Monday, 11 May 2015

ये है Mumbai.. मेरी जान...


"टेरेस खाली है क्या..?" जवाब जो मिला.. "ओए..  तू.. किधर से आया है बे..? तेरे को दिख नहीं रहा.. क्यूँ..  बाहर बारिश हो रेली  है.. क्या..!! " अगल-बगल की दो- तीन आँखें मुझ पे मुस्कुरा रही थी..| फिर कुछ देर रुकने के बाद.. मैं जिस रास्ते से गया था.. उसी रास्ते अकेले वापस लौट रहा था| गर्मी के दिनो में आसमान से गिरते मुंबई के बे-मौसम बरसात के बीच हाथ में छाता लिए.. मैं चला जा रहा था| ये बात १९९७ जुलाइ की है|

महाराष्ट्रा इंजिनियरिंग कॉलेज अड्मिशन की कौंसिलिंग के लिए मुंबई आया था.. और साथ में थे.. मेरे दादाजी| मेरिट लिस्ट में नाम होने के बावजूद.. कुछ डॉक्युमेंट ना होने की वजह से एक दिन के लिए मुंबई रुक जाना पड़ा था| आज भी याद है.. हम अपने बिहार से पुणे होते हुए.. डेक्कन क्वीन एक्सप्रेस पकड़ मुंबई को आए थे| फिर दादर से मुंबइया बेस्ट बस पकड़.. हम सरदार पटेल कॉलेज अंधेरी वेस्ट को आए थे| सरदार पटेल कॉलेज का नज़ारा चकरा देने वाला था| बॉलीवुड फिल्मों की कॉलेज कल्चर पहली बार आँखों के सामने जो थी| युवा फॅशन चरम पे थी..| ढीक-चीक ढीक-चीक करती गाड़ियाँ.. और उन कारों में जोश देखते ही बन रही थी| कुछ लड़के.. अपनी फर्राटा गाड़ियों से स्टंट पे स्टंट किए जा रहे थे.. | कुछ वर्षों पहले अजय देवगन की फिल्म "फूल और काँटे" जैसी..|



 मैं रोमांचित था.. मुंबई नगरी में खो सा गया था..| फिर अड्मिशन कौंसिलिंग के दौरान कुछ-एक डॉक्युमेंट के कमी के कारण.. मेरी अड्मिशन उस दिन नहीं हो पायी.. सो हमें अगले दिन तक का इंतेज़ार भी करना था| गर्मी काफ़ी थी.. और वो भी उमस भरी गर्मी..| कॉलेज के बाहर जगह-जगह दिखे नींबू पानी वाले.. और फिर मॅंगो-शेक भी पिया था.. वाकई मुंबई का मॅंगो-शेक..|

हम कॉलेज के बाहर निकले ही थे.. की दादाजी ने कहा.. यहाँ से चन्द कदमों में ही उनके बचपन के मित्र का फ्लैट है..| उनकी खुशी देखते ही बन रही थी..| मैने अपने जीवन में कभी-कभी ही उन्हें इतना खूश होते कभी देखा होगा शायद..| फिर उस दुपहरी हम दोनो मुंबई की धूप से बचते बचाते.. लोगो से पता पूछते आगे की ओर बढ़ते जा रहे थे| चलते-चलते अपने बचपन की कहानी भी बताते..| उनके मित्र यहाँ मुंबई टाइम्स ऑफ इंडिया के एडिटर थे.. और कुछ वर्षों पहले ही उनका निधन हुआ था.. इस बात को उन्होने मुझे उनके घर पहुँचने के करीब ही बताया| फिर भी उनके घरवालों से मिलने की उनकी खुशी बड़ी आत्मीय सी थी| अब उनके घर उनकी पत्नी और उनके बच्चे ही रहते थे| सौभाग्य से उनके घर पहुँचते ही.. उनके बेसमेंट वाले फ्लॅट के सामने एक वृद्ध महिला हमें दिखाई दी..| नज़दीक जाने पे.. मेरे दादाजी ने एक दूसरे को पहचान लिया..| हमें देख वो बड़ी आहलादित हो उठीं| वो भी हमारे भागलपुर गाँव की ही थी.. हमें सहर्ष अपने घर को ले गयीं.. और हमारे भागलपुर की बोलचाल की भाषा अंगीका के बोल.. बात-चित के क्रम में सुनने को मिलने लगे| उस दोपहर उनकी दोनो बहुओं ने भी हमारे स्वागत में कोई कमी ना की..| फिर हमने दिन का खाना भी खाया.. और आराम भी किया..|


दिन भर भारी थकान के कारण नींद भी अच्छी हुई..| हम जागे तो शाम के सात बज रहे थे| अब हमें चलना था.. लेकिन वो हमें जाने देना नहीं चाहती थी| कुछ देर बाद उनके बड़े बेटे के आने के बाद.. उन्होने कुछ पास के होटेलों में कमरे के लिए फोन लगाया.. फिर  मुझे एक होटेल का विजिटिंग कार्ड दिया और कहा.. पता कीजिए वहाँ टेरेस खाली है की नहीं..| इस टेरेस शब्द से मैं अंजान था.. और फिर बे-मौसम बरसात..| सच में यहाँ बहूत कुछ बे-मौसम ही तो है... बड़े शहरों की कुछ बात ही निराली है..| बड़े शहर.. कमरे छोटे-छोटे..| मगर... दिल और बिल दोनो बड़े-बड़े...| कल हमें कोंसिल्लिंग के लिए सरदार पटेल कॉलेज जल्दी पहुँचना था.. इसलिए हम आस-पास के होटेलों में कमरे देखने लगे.. लेकिन सारे-के-सारे हाउस-फुल..| लौटते वक़्त.. मैने उन वृद्ध आँखों में कुछ नमी सी देखी थी..| जैसे किसी अग्यातवास से लौटने के बाद भी.. फिर वो दूर जा रही हो मानो.. किसी अदृश्य की ओर..|

फिर अचानक दादाजी ने एक ऑटो को हाथ दिया.. और  हम अंधेरी रेलवे-स्टेशन की ओर चल पड़े| बाहर बारिश की बौछारें तेज हो गयी थी.. और रह-रह कर कौंधती बिजली..| अंधेरी पहुँच हमने.. लोकल ट्रेन को पकड़ा.. विक्टोरीया टर्मिनस के लिए| रात के नौ बज रहे होंगे.. उस फर्राटा भरती ट्रेन में.. इक्का-दुक्का लोग ही सफ़र कर रहे थे..| कुछ बच्चे दिखे.. उस चलती ट्रेन में भागा-दौड़ी करते हुए.. बिल्कुल भींगे हुए से..| ट्रेन की सीट के उपर-नीचे देखते.. जो कुछ कचरा मिलता.. अपनी झोली में भर लेते.. लेकिन थे काफ़ी खुश-मिज़ाज.. आख़िर उम्र के किस बे-मौसम मार से गुजर रहे थे..| उस बरसाती रात में भी उनकी खोज चालू जो थी.. या फिर मुंबइया जुनून..| फिर दूर से दिखाई पड़ा.. ब्रेबॉन क्रिकेट स्टेडियम.. दूधिया रोशनी से नहाता हुआ..| अरे हाँ.. मैं तो सचिन तेंदुलकर के शहर में था.. विनोद कांबली.. सुनील गावसकर भी.. सब तो इसी शहर में रहते हैं ना.. इन्ही सोचो में खोया हुआ सा मैं..|



 वी. टी. स्टेशन अब हम पहुँच चुके थे.. विक्टोरीया टर्मिनस का लिटिल फॉर्म वी. टी. | फिर हम उस बड़े स्टेशन की यात्री-निवास को जाने वाली सीढ़ियों को चढ़ने लगे.. जो की दूसरे मंज़िल पे थी| दर्शन बिल्कुल रॉयल सा.. अँग्रेजनुमा जो थी.. फर्श संगमरमर के.. एक दम फन्नास..| दादाजी ने कहा.. यहाँ काफ़ी जगह रहती है.. और सेफ भी है.. लेकिन ये क्या.. अंदर तो पैर रखने की जगह भी नहीं थी..| थक-हार हम बाहर उसके बरामदे पे ही खड़े रहे.. बाहर होती बारिश के कारण.. अंदर थोड़ी ठंड भी बढ़ गयी थी..| हमारे साथ वहाँ कुछ और लोग भी थे.. इतने में दादाजी ने इशारा कर मुझे दिखाया.. एक विदेशी युवा-जोड़ा.. एक दम साथ में चिपके हुए.. साथ बैठे.. शायद उन्हें भी ठंड लग रही थी..| दादाजी ने कहा.. "देखो ये फोरेंन से आए हैं.. वो भी यहीं इसी फर्श पे ही बैठे है.. चलो हम भी यहीं बैठ जाते हैं.. थोड़ा आराम भी कर सकते हो.." और अपने बॅग से कुछ पुराने न्यूज-पेपर को निकाल फर्श पे बिछा दिया..| वाकई शानदार अनुभव था.. फिर मैं एक एयर-बॅग को सिरहाने लिए.. थोड़ा लेट सा गया..| मुझको ठंड लगता देख.. दादाजी ने अपना भागलपुरी डल चादर मुझको ओढ़ा दिया.. और कहा.. "भूख तो लगी होगी..  मैं आता हूँ.. बाहर से कुछ लेके.. तुम यहीं रहना.."|


दादाजी के जाने के बाद.. उस जगह मैं अकेला फर्श पे लेटा हुआ था..| समय-समय पे आती रेलवे नियंत्रण कक्ष से.. ट्रेनो की आने-जाने की सूचना..| बॉलीवुड के कितने ही सितारे अपने सपने सजोयें मुंबई के इसी अंतिम स्टेशन पे आए होंगे..| उस विशाल स्टेशन की साजो-सज्जा मुझे गुरुदत्त के ब्लॅक एंड वाइट फ़िल्मो की यादों में लिए जाने लगी.. जिनकी फिल्मों को मैने बचपन में देख रखा था.. फिर कभी राज कपूर.. कभी देव आनंद.. तो कभी दिलीप कुमार.. सब तो इसी नगरी के दीवाने रहे होंगे| फिर कुछ मिनटों बाद दादाजी गरमागरम बड़ा पाव और ब्रेड-आमलेट लेकर आए| उन्होने कहा.. "ये बड़ा पाव यहाँ का फेवरेट है.."| मुझे भूख जोरों की लगी थी..| दादाजी ने कहा मैं खाकर आया हूँ.. तुम सारा खा लो..| खाने के बाद मैं और दादाजी ने अगले दिन की प्लानिंग की और फिर वहीं बातें-बातें करते करते सो गये|


बचपन से ही दादाजी के साथ का सफ़र हमेशा ही सुहाना होता..| नई-नई बातें सीखने को मिलती..| बातों-बातों में उन्होने कहा.. "ये शहर बहूत ही मँहगा है.. बहूत से लड़के यहाँ पढ़ाई के साथ-साथ पार्ट-टाइम जॉब भी करते हैं.. ऑटो.. टॅक्सी भी चलातें हैं.." और भी बहूत सारी दुनिया-दारी की बातें.. जैसे वे मेरी कंडीशनिंग कर रहे हों| बातें करते करते मुझे कब नींद आ गयी.. पता ही नही चला| फिर करीब एक-डेढ़ घंटे बाद नींद खुली तो देखा.. दादाजी जागे हुए हैं.. और अपने बिहार का सत्तू सान रहे हैं..| मैने कहा.. " दादूजी अभी तक सोए नहीं.."| वो बस मुस्कुराए जा रहे थे.. और मेरे अनुभव का भंडार बढ़ता जा रहा था| वो अपने सफ़र में थोड़ा घर का सत्तू.. चना.. मिर्च.. आचार.. चूड़ा.. सब लेकर ही चलते थे| फिर मैने भी एक सत्तू की गुल्ली खायी.. उस रात वी. टी. स्टेशन पे.. और फिर पानी पीकर सो गया..| सोते-सोते  जो ख्याल आया..  सुनील दत्त की फिल्म.. रेलवे-प्लॅटफॉर्म..किशोर कुमार की चलती का नाम गाड़ी और हाफ़-टिकट.. देव आनंद की बंबई का बाबू और टॅक्सी-ड्राइवर.. गुरुदत्त की मिसटर एंड मिसेज़ 55..|



 सब के सब इसी मुंबई की भेंट.. जिनके  नामों को अक्सर घर पे रखे पुराने गानों की कैसेटों के कवर पे देखा करता था| उस रात सब के सब बड़े नज़दीक ही थे.. बिल्कुल आसपास..|


अगली सुबह ४ बजे ही दादाजी ने उठा दिया.. जल्दी-जल्दी नहा-धोकर हम अंधेरी को पहुँचे| बॅंकिंग सिस्टम भी यहाँ मॉर्निंग शिफ्ट में पहली बार देखा.. फिर ट्रॅवेलर्स चेक से ड्राफ्ट बनवाई.. एक एड्वोकेट से कुछ अफिडेविट भी.. फिर जाके अड्मिशन संभव हो पाया था..| काफ़ी भागा-दौरी करनी पड़ी थी.. उस सुबह..| वहाँ से लौटते वक़्त दादाजी ने कहा.. कल हम जिनके घर गये थे.. उन्हें फोन करदो की अड्मिशन सकुशल हो गया..| पुरानी यादों के प्रति उनकी इतनी ईमानदारी से मैं हैरान था| फिर वहाँ से हम गेट्वे ऑफ इंडिया देखने गये.. और फिर मुंबई के ताज-होटल में कॉफ़ी भी पिए..| फिर निकलते वक़्त दाँयी ओर की एक गॅलरी को हो लिए..| मानो होटेल के अंदर ही एक मिनी मार्केट भी मौजूद है| कीमती आभूषण के साथ साजो-समान की दुकाने.. पुराने विंटेज कलेक्षन भी मन लुभाती हुई..| वहाँ से होते उसके अंतिम छोड़ पे.. बिल्कुल विहंगम दृश्य.. नीले-पानी लिए.. दिखा एक स्विम्मिंग पूल.. अगल-बगल मौजूद कुछ पर्यटक.. स्वच्छन्द वेश-भूषा में.. धूप-सेंकते.. आँखों में चश्मा जैसे उन्हें कोई नही देख रहा.. फिर वहाँ से आगे बढ़ते ही दादाजी ने कहा.. "ये धरती का इंद्राषण है.."|  उस दिन शाम वाली ट्रेन से पुणे होते हुए.. फिर नागपुर आना हुआ था.. जिस कॉलेज में मेरी अड्मिशन सीट अलॉट हुई थी| कॉलेज में अड्मिशन करवा.. अपने घर बिहार लौटते वक़्त नागपुर स्टेशन में मैने दादाजी के आँखों में आँसू देखे.. जैसे उनकी सहज और संघर्षपूर्ण भावों का सारथी आँखों से दूर जा रहा हो..और ये मेरे लिए भी असहनीय सा था|

नागपुर रोचक सा था.. इसलिए की पहली बार घर से बाहर इतनी दूर आना हुआ था| बिहार से  आकर ऐसे डेवेलप्ड स्टेट में जीवन का खुलापन देखना भी तो कम रोचक नहीं होता..| देश के लगभग सभी हिस्सों से छात्र यहाँ पढ़ाई को आते.. यहाँ तक की अपने कॉलेज में एक नायैजीरिया के लड़के को भी देख मैं भौचक्का रह गया था| फिर पता चला नागपुर में एक नेल्सन मंडेला होस्टेल भी है.. आफ्रिकन मूल के छात्रों के लिए.. जो यहाँ के प्रतिष्ठीत लॉ कॉलेज में पढ़ाई को आते थे| देश के पूर्व प्रधानमंत्री स्व. नरसिंहा राव ने भी इसी लॉ कॉलेज से लॉ की डिग्री ली थी| कॉलेज चयन के मामले में मैं भाग्यशाली रहा की उस इंजिनियरिंग कॉलेज में मेरा अड्मिशन हुआ था| कॉलेज था तो बिल्कुल ही नया.. लेकिन आपकी प्रतिभाओं को लगातार बल देता..| दोस्त भी अच्छे ख़ासे बने.. अभिनय कुशलता के कारण.. वार्षिक समारोहों में वाह-वाही और पॉप्युलॅरिटी भी जम के मिलती..| सच में काफ़ी अच्छा लगता.. जब घर से इतनी दूर आपके इतने प्रशंसक और वेल विशर्स बन जायें| कॉलेज इतनी ही अच्छी थी की  दो साल बाद  मैने अपने छोटे भाई का भी अड्मिशन उसी कॉलेज में करवा पाने में सफलता पायी| घर से दूर था.. लेकिन उन भावों को नज़दीक लाकर ही जीना चाहता था| सुखद जीवन परिवारिक भावों से ही परिपूर्ण होता है... शायद..|


वर्ष २००१ में मेरे कॉलेज के एक  पंजाबी के मित्र के साथ मुंबई जाने का मौका मिला| ख़ासकर इसलिए भी की "टेरेस" वाली घटना हमेशा कुरेदती रहती..| मैं मुंबई को थोड़ा और करीब से देखना चाहता था| वो मुंबई का ही रहनेवाला था| उसके पिताजी मुंबई के एक व्यावसायिक बॅंक में उच्च-पद पे कार्यरत थे| अगली सुबह मुंबई पहुँचते ही हमने टॅक्सी लिया.. और प्रभादेवी मुंबई की ओर निकल पड़े| सुबह-सुबह मुंबई सोयी हुई.. बस कुछ लोग सड़क पे.. मॉर्निंग वॉक के साथ स्वास्थ-लाभ लेते हुए.. और कुछ दूध और बेकरी वालों के दुकान भी खुले हुए| प्रभादेवी पहुँचते-पहुँचते ढेर सारे फूलों के दुकान भी दिखने लगे.. फिर मेरे मित्र ने बताया की प्रसिद्ध सिद्धिविनायक मंदिर भी यहीं है|



 हमारी टॅक्सी तब तक उसके अपार्टमेंट के नज़दीक ही थी.. फिर दिखे दो उँचे-उँचे अपार्टमेंट.. मेरे मित्र ने बताया हमें वहीं जाना है.. उसका फ्लॅट भी उसी अपार्टमेंट में है.. नाम था "ट्विन-टॉवेर्स"..| बेसमेंट में पहुँचते ही सामने लिफ्ट दिखी.. अंदर प्रवेश करते ही उसने टॉप फ्लोर वाली बटन को दबाया.. और लिफ्ट खामोशी के साथ अपनी मंज़िल की दूरियों को कम करने लगी| चन्द सेकेंडो में हम टॉप फ्लोर पे थे.. मैने कहा.. "ये लिफ्ट टेरेस को नहीं जाती क्या..?" जवाब जो मिला.. "बावला हो गया क्या.. बिहारी.. टेरेस पे जाएगा..कब्बड्डी खेलने..|" मन ही मन मैं मुस्कुरा रहा था.. जैसे टेरेस के शब्द-जाल से थोड़ी-बहूत निकलने की कोशिस में लगा हुआ..| फिर घर के अंदर जाते ही मित्र के परिवार से मिलना हुआ और फिर दिखाई दिया समुद्री नज़ारा.. वाकई हैरान कर देने वाला..| हमदोनो ने ट्रेन में ही अपनी दिन भर की प्लॅनिंग करली थी..सो जल्दी-जल्दी दोनो नहा-धोकर तैयार हो गये.. सुबह का नाश्ता किया.. और निकल पड़े| मेरे दोस्त को चर्च-गेट वाले ट्रांसपोर्ट ऑफीस में ड्राइविंग लाइसेन्स के लिए भी जाना था.. फिर हम बेसमेंट की ओर बढ़े..  जहाँ उसकी सफेद रंग की कार दिखी.. फ़िएट प्रिमियर एनी..| ८०-९० दशक की ये कार काफ़ी रोचक.. मैने तो अब तक मारुति वॅन ही चला रखी थी| फिर हम उसके कार से मुम्बईया ऑफीस आवर की हवा-खोरी करते चर्च-गेट वाले ट्रांसपोर्ट ऑफीस को पहुँचे..| दिन के धूप में मुंबई की सॉफ-सुथरी चौड़ी सड़कें... और उन सड़कों पे दौड़ती हमारी एनी... राजेश खन्ना.. अमिताभ बच्चन.. फ़िरोज़ ख़ान के जमाने की याद ताज़ा कर रही थी..|


चर्च-गेट वाले ऑफीस में कुछ देर रुकने के बाद.. हम इत्मिनान होकर बड़ी तेज़ी से निकले.. "जैसे डॉन को पकड़ना मुश्किल ही नही.."



मगर ये क्या..!! हमने जैसे ही गाड़ी मेन रोड की ओर घुमाई.. की आगे दो ट्रॅफिक हवलदार.. हमें गाड़ी रोकने का इशारा करने लगे.. "मारे गये बच्चू.. अब क्या.." मेरे दोस्त ने कहा.. " मेरे पास तो लाइसेन्स भी नहीं है.."| फ़ौरन मैने उसे पीछे आने को कहा.. गाड़ी धीमे कर मैने तेज़ी से अपनी जगह छोड़ स्टेरिंग संभाली.. और धीरे-धीरे गाड़ी.. साइड कर रोक दी..| वो शायद मरीन-ड्राइव वाला इलाक़ा था| फिर दोनो हवलदार.. ने हमें नीचे उतरने को कहा..| हमने कहा.. "क्या हुआ..??" "तुमने गाड़ी ग़लत जगह से काटी.. ये नो एंट्री ज़ोन है.." "चलो लाइसेन्स निकालो लाइसेन्स.."| मैने अपने बिहार की बनी.. बुकलेट लाइसेन्स बढ़ा दी..| "ये नहीं चलिंगा.. मुंबई है मुंबई.. इदरीच  मुंबई का लाइसेन्स माँगता.."| फिर क्या था.. हज़ार.. बारह-सौ का चलान काट दिया..| मैने कहा.." अंकल हम मुंबई पहली बार आयें हैं.. अभी-अभी अपने दोस्त के लाइसेन्स के लिए इधर आए थे.. और फिर एक जॉब इंटरव्यू भी है.. जल्दी जाना है.. स्टूडेंट हैं.. इतने पैसे हम कहाँ से लायें.. कुछ कन्सिडर कीजिए.."| बात मनाते-मनाते हम सौ रुपये देकर छूटे..| हमारी हालत खराब हो रही थी.. और डर के मारे कार भी सही ढंग से चल नहीं पा रही थी..  और मेरा दोस्त ठहाके पे  ठहाके मार  रहा था.. " वाह बिहारी.. मरीन-ड्राइव पे अगर सौ रुपये देकर कोई छूट सकता है तो ऐसा.. बिहारी ही कर सकता है..|" फिर धीरे-धीरे हम उसके  पिताजी के बॅंक पहुँचे.. गाड़ी की चाभी उन्हें थमायी.. और लोकल ट्रेन से प्रभादेवी को लौटे..| "जान बची तो लाखो पाए.. लौट के बुद्धू घर को आए.."| 


फिर थोड़ा आराम कर.. इस बार हमने काइनेटिक होंडा स्कूटर निकाली.. हेल्मेट लगा हम फिर.. मुंबई दर्शन को निकल पड़े..| सबसे पहले हम जुहू वाले इलाक़े पहुँचे| एक बड़ा सा शॉपिंग माल..|  एक से एक ब्रांड ड्रेस डिजाइनरों के शो-रूम.. और खाने-पीने के लिए.. मक्डोनल्ड्स.. पिज़्ज़ा हट.. वग़ैरह-वग़ैरह..| उन शो-रूमों के सामने खूब फोटोग्राफी करवायी..| फिर पास लगे स्ट्रीट-शॉप्स से कुछ खरीददारी भी हुई.. जो जेब के हिसाब से हमें ज़्यादा शूट करती थी.. और तो और मुंबई का फैशन भी इन्ही स्ट्रीट-शॉप्स से चलता है.. यहाँ फैशन यूँ आती है.. और यूँ चली भी जाती है|  वहाँ से अगला पड़ाव अब सीधा.. गेटवे ऑफ इंडिया थी| एक शौक जो मैं पूरी करना चाहता था.. स्टीमर की सवारी.. वो इस बार हो गयी..| समंदर की ओर से गेट्वे ऑफ इंडिया और साथ लगे ताज़ होटेल का नज़ारा अद्भुत था| वहाँ से लौटते वक़्त.. सचिन तेंदुल्कर की रेस्टोरेंट "तेंदुलकार्स" भी दिख गयी| अब शाम होता देख हम सीधे बांद्रा पहुँचे..| मेरे मित्र ने वहाँ मुझे "बास्किन रॉबिन्स" की बेहतरीन आइस-क्रीम खिलायी थी.. जो आज भी याद है| फिर वहाँ भी हमने कुछ स्ट्रीट-शॉपिंग की.. फिर एक रेस्टोरेंट में चिकेन-बिरयानी खाकर घर को लौटे| सच में.. वो दिन सुखद था.. मुंबई की सड़कों पे फ़र्राटे भरते.. वो भी अपनी मौज में.. गजब का अनुभव..| उस रात उसके टॉप फ्लोर वाले फ्लॅट से मुंबई नगरी का नज़ारा.. न्यू-यॉर्क शहर से कुछ कम ना था..|

अगली सुबह हम कुछ सॉफ्टवेर की खोज में निकले..| हमारा स्कूटर मुंबई के कुछ पुराने इलाक़ों से होकर निकल रहा था..| सुबह-सुबह बढ़ती ट्रफ़िक के साथ बाजार में बिकती तरह-तरह की समुद्री मछलियाँ..| इन मछलियों को देख तो मन ही उछल पड़ा..| फिर हम महालक्ष्मी वाले धोबी-घाट को पहुँचे..| कुछ दिन पहले आयी.. अक्षय कुमार.. प्रीटि ज़िंटा की "संघर्ष" मूवी में.. आशुतोष राणा का एक दमदार अंदाज़ इसी धोबी घाट पे फिल्माया गया था..| सच में काफ़ी बड़ा था.. ये धोबी-घाट..| फिर कुछ पर्यटकों को भी वहाँ बसों में आते देखा.. शायद ऐसे दृश्य भी तो खुद में कुछ अनूठे ही होतें हैं..| वहाँ से फिर हम विक्टोरीया टर्मिनस वाले इलाक़े को गये..| यहाँ एक सॉफ्टवेर बाज़ार है.. पाइरेटेड सॉफ्टवेर यहाँ बड़ी आसानी से सस्ते दामों में मिल जातें हैं..| हमने ढेर सारे सॉफ्टवेर खरीदे.. और फिर अपने घर की ओर निकल पड़े|


ये मुंबई की मेरी चौथी यात्रा थी..| पहली यात्रा परिवार से साथ १९८३-८४ में हुई थी..| उस वक्त मैं मात्र ६-७ साल का था.. और  अपने भाई-बहनो के साथ इस मुंबई को घुमा था| आज भी याद है.. एक पहाड़ पे वो जूता वाला घर.. और मुंबई की डबल-डेकर बस..| वो जितेंद्र का जमाना था.. बचपन में हमने जितेंद्र, श्रीदेवी और जया प्रदा की ढेर सारी फिल्में रिलीज़ होते देखी थी.. "हिम्मतवाला".. "तोहफा".. "मवाली".. "जस्टीस चौधरी.."|



उस दौरे में हमने अमिताभ बच्चन का घर भी रात में चलती कार से देखा था| सच में उस मुंबई के उस दौर को अगर याद करूँ तो.. मुंबई मतलब केवल और केवल.. एक फिल्म-नगरी और कुछ नहीं...| हम उत्तर भारतीयों का आकर्षण मुंबई की ओर एक फॅंटेसी से कम ना था..| दूसरी बार मुंबई १९९२ में आया था.. दो-दिनो के लिए..| उस समय हम वहाँ उत्तरी अंधेरी महाकाली केव्स  वाले इलाक़े में रुके थे..| फिल्मी-दुनिया और टेलीविज़न दुनिया के बहूत से कलाकार उन्ही इलाक़े में रहते..| रोजमर्रा के सारे समान.. नज़दीक के ही मार्केट एरिया में मिल जाती..| मानो मुंबई का एक सभ्य-समृद्ध समाज इसी इलाक़े में रहता है|

इंजिनियरिंग के बाद मैं अपने घर बिहार चला गया..| वर्ष २००३ में दादाजी के निधन के बाद तो जैसे मन को कुछ भाया ही नहीं..| वहीं के एक इंजिनियरिंग कॉलेज में लेक्चरर की नौकरी मिली गयी..| फिर २००६ में मुंबई आना हुआ था.. जब मेरे छोटे भाई को यहाँ एक सॉफ्टवेर कंपनी में नौकरी मिली..| जैसे भारत का ये फिल्मी सपनो का शहर.. सॉफ्टवेर डेवेलपमेंट एंड सर्वीसज़ में भी खुद को आगे लिए जा रहा है..| एक से एक विदेशी बॅंक और कंपनीयाँ.. इस समुद्री तट पे अपना लंगर डाल चूकी हैं..| सच में इस बार मुंबई आना एक सपने का सच होने जैसा था..| जिस मुंबई ने मुझे बरसाती रात में "टेरेस" का मतलब समझाया था.. वहीं मेरा छोटा भाई भी अब रहता था..| वो इलाक़ा कान्दीवली वाला था.. हमेशा की तरह पॉश..  उँचे अपार्टमेंट और सोसाइटी..|

"...मुंबई के प्रति मेरे भाव अब नम हो चले थे.. मन में शांति थी..| एक बीज को एक वृक्ष की काया में देख पा रहा था..| अचरज कहीं खो सी गयी थी.. जीवन को एक परिक्रमा के इर्द-गिर्द पा रहा था..| दादाजी की यादों में बस खोया हुआ था.. की कैसे मेरा हाथ पकड़ कर उन्होने ही हर-एक राहें मुझे दिखायी थी..| मेरा भाई भी मुझे बदला हुआ पा.. रहा था.. जैसे.. मेरी वो फॅशनबल बेचैनी कहीं खो सी गयी थी.. मैं था तो बस एक सिरमौर के अंश को लेकर..| "

मुंबई के इस दौरे पे मैने समुद्री तट का जम के लुफ्त उठाया| पहले ही दिन हम.. वहाँ से पास के गोराई बीच पे जा पहुँचे| हम दोनो भाई का उस रात वहीं रुकने का प्रोग्राम था| मुंबइया शोर-गुल से बिल्कुल दूर..| हम वहाँ एक स्टीमर से गये थे.. और  उसी दौरान दिखा था.. एस्सेल वर्ल्ड वॉटर पार्क भी..| वहाँ पहुँचते ही हमने समुद्री तट पे एक लंबी वॉक की... वो भी खाली पैर..| शाम को समुद्री लहर हमारे काफ़ी पास आ जा रहे थे.. पता चला शाम ढलते हाइ-टाइड तेज हो जाते हैं..| फिर हमने वहाँ के खूबसूरत रेसॉर्ट में कमरा लिया.. अपने सामानो को वहाँ रखा.. और फिर समुद्री तटों की ओर निकल पड़े..| रात को समुद्री लहरों से उठती आवाज़ें भी तेज होती हैं..| रेसॉर्ट बिल्कुल ही नारियल के पेड़ों से ढँका हुआ..| डिसेंबर के अंतिम हफ्ते में न्यू यियर सेलेब्रेशन्स और पार्टियाँ भी जमके होती हैं..| वो इस रेसॉर्ट में भी दिख रहा था..| फिर हमने भी रात भर खूब एंजाय किया.. तरह-तरह के फिश फ्राइ और ड्रिंक्स के साथ..| मुझे ऋषि कपूर की "बॉबी" और "सागर" फिल्मों की झलक उन दृश्यों में मिल रही थी..|



 सच में इन समुद्री तटों का जीवन भी साहस और उन्माद से भरा होता है..| फिर अगले दिन सुबह उठकर हम उस साफ नीले लहरों में जी भर कर नहाए... और फिर वहाँ से लौटते वक़्त.. "पोम्पलेट फिश फ्राइ" भी जमके खाया..| वाकई.. "पोम्पलेट फिश फ्राइ" का कोई.. जवाब नहीं..|

शाम होते.. समुद्री लहरों के बीच ढलते सूरज को देखने हम बांद्रा के बॅंड-स्टॅंड जा पहुँचे..| मुंबई के युवा जोश का इससे अच्छा नज़ारा और शायद कहीं नहीं मिल सकता..| काफ़ी देर हम वहाँ के पत्थरों पे बैठे रहे..| फिर मेरे भाई ने कहा.. फिल्म स्टार "शाहरुख ख़ान" का बंगला यहीं पीछे है.. और पास के इस ऊँचे अपार्टमेंट में सदाबहार अभिनेत्री "रेखा" रहती है..| सच में ऐसा आशियाना सभो को नसीब नहीं होता..| फिर हम वॉक करते हुए आगे बढ़े तो बॉलीवुड के फर्स्ट सूपर-स्टार "राजेश खन्ना" का बंगला भी दिख गया |  वहाँ से हम बांद्रा फ़ोर्ट के कुछ बचे अवशेषों को देखने भी गये.. और वहाँ से हमें बांद्रा-वर्ली सी-लिंक भी बड़ा सुंदर सा दिखाई दिया| ..फिर आगे बढ़ने पे दिखा.."सन एंड सॅंड होटेल" ..इस जगह १९८४ में भी हम आए थे.. उस वक़्त यहाँ संजय दत्त के फिल्म की शूटिंग चल रही थी.. और मैं स्वीमिंग पूल वाले साइड से समुद्री रेतों में बंदर का नाच देख रहा था| आज फिर बचपन की वे यादें इन जगहों पे आके ताज़ा हो गयीं| वहाँ से हम  कोलाबा के फेमस रेस्टोरेंट "बड़े मियाँ" को गये.. आज भी उस लज़ीज़.. रुमाली रोटी और कीमा मसाला के स्वाद से खुद को अलग नहीं कर पाया हूँ|


अगले दिन हम फिर मुंबई भ्रमण को निकले.. इस बार एक शॉपिंग माल से कुछ ब्रांडेड शॉपिंग की.. और हृतिक रोशन की फिल्म "कृष" को देखा..| ये मेरी अब तक की सबसे मंहगी फिल्म थी.. 700 Rs per ticket..| फिर मैं अपने भाई के साथ चर्च-गेट वाले आमदार "विधायक" निवास को आए..| जहाँ बड़ी मुश्किल से मेरे भाई ने छः महीने बिताए थे.. अपने सी-डॅक कोर्स के दौरान..| कभी-कभी तो संसदीय सत्रों में कमरे नहीं मिलने पे.. लिफ्ट के आगे वाली बरामदे पे ही सोना पड़ता..| बातों-बातों में मेरे भाई ने कहा.. एक अंकल थे.. जो मेरे लिए तकिये और बिस्तर बचा के रखते थे.. बस रोज के रोज उन्हें एक जगजीत सिंह की ग़ज़ल सुनानी पड़ती.. और वो अपने ड्रिंक्स में खोते चले जाते..| फिर हमने भी आमदार निवास के सामने वाले फेमस बार की ओर रुख़ किया.. और फिर बाजू के मुगल-दरबार के स्वाद भी चखे.. और वहाँ कुछ शॉपिंग भी की..|  अगले दिन..  इस बार समुद्र के बीच स्थित "बाबा हाजी अली की दरगाह" को भी गये..| सच में खुद में अनूठा और नायाब..|



 पूरे परिसर में सूफ़ियत की मजलीश.. " पिया हाजी अली.. पिया हाजी अली.. पिया हाजी अली.. पिया हो..." के गानो में झूमता वहाँ का मंज़र| वहाँ हमने चादर भी चढ़ाई..| यहाँ मैं वर्ष २००७ के डिसेंबर में शादी के बाद  दुबारा भी आया था| इस बार हम प्रसिद्ध "मुंबा देवी" और "सिद्धि-विनायक " मंदिर में पूजा-अर्चना भी किए.. फिर वहाँ से साई बाबा के शिर्डी और महाबालेश्वर को गये थे| सच में अपने बिहार से निकलने के बाद अगर मुंबई और महाराष्ट्रा की ऐसी दिव्य जगहों पे ना जाए.. शायद जीवन का सफ़र अधूरा ही छूट जाए..|

मुंबई के सपनो से आप कभी निकल ही नहीं सकते..| चाहे फिल्में हों या.. साटेलाइट चैनलो में दिखने वाले शो और सीरियल्स..| मुंबई से एक रिश्ते में अपने एक अभिन्न मित्र को भी मुंबइया फिल्मी दुनिया में संघर्ष करते और आगे बढ़ते देख रहा हूँ..| जीवन की इस जद्दोजहद में  बस आपकी सकारात्मक कोशिस जारी रहनी चाहिए..|


"... क्या लेके मिलें अब दुनिया से.. आँसू के सिवा कुछ पास नहीं..या फूल ही फूल थे दामन में.. काँटों की भी आस नहीं.. मतलब की दुनियाँ है सारी.. बिछड़े सभी बारी-बारी......  देखी जमाने की यारी.. बिछड़े सभी बारी-बारी... "|




 हाल के २०१५ मई के मुंबई विजिट में जैसे ही सुबह-सुबह कुर्ला स्टेशन से एक ऑटो पे बैठा.. की गुरुदत्त की फिल्म "कागज के फूल" का ये गाना.. कानों को जैसे छू सा गया..| मैने ऑटो ड्राइवर से पूछा "अंकल आप कब से हैं मुंबई में..?" उनकी उम्र यही कुछ ५५-६० की रही होगी.. उजले बाल.. माथे पे लाल टीका.. और खाकी ड्रेस..| जवाब मिला.. "पचास साल हो गये इधर आए हुए.. बनारस का हूँ.. आप बिहार से हो क्या..?" " हाँ.. मगर आपने कैसे पहचाना..?" मैने कहा..| " कौन सी आवाज़.. किधर से आ रही है.. मिज़ाज तो बन ही जाती है ना.. और फिर हम तो रोज हज़ारों लोगों को इधर से आते-जाते देखते हैं.. अपनी तहज़ीब को भी क्या.. भला ना पहचाने ..|" ऑटो के पीछे बैठा मैं यही सोच रहा था.. की अच्छा हुआ प्री-पेड ऑटो से नहीं आया.. नहीं तो ऐसे पोस्ट-पेड इत्तेफ़ाक़ों से पल्ला ही ना पड़े.. चलो थोड़ी बहूत गुफ्तगू ही हो जाए..| " मैं भी रोज आपके नज़दीक के इलाक़ों में ही जाता रहता हूँ.. मेरी नौकरी वहीं पे है.. बक्सर में.." मैने कहा..| "अब क्या नज़दीक बेटा.. सब कुछ तो वहाँ दूर-ही-दूर है.. बस नाम का बनारस जुड़ा है.. अब तो इसी मुंबई में गंगा भी है.. और जमुना भी.. इस मारीच की मायानगरी ने ऐसा फाँस रखा है की.. हम सब यहीं के हो गये..|" चलते गानो के वॉल्यूम को उन्होने थोड़ा कम किया..| मैने कहा.. " अंकल.. रहने दीजिए.. ऐसे गाने अब कहाँ जल्दी सुनने को मिलतें हैं..|" "हाँ.. हाँ.. सही कहा.. अब तो आज के रेडियो मिर्ची और एफ. एम. भी नये-नये गाने ही सुनातें हैं.. इसलिए मेरे पोते ने दादाजी के मनपसंद गानों को पेन-ड्राइव में दे रखी है.. बस दिनभर इसे ही सुनता रहता हूँ.. तो मेरे पुराने दिनो की  मुंबई.. मुंबई सी लगती है.. और थोड़ी बहूत खुराक भी मिलती रहती है....|" बस बातों का सिलसिला यूँ ही चलता रहा.. और मैं कुछ मिनटों में IIT Mumbai के पवई वाले इलाक़े में पहुँच गया.. जहाँ अब मेरा भाई अपने परिवार के साथ रहता है..| खुश था की इस बार मेरे भाई को नवरत्न की प्राप्ति हुई है.. परिवार और नव-शिशु को आशीर्वाद देने के बाद जैसे ही बेडरूम को गया की.. दादा-दादी की छाया-प्रति फोटो-फ्रेम्ड साइज़ में दिवाल पे दिखाई दी..| कुछ पल के लिए तो.. मैं रुक सा ही गया.. जीवन-संपूर्णता के मायने ढूँढने लगा.. शायद वर्षों के इन असीम जुड़ाव से हम खुद को कभी अलग नहीं कर सकते.. और फिर हम कहीं भी रहें.. हमारे माइल-स्टोन इनके इर्द-गिर्द ही संवर्धित और सुरक्षित हैं|




                             ☆Vipra Prayag☆

Friday, 13 February 2015

हाफ लॅंग्वेज पार्ट- I.. " पिंजर पुराण" Half Language Part- I

वे अपने शोध-कार्यों में मुस्तैदी से जुटे थे। डबल पी. एच. डी. भी इन्फर्मेशन साइन्स में कर रखा था। दिमाग़ हर वक़्त घड़ी की टिक-टिक के समान चलती ही रहती। खाने पीने की सुध के बगैर। नाम "जटा शंकर" था। जन्म लेने के उपरांत ही सिर पे उगे जटाओं के भंवर को देख घर वालों को ये नाम कुछ भा सा गया था। कायस्थ परिवार में जन्म लेकर भी मानो.. न जाने कितने ही कायाओ के संवेद को जानने की उत्सुकता लिए अपने रण में लगे रहते। उम्र के मध्यान से गुजर रहे थे। व्यस्तता के बोझ से बहूत जल्द चेहरे पे परी झुर्रियाँ और बालों व दाढियों पे  छायी सफेदी हर दिन के नये अनुभवों के प्रतीक-चिन्हों के समान बदस्तूर बढ़ती ही जा रही थी।

 मेरा और उनका सामना एक आईने के समान था। जो शायद कभी झूठ नहीं बोलता। फिर ये बताने पे की मैं किस महाविद्यालय से उनके सम्मूख था तो सच बताने पे अन्य महाविद्यालयों के अर्ध-सत्य को खंगालने जैसा है.. तो फिर इसे गौण ही रखा जाय.. या फिर इसे एक विशेष गुण की तरह अपने परिदृश्यों में पिरो दिया जाए.. कुछ-कुछ "निर्गूण-ब्रम्‍ह" के समान।

अब तो काफ़ी दिनो बाद ही उनसे बातें भी हो पाती है और वो भी मोबाइल से.. फिर दूर से ही सही.. जो भी मिल पाता है.. वैचारिक ऑक्सिजन से कुछ कम नहीं। कुछ दिनो पहले की बात है.. रात के करीब ग्यारह बजे फोन किया था.. डर भी लग रहा था.. की उन्हें कहीं डिस्टर्ब तो नहीं कर रहा। फिर कुछ रिंगो के बाद ही आवाज़ आयी.. " हेल्लो प्रशांत.. हाउ आर यू.. माइ डियर.."। वो हमेशा इसी गर्म-जोशी से बातें किया करते.. फिर उनसे हमेशा की तरह डिफ़्फरेंट टॉपिक्स पे बातें भी होती। ग्रह-नक्षत्रों के विषयों पे भी अच्छी-ख़ासी जानकारियाँ रखते थे.. और उनसे कुछ जानने की चाह में मेरे पूूूूूछे गए प्रश्‍न भी उन्हें कुछ ज़्यादा ही कुरेद दिया करते। ..और फिर ऐसे कुछ सवालों का मैं उन पर कुछ ज़्यादा ही दबाव बना दिया करता। फिर एक बार उनसे जो सुनने को मिला.. " अब प्रशांत पेसिफिक.. कल्पना चावला की तरह मेरी भी ना जाने कितनी  कल्पना सी-पार्टिकल्स इस आकाश-गंगा में तैर रही हैं..  फिर वो अपने इन्फर्मेशन के साथ सही सलामत आ पाए तो  कुछ बता पाऊँ। तब तक अपने समुंदर में  गोते खाते रहो.. बच्चु।" ..और फिर हमेशा की तरह मुस्कुरा कर फोन रख दिया। उनसे बाते करना ही खुद में सुखद अनुभव रहता है.. और उनकी बातों के टुकड़े.. Caroline A. Shearer की बुक "द गिफ्ट" के समान।

उनके दिए उपहारों की बात याद आई तो एक बार बातों बातों में उन्होने कहा था.... " रात के अंधेरे में आकाश में दिखे ये चाँद तारे हमारे ही प्रतिबिंब हैं.. और जिन ग्रह-नक्षत्रों की खोज में सदियों बिता देते हैं वो.. हमारे इर्द-गिर्द ही बड़े करीब मौजूद रहते हैं। जब तक स्वप्न से जागो.. तब तक अंधेरा दूर जा चुका होता है.. और भ्रम जाग चुका होता है। " .. और फिर संवाद अधूरा छूटता है। रात को दिन नहीं पकड़ पाती.. और दिन को रात। राहें कितनी जुदा-जुदा सी हैं। एक क्लास-रूम से निकल.. कितने नव-रंगो में घुलने को आतुर। कहीं वृष्टि-छाया में फिर एक बार जी-उठने को आतुर तो कही छाया-मृत का विकट भटकाव।

इन्ही भटकावों में बोझिल मन लिए एक बार उन्होने कहा था..  " जब माहौल शिक्षा और शिक्षकों को पहचानने से इनकार कर दे... तो फिर समझ लेना एक सभ्यता की ज़मीन सरक गयी.. दरवाजे पे दस्तक बहूत तेज है.. आवाज़ तुम्हें पहचानना है.. देर मत करना।" उन दिनों हम उड़ीसा के एक इंजिनियरिंग कॉलेज में कार्यरत थे। सौभाग्य से हमारा कमरा भी एक ही था। अध्यापन अनुभवों में मैं जहाँ एक नव-प्रशिक्षु तो उनकी दार्शनिकता के वे स्वयं-भू थे। उनकी बातों के रहस्यों से परतें उठाना मानो सूरज को दिया दिखाने समान.. फिर भी जाने-अंजाने मैं कभी-कभार कुरेद ही दिया करता.. और मज़े की बात तो ये.. ये सब जानकर भी वो अपने वर्षों के सोए घावों के अंतिम परत पे जाते मेरे नुकीले प्रश्नो के कील को बड़े खामोशी से जिए जाते। मानो मेरे हर प्रश्न में वे अपने स्वर्णिम सफ़र में हों। एक रात मैने सोते हुए पूछ ही डाला की.. " सर.. दरवाजे पे दस्तक बहूत तेज है.. आवाज़ तुम्हें पहचानना है का क्या मतलब।" जवाब जो आया.. "प्रशांत.. सोते पेट्रोल में खाम-खा केरोसिन क्यों मिला रहे हो.. क्यों अपना कार्बोरॅटर खराब करवाने पे तुले हो.. खोटे सिक्के ही सही.. असली नोटों के खेप में क्यों फ़र्ज़ी नोटों को घुसेड रहे हो.. जाओ सो जाओ.. रात काफ़ी हो गयी है।"

मैं भी मन में कुछ उधेड़बुन लिए.. बस करवटें लिए जा रहा था। नींद आँखों से दूर थी.. की तभी कुछ देर बाद आवाज़ आयी.. "अपने कंधो को इतना भी कमज़ोर ना बनाओ की जीवन-अर्थों से पार ना लगे.. प्रशांत।" सर तो जैसे अब भी जाग रहे थे.. मानो नींद उन्हें भी नहीं आ रही थी। "प्रशांत पता है कुछ दिन हुए.. एक विवाह समारोह में गया था.. बहूत दिनो बाद कुछ पुराने छात्रों से मुलाक़ात हुई थी। फिर एक छात्र जो दिखा.. गोद में एक छोटी सी बच्ची लिए। मैं उसे पहचान गया था.. अगर मेरी आँखें कुछ बूढ़ी हो गयी हो तो। वो मुझे भी थोड़ी दूर से देखे जा रहा था.. लेकिन उसके स्तब्ध भावों ने मेरी पैरों को जैसे जकड़ दिया हो। मैं बस उसे देखे जा रहा था। आखिर वो मेरा एक पुराना छात्र जो था। कॉलेज के दिनो में वो अक्सर मुझसे डाँट खाया करता.. अपनी शरारतों के कारण। मुझे लगा कहीं उन वजहों की ये मौन प्रतिक्रिया तो नहीं। फिर कहीं मुझसे उसे पहचानने में कोई भूल तो नहीं हो रही। मैं उस समारोह में बस उसी जगह टिक गया। मेरे कदम आगे बढ़ ही नहीं पा रहे थे। मेरे कुछ पुराने मित्र खाने की स्टॉल की ओर निकल पड़े थे। लेकिन पता नहीं मेरे कदम बढ़ ही नहीं पा रहे थे। उस समारोह की भव्यता में जैसे मेरी भूख उस मौन साक्षात्कार पे जा टिकी थी। मेरे कुछ मित्रगण अब तक फास्ट-फुड लिए मेरे अगल-बगल मौजूद थे। तकरीबन आधे घंटे से मैं बस उसी जगह से एक सत्यापन की तलाश में रुका हुआ था। फिर आख़िर काफ़ी देर बाद.. अपनी बच्ची को गोद से उतार वो मेरे सामने था। मेरे सम्मुख आ.. "प्रणाम सर.." का संबोधन ही मेरे लिए सब कुछ था। फिर जो उसने कहा " सर.. आप आज भी नहीं बदले।" फिर मैंने भी उसे आशीर्वाद देते हुए कहा.. की "एक शिक्षक की पहचान उसके छात्र से ही होती है.. तुम संभल गये.. की तुमने मुझे पहचान लिया.. तरुण।"

... कुछ देर खामोशी के बाद.. सर.. ज़ोर से हँसने लगे.. उनकी हँसी जैसे थमने का नाम ही नहीं ले रही। मैने भी उन्हें बहूत कम ही इतना खिलखिला कर हंसते हुए कभी देखा था। "प्रशांत सो गये क्या..?" "नही सर अभी नहीं..।" "जानते हो प्रशांत हम प्रोफेसरों की लाइफ भी न्यूमरिकल कर्व०फिटिंग की तरह ही होती है। अपने ईक्वेशन.. अपने सिद्धांत। फिर भी गुंजाइश बनी रहती है.. ये एक प्रोसेस चार्ट है। संभावनाएँ अनंत हैं.. बशर्ते बाहरी परतों पे जाने का जोखिम भी तो लेना ही होगा। अपने अविष्कारक स्वयं बनो। देखना वो आवाज़ बस तुम्हें सुनाई देगी.. वो बचता नज़र आएगा। किसी कुर्सी.. गद्दी.. पदवी.. भूषण.. विभूषण.. के चक्कर में मत पड़ना कभी.. इन रत्नो का कॉप कभी मत लेना। हर दिन तुम्हारा है.. अपने दिनकर ही बने रहो.. रात बीते सब छिप जाना है.. अभी तो और बहूत दूर जाना है।"
   
 "................. फिर मैं भी कुछ.. यूँ ही चलते चलते... दूर निकलता जाता हूँ। हिमखंडों का पिघल कर नदियों की मीठी धार लिए...  खारे स्वर-सागर में उतरा जाता हूँ।  कैलाश.. जन-सेवक  नगर-सेवक बन...बरबस  स्वरूप बदलता जाता है.. फिर वो भी क्या अपने अखंड को जी पाता... वो भी तो बस बहता जाता है।  कैलाश.. आस्था ये कैसी.. बस उसे ही नृप घोषित किए जाता हूँ। आधार-स्तंभ को स्थिर किए.. जीवन राग सुनाता हूँ। नृप-दोषों में बँटा देश.. फिर भी नित नये नृप बनाता हूँ। नृप हूँ.. नृप चाह लिए.. नृप-नाद में बसता जाता हूँ। स्पर्धा... प्रति-स्पर्धा का दौर यहाँ पर... हर कोई तो बह चलता है.. तेज़ वेग वायु संग अपने खारे समुद्र जो उतरता है। मैं ठहरा हिम-शक्त लिए... स्थीर आधार जो जीता हूँ। फिर भी धँसना है.. मौन मुझे.. हिमखण्डो का वो तेज लिए... हिमखण्डो का वो तेज लिए....................। "

सुबह हुई तो... देखा आसमान में चहलकदमी करते तोतों का झुंड... कुछ तोते हर रोज की भाँति.. मेरे कमरे की  बंद खिड़की के बाहर से शीशे में खुद को देख मचल रहे हैं.. कुछ चोंच मार रहे हैं। उनके इन करतबों से मैं ही खुद को बंद पिंजरे में देख पा रहा था.. और उन्हें पिंजरे के बाहर बिल्कुल आज़ाद। प्रकृति-पूर्ण विज्ञान बिल्कुल आज़ाद सा.. और सौंदर्य पिंजरे के अंदर। भारतीय वैज्ञानिक कक्षाओं में.. व्योम-१ के सफल परीक्षण के बाद नव-प्रशिक्षु व्योम-२.. व्योम-३.. के अनुसंधानो में लगा दिए गये हैं। कॉलेज परिसर का पिंजरे में बंद तोता.. थोड़ा उम्र-दराज.. हर रोज एक ही रट.. लगाता.. थोड़ा खिसियाता.. थोड़ा गुस्साता। बाहर करने की बात पे शर्मासा जाता। पिंजरे का तोता.. भोथा तोता.. थोथा सौंदर्य।

        आज़ाद तोता इंटेलिजेंट तोता... या पिंजरे का तोता इंटेलिजेंट तोता। क्योंकि वो हमारी जैसी बातें करना जान गया... आपकी बातें करना जान गया.. आपके अपनो को पहचान गया.. या फिर आपको खूश करना जान गया। उनके ज्ञान का क्या.. जो आप में वशीभूत ना हो पाए.. फिर तो इंटेलिजेन्स अधूरा छूटता है.. इंटेलिजेंट लॅंग्वेज अधूरी छूटती हैं.. उनकी या हमारी।

"गुड-मॉर्निंग प्रशांत.. ये सुबह-सुबह.. क्या इन पिंजर-पुराणो में अटके पड़े हो.. इन पुराणो ने अगर नाम दिया तो मान ले भी लिया.. अपने मद में रहो.. दम मिलेगा.. गर थोड़ी बहूत संतुष्टि और जुटानी है तो.. इन पिंजर-पुराणो को खंगालने बॅक्वर्ड चेन प्रोसेस में जाना होगा। राज़ी हो तो कहना।" मैने भी हामी भर ही दी.. इतनी अच्छी दावत को भला हाथ से कौन जाने दे। "अच्छा प्रशांत..कल सुबह अगर मौसम ठीक रही तो निकल चलेंगे.. कुछ खाने का समान पास रख लेना.. और टॉर्च भी।"  

अगले दो दिनो की छुट्टी को देख मैं समझ गया था की ये सफ़र कुछ लंबा ही खीचेगा.. सो रात ही सारी पैकिंग कर ली.. और फिर.. सर की पुरानी स्कूटर लैबरेटा तो हमारे सामानो का इतना बोझ तो उठा ही सकती थी। सर ने अब तक बड़े जतन से संभाले रखा है इसे। कहतें हैं.. २ साल के बाद ये स्कूटर मिली थी उन्हें.. उस समय गाड़ियों के लिए लाइन लगानी पड़ती थी.. लंबे इंतजार के बाद गाड़ी डिलीवर होती थी। फिर तो जैसे नई गाड़ियों पे मन ही नहीं भाया उनका। इस गाड़ी के चक्कर में आधे मैकेनिक भी बन चुके हैं। एक बार जो इंजन में कुछ खराबी आई.. दो दिनो तक जीना हराम था उनका। आख़िर काफ़ी मशक्कत के बाद जाके बन पाई। मैने कहा सर आप तो पूरे मैकेनिक ही बन गये। "ना.. ना.. प्रशांत.. हाफ-मैकेनिक.. बहूत कुछ हाफ-माइंड की तरह.. प्यार करता हूँ ना इसे.. इसलिए हाफ-मैकेनिक।"

 इतना कहते ही ज़ोर से हँसने लगे.. जैसे कोई खोयी यादों को उस पुरानी स्कूटर में सँजोकर ही जी रहे हों। सचमुच एक अद्भूत लगाव को मैं भी जी रहा था। मेरे मन में उठी इन मर्म-स्पर्शी भावों को भी उन्होने सहजता से पढ़ लिया था.. और फिर.. " जानते हो डियर.. हर-कोई तुम्हें तुम्हारे इन वैभवो के कारण ही तौलता है.. जब की वास्तव में ये सब  मात्र एक साधन ही तो हैं.. आपका धन.. आपका ज्ञान.. आपकी डिग्रियाँ.. उस वक़्त आधे-अधूरे से हैं.. जब उसे आप अपने मन के किले से बाहर टहलता ना छोरें.. औरों के प्यास.. एक आक्रांत-भाव को शांत करने.. और थोड़ी बहूत अपने आक्रांत-भावों को भी मरहम लगाने.. तुम्हें घुमंतू-भोटिया दिख जाएगा।"

अगले ही दिन हम सुबह-सुबह सर के लैबरेटा स्कूटर से निकल पड़े। सुबह की मीठी खुश्बू लिए.. हम आगे बढ़े ही जा रहे थे.. की तभी.. सर ने स्कूटर रोक दी.. और फिर.. सड़क के दोनो ओर हरी घाँसो में बिछे सफेद दानो की ओर इशारा किया। मैं भी ऐसा कुछ पहली बार ही देख रहा था। उन्होने कहा... "प्रशांत.. उन सफेद दानो को देख रहे हो ना.. जाओ उन्हें बटोर  लाओ.. घुमंतू को गिफ्ट देने के काम आएँगे।" 

मैं कुछ समझ ही नहीं पा रहा था। पास जा.. उन दानों को एक-एक कर मैं बटोरने लगा। एक अद्भुत खुसबू बिखरी थी वहाँ.. शायद उन सफेद दानो के ही कारण। फिर सर ने.. दो-तीन दाने चख भी लिए.. और मुझे भी चखने को कहा। सचमुच.. प्रकृति की अनूठी भेंट थी ये.. उस सुबह.. जिसका स्वाद मैं पहली बार ले रहा था। सर ने कहा.. "ये महुआ के फल हैं।" नाम तो मैं भी बहूत पहले सुन चुका था.. लेकिन इसके स्वादों का संवाद पहली बार ले पा रहा था। "पता है.. दुनिया की बेस्ट वाइन इसी फल से बनती है। ईस्ट इंडिया कंपनी की ये बेस्ट चाय्स थी। एक बार चाइना वर्ल्ड वाइन फेस्टिवल को गया था.. अपने एक वाइन टेस्टर मित्र के साथ.. उसे पियाँक या इंग्लीश में ड्रंकार्ड मत समझो.. ताज्जुब हुआ की अपने देश के इस फल को विदेशों में कितना सम्मान मिलता है.. और इनके सही हक़दारों को अपने देश में आधे-अधूरे दाम भी नहीं मिल पाते।" 

महुआ की झूमा देने वाली  स्वाद के साथ हम जंगल को चीरते उसके उबर-खाबर रास्तों पे स्कूटर लिए.. आगे की ओर बढ़ने लगे। उन रास्तों पे दिखाई दी.. उन जंगलों के आस-पास के गावों में रहने वाली.. ग्रामीण औरतें.. अपने माथे और कमर में पानी से भरे घड़ो को लिए। उन वीरान पड़े उन जंगलों में ये भी कुछ अद्भूत ही था। मैने सर से धीरे से पूछा.. "सर.. ये क्या है..?" " राजगढ़ का मीठा-जल.. बंधु.. Where man in all his truest glory lives, And nature's face is exquisitely sweet; For those fair climes I have impatient sigh,There let me live and there let me die..."

वाह आज तो सर अपनी रफ़्तार में ही थे। "जानते हो प्रशांत.. ये लाइन्स बंगाल के महान नाटककार और कवि सर माइकल मधुसूदन दत्त की हैं। वे थे तो बन्किम चंद्र चट्टोपाध्याय के समकालीन.. पर अँग्रेज़ी सलतनंत का रुवाब रखते थे। उनकी कविताओं और लेखन की एक विशेषता रही.. की उनके पंक्तियों के भाव एक-दूसरे से मेल खाते हो या ना हों.. पर पूरा निचोड़ उसके अंतिम पँतियों में जाकर ही मिल पाता। अपने अंतिम दिनो में उन्हें इस बात का मलाल रहा.. की अगर वो अपनी मातृभाषा बांग्ला में ही लेखन कार्य किए होते तो अपनी विधा में मीलों आगे रहते। उनकी क्षमताओं पे अँग्रेज़ों ने चाहकर भी अपनी मोहर नहीं लगायी थी। चलो अब तुम्हें मीठे-जल का रहस्य दिखाता हूँ।"


हम जैसे-जैसे उन जंगलों को पार कर आगे की ओर बढ़ रहे थे.. की थोड़ी उँचाई पे बिल्कुल स्पाट वृहत क्षेत्र दिखने लगा था.. और अब तो एक पुराना किलेनुमा अवशेष भी साफ दिखने लगा। मैं रोमांचित था.. वहाँ आने पर.. और उससे भी ज़्यादा की सर को इस जगह की कैसे भनक पड़ी। "क्यों.. प्रशांत कैसा है ये पिंजर-पुराण..?" "वाकई अद्भूत सर.. अविश्वसनीय। मैं कोई स्वप्न देख रहा हूँ.. शायद।" " हाँ.. हाँ.. स्वप्न ही तो है। यहाँ से जाते ही टूट गया मानो। बिल्कुल स्ट्रॅटेजिक। ये जगह वर्षों से अपने रूप को यूँ ही बनायी हुई है। बस समय-समय पे इसके रंग-रूपों में कुछ बदलाव होते चले गये। कभी हिंदू राजाओं की आरामगाह रही.. तो कभी मुग़लिया नवाबों की कोठी.. तो कभी ब्रिटिश हुक्मरानो के गोल्फ क्लब हाउस। लेकिन आज तक ये अपनी जगह बदस्तूर बनाए हुए है। कहते हैं.. यहाँ कभी.. हैदराबादी निज़ामो की हवाई-पट्टी भी हुआ करती थी। हर रात यहाँ काफ़ी शोर शराबा हुआ करता था। दूर देश-विदेशों के राजकुमारों की ये मनचाही जगह होती थी। ये दुनिया से परे थी। इसके मीठे जल-सरोवर पे नायाब पक्षियों की कतार सजी होती थी। लेकिन देश आज़ाद होते ही इन पिंजर-पुराणो को ग्रहण लग गया। बस वो विशाल भवन बचा है.. और सरोवर का मीठा-जल..।" 

मन में ढेरों सवाल कौंधे चले जा रहे थे। फिर मैने सर से घुमंतू-भोटिया के बारे पूछा.. और उस किलेनुमा राजगढ़ वाले भवन की ओर चलने को कहा। "......दीवानो से यह मत पूछो... दीवानो पे क्या गुज़री है.. हाँ प्रशांत.. वो घुमंतू-भोटिया.. दो साल पहले मुझे यहाँ इसी जगह पे मिला था। वो आज भी यहीं कहीं रहता है.. किस्मत से दिख जाए तो ठीक। देखो इस तालाब के बगल की घाँसो पे उसके घोड़े के पैरों के निशान दिख जाएँगे। उसके पुरखे इस स्टेट के दीवान थे.. अब तो सारे दीवाने गये.. ना सटीक राय देने वाले रहे.. ना रायबहादुरी रही। फिर भी वो भटकता रहता है.. इसके इर्द-गिर्द.. और रही बात भवन के ओर चलने की.. तो वो अब चोर-उचक्कों का अड्डा बन चुका है.. अब कोई नहीं जाता उधर.. पिंजर-पुराण का अंतर्द्वंद बस खाए जा रहा है। महुआ के दानो को तालाब के बगल हरे घाँसो में फैला दो.. और तालाब के मीठे-जल को गौर से देखना.. शायद एक और घुमंतू-भोटिया दिख जाए।"




देख रहा था.. मैं उस पल को.. थोड़ा जल को.. थोड़ा कल को। हर कोई तो झाँक जाता इसको.. ये भी आँक लेती हर एक छल को। फिर भी भींगती.. भींगाती हर एक कल को... थामें थल को। देख रहा था.. मैं उस पल को.. देख रहा था.. मैं उस पल को।


"कहाँ खो गये प्रशांत..! अपने भवन से बाहर तो निकलो। अब ये हमारे नहीं रहे। वक़्त के ये माइल-स्टोन्स... कलंक गाथाओं की ओर बढ़ चले हैं। तुम्हें अपनी राहें स्वंय बनानी है.. इन पिंजर-पुराणो से निजात पाना हैं। लौटे तो क़ैद कर लिए जाओगे.. फिर अपना कद कैसे बढ़ाओगे..। "




......continued in
 हाफ लॅंग्वेज... पार्ट- II    
 Half Language... Part- II

https://vipraprayag.blogspot.com/2019/07/ii-half-language-part-ii.html?m=1


Vinayak Ranjan 
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Sunday, 25 January 2015

मंज़िलें अपनी जगह हैं.. रास्ते अपनी जगह...

वो २०१३ एप्रिल की रात थी| आख़िर काफ़ी देर इंतेज़ार के बाद बक्सर इंजिनियरिंग कॉलेज के एक सहयोगी लेक्चरर को कॉलेज लौटता देखा| रात के करीब ११ बज रहे थे| जब की बक्सर कॉलेज की ओर आनेवाली ट्रेन को उन्होने दिन के बारह बजे पटना रेलवे स्टेशन से पकड़ा था| पटना से अपने कॉलेज के नज़दीकी स्टेशन टूडीगंज को आने में पॅसेंजर ट्रेन से ढाई से तीन घंटे लगते हैं| लेकिन हुआ क्या.. जो उन्हें इतनी देर लगी !! हुआ यूँ की जिस ट्रेन को उन्होने पकड़ा वो लौटते वक़्त आरा स्टेशन से अपनी ट्रॅक बदलकर सासाराम वाले रूट पे चली जाती है.. दक्षिण की ओर.. जबकि हमें बक्सर रूट पे पश्चिम की ओर आना होता है| ट्रेन पे चढ़ते ही वो सो से गये.. फिर ट्रेन कब आरा स्टेशन से अपने नये रूट को चल दी कुछ पता ही नहीं चला| आख़िर जब नींद खुली तो वो सासाराम के थोड़े नज़दीक आ पहुँचे थे| खैर.. अब तो वो सही सलामत कॉलेज आ पहुँचे थे|

फिर हमसब कॉलेज कॅंटीन में   रात का खाना खाया.. और खाते खाते मैने उनसे पूछा.. तजुर्बा कैसा रहा ?? वो मुस्कुरा रहे थे.. और कहा.." इस तजुर्बे पे तो जैसा लगता है  मेरी मोहर  ही लगी थी|" खूशी का कोई ठिकाना ना था| ...रात बीरात टेंपो- जीप - बस पकड़कर उस अंजान जगह से आरा स्टेशन को जो आए थे| ये सब सुन मन ही मन.. मैं भी मुस्कुराए जा रहा था| मुझे याद आ रहा था.. मेरी भी वो भूल-.भूलइए वाली यात्रा...|  बात २००८ फ़रवरी की थी| उस समय मैं MIT, Purnea में कार्यरत था| कुछ दिनो पहले ही अपने कॉलेज के NSS विंग का Programme Officer नियुक्त हुआ था| NSS कार्यक्रमों का मुख्य-संचालन मधेपुरा यूनिवर्सिटी से ही होता था| फिर एक पत्र मिला.. जिसमें Purnea-Koshi प्रमंडल के अन्य कॉलेज के Programme Officers की एक मीटिंग तय की गई थी.. मधेपुरा यूनिवर्सिटी में| खूश था की कुछ नया तो मिला..| फिर तय दिन पे सुबह सुबह दही चूड़ा खाकर Purnea Court स्टेशन से पॅसेंजर ट्रेन को पकड़ा| ... और कुछ दिन पहले भी एक मित्र के शादी की बारात से लौटते वक़्त इसी ट्रेन से पहली बार सुबह सुबह Saharsa से Purnea आया था.. जो मधेपुरा होकर ही आती थी|  फिर उस दिन भी टिकट काउंटर से मधेपुरा का टिकट लिया और ट्रेन में उपर वाली बर्थ खाली देख.. उस बर्थ पे लेट गया.. की सोते-सोते ही मधेपुरा पहुँच जायेंगे|

सुबह सुबह की वसंती हवाओं में नींद भी कब आ गयी कुछ पता ही न चला| लेकिन फिर जब नींद खुली तो थोड़ा गर्मी का एहसास हुआ| दिन के करीब १० बजने को होंगे.. चलती ट्रेन में लोगों की भीड़ भी बढ़ गयी थी| फिर एक मूँगफली वाले से पूछा.. मधेपुरा कितने बजे तक आएगा... इतने में एक नीचे बैठे सज्जन ने कहा.. "आपको जाना कहाँ है?" मैने कहा "मधेपुरा".. उन्होने कहा.. " अब तो कुछ मिनटों में बिहारीगंज आ जाएगा.. आपको मधेपुरा जाने के लिए बनमंखी स्टेशन पे उतर जाना था.." ये सब सुन मेरी समझ में तो कुछ भी नहीं आ रहा था| मैने कहा "कुछ दिनो पहले तो इसी ट्रेन से सहरसा से पूर्णिया आया था.. मधेपुरा होते हुए.." उस सज्जन ने मुझे रोकते हुए कहा.. "जाते वक़्त ये ट्रेन मधेपुरा होके ही जाती है.. मगर लौटती है.. बिहारीगंज... घबराईए नहीं आपको अगर मधेपुरा जाना है.. तो बिहारीगंज से मधेपुरा के लिए जीप.. ट्रॅकर मिल जाएगी.."| बात भी सही थी.. इस रूट पे मेरी यह तीसरी यात्रा थी..| पहली यात्रा हुई थी.. १९९३ में मैट्रिक परीक्षा में.. जब परीक्षा केंद्र धमदाहा पड़ा था.. दूसरी यात्रा थी कूछ दिनो पहले मेरे एक मित्र के शादी के बरात में सहरसा को जाना.. और तीसरी ये जो मुझे पहली बार "बिहारीगंज" के दर्शन को करवा रही थी| ऐसे तो किसी नये रास्ते पे अकारण भटक जाने में शुरुआती झुंझलाहट तो होती है.. मगर साथ ही मिलने वाली आत्मिक-संतोष से फिर आपको.. आपके मंज़िल की ओर ले जानेवाले साधन भी नज़र आने लगते हैं| 


फिर मैं अपने बर्थ से नीचे उतर.. चलती ट्रेन की खिड़की से बाहर के नज़ारो को देखने लगा| रेणु जी के मैला आँचल की प्रतिबद्धता जैसे आज भी कायम हो| जगह जगह दिखे जलाशय और पोखर.. मानो ये आज भी आपके पाँव धोने को आतुर हों| ट्रेन के बिहारीगंज स्टेशन रुकते ही.. उस बगल बैठे सज्जन के बताए निर्देशों पे मैं चल दिया| स्टेशन से बाहर निकल मैं बस-अड्डे आ पहुँचा| "ग्वालपाड़ा.. मधेपुरा.. सहरसा.. " "ग्वालपाड़ा.. मधेपुरा.. सहरसा.." की आवाज़ लगाते गाड़ीवालों की ज़ोर की आवाज़ें कानो को भेद रहीं थी| फिर एक जीप में आगे वाली सीट खाली देख जा बैठा| वहाँ कुछ देर रुकने के बाद.. अन्य यात्रियों को लेकर जीप खुली| जीप बिल्कुल ठसाठस भरी हुई थी| जीप के उपर भी कुछ लोग थे| छोटे शहर और कस्बों के मार्केट एरिया भी कम रोचक नहीं होते| फिर उस शहर को छोड़ने के बाद.. ग्रामीण क्षेत्र की टेढ़े-मेढ़े और उबर-खाबर रास्तों को होती हुई.. फिल्मी गानों के साथ हम हिचकोले खाते आगे बढ़ रहे थे| उन फिल्मी धुनों और उस जीप के जर्रे-जर्रे से निकलती सिसकती आवाज़ भी अपनी शमा खूब बाँध रही थी.. मेरे उस अंजान सफ़र में| जीप के आगे बैठे-बैठे उसके सामने की धुंधली शीशे से मैं जो भी देख पा रहा था.. वो हमारे जीवन के ही अंश थे.. लेकिन आज भी मानो अनसुलझी ही थी| बिहारीगंज पे पहली बार आके मुझे लगा मानो जीवन के किसी छोर पे आ पहुँचा हूँ.. जहाँ से आने-जाने का रास्ता एक परीया ही है,,, एक सुदूर टापू के समान|


बिहारीगंज नाम तो वर्षों से सुन रखा था.. जब हमारे जिले के कुछ छात्र यहाँ से दसवीं बोर्ड मैट्रिक परीक्षा के फॉर्म भरा करते थे.. परीक्षा में मन-मुताबिक माहौल के लिए.. भौगोलिक सुदुरता में जो था.. बिल्कुल निश्चिंत भाव लिए.. एक-परीया भाव| बिहारीगंज से मधेपुरा लगभग ४०-४१ कि. मी. की दूरी पे था| दिन के पौने-ग्यारह बज गये थे.. फिर वहाँ पहुँच.. यूनिवर्सिटी भी जल्दी पहुँचना था| करीब १ घंटे बाद ग्वालपाड़ा पहुँचने पे.. जीप जाके रुकी| फिर जीप से नीचे उतर कमर थोड़ा सीधा किया.. बैग से बोतल निकाल पानी पिया.. फिर जाके थोड़ी राहत मिली| कुछ लोगों के ग्वालपाड़ा में उतरने के बाद.. मैं जीप की पीछे वाली सीट खाली देख वहाँ बैठ गया.. ताकि उस धुंधले शीशे से हट इस ग्रामीण परिदृश्य की जमकर अनुभूति ली जा सके| मेरी उत्कट्ता इस तरह हावी हो गयी थी.. की चलती जीप से पीछे उड़ती धूल की भी परवाह नहीं थी| गाँवो के बीच से गुज़रते दिखे रोड के दोनो ओर सुखते पटुवे.. जिसे बाजारू भाषा में जूट कहतें हैं| इसकी खेती खूब होती है यहाँ.. और फिर हवाओं में पिरोती इसकी दूर तक तैरती खुसबू| फिर दिखे जगह-जगह मिट्टीपन की मिठास लिए हरी-भारी वादियों से गुज़रते भैंसो की टोली.. और उन सब पे सवार छोटे-छोटे बच्चे| कुछ बच्चे तो दूर तक अपनी लोहे की रेला-चक्की को लिए उस चलती गाड़ी के उड़ते धूल के पीछे दौड़ लगाते रहे.. मानो वो भी किसी अबोध प्रतिस्पर्धा में ही सही... आने वाले कल के संघर्षों के लिए खुद को तैयार कर रहे हैं| आख़िर हमारी आज की सभ्यता के किस साम्राज्य को मैं बस टक-टकी लगाए देखे जा रहा था| इन्हीं सोचों और अनुभवों को मन में क़ैद किए मैं दिन के लगभग १ बजे मधेपुरा यूनिवर्सिटी आ पहुँचा|

पहली बार मधेपुरा यूनिवर्सिटी आया था.. और वो भी एक मीटिंग अटेंड करने| देर से पहुँचने की चिंता भी थी.. तो थोड़ी बहूत खुशी भी..| गेट से प्रवेश के बाद ही पूछते-पूछते मैं NSS Office आ पहुँचा| अंदर आने पे अन्य कॉलेज से आए कुछ Programme Officers को भी Co-Ordinator  साहब के साथ बैठा पाया| Co-Ordinator साहब मुझे देखते ही पहचान गये| अपने सामने वाली कुर्सी में बैठने को कहा| फिर मैं देर से आने का कारण बताया| सब कुछ सुनने के बाद उन्होने कहा..." कोई बात नही.. मीटिंग तो कॅन्सल हो गयी है.. कुछ  यूनिवर्सिटी स्टाफ के हड़ताल की वजह से..| अगर हो सके तो आप जितनी जल्दी हो लौट जायें.. नहीं तो Purnea जाने की ट्रेन छूट जाएगी..| मैं अवाक सा रह गया|

फिर तो उल्टे पैर मधेपुरा रेलवे स्टेशन का रुख़ किया| भूख भी जोरों की लगी थी| स्टेशन पहुँच.. बाहर गेट  के एक होटल में बने लज़ीज़ "बगेरी-भात"  खींच के  खाया.. और बमुश्किल ट्रेन पकड़ Purnea को आया| अगले दिन  मेरी यात्रा वृतांत को सुन मेरे कुछ मित्र और सहयोगी  हँस ही पड़े.. तो कुछ ने कहा.. "बुद्धू.." "बोका.." | जैसे मानो अपने मंज़िल को पाते ही नये नामों की नामाकरण शब्दावली उमर पड़ती हो.. लेकिन मन ही मन " बुद्ध-तत्व" को लिए मैं तो उन्हीं रास्तों में था.. जिसे मैने मधेपुरा-बिहारीगंज के इस सफ़र में जीया था| कुछ दिनो पहले Internet से मधेपुरा और बिहारीगंज के इतिहास की झलक मिली तो उन रास्तों के पौराणिक वैभवॉ का भी..|

...The ancient name of Bihariganj was "Nishankhpur kodha". In medieval times this place was ruled by "Sen dynasty". In the 16th century the main stream of the Koshi river flowed to this place, named "ha-ha dhar", & there have a small market in Bihariganj . Approximately 2 kilometers near this place, also Gamail Gola was used as a local market where jute, rice, wheat, and other commercial items were purchased and bought by the local people.
http://en.wikipedia.org/wiki/Bihariganj
The history of Madhepura can be traced back to the reign of Kushan Dynasty of Ancient India. The "Bhant" communities living in villages of Basantpur and Raibhir under Shankarpur block are the descendants of the Kushan Dynasty. Madhepura was then part of Maurya Dynasty, a fact asserted by the Mauryan pillar at Uda-kishunganj. The name Madhepura is believed to have evolved from Gangapur - a village named after Gangadeo, the grandson of King Mithi, who is said to have established the state of Mithila. Gangapur village itself is said to be named after King Gangsen of the Sen Dynasty. From 1704 AD to 1892, the Kosi river with its diverse courses remained striding the areas right from Forbisganj to Chandeli Karamchand and Raghuvansha Nagar & thereafter submerging itself into the Ganges at Kursela. As Madhepura stands at the centre of Kosi ravine, it was called Madhyapura- a place centrally situated which was subsequently transformed as Madhipura into present Madhepura. Another view is also there as to its naming as the area is said to have been inhabited by the bulk of Madhavas - clan of Lord Krishna. It was termed as Madhavpur which gradually became Madhavpur into Madhepura. (Extracted from Brihad Hindi Kosh, 5th Edition, Page- 887). In ancient times, Madhepura remained a part of Anga Desh. It was also governed by Maurya, Sunga, Kanva and Kushan dynasties. It was a part of Mithila province during Gupta Dynasty. The Mauryan Pillar discovered at Kishunganj bears testimony to it. Madhepura remained under the dominance of Bihar rulers during Rajput rule. Present Raibhir village under Singheshwar block was a stronghold of Bhars.During Mughal period Madhepura remained under Sarkar Tirhut. A mosque of the time of Akbar is still present in Sarsandi village under Uda-Kishunganj. Sikander Sah had also visited the district, which is evident from the coins discovered from Sahugarh village
NSS (National Service Scheme) राष्ट्रीय सेवा योजना का मेरा कार्यकाल बहूत कम दिन ही रहा| पर आज भी उस मर्म-स्पर्शी सफ़र का ध्यान खींचा चला जाता है.. जब-जब NSS का ज़िक्र सामने आता है| राष्ट्र के ऐसे सुदूर छोरों पे ना जाने ऐसे कितने ही काम किए जाने बाकी हैं.. बशर्ते इनका संचालन कुछ स्पष्ट नीतियों के भी साथ हों| आज के वर्तमान का भूत और भविष्य के साक्ष्यों से तालमेल बेहद ज़रूरी हैं.. नहीं तो हम अपने बनाए रास्तों पे ही मंज़िल बस ढूँढते ही रह जायेंगे.. कुछ-कुछ एक परीया सा..| 

आज हमें अपने राज्य बिहार के रूप में जो भी मिला है.. वो मैदानी व हरित भू-भाग ही है| जिसकी पुख़्ता पूंजी ऐसे सुदूर छोरों पे ही है| ग्रामीण कृषक ही ऐसे सुदुरता में भी सुंदरता पिरो सकते हैं.. बशर्ते इनके रास्तों को पौराणिक शक्ति-स्तंभों से पुख़्ता किया जाए| यहाँ सभी धर्मों व वर्गों का समान स्वरूप हैं| पौराणिक कालों के मंदिरों के साथ.. मस्जिदों-मज़ारों का भी मेल है.. तो चर्च, गिरिजाघर और गुरुद्वारे भी हैं| बक्सर के एक पौराणिक  शिवमंदिर के दर्शन के बाद मन में उठी उत्कंठा में.. कुछ समीपवर्ती  शिवमंदिरों व अन्य देवी-देवताओं के शक्ति-पिठों  के साथ दिखाई दी भू-भागीय आस्था से जुड़ने की आत्मीय-कला भी| यहाँ की लोक-भाषा, लोक-गीतें, लोक-कलायें, लोक-परंपरायें भी तो सुदूर इन्ही रास्तों में छिपी हैं| बुद्ध-कालीन लोक-पर्व ने भी कितने ही स्थानो को गौरवमय बनवाया.. तो  नयी परंपराओं के गठन के लिए बिहार व भारत के  सुदूर रास्तों को भी वैभव-विहारों की मंज़िल पे लाना होगा... ताकि आज के युवा इन शक्ति-स्तंभों के ही इर्द-गिर्द सू-शोभित हो सकें.. और बिहार पर्यटन  व भारत-दर्शन को भी कुछ नये रास्तें मिल जायें..|

Vipra Prayag Ghosh

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Tuesday, 20 January 2015

शिक्षक: क्रान्ति का अग्रदूत ...



आज के अख़बार में पढ़ा, किसी बच्चे ने पूछा की ब्राम्‍हांड की खोज किसने की ? जबाव था... हर वो बच्चा जो इस दुनिया में जीवन लेता है और अपने ज्ञान के सृजन से रचता और बसाता है| पर ज्ञान के सृजन का सूत्र कौन देता है... शिक्षक...!!! एक ऐसा ज्ञान केन्द्र जो खुद में सम्मानित है, अपनी ऊर्जा और अपने तेज से...| दुनिया नहीं बचती नहीं रचती नही बसती अगर शिक्षकों का आभार समाज और जगत को नहीं मिलता| दुनिया को छोड़ अगर मैं अपने भारत की बात करूँ तो राम लक्ष्मण के शिक्षक महर्षि विश्वामित्रा किसी को याद नहीं पर पोस्ट इनडिपेंडेन्स एरा में इस दिवस को सर्वपल्ली राधाकृष्णन की याद में समर्पित किया जाता है| और फिर सामने एक सुंदर चित्र-मुखमंडल पे मल्यार्पण और कर्णप्रिया और दृश्याप्रिया कार्यक्रमों का आयोजन| क्या इतना काफ़ी है... एक नव-भारत की नव-रचना में...| शिक्षा से संबंधित वो सारे प्रयास बेकार हैं जब हम अपनी भारतीय सभ्यताओं में पुरातन तत्वों का आकर्षण ना पिरों सकें, और जब हम डेवेलपमेंट की नयी सीमाओं के सन्निकट हैं तो नये चर्म-रोगों का सामना भी तो साहस से करना होगा....याद रहे की यह रोग दिल और आत्मा तक ना पहुँच जाए| किसी ने कहा आप आज जहाँ हैं वो बिहार है... कुछ दिनों बाद आप का कर्मास्थल पूर्वांचल ना बन जाए... निवास स्थल सीमानचल ना बन जाए... और पैत्रीक स्थल अंगाचल ना बन जाए.... जब की आज से पहले १८५७ की तस्वीर कुछ ऐसी थी की... यह बंगाल था, फिर बिहार और ओड़ीसा बने ... अब तो झारखंड नये अस्तित्वा में आ चूका है| लेकिन फिर यह कोई नहीं कहता की यह एक दिव्यनचल है.... ब्राम्‍हंचल है... अध्यातमानचल है| यह बताने वाला एक शिक्षक ही है.... जो समग्र ज्ञान लिए खुद में पुरातन है, हर दिवस में चलयमान है.... आपके जीवन का सम्मान है| ये है तो एक सम्रिध राष्ट्र निर्माण है.... नहीं तो धृतराष्ट्र महान है|

~ विप्र प्रयाग घोष



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Monday, 19 January 2015

"महासभाओं के होड़ में आदर्श शिक्षकों का भिक्षाटन...."

   बात उन दीनो की है, जब हम.. मैं और मेरे प्रिय मित्र-मंडली मैट्रिक के रिजल्ट के बाद अच्छे कॉलेजों में एड्मिशन की फॉर्म फिल्लिंग के लिए पटना और भागलपुर के चक्कर लगा रहे थे। पटना और भागलपुर के कुछ चुनिंदा कॉलेज में पटना साइन्स कॉलेज, बी. एन. कॉलेज, ए. एन. कॉलेज एवं टी.एन.बी. कॉलेज का चुनाव और फिर इन कॉलेजों में एड्मिशन हो जाना बिहार के लगभग सभी मैट्रिक पास छात्रों का एक स्वप्न हुआ करता था। पटना भ्रमण के दौरान मैने महसूस किया कि आने वाले दिनों में जिन साईन्स और मैथेमैटिक्स की किताबों से हम मुखातिब होने वाले हैं.. उनके राईटर्स की यहाँ कोचिंग क्लासेस चला करती है। पटना के उस दौर के नामी गिरामी शिक्षकों में बिल्टु सिंह, नफीस हैदर, अख़्तर साहब, के.सी. सिन्हा भाईयों के नाम प्रमुख थे।

    फिर कुछ दिनो बाद अपना अड्मिशन पूर्णिया कॉलेज पूर्णिया में ही संभव हो पाया। स्कूल छूटते ही खुला व उन्मुक्त एक नयी पाठशाला.. फिर तो पूर्णिया कॉलेज का भी अपना एक स्वर्णिम इतिहास रहा है। कॉलेज प्रक्रिया में आने के कुछ दिनों बाद पूर्णियाँ के ही एक साईंस कोचिंग क्लास के साथ विषयवार होम टेबल ट्यूशन को भी जाय्न किया, जिनमें कुछ शिक्षक प्रोफेसर तो पूर्णिया कॉलेज में भी पढ़ाते थे। जिनमें केमिस्ट्री के प्रख्यात प्रोफेसर डा. टी.वी.आर.के.राव, ऊ.एम.ठाकुर.. फिज़िक्स में टी.के. डे, एस. पी. यादव, ए.के. पाण्डेय.. मैथेमैटिक्स में रवि मुखर्जी, महादेव चौधरी, अमल घोष, विजय तिवारी, सुभाष बाबू आदि उस समय के फेमस शिक्षकों में मान्य थे। बॉटेनी ज़ूलोजी में भी प्रोफेसर एस.के.राकेश, बी.एन. पाण्डेय, अजय सिंह व अन्य अच्छे फेमस प्रोफेसर थे। फिर प्राईवेटाईजेशन दौर में कुछ ब्रांड महासभाओं के शिक्षाटन में इनकी निजी प्रतिभाओं को मानो ग्रहण सा लग गया। जो शैक्षणिक ब्रांड व्यापार में अपने निजी शिष्टाचार को पिरों पाए, उनकी राह लग गयी.. लेकिन कुछ को पलायन का मार्ग भी अपनाना पड़ा। खुद मैं जब अपने दस-बारह वर्षों के पूर्णियाँ इंजीनियरिंग कॉलेजों के अनुभवों को देखता हूँ तो अनुकरणीय शिक्षकों की कमी बहूत महसूस हुई। जो समाज में बचे थे उनकी मूल बोलती ब्रांड व्यापार के समीकरणों में सुसुप्त थी। आज जागरण देने वाला खुद.. मूह ताक रहा मानो। महाविद्यालयों के इन गुरुजनों से लैस तात्कालिन समाज भी सामाजिक आग्नेयास्त्रों से खुद में समृद्ध समझा जा सकता था। अनुशासन की कटिबद्धता ऐसे प्रतिबद्ध अनुसरणों में ही निहित थी। हर एक शहर प्रोफेसर कॉलोनी के दिव्य स्थापन से ही सुशोभित था। क्या साहित्य.. क्या इतिहास और क्या दर्शन-शास्त्रों से निकल सामाजिक रसों में जा घुलते विज्ञान.. आज कहाँ विलुप्त हैं? फिर कुछ नाम जो रिसते दिखे थे.. एल.एन.मिश्रा मैनेजमेंट कॉलेज मुजफ्फरपुर वर्ष २०१३ के प्रैक्टिकल एग्जाम कंडक्शन में। पटना के रहने वाले प्रोफेसर मेरे ही साथ बुलाऐ गए थे। बातों बातों में जो ज्ञात हुआ.. १९९५ की फेमस मिश्रा एंड मिश्रा की प्रोबैबेलिटी मैथेमैटिक्स किताब उनकी ही लिखी थी.. लेकिन अब के नए बाजारु दौर में वो उत्साह भी निष्क्रिय हो चला था।

  शिक्षावादिता का वंदन तो गुरु समक्ष ही जान पड़ता है और फिर ऐसी आभाऐं जो बचपन से ही प्रमण्डलीय ऋचाओं में घुली पड़ी हों। ज्ञानसूत्र के ऐसे नव-अंकुरण जो अनेकानेक व्याधियों से परे विचरण को उन्मुक्त स्वतंत्र नित मंचन.. अभिरंजन। पूर्णियाँ के कॉलेजी शिक्षा को बल देने की पृष्ठभूमि भी तो स्कूली दिनों के मास्टर साहब ही करते नजर आते। अनुशासन व नैतिक अभिक्रियाओं की पहली पाठशाला। सहस याद है माँ सरस्वती के समक्ष स्लेट और खल्ली लिए वो पूजा के पहले अक्षर.. अ.. आ.. इ.. ई.. और भी एक स्कूली प्रांगण में पूर्णियाँ कोशी अंचल के महान संस्कृताचार्य पंडित श्री केशवनाथ त्रिपाठी जी के हाथों। वे तत्कालिन पूर्णियाँ गर्ल्स हाई स्कूल में पदस्थापित थे और नजदीकी मधुबनी के ही मुहल्ले में निवास भी था। रोजाना की भाँति ब्रह्म वेश में धोती कुर्ता व माथे पे तिलक मेरे घर के बगल से ही स्कूल को पैदल ही जाते.. फिर तो जैसे इन प्रकांड महात्माओं की पद छाप ही कितने श्लोकों व छंदों को गढते चले जाते। उम्रदराजी होने पे भी अपने परममित्र श्री मदन सिंह से मिलने संध्या बेला में रोजाना की भांति सहस ही आते दिखते। मित्र बंधुता व संबंध प्रगाढता के कितने ही साहित्य जो उन भोजपुरी वार्तालाप के तानों बानों में बुने जा सकते हैं। सौभाग्यवश उसी गर्ल्स हाई स्कूल में मेरी माँ ने भी शिक्षा ग्रहण की और फिर रिटायरमेंट तक शिक्षिका पद पे अपने गुरुजनों के साथ ही सतत सुशोभित रहीं। संस्कृत व हिन्दी साहित्य से जुड़ी अनुभवी शिक्षिकाओं में हमारे समाज की ही धार्मिक प्रवृत्त व मेरे मित्र की दादी श्रीमति सुदामा मिश्रा भी थी। युं कहें तो साहित्य शास्त्रों में हमने बस महादेवी वर्मा का नाम ही सुना था.. पर मुखमंडल ध्यान बस उनका ही आता। क्रिश्चियन व रोमन कैथोलिक मिशनों से जुड़े स्कूली पाठशालाओं में भी कोई भेद ना था.. आपके कौशल सक्षमता का सटीक मूल्यांकन मिलता। फिर ज्ञान गर्भ के वेदकोषों में कितने ही गुरुजनों के नाम सुनने को मिलते.. काशी बाबू.. भुवनेश्वर बाबू, भोला बाबू.. गजेन्द्र बाबू.. तिलोत्तम बाबू.. गायत्री दी.. करतार दी.. उमा वर्मा दी.. रमा लाहिड़ी दी आदि आदि जिनसे पूर्णियाँ के कितने ही अभिभावक वृंदों ने भी शिक्षा दीक्षा ग्रहण की थी। फिर पढने पढाने व गुरु निष्ठा के सम्मान व आचरणों से भरे जीवन में.. मेरी दादी माँ के एक शिक्षक श्री सुरेन्द्र नारायण सिंह पिता श्री बिरेन्द्र नारायण सिंह का निवास भी सन्निकट ही था। फिर शिक्षकों के सम्मान से जूड़ी उस आस्था को भी बड़े ही पास से देख पाया हूँ। याद है अक्सर मेरी दादी का नाम "उषा" "उषा" लिए वो आते और फिर ब्रिटिश हुकूमत व आजादी के दिनों की कहानियां बता जाते। मेरी दादा-दादी के विवाहोपरांत.. दादी ने स्कूल टिचर ट्रेनिंग उन्हीं के प्रिंंसिपलसिप के निगरानी में भागलपुर बाँका से किया था। दादाजी उस वक्त भागलपुर पुलिस अॉफिस में थे और कुशलक्षेम हेतु यदा कदा टीचर्स ट्रेनिंग के दौरान दादी से मिलने उनका आना भी होता था.. तो इस प्रसंग को जीठठोली लहजे में मास्टर साब हम बच्चों को कहानी बताते कि तुम्हारा दादा पुलिसिया हाफ पैंट में आता था.. लेकिन मैं बाहर घंटो खड़ा रखता था.. और फिर जोर से हँसने लग जाते। गाँधी टोपी, धोती, कड़क मूँछ और अपने सख्त अंदाजों में वे हम बच्चों के लिए चाचा चौधरी से कम ना थे.. और तो और उनके आगमन से सख्त मिजाजी मेरे दादा दादी भी विनम्र हो जाते। सच में जीवन के ऐसे श्रद्धेय भावों के हम कभी पार उतर ही नहीं सकते।

विद्या ददाति विनयं विनयाद्याति पात्रताम्।
पात्रत्वाद्धनमाप्नोति धनाद्धर्मं ततः सुखम्॥

..फिर तो बचपन के दिनों से ही अपने मुहल्ले समाज में स्थापित व सुसज्जित इन्हीं भव्यताओं में हम सभों के नए बोल भी फुटे थे। घर के सामने ही कुरसेला राज परिवार के प्रोफेसर विजय कुमार सिंह का निवास व सामने वाला खुला फिल्ड। आज भी वो प्रोफेसर साहब के नाम से ही सुशोभित है.. हम सभी बच्चों के खासे प्रिय.. प्रेम व आदर वश हम उन्हें बाबा ही बुलाया करते। उनके उस पुराने बड़े से घर आंगन में हम सभी बच्चों की खुब धमा चौकड़ी होती। लुका छिपी हो या क्रिकेट या बैडमिंटन.. हर तरह का खेल उनके ही घर आंगन। खेलकूद के गतिरोधों व मतान्तरों में उनका निर्णय ही श्रेष्ठ होता। फिर पिताजी के साथ मधुबनी वाले छोर पे केमिस्ट्री के प्रोफेसर अरुण कुमार सिन्हा के घर बचपन में जाना होता था। शालीन और सभ्य समाज के पूरक प्रोफेसर नामावली की इस गरिमा में कितने ही वरिष्ठ मानुवों को हम सब ने अपने ही समाज में देखा.. जिनमें प्रोफेसर एन.के. सिंह, इन्दुबाला सिंह, प्रमोद कुमार सिंह, रामू बाबू, उर्मिला यादव, राजलक्ष्मी सिंह, विजया झा तो आदरणीय स्कूली शिक्षकों में महावीर बाबू, रणविजय सिंह, बिरेन्द्र सिंह, शंभु मिश्रा, कौशल बाबू आदि शिक्षकों के नाम आज भी स्मृतिपटल पे सुसज्जित हैं।

ज्ञान विज्ञान के साथ साहित्य व कला को बल देते भाव भी संजोने को मिले थे। चाहे हो अपना घर आंगन या पास ही का कला भवन। श्री अखिलेश्वर वर्मा को अपने घर पे साहित्यकार व कवि अज्ञेय की रचनाओं पे पी.एच.डी के शोधपत्रों को लिखते पाता था। अपने कमरे में कभी लालटेन तो कभी जलते लैंप की लौ में हिन्दी साहित्य की कमर कसते.. सोचता कि आखिर इन अक्षरों में क्या छिपा है तो फिर घर पे दिख पड़ते दादाजी के लिखे कितने ही लेख.. जिनमें यात्रा उल्लेखों के साथ कविताऐं भी संलिप्त रहतीं। १९८९ विदेश यात्रा में तो उनकी लिखी कुछ ईंग्लिश कविताएँ भी पढने को मिली। या फिर कहें तो सामाजिक व प्रदेशिय जीवन के हर एक छोर पे इन शिक्षण ध्रुवों का सार छिपा है.. पुनर्जागरण हेतु इन मर्मों के आध्यात्मों को जीवंत करना ही होगा तो ही ऋषि योग में महर्षि, राजर्षि व ब्रह्मर्षियों के साथ कल्पांतों के सप्तर्षियों को जाना व समझा जा सकता है।

  अब तो दशक पे दशक बिते.. नयी पीढ़ी कुछ जानने को आकुल.. बताने वाला कोई नहीं। टेलिवीजन, रुपहले पर्दे और पत्र-पत्रिकाओं के माध्यम से नयी पीढ़ी को क्या मिलने वाला, जब मानव प्रकाश पुंज बिखेरने वाला सामाजिक शिक्षित गजमुक्ता ही विलुप्त है। सटीक मार्गदर्शन के इसी आक्रांत भाव में आज के छात्र कोटा, देल्ही व अन्य विकसित राज्यों के महानगरों का बेबस रुख़ कर लेते हैं। स्वयं सिद्ध महासभाओं के दंश में एक मौन प्रखर कथित शिक्षाटन को मजबूर... तो फिर उन समाज शिक्षकों का क्या जो इन ब्रांड दंश से अपने भिक्षाटन पे हैं..।

विप्र प्रयाग घोष