
अगर आपके सफ़र के दौरान ये सामने दिख जाए तो जेब के सिक्के आपके मिज़ाज बनाने को मचल ही निकलते हैं| भारतीय मिज़ाज को भाती सस्ती और सुलभ स्टार्ट-टर.. थोड़ा मटर तो थोड़ा टमाटर भी.. कटे प्याज.. कटे नारियल और तीखी मिर्च के साथ..और थोड़ा दाल-मोट भी..मूरी के साथ| इसे आप मुरही तो मुढी भी कहते हैं.. कहीं कहीं इसे मूर-मूरे भी कहा जाता है.. तभी आप बाज़ार के तीखे और दिल खूश कर देने वाले "कूर-कुरे" के भी मुरीद बन जाते हैं.. तो फिर हल्दीराम भुजिया और मिक्शरों के भी| घर पे बनाई आलू फ्राइ और चिप्स.. बड़े रेस्तरॉं और होटेलों की मेनूओं में फिंगर फ्राय और ब्रांडेड चिप्स बनी ज़्यादा शोभती हैं.. और आपके सुलभ बजट की अठन्नी की आलू..१० से १०० के नोट निकाल ले जाती है| ..क्यों है ना ये इंडिया की रियल मशालेदार और चटपटी झाल-मूरी..|
विगत कुछ वर्षों में रोजाना ट्रेन के सफ़र में.. कुछ खाश स्टेशनो पे लुभाते टाइम-पास भी मिलते दिख जाते हैं.. तो इन्हे बेचने वाले सेल्समन की व्यग्र-उत्कट इच्छाशक्ति भी..| कितना जोखिम लिए.. ये हर-दिन आपके मिज़ाज को बनाए रखने में तत्पर नज़र आते हैं.. और आपकी यात्रा आपकी मन मुताबिक मिले सुखद सफ़र की अनुभूतियों में खो जाती है| पटना बिहटा के आगे आरा से आगे बढ़ने पर... चना-ज़ोर गरम बाबू.. मैं लाया मजेदार वाला वो मनोज कुमार की क्रांति फिल्म का गाना सहसा याद आने लगता है तो शत्रुघ्न सिन्हा के साथ हेमा मालिनी भी..| जी हाँ.. यहाँ का चना-ज़ोर गरम.. हैं वाकई में काफ़ी गरम.. नहीं पड़ने देता आपके मिज़ाज को नरम..| आख़िर है भी तो ये बाबू कुंवर सिंह की धरती ना..| ये बस इस जगह की भारतीय चने का ज़ोर ही है की आज भी यहाँ के अविकसित इलाक़ों में रहने वाली सभ्यता.. दिन के दो वक़्त में एक वक़्त.. गॉव के लहजे में इसे बकत की कहलें.. घर पे बनाई उन्ही चावल चूड़ा चना के भुज्जे से ही थोड़ा सरसों का तेल, प्याज और मिर्च के साथ बड़े मज़े से अपने अध्यात्म में रमते नज़र आते हैं| एक बार बक्सर के अपने अनुभव में.. वहाँ के इंजिनियरिंग संस्थान के चेयरमॅन के सौजन्य से लोकल गन्ने से बने "गुड़" और "शुद्ध घी" के सम्मिश्रण का भी स्वाद मिला..| फिर तो जैसे आपके स्वाद की भी रिसर्च होती दिखने ही लगी| जहाँ गॉव घरों में रोजाना की मिठाइयाँ नहीं आती तो लोग इन्ही पुराने तरीक़ो के दुर्लभ स्वादों से खुद को जोड़े रखते हैं.. क्यों है ना असली झाल-मूरी इंडिया..|
कंप्यूटर साइन्स एंड इंजिनियरिंग निहित Algorithmic Computation मोड्यूलों के विषयवार अध्यापन और शोधों में Travelling Salesman problem टॉपिक की टेक्निकल वर्णनो को भी सर्व-प्रथम दैनिक जीवन में मिलने वाले इन्ही चलंत सेल्समन रूपी "सन ऑफ इंडिया" के उदाहरणो से ही छात्रों को रूबरू करवाना होता हैं.. तो फिर ऐसे चरित्रों से झाँकता दिखता है.. भारत के महान शिक्षाविद साहित्यिक रबींद्रनाथ टागॉर का "काबुलीवाला" भी...
http://en.wikipedia.org/wiki/Travelling_salesman_problem
http://www.angelfire.com/ny4/rubel/kabuliwala.html
काबुलीवाला, एक ऐसा जीवन चरित्र..जो अपने देश अफ़ग़ानिस्तान से काजू-किशमीस बेचता.. काबुल से कलकत्ता आता है.. फिर एक छोटी सी बच्ची में अपनी छोटी सी बेटी के बालपन को ढूँढने लगता है.. फिर विषम परिस्थितियों में मिले विश्वासघात के कॉप और अपने सम्मान के बचाव में दस वर्षों के कठोर कारावास को चला जाता है.. तो फिर वर्षों बाद मधुर यादों को सजोकर अपने घर..काबुल को लौटता है..| इन संस्मरणो में जहाँ एक साहित्यिक भाव आज भी जागता नज़र आता है तो.... ऐसे ही कुछ बचपन के यादों से हर कोई जीवन प्रयंत पिरोया हुआ भी रहता है..| मेरे बचपन के दिनो का वो हर सुबह को आनेवाला "पॉव-रोटीवाला" जिसके ग्रामीण बांग्ला गीतों को हम हर दिन सुना करते.. तो भरी दुपहरी में "ए..रसगुल्लई.." की आवाज़ लगाता वो बूढ़ा रसगुल्लावाला भी तो आज भी याद आतें हैं.. तो हर शाम को चना-चूर लेकर आता "मुगलई टोपी" पहने.. वो झाम-लाल भी..| ऐसे स्मरण आज भी आपके झाल-मूरी इंडिया के सुखद माइल-स्टोन बने ही नज़र आते हैं.. जिनके जात और धर्म से हमें दूर-दूर तक कोई लेना देना नही था| बस वो आते और कुछ ही पलों में खूशियाँ बिखेर गुम हो जाते..|
नागपुर के अपने विद्यार्थी जीवन में कलकत्ता से नागपुर जाने के दौरान.. एक स्टेशन आता था.. झारसुगड़ा, ओड़ीसा का एक इंडस्ट्रियल सिटी..| ये स्टेशन पौ फटते ही सुबह-सुबह आता.. और मेरा सर सहला जगाने का काम करते.. दो छोटे-छोटे मासूम से बच्चे..| पता नहीं मेरी इन यात्राओं में... ये कैसे मुझे पहचान से गये थे.. जबकि मैं हर ६ महीने बाद ही ट्रेन की यात्रा कर पाता था| फिर पता चला बर्थ के नीचे रखे कतरनी चावल की बोरी देख ही वो मुझे जगाते.. जो मेरी लंबी यात्रा की एक Grand-Father testing नीतियों के तहत ही.. हर बार मुझे नागपुर ले जाने के लिए दे दिया जाता था| ... पर ट्रेन की यात्रा में मिलने वाले उन बच्चों का मैं कायल हो गया था.. दोनो भाई बहन थे.. उम्र महज ७-८ साल रही होगी दोनो की..| दोनो सुबह-सुबह वहाँ के जंगली सूखे बेरों को लिए चढ़ते..फिर ट्रेन की साफ-सफाई करते.. लोगों को कला-बाजियाँ दिखाते.. नये-नये गाना सुनाते.. अपने बेरों को बेचते.. और फिर २-३ घंटे बाद यात्रियों से पैसे कमाकर किसी स्टेशन पे उतर जाते..| उनके भावों से मैं हैरान हो जाता था.. इतनी कम उम्र में उनकी निडरता देखते ही बनती थी.. फिर ऐसा ही बहूत कुछ "Slumdog Millionaire" मूवी में भी देखने को मिली थी..| घर से बाहर निकलते ही.. आपको झाल-मूरी इंडिया के कीचड़ में खिले इन फूलों का दर्शन अनायास ही हो जाता होगा.. तो फिर ज़रूरत है इन सस्ते बजट वाले जीवन- अंशों को भी एक मँहगे भाव से देखने की...|
झाल-मूरी इंडिया... Continued...
Vipra Prayag
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