कभी कभी समाचारों के माध्यम से ही सही, मिलने वाली यह खुशियाँ भी तो कुछ कम नहीं| हिन्दुस्तान दैनिक के इस आलेख में आज भी हमारे पौराणिक काल की संजीवनी बूटी के संरक्षण को बल देता संदेश हमें आज भी मिल पा रहा है, ये खुद में सुखद है की आज भी इसके विलुप्त अस्तित्व को जोड़ कर रखने वाले योग-पुरुष हमारे समाज में मुस्तैदी के साथ बने हुए हैं| संजीवनी बूटी और इससे जुड़ी बातों का ज़िक्र तो हम बचपन के दिनो में ही दादा दादी से सुनी रामायण की कहानियों में पौ फटते ही हर रोज़ कर लिया करते थे, और बचपन के पल हर रोज़ इस संजीवनी के संजीवन से उन्मुक्त हो खिल उठता था| ये बात उन दिनो की है जब मैं मैट्रिक बोर्ड दसवी की परीक्षा की तैयारी में जुटा हुआ था| हमारे बोर्ड के विषयों में हिन्दी के साथ संस्कृत की अपनी विशेषता थी| उस समय हमारे अंचल के प्रकांड संस्कृत शिक्षक और विद्वान हुआ करते थे श्री त्रिपाठी जी...| मेरी माँ भी अपने समय में उन्ही से संस्कृत और हिन्दी की शिक्षा ग्रहण की थी| हिन्दी और संस्कृत मेरी बहूत बुरी भी नहीं थी, लेकिन अगर आपने त्रिपाठी सर का आशीर्वाद नहीं लिया तो बहूत कुछ छूटा सा रह जाएगा| रिटाइयर्मेंट के बाद वो अपने घर पे ही संस्कृत की ट्यूसन पढ़ाते| अपनी मा के कहने पे मैने भी उनकी ट्यूसन क्लास जाय्न की| संस्कृत के साथ साथ कभी कभी हिन्दी पद भाग को भी पढ़ाते| याद है एक बार हिन्दी पद में जब वो तुलसीदास रचित राम चरित मानस के कुछ छंदों का ज़िक्र कर रहे थे, और सबरी के आश्रम की बातों का ज़िक्र आया, कि " कैसे उन्होने भगवान राम को बेर खिलाने के पहले उन बेरों को खुद चख लिया करती थी, ये पता लगाने की कहीं वो ज़्यादा खट्टे तो नहीं| राम तो उन चखे हुए बेरो को बड़े प्यार से खा लेते .. लेकिन लक्ष्मण उन्हें बिना खाए बगल में फेंक दिया करते... फिर जब आगे चल रावण के साथ युद्ध में मेघनाद का वान से लक्ष्मण मूर्छित हुए थे सबरी के आश्र्म में फेंके वही बेर संजीवनी बूटी बन लक्ष्मण की प्राण रखा में सहायक सिद्ध हुई थी, जो हनुमान जी ने हिमालय की पहाड़ियों से ही उस संजीवनी बूटी को पहाड़ सहित अपने हथेली पे रख लाए थे...|"
इस अद्ध्याय के बाद मैं अपने घर आया.... पर मेरा मन कुछ बिंदूओं पे आके रुक सा गया था की... सबरी का आश्र्म तो कहीं भारत के दक्षिण में था फिर... हनुमान संजीवनी बूटी हिमालय की पहाड़ियों से लाए थे... लक्ष्मण ने बेर वहाँ फेंका था... फिर वो बेर दक्षिण से उत्तर के हिमालय पर्वत पे कैसे पहुँचा.. संजीवनी कैसे बना... और बहूत कुछ...!!! फिर अगले दिन अपने इन्ही प्रश्नो के साथ मैं त्रिपाठी सर के सामने था... और फिर पढ़ाने के बीच मैने अपने इन प्रश्नो को उनके सामने रखा... फिर क्या था.. मेरे उन तर्क-संगत प्रश्नो को सुन वो गुस्से में आग बबुला हो गये... मुझे सभों के बीच बेंच पे खड़ा कर दिया... और संस्कृत की गालियो से मुझे नहला सा दिया.... हराशंख, गार्दभ... और ना जाने क्या क्या...| उन्होने कहा जिसकी दादी इतनी धर्मात्मा, दादा इतना कर्मठ... उनका पोता इतना पाखंडी होगा.. इतना कह उन्होने मुझे अपने क्लास से निकाल दिया| मुझे समझ में ही नहीं आ रहा था की मुझसे ग़लती क्या हो गयी... बस केवल वो संस्कृत की गालियाँ मेरे कानो में गूँज रही थी.. फिर कुछ दिनो बाद मैट्रिक की परीक्षा हुई, फिर रिज़ल्ट आए| सबसे ज़्यादा नंबर मुझे संस्कृत में ही मिले थे... मुझे विश्वास ही नहीं हो रहा था| फिर एक दिन मेरा एक मित्र मुझे बुलाने मेरे घर पे आया की त्रिपाठी सिर ने तुम्हें बुलाया है... इस बार उनके यहाँ पढ़ने वालों में तुमें ही सबसे ज़्यादा नंबर आयें हैं..| फिर मैं उनसे मिला, उनके पावं छुए... आशीर्वाद लिया... मानो मेरी संजीवनी मुझे मिल सी गयी थी| फिर वर्ष २००७ में विवाह उपरांत जब मैं महाराष्ट्र के महाबालेश्वर गया था तो वहाँ उन पर्वतों पे मेरी धर्म-पत्नी को संजीवनी के पत्ते मिले थे, मैं वहाँ भी संजीवनी की यादों में ठिठक पड़ा था... और फिर आज भी... |
विप्र प्रयाग घोष
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