जीवन स्तंभों की परछाईयाँ..
..आँखों से होकर गुजरते और मस्तिष्क में समाते तरंगों को वापस अपनी खुशियों से लौटते देखो ..वो वापस
👥
👥मिल से गए थे ..सबकुछ वैसा ही ..औऱ फिर एकांत में विलीन हो जाना ..सिर्फ एक प्रतिबिंब
👤 लिए। ..वे ओझल होकर ..आज भी कैद है ..वे सारे भाव जो फिर दिखने से लगते हैं। मैं भी अक्सर इन पुराने स्तंभों
🏤 को देखने पीछे का रुख कर ही लेता हूँ.. बस टकटकी लगाऐ निहारता चला जाता हूँ.. बिल्कुल मौन
🗿। वर्षों पहले गाँव के मकान को संभालते ये मौन प्रहरी.. संदूक से निकाल कितने कौरियों को बिखेर देता था मैं.. इन्हीं फर्शों के उपर..। वो सबकुछ तो आज भी कैद सी हैं.. जिती जागती सी तस्वीर। सबकुछ यहाँ अपना सा है आज भी.. फिर से वे टकराकर लौटने भी तो लगे हैं ..और एक बार फिर मैं एकांत में विलीन
🗿।






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