एक अटल महाकाव्य का मौन आभार...
एक विशाल जन सैलाब की स्वीकारोक्ति अनूभुत को मैं मचल उठा था.. घर पे सख्त मनाहीं के बावजूद अपनी रैंजर साईकिल लिए पूर्णियाँ के रंगभूमि मैदान की ओर निकल गया। संभवतः ये बात करीब स्कूली दिनों से निकल पूर्णियाँ कॉलेज के दिनों की होगी। उस दिन पूर्णियाँ की सड़कें खचाखच भरी सी हुई थी। घर से करीब दो तीन मिनटों में ही थाना चौक आ पहुंचा था। लेकीन रैली में आई बड़ी बड़ी गाड़ियों.. पुलिसिया नाकेबंदी व जनाक्रोश ने अब जैसे आगे बढने की जद्दोजहद पे ब्रेक लगाना स्टार्ट कर दिया था.. कि तभी लाउड स्पिकर से निकलती एक सुसंस्कृत आवाज की दृश्यवीणा में थम सा गया। चौक से आगे बढ रंगभूमि मैदान की ओर जाने वाली सड़क के दोनों ओर ठहरे विशाल पेड़ों की ओट में रुक सा गया और उस ध्वनि स्पष्टता के संबोधन के मध्य मिलते क्रमशः क्रमश मौन विरामों की भाषाई भाव-उद्बोधनो में खोता चला गया। क्या किसी राजनेता के भाव भी एक कवित्व स्वरुप मिलेंगे.. घर लौटते वक्त बरबस ऐसे विश्मयों से खुद को घिरा पाया। ये बोल अटल बिहारी वाजपेयी के थे.. मानों उनके संबोधनों में रिस रिस कर निकलते शब्द.. पिकासो के ब्रश स्ट्रोकों से ठहर रंग निकलें हों और फिर एक वृहत जनसैलाबी कैन्वास पे सटीक स्केच उकेरने में वक्त तो लगता है.. क्षण क्षण एक मौन विराम की तरह। अटल जी एक विशेष शैली के प्रणेता थे.. हिन्दी भाषाई सबलता के एक शिखरपुरुष.. एक मेरुदण्ड।
मेरे आत्म-अनुकरणों में भी.. चाहे वो नाट्य रूपांतरण हों या क्लास रुम टिचींग.. उनके कवित्त या भाषण विद्वता की विशेष शैली के ज्ञानपूर्ण आभार से खुद को अछूता नहीं पाता हूँ.. क्षण भर ठिठक पड़ता हूँ ये जानकर की शब्द रंग रोगन के इन भावों में मैं वाजपेयी शैली का नया वर्जन तो नहीं।
दिवंगत राजनेता प्रधानमंत्री कवि जनशक्तिपुंज भारत-रत्न हृदय-सम्राट मनुवादी अटल बिहारी वाजपेयी जी को अश्रुपूरित श्रद्धांजलि
🗿
🗿
🌼
🍃
🌼
🍃
🌼
🍃
🌼
🍃
🌼
🍃
🌼
🍃
🌼
🍃
















"..फिर मैं भी कुछ
यूँ ही चलते चलते...
दूर निकलता जाता हूँ..
हिमखंडों का पिघल कर..
नदियों की मीठी धार लिए..
खारे स्वर-सागर में उतरा जाता हूँ।
यूँ ही चलते चलते...
दूर निकलता जाता हूँ..
हिमखंडों का पिघल कर..
नदियों की मीठी धार लिए..
खारे स्वर-सागर में उतरा जाता हूँ।
कैलाश.. जन-सेवक
नगर-सेवक बन...
बरबस स्वरूप बदलता जाता है..
फिर वो भी क्या..
अपने अखंड को जी पाता...
वो भी तो बस बहता जाता है।
नगर-सेवक बन...
बरबस स्वरूप बदलता जाता है..
फिर वो भी क्या..
अपने अखंड को जी पाता...
वो भी तो बस बहता जाता है।
कैलाश.. आस्था ये कैसी..
बस उसे ही नृप घोषित किए जाता हूँ..
आधार-स्तंभ को स्थिर किए..
जीवन राग सुनाता हूँ।
बस उसे ही नृप घोषित किए जाता हूँ..
आधार-स्तंभ को स्थिर किए..
जीवन राग सुनाता हूँ।
नृप-दोषों में बँटा देश..
फिर भी नित नये नृप बनाता हूँ..
नृप हूँ.. नृप चाह लिए..
नृप-नाद में बसता जाता हूँ..।
फिर भी नित नये नृप बनाता हूँ..
नृप हूँ.. नृप चाह लिए..
नृप-नाद में बसता जाता हूँ..।
स्पर्धा...
प्रति-स्पर्धा का दौर यहाँ पर..
हर कोई तो बह चलता है..
तेज़ वेग वायु संग अपने..
खारे समुद्र जो उतरता है।
प्रति-स्पर्धा का दौर यहाँ पर..
हर कोई तो बह चलता है..
तेज़ वेग वायु संग अपने..
खारे समुद्र जो उतरता है।
मैं ठहरा हिम-शक्त लिए...
स्थीर आधार जो जीता हूँ..
फिर भी धँसना है.. मौन मुझे..
हिमखण्डो का वो तेज लिए...
हिमखण्डो का वो तेज लिए...। "
स्थीर आधार जो जीता हूँ..
फिर भी धँसना है.. मौन मुझे..
हिमखण्डो का वो तेज लिए...
हिमखण्डो का वो तेज लिए...। "
- विप्र प्रयाग
भारत वर्ष ने आज एक जीवंत महाकाव्य सपूत खोया है.. अटल बिहारी वाजपेयी अमर रहें..














No comments:
Post a Comment