must read..
Vipra Prayag
ये इंसान के दुश्मन समाजों की दुनियाँ..
ये दौलत के भूखे रवाजों की दुनियाँ..
ये दुनियाँ अगर मिल भी जाये तो क्या हैं..।
हर एक जिस्म घायल, हर एक रूह प्यासी..
निगाहो में उलझन, दिलों में उदासी..
ये दुनियाँ हैं या आलम-ए-बदहवासी..
ये दुनियाँ अगर मिल भी जाये तो क्या हैं..।
जहाँ एक खिलौना हैं, इंसान की हस्ती..
ये बस्ती हैं मुर्दा परस्तों की बस्ती..
यहाँ पर तो जीवन से मौत सस्ती..
ये दुनियाँ अगर मिल भी जाये तो क्या हैं..।
जवानी भटकती हैं बदकार बन कर..
जवां जिस्म सजते हैं बाजार बनकर..
यहाँ प्यार होता हैं व्योपार बनकर..
ये दुनियाँ अगर मिल भी जाये तो क्या हैं..।
ये दुनियाँ जहाँ आदमी कुछ नहीं है..
वफ़ा कुछ नहीं, दोस्ती कुछ नहीं हैं..
ये दुनियाँ अगर मिल भी जाये तो क्या हैं..।
जला दो इसे, फूँक डालो ये दुनियाँ..
मेरे सामने से हटा लो ये दुनियाँ..
तुम्हारी हैं तुम ही संभालो ये दुनियाँ..
ये दुनियाँ अगर मिल भी जाये तो क्या हैं...।"
इस गीत के बोल.. भारतीय सिनेमा के महान फिल्म-मेकर गुरुदत्त की १९५७ की बनी फिल्म "प्यासा" के है... आध्यात्मिक सूफिज़म को केंद्रित इस गीत को मैने सर्व-प्रथम १९८४-८५ में दूर-दर्शन में प्रसारित किए गये.. गुरुदत्त साहब की चुनिंदा फिल्में "कागज के फूल", "मिस्टर एंड मिसेज़ ५५", "साहब बीबी और गुलाम" को "प्यासा" के साथ देखा था..| उनकी फ़िल्मो में संवाद का आकर्षण और वस्तु-स्थिति की भव्यता देखते ही बनते थे| उस जमाने की कॉमेरसीयल फ़िल्मो को भी आर्ट फ़िल्मो के कॅन्वस पे सजोने में उन्हें महारत हासिल थी| पिछले साल २०१३ स्वतंत्रता दिवस के मौके पे.. पटना के इंदिरा गाँधी प्लानेटोरीयम में गुरुदत्त की प्यासा फिल्म का निःशुल्क प्रसारण किया गया| आज की युवा पीढ़ी में भारतीय सामाजिक संवेदनशीलता के प्रति पुनर्गठन को ऐसे प्रयास सराहनीय हैं, ताकि उन्हें आज की भ्रष्ट कॉंमेरसीयल सिनेमा के कोप से बचाया जा सके|
वर्षों बाद गुरुदत्त के जीवन पे.. उनके सहकर्मी रहे अबरार अल्वी के माध्यम से एक अच्छी किताब पढ़ने को मिली.. Ten Years with GURU DUTT: Abrar Alvi's Journey... must read..
Vipra Prayag
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