Friday, 13 February 2015

हाफ लॅंग्वेज पार्ट- I.. " पिंजर पुराण" Half Language Part- I

वे अपने शोध-कार्यों में मुस्तैदी से जुटे थे। डबल पी. एच. डी. भी इन्फर्मेशन साइन्स में कर रखा था। दिमाग़ हर वक़्त घड़ी की टिक-टिक के समान चलती ही रहती। खाने पीने की सुध के बगैर। नाम "जटा शंकर" था। जन्म लेने के उपरांत ही सिर पे उगे जटाओं के भंवर को देख घर वालों को ये नाम कुछ भा सा गया था। कायस्थ परिवार में जन्म लेकर भी मानो.. न जाने कितने ही कायाओ के संवेद को जानने की उत्सुकता लिए अपने रण में लगे रहते। उम्र के मध्यान से गुजर रहे थे। व्यस्तता के बोझ से बहूत जल्द चेहरे पे परी झुर्रियाँ और बालों व दाढियों पे  छायी सफेदी हर दिन के नये अनुभवों के प्रतीक-चिन्हों के समान बदस्तूर बढ़ती ही जा रही थी।

 मेरा और उनका सामना एक आईने के समान था। जो शायद कभी झूठ नहीं बोलता। फिर ये बताने पे की मैं किस महाविद्यालय से उनके सम्मूख था तो सच बताने पे अन्य महाविद्यालयों के अर्ध-सत्य को खंगालने जैसा है.. तो फिर इसे गौण ही रखा जाय.. या फिर इसे एक विशेष गुण की तरह अपने परिदृश्यों में पिरो दिया जाए.. कुछ-कुछ "निर्गूण-ब्रम्‍ह" के समान।

अब तो काफ़ी दिनो बाद ही उनसे बातें भी हो पाती है और वो भी मोबाइल से.. फिर दूर से ही सही.. जो भी मिल पाता है.. वैचारिक ऑक्सिजन से कुछ कम नहीं। कुछ दिनो पहले की बात है.. रात के करीब ग्यारह बजे फोन किया था.. डर भी लग रहा था.. की उन्हें कहीं डिस्टर्ब तो नहीं कर रहा। फिर कुछ रिंगो के बाद ही आवाज़ आयी.. " हेल्लो प्रशांत.. हाउ आर यू.. माइ डियर.."। वो हमेशा इसी गर्म-जोशी से बातें किया करते.. फिर उनसे हमेशा की तरह डिफ़्फरेंट टॉपिक्स पे बातें भी होती। ग्रह-नक्षत्रों के विषयों पे भी अच्छी-ख़ासी जानकारियाँ रखते थे.. और उनसे कुछ जानने की चाह में मेरे पूूूूूछे गए प्रश्‍न भी उन्हें कुछ ज़्यादा ही कुरेद दिया करते। ..और फिर ऐसे कुछ सवालों का मैं उन पर कुछ ज़्यादा ही दबाव बना दिया करता। फिर एक बार उनसे जो सुनने को मिला.. " अब प्रशांत पेसिफिक.. कल्पना चावला की तरह मेरी भी ना जाने कितनी  कल्पना सी-पार्टिकल्स इस आकाश-गंगा में तैर रही हैं..  फिर वो अपने इन्फर्मेशन के साथ सही सलामत आ पाए तो  कुछ बता पाऊँ। तब तक अपने समुंदर में  गोते खाते रहो.. बच्चु।" ..और फिर हमेशा की तरह मुस्कुरा कर फोन रख दिया। उनसे बाते करना ही खुद में सुखद अनुभव रहता है.. और उनकी बातों के टुकड़े.. Caroline A. Shearer की बुक "द गिफ्ट" के समान।

उनके दिए उपहारों की बात याद आई तो एक बार बातों बातों में उन्होने कहा था.... " रात के अंधेरे में आकाश में दिखे ये चाँद तारे हमारे ही प्रतिबिंब हैं.. और जिन ग्रह-नक्षत्रों की खोज में सदियों बिता देते हैं वो.. हमारे इर्द-गिर्द ही बड़े करीब मौजूद रहते हैं। जब तक स्वप्न से जागो.. तब तक अंधेरा दूर जा चुका होता है.. और भ्रम जाग चुका होता है। " .. और फिर संवाद अधूरा छूटता है। रात को दिन नहीं पकड़ पाती.. और दिन को रात। राहें कितनी जुदा-जुदा सी हैं। एक क्लास-रूम से निकल.. कितने नव-रंगो में घुलने को आतुर। कहीं वृष्टि-छाया में फिर एक बार जी-उठने को आतुर तो कही छाया-मृत का विकट भटकाव।

इन्ही भटकावों में बोझिल मन लिए एक बार उन्होने कहा था..  " जब माहौल शिक्षा और शिक्षकों को पहचानने से इनकार कर दे... तो फिर समझ लेना एक सभ्यता की ज़मीन सरक गयी.. दरवाजे पे दस्तक बहूत तेज है.. आवाज़ तुम्हें पहचानना है.. देर मत करना।" उन दिनों हम उड़ीसा के एक इंजिनियरिंग कॉलेज में कार्यरत थे। सौभाग्य से हमारा कमरा भी एक ही था। अध्यापन अनुभवों में मैं जहाँ एक नव-प्रशिक्षु तो उनकी दार्शनिकता के वे स्वयं-भू थे। उनकी बातों के रहस्यों से परतें उठाना मानो सूरज को दिया दिखाने समान.. फिर भी जाने-अंजाने मैं कभी-कभार कुरेद ही दिया करता.. और मज़े की बात तो ये.. ये सब जानकर भी वो अपने वर्षों के सोए घावों के अंतिम परत पे जाते मेरे नुकीले प्रश्नो के कील को बड़े खामोशी से जिए जाते। मानो मेरे हर प्रश्न में वे अपने स्वर्णिम सफ़र में हों। एक रात मैने सोते हुए पूछ ही डाला की.. " सर.. दरवाजे पे दस्तक बहूत तेज है.. आवाज़ तुम्हें पहचानना है का क्या मतलब।" जवाब जो आया.. "प्रशांत.. सोते पेट्रोल में खाम-खा केरोसिन क्यों मिला रहे हो.. क्यों अपना कार्बोरॅटर खराब करवाने पे तुले हो.. खोटे सिक्के ही सही.. असली नोटों के खेप में क्यों फ़र्ज़ी नोटों को घुसेड रहे हो.. जाओ सो जाओ.. रात काफ़ी हो गयी है।"

मैं भी मन में कुछ उधेड़बुन लिए.. बस करवटें लिए जा रहा था। नींद आँखों से दूर थी.. की तभी कुछ देर बाद आवाज़ आयी.. "अपने कंधो को इतना भी कमज़ोर ना बनाओ की जीवन-अर्थों से पार ना लगे.. प्रशांत।" सर तो जैसे अब भी जाग रहे थे.. मानो नींद उन्हें भी नहीं आ रही थी। "प्रशांत पता है कुछ दिन हुए.. एक विवाह समारोह में गया था.. बहूत दिनो बाद कुछ पुराने छात्रों से मुलाक़ात हुई थी। फिर एक छात्र जो दिखा.. गोद में एक छोटी सी बच्ची लिए। मैं उसे पहचान गया था.. अगर मेरी आँखें कुछ बूढ़ी हो गयी हो तो। वो मुझे भी थोड़ी दूर से देखे जा रहा था.. लेकिन उसके स्तब्ध भावों ने मेरी पैरों को जैसे जकड़ दिया हो। मैं बस उसे देखे जा रहा था। आखिर वो मेरा एक पुराना छात्र जो था। कॉलेज के दिनो में वो अक्सर मुझसे डाँट खाया करता.. अपनी शरारतों के कारण। मुझे लगा कहीं उन वजहों की ये मौन प्रतिक्रिया तो नहीं। फिर कहीं मुझसे उसे पहचानने में कोई भूल तो नहीं हो रही। मैं उस समारोह में बस उसी जगह टिक गया। मेरे कदम आगे बढ़ ही नहीं पा रहे थे। मेरे कुछ पुराने मित्र खाने की स्टॉल की ओर निकल पड़े थे। लेकिन पता नहीं मेरे कदम बढ़ ही नहीं पा रहे थे। उस समारोह की भव्यता में जैसे मेरी भूख उस मौन साक्षात्कार पे जा टिकी थी। मेरे कुछ मित्रगण अब तक फास्ट-फुड लिए मेरे अगल-बगल मौजूद थे। तकरीबन आधे घंटे से मैं बस उसी जगह से एक सत्यापन की तलाश में रुका हुआ था। फिर आख़िर काफ़ी देर बाद.. अपनी बच्ची को गोद से उतार वो मेरे सामने था। मेरे सम्मुख आ.. "प्रणाम सर.." का संबोधन ही मेरे लिए सब कुछ था। फिर जो उसने कहा " सर.. आप आज भी नहीं बदले।" फिर मैंने भी उसे आशीर्वाद देते हुए कहा.. की "एक शिक्षक की पहचान उसके छात्र से ही होती है.. तुम संभल गये.. की तुमने मुझे पहचान लिया.. तरुण।"

... कुछ देर खामोशी के बाद.. सर.. ज़ोर से हँसने लगे.. उनकी हँसी जैसे थमने का नाम ही नहीं ले रही। मैने भी उन्हें बहूत कम ही इतना खिलखिला कर हंसते हुए कभी देखा था। "प्रशांत सो गये क्या..?" "नही सर अभी नहीं..।" "जानते हो प्रशांत हम प्रोफेसरों की लाइफ भी न्यूमरिकल कर्व०फिटिंग की तरह ही होती है। अपने ईक्वेशन.. अपने सिद्धांत। फिर भी गुंजाइश बनी रहती है.. ये एक प्रोसेस चार्ट है। संभावनाएँ अनंत हैं.. बशर्ते बाहरी परतों पे जाने का जोखिम भी तो लेना ही होगा। अपने अविष्कारक स्वयं बनो। देखना वो आवाज़ बस तुम्हें सुनाई देगी.. वो बचता नज़र आएगा। किसी कुर्सी.. गद्दी.. पदवी.. भूषण.. विभूषण.. के चक्कर में मत पड़ना कभी.. इन रत्नो का कॉप कभी मत लेना। हर दिन तुम्हारा है.. अपने दिनकर ही बने रहो.. रात बीते सब छिप जाना है.. अभी तो और बहूत दूर जाना है।"
   
 "................. फिर मैं भी कुछ.. यूँ ही चलते चलते... दूर निकलता जाता हूँ। हिमखंडों का पिघल कर नदियों की मीठी धार लिए...  खारे स्वर-सागर में उतरा जाता हूँ।  कैलाश.. जन-सेवक  नगर-सेवक बन...बरबस  स्वरूप बदलता जाता है.. फिर वो भी क्या अपने अखंड को जी पाता... वो भी तो बस बहता जाता है।  कैलाश.. आस्था ये कैसी.. बस उसे ही नृप घोषित किए जाता हूँ। आधार-स्तंभ को स्थिर किए.. जीवन राग सुनाता हूँ। नृप-दोषों में बँटा देश.. फिर भी नित नये नृप बनाता हूँ। नृप हूँ.. नृप चाह लिए.. नृप-नाद में बसता जाता हूँ। स्पर्धा... प्रति-स्पर्धा का दौर यहाँ पर... हर कोई तो बह चलता है.. तेज़ वेग वायु संग अपने खारे समुद्र जो उतरता है। मैं ठहरा हिम-शक्त लिए... स्थीर आधार जो जीता हूँ। फिर भी धँसना है.. मौन मुझे.. हिमखण्डो का वो तेज लिए... हिमखण्डो का वो तेज लिए....................। "

सुबह हुई तो... देखा आसमान में चहलकदमी करते तोतों का झुंड... कुछ तोते हर रोज की भाँति.. मेरे कमरे की  बंद खिड़की के बाहर से शीशे में खुद को देख मचल रहे हैं.. कुछ चोंच मार रहे हैं। उनके इन करतबों से मैं ही खुद को बंद पिंजरे में देख पा रहा था.. और उन्हें पिंजरे के बाहर बिल्कुल आज़ाद। प्रकृति-पूर्ण विज्ञान बिल्कुल आज़ाद सा.. और सौंदर्य पिंजरे के अंदर। भारतीय वैज्ञानिक कक्षाओं में.. व्योम-१ के सफल परीक्षण के बाद नव-प्रशिक्षु व्योम-२.. व्योम-३.. के अनुसंधानो में लगा दिए गये हैं। कॉलेज परिसर का पिंजरे में बंद तोता.. थोड़ा उम्र-दराज.. हर रोज एक ही रट.. लगाता.. थोड़ा खिसियाता.. थोड़ा गुस्साता। बाहर करने की बात पे शर्मासा जाता। पिंजरे का तोता.. भोथा तोता.. थोथा सौंदर्य।

        आज़ाद तोता इंटेलिजेंट तोता... या पिंजरे का तोता इंटेलिजेंट तोता। क्योंकि वो हमारी जैसी बातें करना जान गया... आपकी बातें करना जान गया.. आपके अपनो को पहचान गया.. या फिर आपको खूश करना जान गया। उनके ज्ञान का क्या.. जो आप में वशीभूत ना हो पाए.. फिर तो इंटेलिजेन्स अधूरा छूटता है.. इंटेलिजेंट लॅंग्वेज अधूरी छूटती हैं.. उनकी या हमारी।

"गुड-मॉर्निंग प्रशांत.. ये सुबह-सुबह.. क्या इन पिंजर-पुराणो में अटके पड़े हो.. इन पुराणो ने अगर नाम दिया तो मान ले भी लिया.. अपने मद में रहो.. दम मिलेगा.. गर थोड़ी बहूत संतुष्टि और जुटानी है तो.. इन पिंजर-पुराणो को खंगालने बॅक्वर्ड चेन प्रोसेस में जाना होगा। राज़ी हो तो कहना।" मैने भी हामी भर ही दी.. इतनी अच्छी दावत को भला हाथ से कौन जाने दे। "अच्छा प्रशांत..कल सुबह अगर मौसम ठीक रही तो निकल चलेंगे.. कुछ खाने का समान पास रख लेना.. और टॉर्च भी।"  

अगले दो दिनो की छुट्टी को देख मैं समझ गया था की ये सफ़र कुछ लंबा ही खीचेगा.. सो रात ही सारी पैकिंग कर ली.. और फिर.. सर की पुरानी स्कूटर लैबरेटा तो हमारे सामानो का इतना बोझ तो उठा ही सकती थी। सर ने अब तक बड़े जतन से संभाले रखा है इसे। कहतें हैं.. २ साल के बाद ये स्कूटर मिली थी उन्हें.. उस समय गाड़ियों के लिए लाइन लगानी पड़ती थी.. लंबे इंतजार के बाद गाड़ी डिलीवर होती थी। फिर तो जैसे नई गाड़ियों पे मन ही नहीं भाया उनका। इस गाड़ी के चक्कर में आधे मैकेनिक भी बन चुके हैं। एक बार जो इंजन में कुछ खराबी आई.. दो दिनो तक जीना हराम था उनका। आख़िर काफ़ी मशक्कत के बाद जाके बन पाई। मैने कहा सर आप तो पूरे मैकेनिक ही बन गये। "ना.. ना.. प्रशांत.. हाफ-मैकेनिक.. बहूत कुछ हाफ-माइंड की तरह.. प्यार करता हूँ ना इसे.. इसलिए हाफ-मैकेनिक।"

 इतना कहते ही ज़ोर से हँसने लगे.. जैसे कोई खोयी यादों को उस पुरानी स्कूटर में सँजोकर ही जी रहे हों। सचमुच एक अद्भूत लगाव को मैं भी जी रहा था। मेरे मन में उठी इन मर्म-स्पर्शी भावों को भी उन्होने सहजता से पढ़ लिया था.. और फिर.. " जानते हो डियर.. हर-कोई तुम्हें तुम्हारे इन वैभवो के कारण ही तौलता है.. जब की वास्तव में ये सब  मात्र एक साधन ही तो हैं.. आपका धन.. आपका ज्ञान.. आपकी डिग्रियाँ.. उस वक़्त आधे-अधूरे से हैं.. जब उसे आप अपने मन के किले से बाहर टहलता ना छोरें.. औरों के प्यास.. एक आक्रांत-भाव को शांत करने.. और थोड़ी बहूत अपने आक्रांत-भावों को भी मरहम लगाने.. तुम्हें घुमंतू-भोटिया दिख जाएगा।"

अगले ही दिन हम सुबह-सुबह सर के लैबरेटा स्कूटर से निकल पड़े। सुबह की मीठी खुश्बू लिए.. हम आगे बढ़े ही जा रहे थे.. की तभी.. सर ने स्कूटर रोक दी.. और फिर.. सड़क के दोनो ओर हरी घाँसो में बिछे सफेद दानो की ओर इशारा किया। मैं भी ऐसा कुछ पहली बार ही देख रहा था। उन्होने कहा... "प्रशांत.. उन सफेद दानो को देख रहे हो ना.. जाओ उन्हें बटोर  लाओ.. घुमंतू को गिफ्ट देने के काम आएँगे।" 

मैं कुछ समझ ही नहीं पा रहा था। पास जा.. उन दानों को एक-एक कर मैं बटोरने लगा। एक अद्भुत खुसबू बिखरी थी वहाँ.. शायद उन सफेद दानो के ही कारण। फिर सर ने.. दो-तीन दाने चख भी लिए.. और मुझे भी चखने को कहा। सचमुच.. प्रकृति की अनूठी भेंट थी ये.. उस सुबह.. जिसका स्वाद मैं पहली बार ले रहा था। सर ने कहा.. "ये महुआ के फल हैं।" नाम तो मैं भी बहूत पहले सुन चुका था.. लेकिन इसके स्वादों का संवाद पहली बार ले पा रहा था। "पता है.. दुनिया की बेस्ट वाइन इसी फल से बनती है। ईस्ट इंडिया कंपनी की ये बेस्ट चाय्स थी। एक बार चाइना वर्ल्ड वाइन फेस्टिवल को गया था.. अपने एक वाइन टेस्टर मित्र के साथ.. उसे पियाँक या इंग्लीश में ड्रंकार्ड मत समझो.. ताज्जुब हुआ की अपने देश के इस फल को विदेशों में कितना सम्मान मिलता है.. और इनके सही हक़दारों को अपने देश में आधे-अधूरे दाम भी नहीं मिल पाते।" 

महुआ की झूमा देने वाली  स्वाद के साथ हम जंगल को चीरते उसके उबर-खाबर रास्तों पे स्कूटर लिए.. आगे की ओर बढ़ने लगे। उन रास्तों पे दिखाई दी.. उन जंगलों के आस-पास के गावों में रहने वाली.. ग्रामीण औरतें.. अपने माथे और कमर में पानी से भरे घड़ो को लिए। उन वीरान पड़े उन जंगलों में ये भी कुछ अद्भूत ही था। मैने सर से धीरे से पूछा.. "सर.. ये क्या है..?" " राजगढ़ का मीठा-जल.. बंधु.. Where man in all his truest glory lives, And nature's face is exquisitely sweet; For those fair climes I have impatient sigh,There let me live and there let me die..."

वाह आज तो सर अपनी रफ़्तार में ही थे। "जानते हो प्रशांत.. ये लाइन्स बंगाल के महान नाटककार और कवि सर माइकल मधुसूदन दत्त की हैं। वे थे तो बन्किम चंद्र चट्टोपाध्याय के समकालीन.. पर अँग्रेज़ी सलतनंत का रुवाब रखते थे। उनकी कविताओं और लेखन की एक विशेषता रही.. की उनके पंक्तियों के भाव एक-दूसरे से मेल खाते हो या ना हों.. पर पूरा निचोड़ उसके अंतिम पँतियों में जाकर ही मिल पाता। अपने अंतिम दिनो में उन्हें इस बात का मलाल रहा.. की अगर वो अपनी मातृभाषा बांग्ला में ही लेखन कार्य किए होते तो अपनी विधा में मीलों आगे रहते। उनकी क्षमताओं पे अँग्रेज़ों ने चाहकर भी अपनी मोहर नहीं लगायी थी। चलो अब तुम्हें मीठे-जल का रहस्य दिखाता हूँ।"


हम जैसे-जैसे उन जंगलों को पार कर आगे की ओर बढ़ रहे थे.. की थोड़ी उँचाई पे बिल्कुल स्पाट वृहत क्षेत्र दिखने लगा था.. और अब तो एक पुराना किलेनुमा अवशेष भी साफ दिखने लगा। मैं रोमांचित था.. वहाँ आने पर.. और उससे भी ज़्यादा की सर को इस जगह की कैसे भनक पड़ी। "क्यों.. प्रशांत कैसा है ये पिंजर-पुराण..?" "वाकई अद्भूत सर.. अविश्वसनीय। मैं कोई स्वप्न देख रहा हूँ.. शायद।" " हाँ.. हाँ.. स्वप्न ही तो है। यहाँ से जाते ही टूट गया मानो। बिल्कुल स्ट्रॅटेजिक। ये जगह वर्षों से अपने रूप को यूँ ही बनायी हुई है। बस समय-समय पे इसके रंग-रूपों में कुछ बदलाव होते चले गये। कभी हिंदू राजाओं की आरामगाह रही.. तो कभी मुग़लिया नवाबों की कोठी.. तो कभी ब्रिटिश हुक्मरानो के गोल्फ क्लब हाउस। लेकिन आज तक ये अपनी जगह बदस्तूर बनाए हुए है। कहते हैं.. यहाँ कभी.. हैदराबादी निज़ामो की हवाई-पट्टी भी हुआ करती थी। हर रात यहाँ काफ़ी शोर शराबा हुआ करता था। दूर देश-विदेशों के राजकुमारों की ये मनचाही जगह होती थी। ये दुनिया से परे थी। इसके मीठे जल-सरोवर पे नायाब पक्षियों की कतार सजी होती थी। लेकिन देश आज़ाद होते ही इन पिंजर-पुराणो को ग्रहण लग गया। बस वो विशाल भवन बचा है.. और सरोवर का मीठा-जल..।" 

मन में ढेरों सवाल कौंधे चले जा रहे थे। फिर मैने सर से घुमंतू-भोटिया के बारे पूछा.. और उस किलेनुमा राजगढ़ वाले भवन की ओर चलने को कहा। "......दीवानो से यह मत पूछो... दीवानो पे क्या गुज़री है.. हाँ प्रशांत.. वो घुमंतू-भोटिया.. दो साल पहले मुझे यहाँ इसी जगह पे मिला था। वो आज भी यहीं कहीं रहता है.. किस्मत से दिख जाए तो ठीक। देखो इस तालाब के बगल की घाँसो पे उसके घोड़े के पैरों के निशान दिख जाएँगे। उसके पुरखे इस स्टेट के दीवान थे.. अब तो सारे दीवाने गये.. ना सटीक राय देने वाले रहे.. ना रायबहादुरी रही। फिर भी वो भटकता रहता है.. इसके इर्द-गिर्द.. और रही बात भवन के ओर चलने की.. तो वो अब चोर-उचक्कों का अड्डा बन चुका है.. अब कोई नहीं जाता उधर.. पिंजर-पुराण का अंतर्द्वंद बस खाए जा रहा है। महुआ के दानो को तालाब के बगल हरे घाँसो में फैला दो.. और तालाब के मीठे-जल को गौर से देखना.. शायद एक और घुमंतू-भोटिया दिख जाए।"




देख रहा था.. मैं उस पल को.. थोड़ा जल को.. थोड़ा कल को। हर कोई तो झाँक जाता इसको.. ये भी आँक लेती हर एक छल को। फिर भी भींगती.. भींगाती हर एक कल को... थामें थल को। देख रहा था.. मैं उस पल को.. देख रहा था.. मैं उस पल को।


"कहाँ खो गये प्रशांत..! अपने भवन से बाहर तो निकलो। अब ये हमारे नहीं रहे। वक़्त के ये माइल-स्टोन्स... कलंक गाथाओं की ओर बढ़ चले हैं। तुम्हें अपनी राहें स्वंय बनानी है.. इन पिंजर-पुराणो से निजात पाना हैं। लौटे तो क़ैद कर लिए जाओगे.. फिर अपना कद कैसे बढ़ाओगे..। "




......continued in
 हाफ लॅंग्वेज... पार्ट- II    
 Half Language... Part- II

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Vinayak Ranjan 
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