Monday, 15 October 2018

नैमिषारण्य के हृदय-स्थल से...

नैमिषारण्य के हृदय-स्थल से...
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शैव क्यों मैं जग जाता हूँ..
उषा काल के प्रखर प्रकाश में खो जाता हूँ..
शैव क्यों मैं जग जाता हूँ।
.या फिर वशीकरण है मानव मन से..
नित भ्रमण जीवन अर्पण से..
वश में खुद के हो जाता हूँ।

दिवस सरोवर दृश भान लिए..
अखण्ड मान को जी जाता हूँ..
दिव्य योनि  जो तर जाता हूँ।

तरुण तरुवर अवतरण रण में..
अरण्य वरदानों के भाव स्वर में..
नैमिष आनन्द के प्राकट्य प्रेम में..
चिर हरीतिमा..
आलिंगन बद्ध सा हो जाता हूँ..
ब्रह्म हृदय सुशोभित..
नैमिषारण्य के अखण्ड खोज में
मनु ज्ञान...
हृदय सम्राट जो बन जाता हूँ..
हृदय सम्राट जो बन जाता हूँ।

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Wednesday, 10 October 2018

प्रतीक्षा..



"..इट्स अर्जेन्ट" आपका आभारी देवदत्त राय।

पढते ही हैरान था कि कैसे समय के साथ एक एक कर सब गुम हो जाते हैं.. आपकी आईडेन्टिटी, पुरानी पहचान, विश्वास, मन की लगन, चुस्त दुरुस्त हेल्थ.. पुराने कॉन्टैक्ट्स, दोस्त, महफिल.. लेकिन नहीं बदलते तो ये इंटरनेट वाले ईमेल आईडी.. आखिर ये कैसे जिंदा रह गया अब तक..!!

[बीते दिनों की ढेर सारी कारगुजारियाँ एक एक कर दृश्य-पटल पे उभरने सी लगी]

..काश की पुरानें टेलिफोन नंबरों व ऐडरेस के साथ ये भी गुम हो गए होते। नंबर मिले ना मिले.. मगर जिंदा मिले इन ईमेलों के तरह आज का सोया इंसान भी कहीं ना कहीं जीता-जागता मिल ही जाता है। तमाम डिफरेंसेज.. ताम-झाम.. परेशानियाँ.. सब के सब एक झटके में गायब। आपकी तमाम कोशिशों.. एक अॉनेस्ट वर्क-प्रोफाइल का तब तो.. हुजूरे आला की नजरों में कोई मेल न था.. और अब जाके भेजते हैं ईमेल।

[कैफे से निकल हल्की बुंदाबांदी से बचते अपना छाता निकाला और खुद में बक बक करते निकल पड़े फिश मार्केट की ओर..]

  एक आवाज पीछे से जो आयी.. "दादा.. चाय पत्तियों का नया स्टॉक आया है.. आईऐ ना.. आपके आने का ही इंतज़ार कर रहा था कल से.."

[फिश मार्केट जाने वाली गली के मुहाने पे ही एक चाय का स्टॉकिस्ट]

"अरे हारुन भाई.. अब भी क्या टेस्ट बचा है अपना.. अब तो उमर पचास पार हो गई भाई.. ये पान खाते खाते तो वो जी का टेस्ट भी गया औऱ हुनर भी.. ऐसे आज तो लेट हो गया.. १२ बजने को हैं.. कल सुबह आऊँगा.. ऐसे ये बताओ स्टॉक असम वाला लाऐ हो कि दार्जीलिंग वाला.. वैसा ही मुड बनाकर आऊंगा ना"

[ दादा अपने दिनों में दार्जीलिंग के एक फेमस टी कंपनी में कार्यरत थे। स्टेट मैनेजरी के साथ एक माहिर टी टेस्टर होने का नाम शुमार था इनका..]

"..देखो रोमा ..इलिस नहीं मिला जो ये कातला लाया हूँ ..आज थोड़ा लेट हो गया कैफे में ..अच्छा तुमने कुछ खाया था कि नहीं ..मुझे लेट हो तो खा लिया करो ..आज पढा कि ज्यादा खाली पेट रहने से ही स्टोन होता है"

[दादा रोज ऐसा ही किया करते.. अपनी गलतियों को नॉलेज ज्ञान से नहला दिया करते.. और धर्मपत्नी रोमा सबकुछ समझती लेकिन कुरेद ही जाती]

"..क्या कर रहे थे कैफे में इतनी देर तक ..इधर से देखती हूँ डेली जाने लगे हो ..इतना ही शौक है तो एक वाय फाई इंटरनेट कनेक्शन ही ले लो ..अरिंदम भी कब से बोल रहा है ..घर पे एक वाय फाई कनेक्शन ले लो ..घर बैठे ही माँ बाबा से लाईव विडियो चैटिंग हो जाया करेगा उसका और फिर ये डेली इंटरनेट कैफे जाकर टाईम वेस्टिंग से भी तुम बचा करोगे"

"कैफे नहीं है वो रोमा.. कन्टेन्टमेंट की जगह है मेरे लिए.. संतुष्टि मिलती है मुझे.. केबिन में कुछ देर ही सही खुद में तो रहता हूँ.. आज भी मैं मैनेजर ही लगता हूँ.. अपना केबिन और अपने फरमान.. और फिर डेस्कटॉप कम्प्यूटर की बात ही अलग है.. मुझे ज्यादा सुट करती है.. याद है मेरे टी स्टेट वाले दिनों में जब पहली बार एक कम्प्यूटर आया था तो उसे मेरे केबिन में ही रखवाया था.. दत्त साहब ने.. और फिर एक बार गर्मियों की छुट्टी में जब अरिंदम को साथ लिए तुम वहाँ आयी थी.. उस वक्त अरिंदम कुछ पाँच- छ: साल का रहा होगा.. तो सबसे पहले पेंट ब्रश से एक चाय के पत्ते को बनाया था उसने.. मेरे उस कम्प्यूटर पे.."

"हाँ.. याद है उस समय तक तो सब ठीक ही था.. वहाँ.. एकदम ही पीसफुल था सबकुछ.."

"और फिर.. मेरी केबिन के सामने वो शीशे वाली बड़ी सी खिड़की और ऊँचे ढलानों पे दुर जाता चाय का बागान.. अरिंदम उस खिड़की से लगे टेबल पे खड़ा हो सबकुछ कितना देर तक निहारा करता.. और फिर बादल भी तो खुद में समेट लेते उस मंजर को.."

"हाँ, अरिंदम खुब एन्जोय किया उन दिनों को.. और फिर वहाँ के फुर्सतों में मेरे हाथ भी कितने चला करते थे.. खुब हाथ से बीन बीन के स्वेटर पहनाया था तुम दोनों बाप बेटे को।
.
.
..चलो अब हो गया आज के कोटे का टी स्टेट चालीसा कि और भी कुछ बाकी है ..जाकर जल्दी से फ्रेश हो जाओ ..चावल दाल रेडी है ..बस अब जल्दी से फिश फ्राय करती हूँ।"

"गीजर अॉन तो है ना!!"

"नहीं.. अॉन कर लो.. पता है इस बार बिजली का बिल कितना आया है.. और बिल जमा करने का लास्ट डेट भी कल तक ही है.."

[कुछ देर बाद..]

"..हाँ क्या कहा था तुमने ..बिजली का बिल और फिर वाय फाई लगवाने में बिल नहीं आऐगा ..बस यही होगा ना कि तुम घंटों बैठे बेटे से बातें किया करोगी और फिर दो तीन दिन बाद मन भी भर जाऐगा.. जैसे अरिंदम को घंटो फुर्सत रहती है वहाँ.. कभी सिंगापुर तो कभी न्यूयार्क.. अरे अब उसके लायक लड़की ढूँढना चालू करो.. पता चला लाईव चैट करते करते वहीँ कोई सिंगापुरी बोमाँ से तुम्हें दर्शन भी करवा दे.."

"नहीं.. नहीं.. ऐसा नहीं है वो.. मैं जानती हूँ उसे.. और वो भी मुझे अच्छी तरह समझता है.."

"अब वो हमारा जमाना गया.. जब मेरे डैड तुम्हें देखने गए थे नदी पार करके.."

"..तो क्या गलत किया था ..एक मैनेजर को कौन दुर की राजकुमारी मिलने वाली थी ..फिर बाबा तो बहुत अच्छे थे ..तुम लकी थे कि तुम्हारे डैड इतने अन्डरस्टैंडिंग नेचर के थे.. नहीं तो पड़े पड़े वही की एक चाय वाली मिलती तुम्हें.."

"चाय वाली से क्या मतलब.. जहाँ जॉब हो तो वहीं रहना पड़ेगा ना.. और फिर तुम भी पढी लिखी थी.. मैने कब रोका तुम्हें.. तुम भी तो यहीं रही माँ बाबा के साथ.. सबकी अपनी अपनी जिम्मेदारियाँ हैं.. और फिर ऐसी सोच से ही सब ठीक भी रहा"

"..हाँ मेरा बीएड एम एड हो गया इस कारण ..नहीं तो प्राईवेट जॉब को कौन जाने.. चलो खाना रेडी है ..आ जाओ।"

[खाने के टेबल पे..]

"..आज पता है लौटते वक्त एक आर्ट गैलरी दुकान पे एक पेंटिंग दिखी ..ठीक वैसी ही पेंटिंग जैसा मैने भी कभी बनाया था अपने टी स्टेट वाले उस हट में ..खूब पेंटिंग्स बनाया करता था खाली समय में ..कभी कभी रात हो जाती तो मेस से खाना वहीं मँगवा लेता ..पता नहीं इतने सालों बाद किसके देखरेख में होगा वो सब.."


  "इतनी ही चिंता लगी रहती है तो घूम क्यों नहीं आते एक बार.. और फिर वहाँ होगा भी कौन? तुम्हारा तो एक अच्छा खासा समय बीता हैं वहाँ.. दत्त साहब अभी कहाँ रहते हैं.. अब तो उम्र भी हो गई होगी उनकी.. उनका एक लड़का तो लंदन में था ना.. और उनकी एक लड़की भी तो थी.. अक्सर परेशान रहा करते थे दत्त साहब.."

"..अअ हाँ.. हाँ.. पर तुम्हें ये सब कैसे पता?"

"..तुमने ही तो बताया था.. वहाँ से वापस आने के बाद.. फिर तुम्हें भी तो हटा दिया था.."

"..हटाया नहीं था ..मैनें ही रिजाईन की थी ..हटाया होता तो !!"

"..तो क्या ..फिर तो तुम गए ही नहीं दुबारा"

"..हाँँ रोमा ..हम करना कुछ चाहते और हैं ..हो कुछ और जाता है ..और फिर खुद का विश्वास ही तो है जो जीये जाता है कभी रिजाईन नहीं देता ..और फिर जब समय ही नकाब ओढ ले तो नकाबपोशी में सब कुछ झुठला ही दिया जाता है।
.
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...बोलो तो मैं उठूं ..दही है क्या फ्रिज में!!"

"..हाँ है ..देती हूँ ..रात ही जमाया था ..अरिंदम भी खूब पसंद करता है दही ..कल ही बोल रहा था ..मिल तो जाता है वहाँ भी पर घर वाला टेस्ट कहाँ!!"

"..इसलिऐ तो कहता हूँ उसके टेस्ट का भी ख्याल रखो ..नहीं तो आज के डेट में बच्चे समझौते को जीने लगते हैं।"

"..चुप करो ..ऐसा कुछ नहीं होने वाला"

"..कतला ताजा था आज का ..मजा आ गया ..अब नींद अच्छी आऐगी"

"..शाम को हो सके तो बेकरी से ब्रेड और टोस्ट लेते आना"

"..ओके मैडम"

[ हर दिन की तरह डेली रुटीन के एक पहर की स्वस्थ प्रक्रिया का संध्या काल में प्रवेश कुछ ऐसा ही होता था मिस्टर एंड मिसेज सोहम सेन के घर.. फिर शाम को थोड़ा ईवनिंग वाक् ..कॉफी हाउस की गपबाजी और लोकल न्यूज का पूरा ब्योरा लिए हाथ म टेलीग्राफ न्यूज पेपर व डेली निड्स के कुछ सामानों के साथ घर को वापसी..]

"सुनती हो सान्याल साहब मिले थे कॉफी हाउस में.. तुम्हें याद कर रहे थे.. उनकी लड़की आ रही है कल पुणे से.. वहाँ के फर्ग्युशन काँलेज से मास कम्युनिकेशन में मास्टर्स कर रखा है.. बहुत खूश थे.. उनकी वाईफ भी तो थी ना तुम्हारे साथ स्कूल में.."

"हाँ.. हाँ.. वो तो अभी शायद प्रिंसिपल हो गई हैं.. हाँ याद है उनकी लड़की संयुक्ता नाम है उसका.. बड़ी प्यारी है.. अरिंदम से तो दो तीन साल की ही छोटी है.. दोनों एक ही रिक्शे में तो स्कूल जाते थे"

"..हाँ सान्याल साहब बता रहे थे दुर्गा पूजा में तुम्हारे पार्टिशीफेशन के बारे में.. खूब ड्रामा प्ले होता था उस वक्त"

"..हाँ टाईम भी मिल जाता था और फिर अरिंदम भी काफी कुछ सीखा था वहाँ के ड्रामा प्लेज से.. और फिर गिटार सिखने तो वो वहीं जाता था हर एक संडे.. दुर्गा बाड़ी में ही एक मास्टर साहब आते थे ..फिर नाईन्थ टेन्थ के बाद तो सब छूट ही गया उसका.."

"..मैं जो आ गया था उस वक्त ..फिर वो टाईम भी इम्पोर्टैंट था उसके लिए ..मैथ साईंस के कितने कन्सेप्ट ईजी कर दिऐ थे मैने"

"..हाँ वो तो है ..तुमसे दुर तो था ही और फिर आते ही तुम टीचर बन गए थे उसके"

"..टीचर क्या बना था ..याद है जब तुम्हारा बीएड कम्प्लीशन पे था ..उसे छोड़ आई थी मेरे पास ..और उसके वो दो-तीन महिने फादर अगस्तस स्कूल के ..बस उन्हीं नन्हीं यादों को जीता गया था मैं ..अरिंदम के वहाँ से लौट जाने के बाद भी अक्सर चला जाता था स्कूल कैंपस में.."




  "..हाँ था तो वो भी एक फेमस स्कूल ..हाई प्रोफाइल लोगों के बच्चे ही थे उस स्कूल में"

"..आज भी वैसा ही होगा ..वो तो दत्त साहब को सबलोग वहाँ जानते हैं इसलिये अडमिशन हो पाया था उस वक्त ..लेकीन जो भी हो वो तीन महीने मैं खूब एन्जॉय किया था ..बिल्कुल ही डिफरेंट प्रोजेक्ट था मेरे लिए और वो भी तुम्हारे बगैर"

"खुब घूमें थे बाप बेटा दोनों.. इतनी फोटोज् हैं उस वक्त की.. मैं तो कहीं नजर ही नहीं आती हूँ। आते वक्त तो एक अटैंची पुरा एल्बम से भरा था तुम दोनों का.."

"..हहा ..दत्त साहब भी फैन हो गए थे इसके ..रोज इसे बुलाकर केक खिलाते थे और फिर एक डॉक्टर भी डिपूट किये थे ..बोलते थे बच्चों के हेल्थ से कोई समझौता नहीं अगर माँ पास में ना हो तो ..क्या पर्सनालिटी थी उनकी और एक दार्शनिक भाव में डूबे सिगार गुर गुराते रहते"

"..मुझे तो वो सत्यजीत रे ही लगते ..जब भी उनसे मिली तो डर ही लगता मुझे ..जैसे उनके जेब से हीरे को निकाल भागने आयी हूँ"

"..ऐसे तुम्हें मानते तो बहुत थे बिल्कुल अपनी बेटी की तरह ..काश की तुम वहाँ रह पाती ..उन्हें अच्छा लगता था जैसे उनका अपना बेटा ही हो बोमाँ के साथ ..उनका बेटा तो लंदन ही रह गया और बेटी भी दूर ही थी उस वक्त "

"..अब तो कोई होगा ना साथ में"

"..पता नहीं ..मैं तो अब कुछ सोचता भी नहीं हूँ वहाँ के बारे में ..बस कुछ अच्छी भावनाऐं आज भी हैं साथ में
.
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..और हाँ वो जगह ..जहाँ से अरिंदम टॉय ट्रेन देखा करता था ..मैं रोज उसे वहाँ लिए जाता था ..खूब एन्जॉय करता था ..एक दिन पूछ बैठा "डैडी हमारे पास टॉय ट्रेन क्यों नहीं है घर जाने को?" "ये जीप हैं ना!!" "तो फिर भी इससे स्टीम क्यों नहीं निकलती है" हहाहा.. ढेर सारे सवाल थे उसके पास" "इसलिये उन तीन महीनों में मैने उसे आसपास की बहुत सारे प्वाइंट दिखाऐ.. ये सब जरुरी है क्रियेटिविटी जो बढती है।"


" हाँ याद हैं उसके कोश्चीयन अनसर्स.. सुनों खीर बना रही हूँ आज रात को.. सब्जी में क्या खाओगे।"

"ज्यादा कुछ नहीं.. कद्दु की हल्के मशाले में सब्जी बना लो और साथ में पराठे हो सके तो.. और फिर फिश भी तो होगा ना फ्रिज में"

"..वो अब कल खाना ..खीर के साथ ठीक नहीं रहेगा"

[खाने के बाद शयन कक्ष में]

"..सो गई क्या?"

"..नहीं तो ..बोलो कुछ बात है क्या?"

"..नहीं इधर से मन ठीक नहीं लग रहा ..सोचता हूँ अरिंदम कुछ दिनों के लिए आ जाता तो ठीक रहता ..बहुत दिन हो गए ..गये हुऐ उसके ..वो भी मेरी ही तरह है नेचर लवर ..कहाँ दूर कंक्रिटनुमा शहरों में माथापच्ची करता होगा।"

"..हाँ ऐसा तो तुम सोचते हो ना ..सबके अपने चैलेंजेस हैं लाईफ में ..कमी तो मुझे भी खलती है
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..और सुनों मैं तो बताना ही भूल गई थी ..कल शाम को छोटी मासी आ रही है ..आज फोन आया था"

"..ओह तुमने मुझे बताया नहीं और उनका पैर का दर्द तो ठीक है ना ..नहीं तो आज सान्याल साहब बता रहे थे एक तेल के बारे में ..तुम्हें भी लाकर दुंगा ..बोल रहे थे काफी ईफेक्टिव है।"

[कुछ देर बाद..]

"रोमा.. सो गई क्या?"

"..बोलो"

"..रोमा आज सुबह से ही मैं थोड़ा बेचैन सा हूँ"

"क्यों.. क्या हुआ.. सब ठीक तो है ना!!"

"..हाँ ..ठीक तो है ..लेकिन आज वर्षों बाद मुझे दत्त साहब का ईमेल मिला"

"क्या बोल रहे हो.."

"..हाँ ..मुझे तो समझ में ही नहीं आ रहा ..बस इतना लिखा था कि बीते वर्षों में तुम्हारी कमी काफी खली.. स्वास्थ्य भी बहुत ठीक नहीं रहता है ..हो सके तो एक बार आ जाओ ..इट्स अर्जेन्ट"

"ओ माय गॉड.. फिर तो वो तकलीफ में हैं.. इसलिये इधर से मुझे भी बहुत कुछ वहीं का याद आ रहा था.. और फिर तुम तो अभी भी वहीं के हो.. यही टेलेपैथी है ..तो फिर क्या सोच रहे हो"

"..सोचना क्या है ..तुमसे पूछ रहा हूँ ..क्या करना ठीक रहेगा?"

"..तुम्हारा तो मन ही वहाँ से जुड़ा हुआ है ..नहीं जाओगे तो हमेशा तुम्हें सताऐगा ..और फिर तुम आज जो कुछ भी सपोर्ट ले पा रहे हो वहीं की वजह से ..क्या करोगे अब.."

"..वही अबतक तो नहीं सोच पाया था ..लेकिन कल जब मासी आ रही है तो सोचता हूँ सुबह की ट्रेन पकड़ निकल ही जाऊं"

"..तो फिर ऐसा ही करो ..मैं चार बजे का अलार्म लगा देती हूँ ..ट्रेन तो मिल ही जाऐगी ना सुबह में"

"..हाँँ ..और सुनों थोड़ा निमकी भी पैक कर देना और सत्तु के पराठे भी"

"..हाँ हाँ ..हो जाऐगा ..तुम कल वहाँ जा रहे हो सुनकर मुझे ही शांति मिल रही है और हाँ अपना कैमरा मत भूलना ..अरिंदम ने जो लाकर दिया है और छाता भी ले लेना.. टॉर्च भी.. मेडिसिन्स मैं प्लास्टिक वाले डब्बे में बैग के साईड में रख दुंगी.. अब सो जाओ ..गुड नाईट"

"..हूं गुड नाईट"


[..सुबह के चार बजने को ही हैं और मैं बज उठूंगा ..फिर मिसेज सेन किचेन को जाऐंगी और मिस्टर सेन अपने बैग को कसते नजर आऐंगे ..मैं भी कुछ दिनों के लिए फ्री हो जाऊंगा ..फिर हाल फिलहाल कोई नया अलार्म सेट नहीं किया जाऐगा ..मैं भी टिक टिक करता अपने अंदाज में चलता चला जाऊँगा और ये भी अपने रास्ते ..बिल्कुल आजाद  ..जब तक आमने सामने हैं तब तक एक फिक्र मौजूद रहेगी दोनों के बीच ..और फिर दूर जाते ही एक बेफिक्री की हुनरमंदी भी गले आ लिपटेगी .. बस एक इंतजार ..जो आने को है  ..ट्रिंग ट्रिंग ..ट्रिंग ट्रिंग ..ट्रिंग ट्रिंग 🔔🔔🔔 ]

"उठ गए.. चाय बनाऊँ.."

"..हाँ ..नींबु वाली चाय बनाना"

[कुछ देर बाद..]

"..वो मेरी स्केच बुक और पेंसिल्स कहाँ पे है ..मैने तो यहीं आलमीरे में रखी थी"

"..वहीं पे होगी ..बुक्स के नीचे वाली रैक पे देखो ..फिर इन्हें कहाँ लिए जाओगे ..इतना वक्त मिलेगा तुम्हें"

"..फिर कभी क्या जा पाऊंगा वहाँ!! ..और हाँ मेरा माऊथ अॉर्गन।"

"..वो शो केश में है ..मफलर जैकेट और कैप हैंड बैग में रख दी हूँ ..और जमायन भी एक शीशी में है ..ज्यादा पान वान मत खाना बाहर की ..जरुरत पड़े तो जमायन फाँक लेना।"

"..तीन चार सेट कपड़े ले लिया हूँ ..और कैमरे की बैटरी चार्ज तो है ना"

"..लो हो गई होगी तो अब ट्रेन में चार्ज कर लेना ..चार्जर भी साथ ले ही लो ..मोबाईल का चार्जर मत भूलना ..लंच साईड वाले चेन पॉकेट में है और तुम्हारा बन्नी भी रख दिया है ..हहा"

"बन्नी भी रख दिया.. याद था तुम्हें ..टू गुड ..चाय अच्छी बनी है और सूनो अरिंदम को बता देना मेरे इस विजीट के बारे में ..वो खुश हो जाऐगा।"

"..हाँ बता दूंगी ..बस अपना ख्याल रखना।"

[..और कुछ घंटे बाद मिस्टर सेन अपने सफर में थे ..बीते दिनों की मैनेजरी ठाठ को पुख्ता करने ..थोड़े हताश भी ..इतने दिनों बाद अब तो दस साल होने को आऐ ..और फिर अपने एसी चेयर कार में बैठे चौंक से पड़े]

"..कैश ट्रांसफर हो गया है तुम्हारे एकाउंट में ..वापसी पे भी मेरी ही मोहर लगेगी ..रिजाईन तुम्हारा है मेरा नहीं ..नाऊ लीव पिसफुली वीद योर फैमिली" दत्त साहब के वो अंतिम बोल थे..

[ट्रेन खुले दो ढाई घंटे हो चूके थे और सूबह की टूटी हूई नींद भी पूरी हो चूकी थी.. नौ दस बजे की तेज सनलाईट को देखने जैसे ही उन्होंने पर्दे को हटाया कि..]


[ चाय बगान का हरा भरा नजारा सामने था.. वर्षों बाद उनका पुराना कवर निकल सा रहा था.. सर घुमा घुमाकर उस चलते मंजर को बदस्तूर देखे जा रहे थे.. जैसे कोई पहचानने वाला बाहर खड़ा इशारा कर रहा हो.. फिर जैसे एक हाथ हैंड बैग की ओर बढा और मफलर के साथ प्रिंस कैप निकाल लाया.. अचरज में इधर उधर देख धीरे से अपने मैनेजरी रोल में आते दिखे.. फिर आँखों से अपना पावर ग्लास हटा पूरानी कीमती रे बैन के काले ग्लास वाले फ्रेम को बनती नई तस्वीर में उतार दिया.. और बचते बचाते कैमरा मोड अॉन कर लगे मोबाईल में देखने.. फिर भला कुदरती मार से कौन बच पाऐ इन निकलते सफेद बालों के सैडो फिल्ड में ..ब्लैक एंड व्हाइट के कशमकश में दिली जज्बे छुपाऐ.. छुक छुक..]

"..सेन ..स्टेशन गेट से निकलते ही ठीक सामने रोड के दुसरी तरफ जो चाय की दुकान मिलेगी ना तुम्हें ..तुम सीधा वहाँ आ जाना कहना रॉय टी एस्टेट को जाना है ..अपना ही खास आदमी है वो" रह रहकर दत्त साहब की आवाज मानों कौंध सी जाती।

[ सेन साहब भी पुराने यादों में खोऐ.. कभी अपनी पहली जॉय्निंग को याद करते तो फिर एक अच्छे खासे लंबे अनुभव को आँखें बंद किऐ खोये चले जाते.. फिर अचरज इस बात की भी.. कि इतने दिनों बाद एक बदले माहौल में कौन पहचानेगा उन्हें.. बिल्कुल खामोशी से नए वक्त से सामना करने के लिए थोड़ा खुद को फेश एंड शूट एट्टीट्युड की सेल्फ पोजिशनिंग करते तो.. थोड़ा खुद को साईक्लॉजिकल रिचार्जिंग देते..]


[..ट्रेन अपने स्टेशन को रुकते ही ..मफलर को अपने नाक के थोड़ा उपर सरका के प्रिंस कैप को इंटैक्ट कर आँखों के साथ मिजाज को दुरुस्त किया और गॉगल्स लगा अपने बैग को लिए सेन साहब स्टेशन पे आ उतरे.. और बाहर की ओर निकलने वाले एग्जिट गेट की ओर चल दिऐ..]

"..देखो ये मेरा इलाका है ..इस बात का ध्यान रखना ..तुम्हारे हर कदमों पे अब मेरी ब्रांडिंग है ..ब्रांडिग मेरी रॉयल्टी तुम्हारी ..इसके इजाफे में ही हुनरमंदी है ..फिर मुझे हुनरमंद लोग ही ज्यादा पसंद हैं.."

[दत्त साहब के ऐसे गाईड लाईनें ही सबक थी जो आज भी दिलो दिमाग पे जमी बैठी थी.. हर उस सफर में जो यहाँ से आगे की मंजिल को लिए जाती हैं..
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..स्टेशन से निकल नजरें सीधी सामनें की ओर जा टिकी ..मगर ये तो बिल्कुल ही खाली सी थी ..पहले कितने फास्टफूड, चौमिन व मोमोज की दुकानें हुआ करती थी.. सामने वाली चाय के दुकान के आजु बाजू.. मगर अब तो हरे भरे रंग बिरंगे फूलों के गार्डन सजे पड़े हैं.. सामने वाली वो चहल पहल गुम सी हो गई थी.. अॉटो व टैक्सी वालों की आवाजें.. गाड़ियों के हॉर्न गायब से थे.. ]

" ऐ कूली...!!!"

"..जी साब जी"

"..सुनों ये अॉटो टैक्सीवाले कहाँ मिलेंगे ..पहले तो यहीं मिला करते थे ना"

"..ओ साब जी ..किधर से अया साब ..ये तो पाँच छ: सालों से वो.. मेन रोड के इधर नो इंट्री को हुआ ना ..अब तो टैक्सी सोब उदर ई खड़ा रहता ना ..उदर जाना है साब जी छोड़ दुं"

"..नहीं नहीं ..मेरा लगेज ही कितना है
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..अच्छा ये बताओ वो सामने जो चाय की एक दुकान थी शेरपा की ..वो कहाँ गई और वो जॉनी की सिगरेट शॉप.. कुछ बता सकते हो"

"..कितने दिन बाद आऐ हो साब जी ..मैं तो इधर चार पाँच सालों से हूँ ..शेरपा तो नहीं मालूम साब जी ..हाँ वो सिगरेट शॉप वहीं आगे है ..टैक्सी स्टैंड के पीछे"



[कुछ कदम चलने के बाद.. जॉनी सिगरेट शॉप..]

"..सुनों हैमलेट है!!"

"..क्या समझा नहीं ..क्या चाहिए सर"

"..हैमलेट है ..हैमलेट सिगार"

"नहीं.. वो तो नहीं आती इधर अब.. दुसरी ब्रांड दुं.."

"..ये तो जॉनी की दुकान है ना ..बाहर नाम तो वही लिखा है"

"..हाँ ..नाम तो वही है ..वो इतना फेमस जो था"

"..था!! था.. का क्या मतलब.. तुम जॉनी के कोई रिलेटिव हो क्या??"

"..नहीं ..मैं उसका कोई नहीं ..उसके मरने के बाद मैं ही इस जगह पे दुकान चला रहा हूँ। वो इतना ही फेमस था.. इस जगह पे कि मैने जॉनी सिगरेट शॉप ही नाम रख लिया।"

"..जॉनी कब ..कितने साल हुऐ?"

"..यही कुछ नौ दस तो हो ही गए सर"

"..ओह नो"

"..आप जॉनी को जानते थे सर!!"

"..अ ..हाँ हाँ ..अक्सर आता था ना यहाँ मार्केटिंग के सिलसिले में ..तो कभी कभार उसके साथ ही शामें गुजरा करती थी। वो स्टेशन के सामने थोड़ी बगल हटके.. वहाँ सारी दुकानें हुआ करती थी तब।"

"..फिर तो आप एक अच्छे अर्से से इस जगह को जानते हैं।"

"..हाँ कुछ ऐसा ही समझ लो। और.. वो चाय वाली दुकान.. शेरपा नाम था उसका.. वो कहाँ पे है? कुछ जानते हो?"

"..अरे हाँ ..सर जी। हर एक शाम आता है ना वो इधर.. अब तो वो भी थोड़ा पागल हो गया है सर जी.."

"..क्या??"

"..हाँ सर जी ..शाम को यहीं सामने बैठ माउथ अॉर्गन बजाता है तो लगी भीड़ से कुछ पैसे मिल जाते हैं ..लेकिन बहुत शानदार आदमी था ऐसा यहाँ के पुराने लोग बताते हैं ..टी स्टेट में भी अच्छी पकड़ थी उसकी ..लेकिन पता नहीं क्या हुआ!!"

"..उसके तो तीन चार बेटे थे ना!!"

"..हाँ है ना ..बाकि तीन तो बाहर चले गए ..एक छोटा वाला है जो टी स्टेट की गाड़ी चलाता है।"

"..क्या टी स्टेट!! अच्छा एक काम करो.. मुझे उसके घर का लोकेशन बता सकते हो।"

"..हाँ सर जी ..मैं बताता हूँ ना आप इत्मिनान रहिऐ ..आप बैठना चाहें तो टूल दुं।"

"..नहीं नहीं रहने दो।"

"..चाय वाय मँगवाऊं सर जी!!"

"..हाँ हो सके तो।"

"..हाँ सर जी ..जो चाय लेकर आऐगा ना उसी लड़के को आपके साथ लगा दुंगा ..वो लेता जाऐगा शेरपा के घर पे। अच्छा सिगार कौन सी दुं सर जी.."

" अच्छा गुरखा ही दे दो.. अब कुछ तो यहाँ के जाने पहचाने नाम ही मिल जाऐं.. नहीं तो सारी चीजें एक एक कर गुम होने में लगी है।"

"..लीजिये सर जी ..आपकी चाय भी आ गई। और इधर कितने दिनों का प्रोग्राम है सर जी.."

"..अअअ ..हाँ यही कुछ एक दो दिन का !!
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..अच्छा पैसे कितने हुऐ।"

"..नहीं नहीं रहने दिजीए सर जी.. चाय के पैसे मैं दे दूंगा.. ऐसे भी जॉनी को कुछ तो अच्छा लगेगा।"

"..और सिगार के।"

"..कितने पैकेट दे दूं सर।"

"...अअ ..हाँ दो पैकेट दे दो ..कितने हुऐ।"

"..हाँ ..सर जी दो पैकेट के १९०० हुऐ.. वैसे आप १८०० दे दो।"

[..और वहाँ से निकलते ही पहाड़ों पे बसे घरों व तंग गलियों के बीच के सिढिनुमा शॉर्ट कट रास्ते]

"..पागल हो गया है ..माउथ अॉर्गन बजाता है ..पागल भी क्या माउथ अॉर्गन बजाता है ..फिर तो हिटलर भी पागल ही था जो सभों से माउथ अॉर्गन बजवाता था ..शेरपा पागल या वक्त पागल ..या फिर हिटलर ..फिर यहाँ का हिटलर कौन? ..रॉय साहब हिटलर या कोई नया हिटलर आ गया यहाँ !!
.
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..हाँ ..और कितने दुर है शेरपा का घर.."



"..बस इस गली के नीचे अगली गली में"

"..क्या इस गली के नीचे!!"

"..वो नीचे जाकर बाँयी ओर पुलिया के बगल वाले स्टोन हाउस में।"

"..क्या स्टोन हाउस ..वहाँ तो डैनियल कोबलर रहा करता था ..जूते बनाने वाला ..और फिर ये जगह कुछ जानी पहचानी सी लग रही है ..मैं पहले सीधे पुलिया के रास्ते आया करता था।
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..अच्छा ..ऐसा करो अब तुम जाओ ..और सुनों ये लो बख्शीस।"

"..सलाम साब जी ..वो रहा स्टोन हाऊस"

"..हाँ ..ठीक है अब मैं चला जाऊँगा।"

[..स्टोन हाऊस पहूँते ही ..ठीक उसके सामने से निकल ..सीधे पुलिया की ओर निकल गए ..जैसे बीते वक्त को फिर से अपनी मुट्ठी में भर लेने को बेचैन ..पुलिया के नीचे बहते झरनें की धार को जी भर देख लेने की प्यास ..वो अक्सर यहाँ आया करते थे ..और फिर बैग से अपने कैमरे को भी निकाल लाऐ ..फिर कुछ फुर्सत भरे क्लिक्स के बाद ..पुलिया के बगल वाले सीमेंटेड बेस पे बैठ गए ..वापस अपने कैमरे को बैग में रखा और फिर बैग में बने चेन वाले पॉकेटों में कुछ खोजनें से लगे ..तब तक एक सिगार जो सुलग चुकी थी ..होठों में दाबे अब तो उनकी बेशकीमती हार्मोनिका माउथ अॉर्गन भी जो मिल चुकी थी। जैसे बरसों के अलगाव को सुलगते सिगार के धुँओं ने कुछ कम करना चालु किया हो..
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..और फिर एक जोर की अंतिम कश के साथ ..मीठे हो चुके होंठो से एक मीठी क्रोंच हार्मोनिका धुन भी निकलती चली जा रही थी.. ये जगह थी ही इतनी सुंदर और ढलते शाम का कवर।]


[..अब तो सेन साहब की क्रोंच हार्मोनिका धुन के साथ एक और धुन संगत में थी।]

"..शेरपा तुम आ ही गए ना ..मैं जानता था दुनियाँ जिसे आज पागल समझती है.. वो कितनों को पागल बना बैठा होगा.. आखिर ये सब कैसे हुआ!!"

"..आप क्या गए कमांडर ..सेहत ही चली गई इधर की ..और फिर आप एक ना एक दिन आऐंगे ..ये तो सिर्फ मैं ही जानता था ..उम्र अपनी गिनतियों से आगे बढती है और सेहत अपनी रफ्तार से ..चलीऐ घर चलीऐ ..अब मैं यहीं रहता हूँ ..वही अपना ठिकाना ..याद है ये जगह!!"

[दोनों खुद में खोऐ सामने पुलिया के नीचे गुजरती धार को देख बातें किऐ जा रहे थे.. जैसे इतने दिनों बाद भी बताने को कुछ ज्यादा बचा ना था.. अपने अंदाजों में खोऐ.. वक्त की कारगुजारियों को रेशमी नक्काशियों में उतरते देखे जा रहे थे..
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..शेरपा ने सेन साहब का बैग थामा और सामने स्टोन हाऊस था ..स्वीट स्टोन हाऊस..]

"..डैनियल कोबलर का स्टोन हाउस ..क्या बात है ..ताज्जुब होता है कि तुम यहीं रहते हो ..वो तो तुम्हें पसंद नहीं करता था।"

"..हहा ..याद है कमांडर वो मुझे कितनी इंग्लिशिया गाली दिया करता था ..आज भी उसके ही बनाऐ जूते हैं साथ में ..जाते जाते हमारे इस गुनाहखाने की चाबियाँ मुझे ही देकर चला गया।"

"..चला गया ..उसका एक बेटा तो न्यूयॉर्क में रहता था ना"

"..हाँ ..वहीं चला गया बेटे के पास ..फिर काम वहाँ भी तो यही है ..अंग्रेजों के साथ उसका बाप यहाँ आया था ..अब वो बेटे के साथ अमेरिकन बन गया ..दो तीन सालों तक तो फोन चिट्ठियाँ भी आती रही ..अब तो वो भी गुम हैं।"

"..खैर तसल्ली तो इस बात की भी होगी उसे कि तुम यहाँ हो ..फिर यादों के आशियाने में तुम जैसा वफादार भी उसे कहाँ मिला होगा ..हर बार खाली बोतल के बाद तुम्हें ही दौड़ाता था विंडसर पैलेस ..और फिर वो तुम ही थे जो भागते जाते और .."

"..देखो है ना बिल्कुल वैसा का वैसा ही ..बहुत संभाले रखा हूँ उसकी अमानत ..हाँ बीते कुछ वर्षों में उसकी बनायी कुछ जूतियाँ बेच खाया हूँ ..नहीं तो पड़े पड़े यहीं मिट्टी बन जाती ये सब"

"..वाऊ ..उसकी मशीनें आज भी चमक रही हैं उसकी मूँछों की तरह"


"..हाँ कमांडर ..चमक तो जाऐंगी स्टेला नैंसी की आँखें भी ..ये जानकर की अब तुम दुबारा यहाँ इन वादियों में आ चूके हो"

"..हाँ हाँ ..पुलिया पे आते ही उसकी याद सबसे पहले आयी थी ..और फिर वो है कहाँ आजकल"

"..वहीं उसी स्कूल में ..अब तो वार्डन बन चूकी है ..पूरा दिन बच्चों के साथ स्कूल में ही बीतता है उसका ..हॉस्टल के बच्चों में रमी रहती है ..और फिर उसने शादी भी कहाँ की"

"..क्यों वो जो लड़का था उसका ब्वॉय फ्रेंड ..रोजाना चर्च जाते थे दोनों ..वो कहाँ गया? ..क्या नाम था उसका?"

"..जॉनी माईकल"

"..हाँ हाँ ..जॉनी माईकल ..वो कहाँ गया।"

"..भाग गया ..स्टेला यहाँ से जाना नहीं चाहती थी और उसे बड़े शहर पसंद थे ..सुनने में आया वो श्रीलंका चला गया ..वहीं किसी होटल में वायलिन बजाता है।"

"..ओह ..फिर तो ये काफी बुरा हुआ।"

"खैर छोड़ो.. सुबह कितने बजे निकलना है स्टेट हाउस.."

"..यही कोई पाँच छ: बजे ..एकदम सुबह सुबह ..बगान के नजारे देखे कितने दिन हो गए अब तो ..तुम चलोगे ना साथ में ..और फिर गाड़ी किसकी है।"

"..गाड़ी भी अपनी है और मालिक भी अपना है ..छोटा बेटा कॉसमॉस ही साथ जाऐगा तुम्हारे ..टी स्टेट की गाड़ी अभी वही चला रहा है।"

"..क्या बोल रहे हो ..मतलब राय साहब की गाड़ी"

"..हाँ ..हाँ वही ..जीप मॉडल राय साहब वाली ..पर अब उसकी देखरेख उनकी बेटी करती है।"

"..कौन अनुराधा ..वो क्या अभी यहीं है ..सब ठीक तो है ना।"

"..हाँ ठीक ही समझो ..चलो अब थोड़ा फ्रेश हो जाओ ..खाना मँगवाता हूँ ..फिर और कुछ चलेगा क्या!!"

"..नहीं नहीं रहने दो ..अब इस उम्र में वो सब कहाँ ..पेशेंट बन चुका हूँ ..बहुत हुआ तो कभी कभार दो चार कश ले लिया करता हूँ ..इतना काफी है दिलंदाजी के लिए ..बाय दी वे हो सके तो कल सुबह तुम भी साथ चल सको तो अच्छा रहेगा।"

"..बेटे के सामने क्या पोल खुलवाओगे मेरी !!"

"..नहीं नहीं तुम खामोश ही रहना ..बक बक सिर्फ मैं करुंगा।"

"..ओके ..डन"

"..लेकिन शेरपा माय डियर ..सुबह वहाँ चलने के पहले एक कड़क चाय जो तुम्हारे हाथ की होगी ..हमेशा की तरह"

"..योर वेलकम कमांडर ..कोशिश तो करूंगा फिर ये सब तो पत्तियों का ही कमाल है"


[..और अगले दिन रॉय टी स्टेट को जाता सुबह सुबह का एक सुहाना सफर ..सेन साहब, शेरपा और शेरपा का ड्राइवर बेटा कॉसमॉस]

"..शेरपा बस यही नहीं बदला है यहाँ ..इसी खूबसूरत नजारे को देखने की इंतजार में तो था इतने दिनों से।"

"..येस कमांडर"

[..स्टेट हाउस को जाते मंजर में ..सेन साहब अपने जूमिंग कैमरे से सुबह के शॉट्स लेते चले जा रहे थे ..और फिर टी स्टेट मेन गेट क्रॉस करते ही.. बाँयी ओर जाती एक शार्प टर्न]

"..मतलब हम गेस्ट हाऊस की ओर हैं ..है ना शेरपा।"

"..येस यू आर राईट कमांडर।"

"..फिर ये रोड कब बनी ..पहले तो पथरीली सी थी।"

"..ये सब कुछ अनुराधा बेबी का कमाल है ..और फिर आगे भी काफी कुछ दिखने को है कमांडर। रॉय साहब को अब कोई फिक्र नहीं ..सबकुछ बेबी रानी के हाथों ही है अब तो।"

"..रॉय साहब ठीक तो हैं ना!!"

"..इसलिये तो तुम्हें बुलाया है ..तबीयत तो अब वैसी नहीं रहती फिर भी ..तुम्हें याद किया है तो कुछ बात तो होगी ही और फिर उन्हें आज की तारीख में आपके जैसा हुनरमंद भी आखिर कहाँ मिलेगा।"

[..गाड़ी स्टेट हाऊस के मेन गेट को आ लगती है और मेन गेट से सटे कमरे से एक चौकीदार निकल आता है।]

"..जी मैडम ने कहा है ..आनेवाले साब का सामान गाड़ी से यहीं उतार देने ..और गाड़ी भी यहाँ से रिटर्न हो जाऐगी।"

[गाड़ी के पास आकर उस चौकीदार ने शेरपा से कहा।]

"..लो भाई कमांडर अब यहाँ से तुम्हारे फिक्रमंदी की बागडोर मेरे हाथों से निकल पड़ी। अनुराधा बेबी का आर्डर है। अब संभालों अपना मिशन.. एक नंबर नोट कर लो.. कुछ काम पड़े तो डायल कर लेना।"

"..हाँ डियर!!"

[सेन साहब ने अपने कोर्ट के भीतर वाले पॉकेट से एक नोट बुकलेट निकाली और शेरपा के दिऐ फोन नंबर को नोट कर अपने बैग व सामानों के साथ उस मेनगेट पे उतर गए।]

"..अच्छा शेरपा थैंक्स ..फिर मिलते हैं ..अपना ख्याल रखना। थैंक्स कॉसमॉस.. टेक केयर योर फादर।"



[..और गाड़ी स्टेट हाऊस के उस मेनगेट से वापस चली गई। गाड़ी के दूर जाते ही सेन साहब ने लंबी साँस ली, मानों एक पुरानी जिन्दगी में फिर से वापसी हो रही हो। पास रखी बोतल से पानी पीने के बाद एक सिगार को मुँह से लगा लिया.. और सिगार के निकलते धुँऐं में पास पहाड़ों में छाऐ बादलों को देखने लगे और एक छोर पे जाके रुक से गए.. की तभी ]

"..साहब जी गेस्ट हाऊस की ओर चलें" चौकीदार ने कहा।

"..हाँ हाँ चलो ..अच्छा सुनों वो ऊपर.. वो तो स्टोन हाऊस ही है ना" सेन साहब ने चौकीदार से पूछा।

"..जी साहब जी ..मगर आपको कैसे मालूम ..अब तो कोई जाता भी नहीं उधर ..वर्षों से बंद पड़ा है.." चौकीदार ने कहा।

"..ओह!!"

"लगता है साहब जी.. आप पहले इधर आऐ हों जैसे.."

"..हाँ हाँ कुछ ऐसा ही समझ लो। तुम कब से हो यहाँ ड्यूटी पर।"

"बस यही साहब जी दो साल हुए.. बगल गाँव का ही हूँ.. पहले बंग्लौर फिर कुछ साल ऊँटी में रहा एक होटल में.. अब वापस घर आ गया तो यहाँ नौकरी मिल गई।"



"अच्छा फिर तुम्हें तो पता होगा राय साहब के बारे में.. सबकुछ तो ठीक है ना.."

"..नहीं साहेब ..हम तो चौकीदार ठहरे तीन चार महीने पहले उनकी तबीयत खराब हुई थी। कलकत्ता से दो तीन डॉक्टर भी यहाँ आऐ थे.. फिर एक दो हफ्ते रहे और फिर वापस चले गए।  अब कुछ समझ में नहीं आता.. वो यहाँ हैं कि कलकत्ता गए। ऊपर जाना की सख्त मनाही है। फिर मैडम साहिबा भी तो यहीं हैं.. कोई कहता बड़े मालिक ऊपर वाले कोठी में हैं तो कोई कहता डॉक्टर सब के साथ कलकत्ता चले गए। वहाँ किसी बड़े से अस्पताल में इलाज चल रहा है.. बाँकि हम ठहरे गुलाम हुजूर तो सब की सुन लेते हैं.. और क्या कहें.."

[बातों बातों में सेन साहब गेस्ट हाऊस वाले अपने कमरे में पहुंच गए।]



"..अच्छा साहब अब मैं चलता हूँ यहाँ का रसोईया आता ही होगा। तब तक आप आराम कर लीजीऐ।"

[सेन साहब तो जैसे अनमने ढंग से पलंग पे रसोईऐ का इंतज़ार कर रहे थे.. कि फौरन कोई उन्हें अपने साथ राय साहब से मिलवाने को लेता जाय.. की तभी..]

"..आ गए साहब ..चाय लेता आऊँ ..और नाश्ते में जो आप कहें।"

"..तो तुम यहाँ के रसोईऐ हो ..पहले तो यहाँ कोई दुसरा था।"

"..जी मैं तो बस एक दो महीनें पहले ही आया हूँ।"

"..अच्छा सुनों राय साहब अभी कहाँ मिलेंगे। तुम्हें कुछ पता है।"

"..साहब जी आप चाय नाश्ता कर लें ..फिर आपको लिए चलुंगा ..नाश्ते में टोस्ट आमलेट लेता आऊँ।"

"..हाँ हाँ ठीक है ..लेकीन थोड़ा जल्दी करना।"

[रसोईये के जाते ही.. सेन साहब ने फिर से अपनी सिगार निकाल ली.. एक अजीब सी बेचैनी उनके चेहरे पे साफ देखी जा सकती थी।

..और फिर नाश्ता करने के बाद वे रसोईऐ के साथ निकल पड़े। चाय पीते वक्त टी-पॉट की भींगी पत्तियां अपने हुनरमंद को वर्षों बाद देख रही थी]



"..सुनो ये वो रास्ता तो नहीं जो राय साहब के बंगले को जाता है ..ये तो स्टोन हाऊस वाला पीछे का रास्ता है ..फिर तुम मुझे इस रास्ते पे क्यों लिए जा रहे हो?"

"..जी साहेब ये मैडम जी का अॉर्डर है ..उन्होंने आपको इसी रास्ते से लाने को कहा है।"

"..कौन अनुराधा !!"

"..जी हाँ साहब अनुराधा मैडम।"

"..लेकिन मुझे जहाँ तक मालूम होता है ..ये रास्ता स्टोन हाउस के पीछे फादर्स सिमेट्री को जाता है।"

"..आपको तो सबकुछ पता है साहब।"

"..बताया ना तुम्हें जब मैं था यहाँ ..उस वक्त तुम यहाँ नहीं थे।"

"..हाँ साहब ये वही अंग्रजों की कब्रिस्तान वाला रास्ता है ..मैं भी इधर पहली बार ही आ रहा हूँ ..मैडम ने ऐसा ही कहा था।"

"..तो क्या हम कब्रिस्तान जा रहे हैं!!"

"..अब साहब मुझे तो ऐसा ही कहा गया है।"

[सिमेट्री के नजदीक आकर..]

"..ये वहाँ साईकिल कौन बच्चा चला रहा है?"

"..ये तो रेयान साहब हैं ..मैडम जी का बेटा।"

"..ओह!!"

"..अच्छा साहब ..अब मैं चलता हूँ ..लगता है मैडम जी यहाँ आ गई हैं ..वो अंदर ही आपका इंतज़ार कर रही होंगी।"

[सिमेट्री के बगल से होकर चलते कदमों में सेन साहब जैसे ठहर से गए हों.. मानों उन्होंने कुछ देख सा लिया हो और मन की एक आशंका बिल्कुल ही दिख पड़ती की.. अनुराधा मैडम खामोश सी सामने खड़ी थी। वर्षों बाद ये सबकुछ देख.. अपने माथे के प्रिंस कैप को सर से उतार हाथों में रख लिया। अनुराधा अपनी खामोशी को छिपाऐ कुछ बोल पाती की.. सेन साहब बोल पड़े..]

"..ऐसा कब हुआ!!"

[..और बड़े ही गमगीन से सिमेट्री कॉर्नर में ठीक बीच वाले क्रॉस को रोते मन से देखने लगे ..उनके साथ अनुराधा मैडम भी नम आँखों को लिए एक टक उस बीच वाले क्रॉस को देखती ही जा रही थी।]

"..पता नहीं क्यों मुझे इस बात का अंदेशा पहले से ही था। जब मैं इस रास्ते होकर आ रहा था.. लेकिन इतना भी नहीं की रॉय साहब को अब कभी ना देख पाऊँ.." सेन साहब ने थोड़ा बिफरते हुये कहा।

"हाँ.. यही कुछ दो हफ्ते पहले ही तो.. बाबा की यही इच्छा थी।" नम आँखों व रुकी हुई आवाज के साथ अनुराधा मैडम ने कहा।

"..और फिर जैसे यहाँ ये सब किसी को मालूम भी नहीं! किसी ने कुछ बताया भी नहीं.. यहाँ तक की शेरपा ने भी कुछ नहीं बताया मुझे.." सेन साहब ने झल्लाते हुए कहा।

"हाँ मैनें ही मना किया था उन्हें.. और ये बात तो केवल मुझे.. शेरपा अंकल और उनके बेटे कॉसमॉस को ही पता है.." अनुराधा ने थोड़े शांत स्वर में कहा।

"..तभी दोनों आते वक्त बड़े खामोश से थे और पुरे रास्ते मैं ही बक बक किऐ जा रहा था। क्या सोचकर आया था.. इतने दिनों बाद ही सही रॉय साहब को देख तो पाऊंगा और फिर वो ईमेल जो मुझे मिला था..!" सेन साहब ने चौंक कर कहा..

"हाँ ये मैने ही भेजा था.. अंत अंत तक वो यही रट लगाते रहे.. सेन को बुलाओ.. सेन को बुलाओ.." अनुराधा ने जवाब दिया।

"समझ सकता हूँ.. रॉय लेकर जीऐ और मरे भी रॉय के साथ ही..। देखो.. क्या शानदार तरीके से जैसे गोद में जा बैठे हों दोनों के। हमेशा कहा करते थे.. सेन मुझे यहीं दफनाना.. दोनों के बीच। वो पास रखी तीसरी ताबुत मेरी होगी.. और तब से उस ताबुत को वहीं पास में छोड़े रखा था काई जमने.. देखते ही समझ गया आते ही.. ओह!!" सेन साहब एक लंबी साँस छोड़ते हुए।

"..तो ये सब बाबा ने आपको पहले से ही बता रखा था ..शेरपा अंकल को भी पता था ये सब।" अनुराधा ने कहा..

"..हाँ फिर मेरे बाद तो ये सब शेरपा से ही कहा होगा उन्होंने ..और उस वक्त होगा भी कौन साथ उनके। फिर आपका भी कलकत्ता आना जाना अक्सर लगा ही रहता था उन दिनों।" सेन साहब ने कहा..

"..हाँ फिर मैं करती भी क्या!! डैडी की जैसी मर्जी रही मैने वैसा ही करते रही.. अपनी खुशी को कहाँ जी पायी.. खैर छोड़िऐ अब ऊपर चलें.." जैसे बातों को टालते अनुराधा मैडम ने कहा।

"..हाँ हाँ चलता हूँ आप ऊपर चलें ..मैं कुछ देर यहाँ रुककर आता हूँ।" सेन साहब ने अनुराधा मैडम को कहा..

[..अपने धीमे कदमों से जहाँ अनुराधा ऊपर अपने मैंशन की ओर बेटे रेयान की नन्हीं अंगुलियों को पकड़े पत्थरों की सीढियों पे चढने लगी ..तो अपने नम आँखों से सेन साहब भी रॉय साहब की ओर बढने लगे। फिर कुछ देर वहाँ शांत रहने के बाद बगल जंगलों के फूल व पत्तों से एक बुके बनाई और रॉय साहब के सिमेट्री के ऊपर चढा आऐ.. और फिर कुछ देर वहीं एक शांत मन से बैठ गए।]

"मुझे इन दोनों की गोद में ही सुला देना.. सेन..!!" एकाएक रॉय साहब कि कही वो बातें जैसे कौंध सी गई हों सेन साहब के जेहन में..

[ हाँ, मिस्टर एंड मिसेज रॉय के नाम से जाने जाते थे दोनों। मिस्टर एडमंड रॉय और मिसेज जेसिका रॉय। अंग्रेज़ी शासन काल में ब्रिटेन के यॉर्कशायर से यहाँ आ बसे थे और फिर रॉय टी-स्टेट के बिजनेस को यहीं से आगे बढाया था। मेरे रॉय साहब का असली नाम तो देव दत्त ही था.. आगे चलकर ये "रॉय" टाईटल जो मिला तो सबलोग इन्हें "देवदत्त रॉय" के नाम से जानने लगे। मैं भी तो इन्हें दत्त साहब ही कहता था.. ये संबोधन मुझे कुछ अपना सा जा जो लगता। रॉय थोड़ा क्रिश्चियन सा लगता.. लेकिन ये "रॉय" सरनेम दत्त साहब को बड़ा ही जज्बाती सा लगता.. और पसंद भी आता। बीते जमाने एडमंड व जेसिका रॉय ने इन्हें गोद लिया था। दत्त साहब के पिता विभूति दत्त यहाँ इसी चाय बगान के एक नेकदिल स्टेट मैनेजर हुआ करते थे। एडमंड व जेसिका को अपनी कोई संतान न थी.. तो दोनों ने अपने स्टेट मैनेजर विभूति दत्त के बेटे देव साहब की परवरिश पूरी तरह से अपनी संतान समझ ही की थी। बड़े होकर दत्त साहब भी एक डेडीकेटेड बेटे समान ही सबका बखूबी साथ भी निभाया। मिस्टर एंड मिसेज रॉय इसी सिमेट्री में बस गए.. और फिर रॉय साहब भी जब कभी मुझे लेकर यहाँ आया करते तो बस यही कहते.. "सेन मुझे भी इन दोनों की गोद में ही सुला देना!!" ..और फिर मैं बिफर पड़ता। एक क्रिश्चियन की तरह गोद में लिए गए और फिर एक क्रिश्चियन की ही तरह हमेशा के लिए लिपट भी गए।
..
....
एक एक कर वो सारी बातें कौंधी जा रही थी.. और फिर एक सुस्त कदमों के साथ सेन साहब भी सिगार के धुंओं में ऊपर मेंशन के रास्ते बढते चले गए।]

"..सेन क्यों इस लैंप पोस्ट पे अपना दिमाग खराब करते हो ..देख लेना एक दिन ये भी तुम्हारी ही तरह जंग खाऐगी और फिर तुम भी कुछ नहीं कर पाओगे!!" रॉय साहब के वे शब्द फिर एक बार गूंज गया सेन साहब के कानों में..

[मेंशन के पीछे की ओर वाले पोर्टिको से लगा.. एक पुराना लैंप पोस्ट.. जिसे सेन साहब पूरी तरह दुरुस्त रखा करते थे.. आज सच में जंग खाऐ जा रहा था। फिर अंदर वाले हॉल को आते ही..]

"..बहुत देर लगा दी आपने ..बाबा से क्या बातें कर रहे थे?" अनुराधा ने कहा।

"..हुं ना ना ..कुछ भी तो नहीं ..ऐसे ही वो लैंप पोस्ट देख रहा था ..कोई केयर टेकर नहीं रहता यहाँ क्या!!" सेन साहब थोड़ा हैरान होकर पूछ पड़े।

"..कौन रहेगा यहाँ अब और फिर यहाँ पे उस अपनेपन की बात ही कहाँ रही। मैं तो माँ के साथ कलकत्ते ही रही और फिर बाबा के साथ एक थापा था। माँ के बाद.. मैं जब यहाँ आयी तो वो भी चला गया।" एक नितांत भाव लिए अनुराधा ने कहा..

"बोमाँ कौन से साल नहीं रहीं थी??" सेन साहब थोड़े अचरज में पूछ बैठे..

"..यहाँ से आपके जाने के करीब तीन-चार साल बाद ही ..उस वक्त मैं माँ के साथ कलकत्ते वाले घर पे थे। बाबा का वहाँ आना जाना लगा रहता था। माँ को यहाँ मन नहीं लगता और बाबा वहाँ जाना नहीं चाहते। फिर आपसे क्या छिपा है!!
..
...
...अच्छा कॉफी तो लेंगे ना आप!!" अनुराधा ने जैसे बात पलटते कहा..

"कॉफी!!" सेन साहब भी जैसे चौंक से गए..

"..क्यों आप तो अक्सर यहाँ कॉफी ही पीने आते थे ना.." अनुराधा ने थोड़ा जोर देते हुए कहा।

"..हाँ हाँ ..मगर तुम्हें आज भी याद है!!" सेन साहब ने थोड़े गर्मजोशी में जवाब दिया।

"..हाँ ..सबकुछ याद है .,फिर भुलुं भी तो कैसे!!" अनुराधा ने कहा..

"..और फिर रेयान!!" सेन साहब एक लंबी साँस लेकर बोले..

"रेयान को मैनें एडप्ट किया है!! अब तो आठ साल हो गए.. माँ तब मेरे साथ ही थी।
..
...वो याद है ना बाबा के फ्रेंड फादर जिम ..तब वो कलकत्ता मिशनरी में ही थे ..और फिर एक दिन गोद में रेयान को लिए घर पे आऐ थे। मुझे बहुत प्यारा लगा था.. और फिर मुझे जरुरत भी थी। माँ भी काफी खुश थी रेयान को देखकर ..बहुत खेला करती थी रेयान के साथ.. " अनुराधा ने जैसे चहकते हुए जवाब दिया।

"..तो क्या बाहर के लोग अब भी यही समझ रहे हैं जैसा मैं समझता यहाँ आया था कि रॉय साहब की आज भी तबीयत खराब है।" सेन साहब ने जैसे मौजूदा हालातों के बारे में बात करनी शुरू की..

"..हाँ ऐसा ही है ..बाबा भी यही चाहते थे और फिर जब तक आप ना आते तब तक तो ऐसा ही करना था। मैं फिर अकेले ये सब कैसे टैकल कर पाती। बाबा के अंतिम समय पे बस शेरपा अंकल और उनका बेटा ही था। कलकत्ता से एक डॉक्टर आऐ थे वो भी गए.. कुछ लोगों को ये पता है कि उनका इलाज कलकत्ते के हॉस्पिटल में चल रहा है। लेकिन फिर शेरपा अंकल अगले दिन सुबह सुबह चर्च वाले दो फादर को लेकर आऐ। सबकुछ फिर उनकी देखरेख में ही हो गया। बाबा जैसा कह कर गए वैसा ही।
..
...
आपको खूब याद करते!!" आँखों में आँसुओं को लिए अनुराधा ने जैसे एक झटके में सबकुछ कह दिया..

"..उन्होंने वो सबकुछ बखूबी किया अपने लाईफटाईम में ..अब तुम्हें भी आगे बढ चलना है ..मैं जानता हूँ तुम्हें ..तुम स्ट्रिक हो पर अब इतनी भी नहीं की एक सादगी में खुद को जीऐ जाओ। मेरा यहाँ कितना अधिकार है ये तो पता नहीं.. लेकिन ऐसा भी क्या कि अब..
..
...
.....माथे की तुम्हारी बिंदी कहाँ है? कब तक जिओगी इस हाल में ..कौन कब तक रहा है और रहेगा हर दम तुम्हारे ..कहीं ना कहीं कुछ अच्छा तो मुझे भी नहीं लगता ..लेकिन फिर भी रेयान के लिए ही सही!!
..
...
.....आगे भी अब सब ठीक हो जाऐगा ..जितनी जल्दी तुम बदल सको तो। आते वक्त ये सुनकर अच्छा लगा कि तुम यहाँ आ गयी हो और स्टेट को थाम लिया है। बस मजबूत बने रहो। मैं जबतक हूँ कुछ बताकर ही जाऊँगा।" सेन साहब ने जैसे अपनी अंदर की भड़ास निकालते अनुराधा को दिलासा दिलाते सबकुछ कह डाला..

"..जबतक हूँ का क्या मतलब। आप क्या फिर से लौट जाऐंगे!!" अनुराधा ने जैसे थोड़ा संभलते हुए कहा..

"..मैं गया ही कब था!!" इतना कहकर सेन साहब उठ खड़े हुए..

"..रुकिऐ तो खाना खाकर जाईऐ और फिर यहाँ से गेस्ट हाऊस तो जाना है आपको ..कितने दिन बाद थोड़े इकट्ठे खाना खाऐंगे ..डाईनिंग टेबल पे ..बाबा के बाद तो जैसे हिम्मत ही नहीं हुई।" अनुराधा ने सेन साहब थोड़ा रोकते हुए कहा..

"..हाँ यही कुछ तो रेस्पेक्ट है ..तुम्हें जितना देना इस जगह को तुमने बखूबी दिया अब तो थोड़ा खुद को भी वही रेस्पेक्ट दो। बाबा को मिस्टर एंड मिसेज रॉय दुबारा नहीं मिले और अब दत्त साहब भी हम सभों को फिर दुबारा नहीं मिलेंगे.. मगर अब रेयान को क्या देना है ये तो तुम्हें सोचना है।" सेन साहब ने थोड़ा समझाते हुए कहा..

"..हाँ मगर आप तो इतने सख्त ना थे।" अनुराधा ने कुछ कुरेदते हुए कहा..

[डाईनिंग टेबल पे..]

"..सख्त बनना पड़ता है ..हालातों से जूझने ..सभों को सख्त बनना पड़ता ही है। चाय बगानों की इन जड़ों को देखो.. सख्त ही तो हैं धंसे पड़े हैं पहाड़ों की इन कड़ी काली मिट्टियों में.. हमें तो बस पत्तियों की हरेपन की तरह ही बने रहना है।" सेन साहब ने एक फिलौस्फर की तरह कहा..


"..और रेयान चाय बगान का फूल ..फिर तो ऐसा ही है ना सबकुछ।" अनुराधा ने एक पॉजिटिव सा जवाब दिया..

"..हाँ बिल्कुल ऐसा ही ..देखो दत्त साहब यहीं तो हैं ..चारों ओर टकटकी लगाऐ देखे जा रहे हैं ..बस इसी तरह हँसा करो।
..
...ठीक है चलता हूँ ..हो सके तो कल अगली सुबह हम टी-स्टेट को जाऐंगे।" सेन साहब ने भी जैसे मुस्कुराते हुए कहा..

"ठीक है लेकिन शाम की एक कॉफी फिर से यहीं पे होगी.." अनुराधा ने टोकते हुए कहा।

"ओके!! कॉफी क्यों चाय क्यों नहीं तुम्हारे हाथ की.. पता तो चले इन पत्तियों का टेस्ट अब कितना बदला है.." और फिर सर हिलाकर सेन साहब गेस्ट हाऊस की ओर चले गए।

[सेन साहब मेंशन से निकलते वक्त कुछ इधर उधर देखते रॉय साहब को याद किऐ जा रहे थे.. जैसे रॉय साहब की कही वो आखिरी बात "..वापसी पे भी मेरी ही मोहर लगेगी ..रिजाईन तुम्हारा है मेरा नहीं!!" आज भी सेन साहब की कानों में गूंज रहा था.. और फिर गेस्ट हाऊस पहुंचते ही..]


..continued 

Tuesday, 9 October 2018

पहली रोटी गाय की..

  ...अहा ..पहली रोटी गाय की ..इसी समृद्ध भाव में तो बचपन बीता था मेरा ..अपने ज्ञान से ही घर पे गायों की आभा को देखता आया हूँ ..कैसे दादी माँ सुबह उठते ही गायों की रहने वाली जगह गोहाल को चली जाती औऱ उन्हें छूकर ..अपने पास होने का अहसास कराती। उत्साहित गायों व बछङों से भी रहा नहीं जाता.. डकार मार पुंछ उठाए उठ खङे होते.. और फिर दादी उषा-काल की पहली गायों की होती मूत्र-विसर्जन को अपनी हथेली पे लेकर अपने आँखों में छिंटा लेती.. कहती इससे आँखों की ज्योति तेज जो होती है। ..फिर तो दिन से लेकर रात तक उनकी फिक्र सारणियों में गायों की देखभाल का एक विशेष स्थान रहता.. और घर में बने खानों का पहला भाग गायों के लिए पहले ही निकाल कर अलग रख दिया जाता.. औऱ तो और.. गायों के नए बाछी-बछङों के जन्म के बाद तो जी-जान से उनकी सेवा-सुश्रूषा में लगी रहती.. कहती "गाय आरो माय त एक्के होय छै.."। ..सच में ये मेरे जीवन के ऐसे समृद्ध भाव हैं जो शायद ही कभी भुलाए जा सकें..

~ विप्र प्रयाग

Monday, 8 October 2018

प्रेमचंद साहित्य की फिल्में व उद्देश्य...


   ''जिस साहित्य से हमारी सुरुचि न जागे, आध्यात्मिक और मानसिक तृप्ति न मिले, हम में शक्ति और गति न पैदा हो, हमारा सौंदर्य-प्रेम न जाग्रत हो - जो हम मेें सच्चा संकल्प व कठिनाइयों पर विजय पाने की सच्ची दृढ़ता न उत्पन्न करवा सके, वह हमारे लिए बेकार है, वह साहित्य कहलाने का अधिकारी नहीं।
                   - साहित्य का उद्देश्य : प्रेमचंद,

   साहित्य सम्राट मुंशी प्रेमचंद ने अपनी कहानियों के माध्यम से ही समाज सेवा का कार्य बखूबी ढंग से किया। अपने धप्पन वर्षों के जीवन में उन्होंने उपन्यास व कहानी लेखन के साथ कई समाचारपत्रों के संपादन का कार्य भी बड़ी कुशलता से किया। तात्कालिन "आलम आरा" फिल्म की भारी सफलता के बाद बोलती सिनेमा ने तो जैसे रुपहले पर्दे पे एक सिल्वर क्रांति का संचार ही कर दिया था। अब पौराणिक लीक से हट नई कहानियों व नए कथाकारों को मुम्बईयाँ फिल्मी सर्किट में जगह मिलने लगी थी। मुंबईया महफिलों में नए साहित्यकारों व कथाकारों के बढते प्रभावों के बावजूद भी मुंशी प्रेमचंद अपनी कहानी व उपन्यास लेखन के साथ जमीनी  उत्कट मिमांशाओं से कभी मुक्त होना नहीं चाहते थे। अंततोगत्वा वो दिन भी आया जब १जून १९३४ को भारत के महान कथाशिल्प मुंशी प्रेमचंद के कदम फिल्मी जगत में आ ही पड़े और उस समय मुंबई फिल्म नगरी के बड़े बैनर "अजंता सिनेस्टोन" को ८ हजार रुपया प्रतिवर्ष के अॉफर के साथ जॉय्न भी किया।

वह अंग्रेजों की गुलामी का दौर था। महात्मा गाँधी की धमक से देश भर में अंग्रेजी शासन व नीतियों के विरुद्ध नए नए आंदोलन तेज हो चले थे। इन्हीं आंदोलनों में एक वो दौर "स्वदेशी आंदोलन" का था। एक तरफ जहाँ देशभर में विदेशी कपड़ों का वहिष्कार हो रहा था तो दुसरी ओर देशी मिल मालिक अपनें मजदूरों को सही मुआवजा देने में कंजूसी बरते जा रहे थे। इस कारण देश भर के कितने ही मजदूर युनियन हड़ताल पे चले गए थे। मजदूरों में बढते इसी असंतोष की पृष्ठभूमि को लेकर मुंशी प्रेमचंद ने "मजदूर" नाम के फिल्म की कहानी लिखी।

 फिल्म बनकर तैयार तो हुई लेकिन उसी साल स्थापित हुई सेंसर बोर्ड ने इस फिल्म की संवेदनशीलता को देख इसे रद्द कर दिया। पुन: इसी मजदूरों की समस्याओं वाली पृष्ठभूमि लिए प्रेमचंद के उसी कहानी पे निर्माता मोहन भावनानी ने "मील मजदूर" नाम की फिल्म बनाई; जो बॉक्स अॉफिस पे सुपरहिट साबित हुई। खुद मुंशी प्रेमचंद ने इस फिल्म में मजदूर यूनियन के अध्यक्ष का किरदार निभाया था।

"मील मजदूर" से मिली सफलता के बाद प्रेमचंद को मुंबई के दुसरे बैनरों से भी अॉफर मिलने लगे थे। अगली कहानी उन्होंने "नव-जीवन" फिल्म के लिए लिखा, जो राजनीति से अलग बलिदान की भावना से प्रेरित थी। मानों प्रेमचंद के साहित्यिक स्केच वर्क अब फिल्मी कैन्वास पे बदस्तूर निखरते चले जा रहे थे।

इसी साल १९३४ में प्रेमचंद ने "सेवासदन" नाम की एक और फिल्मी कहानी लिखी थी, लेकिन महालक्ष्मी सिनेस्टोन बैनर तले फिल्म मेकिंग के समय इस कहानी के मूल स्वरूप को इतना तोड़ा मड़ोरा गया कि प्रेमचंद आक्रांत भाव लिए २५ मार्च १९३५ को वापस अपने शहर बनारस लौट आऐ.. और फिर मायानगरी से चोट खाऐ प्रेमचंद ८ अक्टूबर १९३५ को एक अन्यतम साहित्यिक लोक में सदा के लिए विलीन हो गए। साहित्यिक जगत से एक अपूरणीय क्षति के बाद भी उनकी कहानियों पे हिन्दी व अन्य प्रादेशिक भाषाओं में फिल्में लगातार बनती ही रही। वर्ष १९३८ में उनकी १९२८ में लिखी सुप्रसिद्ध उपन्यास "निर्मला" पे बॉम्बे टॉकिज ने एक सुपरहिट फिल्म बनायी।

वर्ष १९४१ में उनकी लिखी "औरत की फितरत" उर्दू कहानी पे सर्को प्रोडक्शन ने "स्वामी" फिल्म बनाई थी। १९४६ में "मील मजदूर" फिल्म के निर्माता मोहन भावनानी ने एक बार फिर प्रेमचंद की ही लिखी सुप्रसिद्ध उपन्यास "रंगभूमि" पे एक निर्विवाद सफल फिल्म बनाई। भारतीय स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद उस दौर के नामचीन फिल्म मेकर बिमल रॉय ने प्रेमचंद के उपन्यास पे ही बलराज साहनी व निरुपा राय अभिनीत "दो बीघा जमीन" फिल्म का एक सामाजिक चित्रण प्रस्तुत किया, जिसने बॉक्स अॉफिस पे भारी सफलता के साथ राष्ट्रीय व अन्तर्राष्ट्रीय पुरस्कारों की झड़ी लगा दी थी। दो बीघा जमीन की इसी अभिनीत जोड़ी के साथ कुछ वर्षों बाद एक और फिल्म "हीरा और मोती" बनी थी। जिसका निर्देशन कृष्ण चोपड़ा ने प्रेमचंद की लिखी "दो बैल" शीर्षक कहानी पे किया था।

प्रेमचंद साहित्य की फिल्मी परंपरा को आगे बढाते हुए वर्ष १९६३ में त्रिलोक जेटली के निर्देशन में फिल्म "गो-दान" बनी व वर्ष १९६६ में कृष्ण चोपड़ा ने "गबन" फिल्म का निर्माण आरंभ तो किया, लेकिन इस फिल्म को पुरा किया था ऋषिकेश मुखर्जी ने; जो बॉक्स अॉफिस पे असफल रही। फिर एक लंबे अर्से बाद वर्ष १९७८ में प्रेमचंद की रचनाओं पे उस समय बांग्ला सिनेमा के दो दिग्गज फिल्म मेकरों ने दिलचस्पी दिखाई। सत्यजीत रे ने "शतरंज के खिलाड़ी" तो मृणाल सेन ने "कफन" बनाया।
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निर्मला १९३८- देविका रानी, अशोक कुमार, मीरा व अन्य..

निर्मला, मुंशी प्रेमचन्द द्वारा रचित प्रसिद्ध हिन्दी उपन्यास है। इसका प्रकाशन सन १९२७ में हुआ था। सन १९२६ में दहेज प्रथा और अनमेल विवाह को आधार बना कर इस उपन्यास का लेखन प्रारम्भ हुआ। हालाँकि प्रेमचंद के निधन के बाद इसी प्रसिद्ध साहित्यिक शीर्षक से यह १९३८ में फिल्म तो बनी लेकिन फिल्मी कथानक में कुछ फेरबदल भी किये गए। इलाहाबाद  से प्रकाशित होने वाली महिलाओं की पत्रिका 'चाँद' में नवम्बर १९२५ से दिसम्बर १९२६ तक यह उपन्यास विभिन्न किस्तों में भी प्रकाशित हुई थी।

महिला-केन्द्रित साहित्य के इतिहास में इस उपन्यास का विशेष स्थान है। इस उपन्यास की कथा का केन्द्र और मुख्य पात्र 'निर्मला' नाम की १५ वर्षीय सुन्दर और सुशील लड़की है। निर्मला का विवाह एक अधेड़ उम्र के व्यक्ति से कर दिया जाता है। जिसके पूर्व पत्नी से तीन बेटे हैं। निर्मला का चरित्र निर्मल है, परन्तु फिर भी समाज में उसे अनादर एवं अवहेलना का शिकार होना पड़ता है। उसकी पति परायणता काम नहीं आती। उस पर सन्देह किया जाता है, उसे परिस्थितियाँ उसे दोषी बना देती है। इस प्रकार निर्मला विपरीत परिस्थितियों से जूझती हुई मृत्यु को प्राप्त करती है।

निर्मला में अनमेल विवाह और दहेज प्रथा की दुखान्त कहानी है। उपन्यास का लक्ष्य अनमेल-विवाह तथा दहेज़ प्रथा के बुरे प्रभाव को अंकित करता है। निर्मला के माध्यम से भारत की मध्यवर्गीय युवतियों की दयनीय हालत का चित्रण हुआ है। उपन्यास के अन्त में निर्मला की मृत्यृ इस कुत्सित सामाजिक प्रथा को मिटा डालने के लिए एक भारी चुनौती है। प्रेमचन्द ने भालचन्द और मोटेराम शास्त्री के प्रसंग द्वारा उपन्यास में हास्य की सृष्टि की है।

निर्मला के चारों ओर कथा-भवन का निर्माण करते हुए असम्बद्ध प्रसंगों का पूर्णतः बहिष्कार किया गया है। इससे यह उपन्यास सेवासदन से भी अधिक सुग्रंथित एवं सुसंगठित बन गया है। इसे प्रेमचन्द का प्रथम ‘यथार्थवादी’ तथा हिन्दी का प्रथम ‘मनोवैज्ञानिक उपन्यास’ कहा जा सकता है। निर्मला का एक वैशिष्ट्य यह भी है कि इसमें ‘प्रचारक प्रेमचन्द’ के लोप ने इसे ने केवल कलात्मक बना दिया है, बल्कि प्रेमचन्द के शिल्प का एक विकास-चिन्ह भी बन गया है।


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सेवासदन १९३४- नानूभाई वकील, शाहु मोदक, जुबैदा व अन्य..

“सेवासदन” उपन्यास का प्रकाशन सन् १९१७ में हुआ था । यह प्रेमचन्द ने इसे वर्ष १९१६ में उर्दू भाषा में “बाज़ार-ए-हुस्न” के नाम से लिखा था। एक वर्ष बाद हिन्दी में रूपांतरित कर “सेवासदन” नाम से प्रकाशित किया और फिर वर्ष १९३४ में बनी सेवासदन फिल्म की कथावस्तु इसी उपन्यास पे आधारित थी। यह उपन्यास प्रेमचन्द का पहला यथार्थवादी उपन्यास माना जाता है। “सेवासदन” के प्रकाशन के बाद प्रेमचन्द को उपन्यासकार की अच्छा ख्याति मिली है। अथवा “सेवासदन” के द्वारा उन्होंने हिन्दी में उपन्यासकार का हस्ताक्षर डाला है। प्रत्यक्ष रूप में देखें तो इसकी कथा वेश्या जीवन से संबंधित है। मगर उसके भीतर समाज सुधार की भावना भी परिलक्षित है । इसमें उन्होंने मध्य वर्ग के जीवन से संबंधित अनेक मामलों का अनुपम आविष्कार और उनका सुझाव भी दिया है।

“प्रेम” और “प्रतिज्ञा” में प्रेमचन्द ने नारियों के प्रति जिस स्नेहपूर्ण व्यवहार दिखाया है, उस स्नेह एवं उदारता “सेवासदन” में भी होता है। उन्होंने अपने पहले उपन्यासों में दहेज प्रथा, विधवा की दयनीय स्थिति एवं उन पर समाज का बुरा व्यवहार आदि विषयों की चर्चा की है। वही विषय “सेवासदन” में भी उभर कर आता है। कुछ लोग समझते थे कि “सेवासदन” की मूल समस्या वेश्यावृत्ति है। वास्तव में इसकी मुख्य समस्या वेश्यावृत्ति नहीं है। प्रेमचन्द ने सुमन की समस्या को व्यक्तिगत विषय न बनाकर सामाजिक विषय के रूप में बदल दिया है- यह है मूल समस्या। वे समझाते है कि सुमन सीधे वेश्यावृत्ति की ओर नहीं मुड़ती, चारों तरफ की सामाजिक परिस्थितियाँ उसे इस वृत्ति को स्वीकार करने में मज़बूर कर देती है।

पुलिस दारोगा कृष्णचन्द्र सज्जन एवं जनप्रिय अफसर है। अधिकांश पुलिस अधिकारी रिश्वत माँगकर आडंबरपूर्ण जीवन बिताते समय कृष्णचन्द्र रिश्वत नहीं लेते थे और दूसरों को रिश्वत लेने से रोकते भी थे। उनके वेतन से पत्नी गंगाजली, पहली बेटी सुमन तथा दूसरी बेटी शांता जीती है । सुमन सुंदर, सुशील और सुशिक्षित लड़की है। वह सबसे बढ़कर जीना चाहती थी। जब सुमन विवाह योग्य बन गयी तो दहेज की समस्य कृष्णचन्द्र को झकझोर कर देती। वे एक मुकदमे में फँसे महंत रामदास से तीन हज़ार रुपये रिश्वत माँगने का बाध्य हो जाता है। वे रंगे हाथों पकड़े जाते है और चार वर्ष का कैद मिल जाता है। परिणाम स्वरूप गंगाजली, सुमन और शांता के साथ बनारस में अपने भाई के घर पर अभय पाती है । सुमन का विवाह रुक जाता है। दहेज के बिना उनका विवाह गजाधर पांडे से संपन्न होता है। आयु में ही नहीं स्वभाव में भी पति और पत्नी में बड़ा अंतर था। इस वक्त सुमन की माँ मर जाती है । गजाधर ने सुमन को अच्छा खाना और कपड़ा नहीं देता है । पत्नी की सारी सुख-सुविधाओं से वंचित सुमन स्नेह के लिए तरसती है। दोनों के वैवाहिक जीवन का ताल-मेल टूट जाता है । एक दिन गजाधर ने निर्दयता के साथ सुमन को घर से निष्कासित कर देता है ।

पति से उपेक्षित सुमन वकील पद्मसिंह के घर पर जाकर अभय मांगती है । किंतु अभय नहीं मिलती है। गाँव की वेश्या भोली ने सुमन को अभय देती है। गजाधर साधु का जीवन ग्रहण करता है । सदनसिंह एक सुंदर एवं बलिष्ठ युवक है जो अपने गाँव से बनारस में आकर अपने चाचा पद्मसिंह के यहाँ रहकर पढ़ता है । उनका ध्यान सुमन पर पड़ता है। साल गुज़रते रहे। समाज सुधारक विट्ठलदास सुमन को भोली के यहाँ से छुडाने का प्रयत्न करता है। तर्क-वितर्क के पश्चात उसने वेश्यालय छोड़कर समाज सुधारकों के विधवा आश्रम पर रहने की निश्चय किया । इसी बीच चार साल का दंड पूरा कर सुमन के पिताजी कृष्णचन्द्र जेल छूट कर आता है। सदन से शांता का विवाह तय कर लेता, किंतु अपवाद के डर से सदन हट जाता है। आगे सदन और सुमन के संपर्क जारी होती है। अपनी बेटियों के असफल जीवन पर दुःखी होकर कृष्णचन्द्र घर छोड़ते है। रास्ते में वह एक साधु से मिल जाता जो सुमन के पति गजाधर थे । गजाधर गजानन्द नाम ले लिया था। पारिवारिक जीवन की विफलता के कारण वे पहले साधु बन चुके थे। कृष्णचन्द्र ने गजाधर के साथ रात काटने का निश्चय किया किंतु रात में चुपके उठकर पास की गंगा नदी में कूद कर आत्महत्या कर दी ।

गंगा के तट पर रहने वाला सदन मल्लाहों का नेता बन जाता है । उसने दो-चार नावें भी खरीद ली। सदन शांता को पत्नी के रूप में स्वीकार कर नदी तट की झोंपड़ी पर रहना शुरू किया । सुमन भी इस झोंपड़ी में रहती है। आगे दुःखी सुमन झोंपड़ी से निकलती है। रास्ते में एक साधु से मिला, उन्हें मालूम न था कि वह साधु गजाधर है। इस समय पद्मसिंह के सहायता से साधु एक आश्रम बनाकर निराश्रित युवतियों के संरक्षण करते थे। सुमन इस सेवासदन (आश्रम) से जुड़ कर सेवारत हो जाती है ।
“सेवासदन” के द्वारा प्रेमचन्द यह सवाल उठाता है कि नारी वेश्या होने की कारण क्या है। इसका समाधान भी उन्होंने दिया है। हमारे यहाँ की नारी की अधःपतन की मूल कारण हमारे समाज है। पत्नी के रूप में सुमन की जो स्थान है, वेश्या के रूप में सुमन को उससे बड़ी स्थान होती है। उनके पास समाज की उच्च वर्ग के लोग आते-जाते है। पत्नी के स्थान पर सुमन को मिलने से ज्यादा सुख और चयन वेश्या भोली को मिलती है ।

“सेवासदन” की मुख्य कथा गजाधर और सुमन से संबंधित है तो गौण कथा सदन सिंह और शांता से संबंधित कथा है। गजाधर का कथा का अंत साधु का जीवन वरण करने पर पड़ता है । सुमन सबसे अधिक ध्यान आकर्षित कथापात्र है। उनकी जीवन कथा की अंत सेवाश्रम (सेवासदन) में होती है।

“सेवासदन” में प्रेमचन्द दर्शातें है कि हमारी सामाजिक कुरीतियाँ स्त्रियों के जीवन को विवश करती है। इसकी मुख्य समस्या मध्य वर्गीय लोगों की आडंबर प्रियता से संबंधित है। प्रेमचन्द यह बताना चाहता है कि मनुष्य को जीने के लिए धन द्वारा प्राप्त सुख के समान मन द्वारा प्राप्त सुख भी चाहिए। मन एवं धन के संयोग से जीवन सुख-संपन्न हो जाता है।
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रंगभूमि १९४६: निगार सुल्ताना, के एन सिंह व अन्य..

रंगभूमि प्रेमचंद द्वारा लिखी गई एक अद्वितीय उपन्यास, जो सन् 1927 से 1928 ई. में लिखी गई थी। यह उपन्यास प्रेमचंद की सभी कृतियों में सर्वश्रेष्ठ है। इस उपन्यास के द्वारा मानवीय भावनाओं के उन पहलुओं को छुआ है, जिसकी तरफ इससे पहले किसी भी उपन्यासकार या कथाकार का ध्यान नहीं गया। प्रेमचंद ने एक अंधे को अपनी कहानी का नायक बनाकर पूरे भारतीय समाज में हलचल पैदा कर दी थी। हर बेबस और लाचार आदमी खुद में सूरदास को देखने लगा था। इस उपन्यास में एक अंधा बेबस आदमी सूरदास जो कि साधनों के अभाव को झेलता है, सिर्फ अपने आत्मविश्वास, अवज्ञा के दम पर पारम्परिक मर्यादाओं के लिए सारे जमाने से ईमानदारी के साथ अकेला लड़ता है। अंग्रेजी शासन के खिलाफ आवाज तो उठाता है, पर सिर्फ अपना कर्त्तव्य समझ कर। कभी हिंसा का सहारा नहीं लेता है। वो कहता है, जो जिसका काम है वो करे, जो मेरा काम है मैं करूंगा।

वाराणसी स्थित एक छोटे से गांव पांड़ेपुर में सूरदास अपने बाप-दादाओं की जमीन को गांव के पशुओं के लिए चारागाह के रूप में खाली छोड़ देता है। परंतु वहां के शासनाधिकारी सरकारी मुआवजा देकर वहां पर सिगरेट की पैफक्ट्री खोलना चाहते हैं। लेकिन सूरदास जमीन देना नहीं चाहता है। दोनों पक्ष से भयंकर वाद-विवाद होता है। सूरदास के प्रति गांववालों की असीम सहानुभूति होती है, जिस कारण सरकार को आसानी से जमीन नहीं मिल पाती है। सरकार अपने शासन के बलबूते सारा गांव खाली करवा लेती है, पर ये बूढ़ा, बेबस, लाचार अकेला लाठी टेकता अपनी कुटिया के सामने खड़ा रहता है और अंत में गोली का शिकार हो जाता है। सूरदास के मरने के बाद सारा गांव और आसपास के लोग संगठित हो जाते हैं।

इस उपन्यास में कर्म तथा अधिकार की प्रधानता पर जोर दिया गया है। स्त्राी की दुदर्शा को भी उजागर किया है। एक ओर जहां नौकरशाह अपने सत्ता के मद में चूर होकर गरीब जनता पर अत्याचार करते हैं. वहीं दूसरी ओर सत्य, निष्ठा और अहिंसा को समाज के एक दबे-कुचले व्यक्ति द्वारा मजबूती प्रदान की है। यह उपन्यास ‘रंगभूमि’ परतंत्रता के बेड़ियों में जकड़े हुए भारत की सामाजिक, राजनीतिक, धार्मिक और आर्थिक समस्याओं से परिपूर्ण है।


 इस उपन्यास के कुछ अंश :- सूरदास एक बहुत ही क्षीणकाय, दुर्बल और सरल व्यक्ति था। उसे दैव ने कदाचित् भीख माँगने ही के लिए बनाया था। वह नित्यप्रति लाठी टेकता हुआ पक्की सड़क पर आ बैठता और राहगीरों की जान की खैर मनाता। 'दाता! भगवान् तुम्हारा कल्यान करें-' यही उसकी टेक थी, और इसी को वह बार-बार दुहराता था। कदाचित् वह इसे लोगों की दया-प्रेरणा का मंत्र समझता था। पैदल चलनेवालों को वह अपनी जगह पर बैठे-बैठे दुआएँ देता था। लेकिन जब कोई इक्का आ निकलता, तो वह उसके पीछे दौड़ने लगता, और बग्घियों के साथ तो उसके पैरों में पर लग जाते थे। किंतु हवा-गाड़ियों को वह अपनी शुभेच्छाओं से परे समझता था। अनुभव ने उसे शिक्षा दी थी कि हवागाड़ियाँ किसी की बातें नहीं सुनतीं। प्रात:काल से संध्‍या तक उसका समय शुभ कामनाओं ही में कटता था। यहाँ तक कि माघ-पूस की बदली और वायु तथा जेठ-वैशाख की लू-लपट में भी उसे नागा न होता था।

सहसा एक फिटन आती हुई सुनाई दी। सूरदास लाठी टेककर उठ खड़ा हुआ। यही उसकी कमाई का समय था। इसी समय शहर के रईस और महाजन हवा खाने आते थे। फिटन ज्यों ही सामने आई, सूरदास उसके पीछे 'दाता! भगवान् तुम्हारा कल्यान करें' कहता हुआ दौड़ा।

सूरदास फिटन के पीछे दौड़ता चला आता था। इतनी दूर तक और इतने वेग से कोई मँजा हुआ खिलाड़ी भी न दौड़ सकता था। मिसेज सेवक ने नाक सिकोड़कर कहा-इस दुष्ट की चीख ने तो कान के परदे फाड़ डाले। क्या यह दौड़ता ही चला जाएगा?

इधर सूरदास के स्मारक के लिए चंदा जमा किया जा रहा था, उधर कुलियों के टोले में शिलान्यास की तैयारियाँ हो रही थीं। नगर के गण्यमान्य पुरुष निमंत्रित हुए थे। प्रांत के गवर्नर से शिला-स्थापना की प्रार्थना की गई थी। एक गार्डन पार्टी होनेवाली थी। गवर्नर महोदय को अभिनंदन-पत्र दिया जानेवाला था। मिसेज सेवक दिलोजान से तैयारियाँ कर रही थीं। बँगले की सफाई और सजावट हो रही थी। तोरण आदि बनाए जा रहे थे। ऍंगरेजी बैंड बुलाया गया था। मि. क्लार्क ने सरकारी कर्मचारियों को मिसेज सेवक की सहायता करने का हुक्म दे दिया था, और स्वयं चारों तरफ दौड़ते फिरते थे।

चाँदनी छिटकी हुई थी, और शुभ्र ज्योत्सना में सूरदास की मूर्ति एक हाथ से लाठी टेकती हुई और दूसरा हाथ किसी अदृश्य दाता के सामने फैलाए खड़ी थी-वही दुर्बल शरीर था, हँसलियाँ निकली हुई, कमर टेढ़ी, मुख पर दीनता और सरलता छाई हुई, साक्षात् सूरदास मालूम होता था। अंतर केवल इतना था कि वह चलता था, वह अचल थी; वह सबोल था, यह अबोल थी; और मूर्तिकार ने यहाँ वह वात्सल्य अंकित कर दिया था, जिसका मूल में पता न था। बस, ऐसा मालूम होता था, मानो कोई स्वर्ग-लोक का भिक्षुक देवताओं से संसार के कल्याण का वरदान माँग रहा है।
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दो बीघा ज़मीन 1953- बलराज साहनी, निरुपा राय व अन्य..

 निर्देशक बिमल रॉय द्वारा निर्देशित इस फिल्म में बलराज साहनी और निरुपा रॉय ने मुख्य भूमिका निभाई है। यह एक समाजवादी फ़िल्म है और भारत के समानांतर सिनेमा के प्रारंभ में महत्त्वपूर्ण फ़िल्मों में से एक है। इस फ़िल्म से संगीतकार सलिल चौधरी थ। 'दो बीघा ज़मीन' की कहानी मुंशी प्रेमचंद के उपन्यास पे आधारित है जिसे बाद में फिल्मी कथानुसार सलिल चौधरी ने लिखी थी। भारतीय किसानों की दुर्दशा पर केन्द्रित इस फ़िल्म को हिन्दी की महानतम फ़िल्मों में गिना जाता है। इटली के नव यथार्थवादी सिनेमा से प्रेरित दो बीघा ज़मीन एक ऐसे ग़रीब किसान की कहानी है जो शहर चला जाता है। शहर आकर वह रिक्शा खींचकर रुपये कमाता है ताकि वह रेहन पड़ी ज़मीन को छुड़ा सके। ग़रीब किसान और रिक्शा चालक की भूमिका में बलराज साहनी ने बेहतरीन अभिनय किया है। व्यावसायिक तौर पर 'दो बीघा ज़मीन' भले ही कुछ ख़ास सफल नहीं रही लेकिन इस फ़िल्म ने विमल दा की अंतर्राष्ट्रीय पहचान स्थापित कर दी। इस फ़िल्म के लिए उन्होंने कांस फ़िल्म महोत्सव और कार्लोवी वैरी फ़िल्म समारोह में पुरस्कार जीता। इस फ़िल्म ने हिन्दी सिनेमा में विमल राय के पैर जमा दिये। 'दो बीघा ज़मीन' के लिए बिमल राय को सर्वश्रेष्ठ निर्देशन का पहला फ़िल्म फ़ेयर अवार्ड दिया गया।



 फिल्म की कहानी में शम्भु किसान (बलराज साहनी), उसकी पत्नी पारो (निरुपा राय) व पुत्र कन्हैया (रतन कुमार) मुख्य पात्र है। फ़िल्म की कहानी में गाँव में भयानक अकाल पड़ने के बाद बारिश होती है जिससे सभी खुश हो जाते हैं। गाँव का ज़मींदार हरमन सिंह शहर के ठेकेदार से गाँव में ज़मीन बेचने का सौदा कर लेता है। वह शम्भु, (जो दो बीघा ज़मीन का मालिक है) से भी ज़मीन बेचने के लिए कहता है। हरमन सिंह को बहुत विश्वास था कि वह शम्भु की ज़मीन ख़रीद लेगा। शम्भु ने ज़मींदार से कई बार पैसा उधार लिया था जिसे वह चुका नहीं पाया था। हरमन सिंह ने शम्भु से उस ऋण के बदले में अपनी ज़मीन देने के लिए कहा। शम्भु ने उसे अपनी ज़मीन देने से मना कर दिया क्योंकि वह ज़मीन उसकी जीविका थी। हरमन सिंह दुखी हो गया। हरमन सिंह ने अगले ही दिन शम्भु से उधार लिया पैसा चुकाने के लिए कहा। शम्भु वापस आकर अपने पिता व बेटे की सहायता से ऋण की रकम 65 रुपये निकालता है। शम्भु अपने घर का सब कुछ बेचकर पैसों की व्यवस्था करता है और पैसे चुकाने ज़मींदार के पास जाता है। वहाँ शम्भु यह जानकर हैरान हो जाता है कि ऋण कि राशि 235 रुपये है। लेखाकर से हुई भूल को निपटाने के लिए शम्भु अदालत जाता है व लेखाकार से हुई भूल को बताता है। वहाँ शम्भु मुक़दमा हार जाता है। अदालत फैसला सुनाता है कि शम्भु तीन महीने के अन्दर अपना ऋण चुका दे अन्यथा उसकी ज़मीन की नीलामी कर दी जायेगी।

शम्भु पैसा वापस करने के लिए कलकत्ता जाता है वहाँ वह एक रिक्शा चालक बन जाता है तथा उसका बेटा कन्हैया एक मोची बन जाता है। तीन महीने बीत जाते हैं। ऋण चुकाने का दिन क़रीब आने पर शम्भु ज़्यादा पैसा कमाने के लिए बहुत तेजी से रिक्शा खींचता है। रिक्शा से पहिया निकल जाता है व शम्भु की दुर्घटना हो जाती है। अपने पिता की हालत को देखकर कन्हैया चोरी करना चालू कर देता है। जब शम्भु को कन्हैया के बारे में पता चलता है तो वह उसे बहुत बुरा-भला कहता है। इधर शम्भु की पत्नी को शम्भु और कन्हैया के बारे में सोचकर चिन्ता होती है। वह उन दोनों को ढूढ़ने के लिए शहर आ जाती है वहाँ उसका कार से दुर्घटना हो जाती है। शम्भु सारा जमा किया हुआ पैसा उसके इलाज में लगा देता है। गाँव में शम्भु की ज़मीन की नीलामी हो जाती है क्योंकि शम्भु पैसा चुकाने में असमर्थ हो जाता है। ज़मीन ज़मींदार हरमन सिंह के पास चली जाती है और वहाँ कारख़ाने का काम चालू हो जाता है। शम्भु और उसका परिवार गाँव में अपनी ज़मीन देखने आता है। वहाँ ज़मीन की जगह कारख़ाना देखकर बहुत दुखी हो जाता है तथा मुठ्ठी भर गंदगी कारख़ाने पर फैंकता है। वहाँ कारख़ाने के सुरक्षा कर्मी उसे बाहर निकाल देते हैं। फ़िल्म खत्म हो जाती है तथा शम्भु व उसका परिवार वहाँ से चला जाता है।
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हीरा मोती १९५९- बलराज साहनी, निरुपा राय व अन्य

हीरा मोती फिल्म मुंशी प्रेमचंद की प्रसिद्ध कहानी "दो बैल" पे आधारित है। कहानी ये है कि गाँव के एक किसान झूरी के पास दो बैल थे- हीरा और मोती। देखने में सुंदर, काम में चौकस, डील में ऊंचे। बहुत दिनों साथ रहते-रहते दोनों में भाईचारा हो गया था। दोनों आमने-सामने या आस-पास बैठे हुए एक-दूसरे से मूक भाषा में विचार-विनिमय किया करते थे। एक-दूसरे के मन की बात को कैसे समझा जाता है, हम कह नहीं सकते. अवश्य ही उनमें कोई ऐसी गुप्त शक्ति थी, जिससे जीवों में श्रेष्ठता का दावा करने वाला मनुष्य वंचित है। दोनों एक-दूसरे को चाटकर सूँघकर अपना प्रेम प्रकट करते, कभी-कभी दोनों सींग भी मिला लिया करते थे, विग्रह के नाते से नहीं, केवल विनोद के भाव से, आत्मीयता के भाव से, जैसे दोनों में घनिष्ठता होते ही धौल-धप्पा होने लगता है। इसके बिना दोस्ती कुछ फुसफसी, कुछ हल्की-सी रहती है, फिर ज्यादा विश्वास नहीं किया जा सकता। जिस वक्त ये दोनों बैल हल या गाड़ी में जोत दिए जाते और गरदन हिला-हिलाकर चलते, उस समय हर एक की चेष्टा होती कि ज्यादा-से-ज्यादा बोझ मेरी ही गर्दन पर रहे।

दिन-भर के बाद दोपहर या संध्या को दोनों खुलते तो एक-दूसरे को चाट-चूट कर अपनी थकान मिटा लिया करते, नांद में खली-भूसा पड़ जाने के बाद दोनों साथ उठते, साथ नांद में मुँह डालते और साथ ही बैठते थे।  दो बैलों अपने मालिक से बेहद प्यार करते थे। दोनों बैल स्वाभिमानी, बहादुर और परोपकारी हैं। उनका मालिक झुरी भी उन्हें बड़े स्नेह से रखता है। लेकिन एक बार दोनों बैलों को मालिक के ससुराल भेज दिया जाता है। नये ठिकाने पर उचित सम्मान न मिलने के कारण दोनों बैल वहाँ से भागकर अपने असली मालिक के पास आते हैं। उन्हें दोबारा नये ठिकाने पर भेज दिया जाता है। जब वे दोबारा भागने की कोशिश करते हैं तो कई मुसीबतों में फँस जाते हैं। आखिर में उन्हें किसी कसाई के हाथ नीलाम कर दिया जाता है। लेकिन दोनों बैल उस कसाई के चंगुल से छूटने में भी कामयाब हो जाते हैं और अंत में अपने असली मालिक के पास पहुँच जाते हैं। यह कहानी बड़ी ही रोचक है और सरल भाषा में लिखी गई है।


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 गो-दान १९६३- राजकुमार, कामिनी कौशल, शुभा खोटे, महमूद, मदन पुरी व अन्य।

 गो-दान मुंशी प्रेमचन्द के अंतिम और सबसे महत्वपूर्ण उपन्यास पे बनी १९६३ की फिल्म। गोदान को उनकी सर्वोत्तम कृति भी माना जाता है। इसका प्रकाशन १९३६ ई० में हिन्दी ग्रन्थ रत्नाकर कार्यालय, बम्बई द्वारा किया गया था। इसमें भारतीय ग्राम समाज एवं परिवेश का सजीव चित्रण है। गोदान ग्राम्य जीवन और कृषि संस्कृति का महाकाव्य है। इसमें प्रगतिवाद, गांधीवाद और मार्क्सवाद (साम्यवाद) का पूर्ण परिप्रेक्ष्य में चित्रण हुआ है।

गोदान हिंदी के उपन्यास-साहित्य के विकास का उज्वलतम प्रकाशस्तंभ है। गोदान के नायक और नायिका होरी और धनिया के परिवार के रूप में हम भारत की एक विशेष संस्कृति को सजीव और साकार पाते हैं, ऐसी संस्कृति जो अब समाप्त हो रही है या हो जाने को है, फिर भी जिसमें भारत की मिट्टी की सोंधी सुबास भरी है। प्रेमचंद ने इसे अमर बना दिया है।

   गोदान में मुंशी प्रेमचंद की कला अपने चरम उत्कर्ष पर पहुँची है। गोदान में भारतीय किसान का संपूर्ण जीवन - उसकी आकांक्षा और निराशा, उसकी धर्मभीरुता और भारतपरायणता के साथ स्वार्थपरता ओर बैठकबाजी, उसकी बेबसी और निरीहता- का जीता जागता चित्र उपस्थित किया गया है। उसकी गर्दन जिस पैर के नीचे दबी है उसे सहलाता, क्लेश और वेदना को झुठलाता, 'मरजाद' की झूठी भावना पर गर्व करता, ऋणग्रस्तता के अभिशाप में पिसता, तिल तिल शूलों भरे पथ पर आगे बढ़ता, भारतीय समाज का मेरुदंड यह किसान कितना शिथिल और जर्जर हो चुका है, यह गोदान में प्रत्यक्ष देखने को मिलता है। नगरों के कोलाहलमय चकाचौंध ने गाँवों की विभूति को कैसे ढँक लिया है, जमींदार, मिल मालिक, पत्रसंपादक, अध्यापक, पेशेवर वकील और डाक्टर, राजनीतिक नेता और राजकर्मचारी जोंक बने कैसे गाँव के इस निरीह किसान का शोषण कर रहे हैं और कैसे गाँव के ही महाजन और पुरोहित उनकी सहायता कर रहे हैं, गोदान में ये सभी तत्व नखदर्पण के समान प्रत्यक्ष हो गए हैं। गोदान, वास्तव में, २०वीं शताब्दी की तीसरी और चौथी दशाब्दियों के भारत का ऐसा सजीव चित्र है, जैसा हमें अन्यत्र मिलना दुर्लभ है।


गोदान में बहुत सी बातें कही गई हैं। जान पड़ता है प्रेमचंद ने अपने संपूर्ण जीवन के व्यंग और विनोद, कसक और वेदना, विद्रोह और वैराग्य, अनुभव और आदर्श् सभी को इसी एक उपन्यास में भर देना चाहा है। प्रेमचंद ने एक स्थान पर लिखा है - 'उपन्यास में आपकी कलम में जितनी शक्ति हो अपना जोर दिखाइए, राजनीति पर तर्क कीजिए, किसी महफिल के वर्णन में १०-२० पृष्ठ लिख डालिए (भाषा सरस होनी चाहिए), कोई दूषण नहीं।'

जिस समय प्रेमचन्द का जन्म हुआ वह युग सामाजिक-धार्मिक रुढ़िवाद से भरा हुआ था। इस रुढ़िवाद से स्वयं प्रेमचन्द भी प्रभावित हुए। जब अपने कथा-साहित्य का सफर शुरु किया अनेकों प्रकार के रुढ़िवाद से ग्रस्त समाज को यथाशक्ति कला के शस्त्र द्वारा मुक्त कराने का संकल्प लिया। अपनी कहानी के बालक के माध्यम से यह घोषणा करते हुए कहा कि "मैं निरर्थक रूढ़ियों और व्यर्थ के बन्धनों का दास नहीं हूँ।" प्रेमचन्द और शोषण का बहुत पुराना रिश्ता माना जा सकता है। क्योंकि बचपन से ही शोषण के शिकार रहे प्रेमचन्द इससे अच्छी तरह वाकिफ हो गए थे। समाज में सदा वर्गवाद व्याप्त रहा है। समाज में रहने वाले हर व्यक्ति को किसी न किसी वर्ग से जुड़ना ही होगा। प्रेमचन्द ने वर्गवाद के खिलाफ लिखने के लिए ही सरकारी पद से त्यागपत्र दे दिया। वह इससे सम्बन्धित बातों को उन्मुख होकर लिखना चाहते थे। उनके मुताबिक वर्तमान युग न तो धर्म का है और न ही मोक्ष का। अर्थ ही इसका प्राण बनता जा रहा है। आवश्यकता के अनुसार अर्थोपार्जन सबके लिए अनिवार्य होता जा रहा है। इसके बिना जिन्दा रहना सर्वथा असंभव है। वह कहते हैं कि समाज में जिन्दा रहने में जितनी कठिनाइयों का सामना लोग करेंगे उतना ही वहाँ गुनाह होगा। अगर समाज में लोग खुशहाल होंगे तो समाज में अच्छाई ज्यादा होगी और समाज में गुनाह नहीं के बराबर होगा। प्रेमचन्द ने शोषितवर्ग के लोगों को उठाने का हर संभव प्रयास किया। उन्होंने आवाज लगाई "ए लोगों जब तुम्हें संसार में रहना है तो जिन्दों की तरह रहो, मुर्दों की तरह जिन्दा रहने से क्या फायदा।" प्रेमचन्द ने अपनी कहानियों में शोषक-समाज के विभिन्न वर्गों की करतूतों व हथकण्डों का पर्दाफाश किया है।

'गोदान' में समान्तर रूप से चलने वाली दोनो कथाएं हैं - एक ग्राम्य कथा और दूसरी नागरी कथा, लेकिन इन दोनो कथाओं में परस्पर सम्बद्धता तथा सन्तुलन पाया जाता है। ये दोनो कथाएं इस उपन्यास की दुर्बलता नहीं वरन, सशक्त विशेषता है। यदि हमें तत्कालीन समय के भारत वर्ष को समझना है तो हमें निश्चित रूप से गोदान को पढना चाहिए इसमें देश-काल की परिस्थितियों का सटीक वर्णन किया गया है। कथा नायक होरी की वेदना पाठको के मन में गहरी संवेदना भर देती है। संयुक्त परिवार के विघटन की पीड़ा होरी को तोड़ देती है परन्तु गोदान की इच्छा उसे जीवित रखती है और वह यह इच्छा मन में लिए ही वह इस दुनिया से कूच कर जाता है। गोदान औपनिवेशिक शासन के अंतर्गत किसान का महाजनी व्यवस्था में चलने वाले निरंतर शोषण तथा उससे उत्पन्न संत्रास की कथा है। गोदान का नायक होरी एक किसान है जो किसान वर्ग के प्रतिनिधि के तौर पर मौजूद है। 'आजीवन दुर्धर्ष संघर्ष के बावजूद उसकी एक गाय की आकांक्षा पूर्ण नहीं हो पाती'। गोदान भारतीय कृषक जीवन के संत्रासमय संघर्ष की कहानी है।

'गोदान' होरी की कहानी है, उस होरी की जो जीवन भर मेहनत करता है, अनेक कष्ट सहता है, केवल इसलिए कि उसकी मर्यादा की रक्षा हो सके और इसीलिए वह दूसरों को प्रसन्न रखने का प्रयास भी करता है, किंतु उसे इसका फल नहीं मिलता और अंत में मजबूर होना पड़ता है, फिर भी अपनी मर्यादा नहीं बचा पाता। परिणामतः वह जप-तप के अपने जीवन को ही होम कर देता है। यह होरी की कहानी नहीं, उस काल के हर भारतीय किसान की आत्मकथा है। और इसके साथ जुड़ी है शहर की प्रासंगिक कहानी। 'गोदान' में उन्होंने ग्राम और शहर की दो कथाओं का इतना यथार्थ रूप और संतुलित मिश्रण प्रस्तुत किया है। दोनों की कथाओं का संगठन इतनी कुशलता से हुआ है कि उसमें प्रवाह आद्योपांत बना रहता है। प्रेमचंद की कलम की यही विशेषता है।

इस रचना में प्रेमचन्द का गांधीवाद से मोहभंग साफ-साफ दिखाई पड़ता है। प्रेमचन्द के पूर्व के उपन्यासों में जहॉ आदर्शवाद दिखाई पड़ता है, गोदान में आकर यथार्थवाद नग्न रूप में परिलक्षित होता है। कई समालोचकों ने इसे महाकाव्यात्मक उपन्यास का दर्जा भी दिया है।
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गबन १९६६- सुनिल दत्त, साधना व अन्य..

गबन प्रेमचंद द्वारा रचित उपन्यास है। ‘निर्मला’ के बाद ‘गबन’ प्रेमचंद का दूसरा यथार्थवादी उपन्यास है। कहना चाहिए कि यह उसके विकास की अगली कड़ी है। ग़बन का मूल विषय है - 'महिलाओं का पति के जीवन पर प्रभाव'। ग़बन प्रेमचन्द के एक विशेष चिन्ताकुल विषय से सम्बन्धित उपन्यास है। यह विषय है, गहनों के प्रति पत्नी के लगाव का पति के जीवन पर प्रभाव। गबन में टूटते मूल्यों के अंधेरे में भटकते मध्यवर्ग का वास्तविक चित्रण किया गया। इन्होंने समझौतापरस्त और महत्वाकांक्षा से पूर्ण मनोवृत्ति तथा पुलिस के चरित्र को बेबाकी से प्रस्तुत करते हुए कहानी को जीवंत बना दिया गया है।

इस उपन्यास में प्रेमचंद ने पहली नारी समस्या को व्यापक भारतीय परिप्रेक्ष्य में रखकर देखा है और उसे तत्कालीन भारतीय स्वाधीनता आंदोलन से जोड़कर देखा है। सामाजिक जीवन और कथा-साहित्य के लिए यह एक नई दिशा की ओर संकेत करता है। यह उपन्यास जीवन की असलियत की छानबीन अधिक गहराई से करता है, भ्रम को तोड़ता है। नए रास्ते तलाशने के लिए पाठक को नई प्रेरणा देता है।

‘गबन’ में प्रेमचन्द ने मध्यवित्त-वर्ग के यथार्थ जीवन और मनोवृत्तियों का चित्रण किया है। प्रेमचन्द ने पहली बार ‘गबन’ में इस वर्ग की समस्याओं को विस्तारपूर्वक प्रस्तुत किया है। इस वर्ग की वास्तविक आय कम है, पर अपनी झूठी शान रखने के लिये इस वर्ग के लोग अपनी हैसियत से बहुत अधिक खर्च करते हैं, और आय तथा व्यय के असन्तुलन को बेईमानी, रिश्वत, झूठ, हेरा-फेरी आदि उपायों से पूरा करना चाहते हैं। मुंशी दीनदयाल अपनी लड़की जालपा की शादी महाशय दयानाथ के पुत्र रमानाथ से करते हैं। दीनदयाल दिल खोल कर खर्च करते हैं, क्योंकि उनका वेतन चाहे केवल पाँच रुपये था, पर ‘ऊपर की आमदनी’ का कोई हिसाब नहीं था।



दूसरी ओर, रमानाथ सुन्दर सजीला जवान है। उसके पिता महाशय दयानाथ बड़े ईमानदार आदमी हैं। उन्होंने कभी एक पैसा भी रिश्वत का नहीं लिया। वह ऐसी पाप की कमाई से घृणा करते हैं। पर लड़का नयी रोशनी का फैशनेबल युवक है। वह अभी बेकार है, पर यार दोस्तों में बैठने-उठने के कारण उसकी खाने-उड़ाने की इच्छा प्रबल हो चुकी है। वह शादी में खूब खर्च करा देता है। दयानाथ भी उसकी तथा अपनी पत्नी की बातों में आकर हैसियत से बहुत बढ़-चढ़कर खर्च कर देते हैं। सर्राफे से उधार गहने आ जाते हैं। दिखाने के लिए और भी कई तरह का खर्च खूब बढ़-बढ़कर किया जाता है। यही खर्च उनके लिए समस्या बन जाता है।

रमानाथ अपनी पत्नी जालपा से घर की स्थिति छिपा कर रखता है। वह उलटा बहुत जीट उड़ाता है— बहुत धन है, जायदाद है, बैंकों में रुपया पड़ा है। वह अपनी पत्नी को खुश रखने के लिए उसकी फरमाइशें पूरा करना चाहता है। सर्राफे के तकाजे होने से उसे अपनी पत्नी के जेवर चुराने पड़ते हैं। स्वयं जेवर चुराकर बाप-बेटा उड़ाते यह हैं कि जेवर चोर चुरा ले गये। इस वर्ग के कृत्रिम जीवन की बहुत सुन्दर झाँकी प्रेमचन्द ने प्रस्तुत की है। इस उपन्यास की मुख्य समस्या नारी का आभूषण-प्रेम नहीं है, जैसा कि कुछ आलोचक कहा करते हैं। आभूषण-प्रेम तो गौण बात है। जालपा के मन में चन्द्रहार की लालसा बचपन से थी और इसमें संदेह नहीं कि उसके जेवर चले जाने पर वह निर्जीव-सी उदास रहने लगी थी और जब रमानाथ फिर सर्राफे से उसके लिये कंगन और हार उधार लाता है तभी वह प्रसन्न होती है। परन्तु इस सारी परिस्थिति के पीछे पति द्वारा वास्तविकता से दुराव है। यदि उसे मालूम हो जाता कि जेवर उधार में आये हैं और घर की वास्तविक स्थिति वह नहीं जो रमानाथ शेखी में बताया करता था, तो वह कभी जेवरों के लिए आग्रह न करती।

रमानाथ स्वयं अपने जाल में फँसता है। अपने जीवन को वह कितना आडम्बरपूर्ण और कृत्रिम बना लेता है। वह अपनी शान रखने के लिए फैशन करता है, अपनी पत्नी को फैशन में रखता है। अपनी पत्नी को अपना वेतन अधिक बताता है। रिश्वत खूब उड़ाता है। रतन के सामने अपनी झूठी शान जताता है। हेरा-फेरी से अपनी बात रखना चाहता है। रतन ने कंगन बनवाने के लिए जो रुपये दिये थे, उन्हें सर्राफे में देकर अपनी साख रखना चाहता है। रतन को झूठ बोल-बोलकर टालता जाता है। पर जब रतन की शंका बढ़ जाती है, वह कड़ा तकाजा करती है, तो वह चुंगी के रुपयों में से रतन को दे देता है और सरकारी गबन के भय से भाग जाता है।

प्रेमचन्द ने मध्यवर्ग के खोखले जीवन की सजीव झाँकी प्रकट की है। इस आडम्बरपूर्ण कृत्रिम और दिखावटी जीवन को निभाने के लिए इस वर्ग के लोगों को कितने स्वाँग रचने पड़ते हैं। किसी भी प्रकार का पाप-कर्म ये कर सकते हैं, बशर्ते कि वह छिपा रहे। चोरी, रिश्वतखोरी, झूठ, फरेब, हेरा-फेरी, गबन सब-कुछ सम्भव है। यद्यपि रमानाथ की समस्या व्यक्ति की समस्या है, पर यह समूचे मध्यवर्ग पर भी लागू होती है। प्रेमचन्द ने उपर्युक्त मुख्य समस्या के अतिरिक्त ब्रिटिश पुलिस-पद्धति के हथकण्डों का इस रचना में खूब पर्दाफाश किया है। पुलिस किस प्रकार झूठे गवाह बनाती है; निर्दोष दिनेश आदि को फँसाती है, गवाहों को प्रलोभन देकर, उनका नैतिक पतन करके अपने जाल में फँसाया जाता है। रिश्वत का बाजार गरम है। सत्याग्रहियों और देशभक्तों को कुचला जाता है। देवीदीन खटीक के जवान बेटे स्वदेशी आन्दोलन में पुलिस की लाठियों का शिकार हुए थे। प्रेमचन्दजी ने इस रचना में भी अनमेल विवाह का एक करुण परिणाम प्रस्तुत किया है। नवयुवती रतन एक सम्पन्न बूढ़े वकील की पत्नी है। यद्यपि वह धनी पति से सन्तुष्ट है, और उसकी अतृप्त लालसा खाने-खर्चने से दबी रहती है, पर प्रेमचन्द ने दो रूपों में उसकी करुण स्थिति में रंग भरा है। पहली स्थिति है उसके अभावग्रस्त मातृत्व का चीत्कार। दूसरी है वृद्ध और रोगी पति की शीघ्र मृत्यु और उसका परिणाम।

यहाँ प्रेमचन्द ने हिन्दू विधवा रतन की असहाय दशा दर्शाकर समाज को विचारने के लिए बाध्य कर दिया है। पति की मृत्यु के बाद उसके अधिकार छिन जाते हैं। उसका भतीजा ही छल-कपट से सारी सम्पत्ति हड़प कर जाता है और वह एकदम कंगाल हो जाती है। यह इस बेमेल वैवाहिक पद्धति का दुष्परिणाम एवं हमारे समाज में नारी की दयनीय दशा का करुणापूर्ण चित्र है।

‘गबन’ में भी प्रेमचन्द ने पूर्णतया यथार्थ से आरम्भ करके आदर्श में परिणति की है। अन्त तक पहुँचते-पहुँचते सब पात्र आदर्शवादी बन जाते हैं। रमानाथ अपनी पत्नी जालपा के प्रभाव से बदल जाता है। वह अपना बयान बदल देता है और निर्दोष अभियुक्तों को छुड़ा लेता है। वह पुलिस के प्रलोभन को ठुकरा देता है। यहाँ तक कि जोहरा वेश्या भी बदल जाती है। वह अपनी वेश्यावृत्ति छोड़कर सेवा और त्याग का जीवन बिताने लगती है। प्रेमचन्द ने रतन, जोहरा, रमानाथ, जालपा, देवीदीन आदि सब पात्रों को अन्त में सेवा और त्याग का आदर्श जीवन बिताते दिखाया है। ये सब अपना एक आदर्श संसार बसाते हैं, जहाँ छल कपट, असत्य, अन्याय आदि के स्थान पर सेवा, सत्य, अहिंसा और प्रेम का राज्य है। किन्तु ‘गबन’में यह आदर्श परिणति किसी प्रकार की अस्वाभाविकता या असंगति प्रतीत नहीं होती। वास्तव में प्रेमचन्द ही नगर के प्रपंचात्मक जीवन से ऊब कर अपने प्रिय ग्राम-जीवन के सरल, शांतिपूर्ण वातावरण में आते प्रतीत होते हैं।
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  शतरंज के खिलाड़ी १९७८- संजीव कुमार, सईद जाफरी, अमजद खान, फारुख शेख, शबाना आजमी, फरीदा जलाल व अन्य..

इस कहानी में प्रेमचंद ने वाजिद अली शाह के वक्त की लखनऊ को चित्रित किया है। भोग-विलास में डूबा हुआ यह शहर राजनीतिक-सामाजिक चेतना से शून्य है। पूरा समाज इस भोग-लिप्सा में शामिल है। इस कहानी के प्रमुख पात्र हैं मिरज़ा सज्जाद अली और मीर रौशनअली। दोनों वाजिदअली शाह के जागीरदार हैं। जीवन की बुनियादी ज़रूरतों के लिए उन्हें कोर्इ फिक्र नहीं है। दोनों गहरे मित्र हैं, और शतरंज खेलना उनका मुख्य काराबेार है। दोनों की बेगमें हैं, नौकर-चाकर हैं, समय से नाश्ता-खाना, पान-तम्बाकु आदि उपलब्ध होता रहता है।

एक दिन की घटना है-मिरज़ा सज्जादअली की बीवी बीमार हो जाती हैं। वह बार-बार नौकर को भेजती हैं कि मिरज़ा हकीम के यहाँ से कोर्इ दवा लायें, किन्तु मिरज़ा तो शतरंज में डूबे हुए हैं। हर घड़ी उन्हें लगता है कि बस अगली बाजी उनकी है। अंत में तंग आकर मिरज़ा की बेगम उन दोनों को खरी-खोटी सुनाती हैं। खेल का सारा ताम-झाम डयोढी के बाहर फेंक देती है। नतीजा यह निकलता है कि शतरंज की बाजी अब मिरज़ा के यहाँ से उठकर मीर के दरवाजे जा बैठती है। मीर साहब की बीवी शुरू में तो कुछ नहीं कहतीं लेकिन जब बात हद से आगे बढ़ने लगती है तब इन दोनों खिलाडि़यों को मात देने के लिए वह एक नायाब तरकीब निकालती है। जैसा कि हमेशा होता था, दोनों मित्र शतरंज की बाजियों में खोये हुए थे कि उसी वक्त बादशाही फौज का एक अफसर मीर साहब का नाम पूछता हुआ आ खड़ा होता है। उसे देखते ही मीर साहब के होश उड़ गये। वह शाही अप़फसर मीर साहब के नौकरों पर खूब रोब ग़ालिब करता है और मीर के न होने की बात सुनकर अगले दिन आने की बात करता है। इस प्रकार यह तमाशा खत्म होता है। दोनों मित्र चिंतित हैं, कि इसका क्या समाधान निकाला जाय।

     मीर और मिरज़ा भी छोटे खिलाड़ी नहीं थे। उन्होंने भी गज़ब की तोड़ निकाली। दोनों मित्रों ने एक बार पुन: स्थान-परिवर्तन करके ही शतरंज खेलने का अपना अगला नया पड़ाव बनाया। न होंगे, न मुलाकात होगी। इधर बेगम आज़ाद हुर्इ उधर मीर बेपरवाह। नया स्थान था शहर से दूर, गोमती के किनारे एक विरान मसिज़द। वहाँ लोगों का आना-जाना बिल्कुल नहीं था। साथ में ज़रूरी सामान, मसलन हुक्का, चिलम दरी आदि ले लिये। कुछ दिनों ऐसा ही चलता रहा। एक दिन अचानक मीर साहब ने देखा कि अंग्रेज़ी फौज गोमती के किनारे-किनारे चली आ रही है। उन्होंने मिरज़ा से हड़बड़ी में यह बात बतार्इ। मिरज़ा ने कहा तुम अपनी चाल बचाओ। अंग्रेज आ रहे हैं आने दो। मीर ने कहा साथ में तोपखाना भी है। मिरज़ा साहब ने कहा यह चकमा किसी और को देना। इस प्रकार पुन: दोनों खेल में गुम हो गए।

कुछ समय में नवाब वाजिद अली शाह कैद कर लिए गए। उसी रास्ते अंग्रेज़ी फौज विजयी-भाव से लौट रही थी। पूरा शहर बेशर्मी के साथ तमाशा देख रहा था कि अवध का इतना बड़ा नवाब चुपचाप सर झुकाए चला जा रहा था। सज्जाद और रौशन दोनोें इस नवाब के जागीरदार थे। नवाब की रक्षा में इन्हें अपनी जान की बाजी लगा देनी चाहिए। परंतु दुर्भाग्य कि जान की बाजी तो इन्होंने लगार्इ ज़रूर पर शतरंज की बाजी पर।



थोड़ी ही देर बाद खेल की बाजी में ये दोनों मित्र उलझ पड़े। बात खानदान और रर्इसी तक आ पहुँची। गाली-गलौज होने लगी। दोनों कटार और तलवार रखते थे। दोनों ने तलवारें निकालीं और एक दूसरे को दे मारीं। दोनों का अंत हो गया। काश! यह मौत नवाब वाजिदअली के पक्ष में और ब्रिटिश फौज के प्रतिपक्ष में हुर्इ होती! लेकिन ऐसा हुआ नहीं।
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कफन १९७८- बांग्ला फिल्म के नामचीन फिल्म मेकर मृणाल सेन ने प्रेमचंद की सुप्रसिद्ध उपन्यास "कफन" का तेलुगु रुपांतरण "ओका उरी कथा" शीर्षक फिल्म से किया था।

ये एक ऐसी कहानी है जो गरीब, पिछड़े वर्ग के जीवन जीने की खत्म हो चुकी इच्छा शक्ति और ज़मीदारो, पूंजीपतियो को आइना दिखाने का काम करती है। समाज में पिछड़ा वर्ग आज भी बेबसी की जिन्दगी जीने को लाचार है । कफ़न तीन पात्र घीसू, माधव और माधव की पत्नी बुधिया के माध्यम से सभी वर्ग समान वर्ग की बात कहने वालो को झुठलाती जान पड़ती है। बहुत से पिछड़ित वर्ग इस भेदभाव को अपनी दिनचर्या मान चुके है इसी पर जोरदार चोट करते हुए प्रेमचन्द ने ये कहानी बुनी।

माधव की पत्नी प्रसव वेदना से रात भर जुझती रही पर माधव को इस गम की ज्यादा फिक्र नहीं थी। फिक्र इस बात की थी कि घर में चुल्हा वेसे ही नही जलता तो होने वाली सन्तान को खिलाएंगे क्या। प्रसव-वेदना से लड़ाई करते हुए बुधिया सुबह तक इस निर्दय समाज को अलविदा कह देती पर माधव और घीसू के चेहरे पर शिकंज तक नहीं आती । क्योकिं वो समझ चुके इस समाज में ज्यादा जीकर दुखो के सिवा किसी से मित्रता नहीं होनी है।

प्रेमचंद साहित्य भारतीय भूमि से कभी ना मिटने वाला महाग्रन्थ है। हिन्दी भाषाओं के साथ साथ भिन्न प्रादेशिक व आंचलिक भाषाओं में बनी कितनी ही कृतियों के साथ आज की युवा पीढी प्रेमचंद नाम का तिलक लगाने में खुद को गौरवान्वित महसूस करती है.. फिर शायद आम जन-जीवन की भावना अभिव्यक्ति का प्रेमचंद से ज्यादा अनूठा स्वर कुछ और नहीं।


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सदगति १९८१- ओम पुरी, स्मिता पाटिल, मोहन अगाशे व अन्य..

सदगति मुंशी प्रेमचंद द्वारा लिखित कहानी पे वर्ष १९८१ में बनी हिन्दी फ़िल्म है। इसका निर्देशन सत्यजित रे ने किया था। ये फ़िल्म का निर्माण खासकर भारतीय टेलिविजन के लिए किया गया था।

इस फ़िल्म में दिखाया गया है की कैसे मानसिक रूप से गुलाम व्यक्ति महंतवाद से अपना शोषण होने देता है और शोषण सहते सहते मर जाता है। मानसिक गुलामी दुनियां की सभी गुलामियों में सबसे बुरी गुलामी है जो की मर जाने से भी बुरी है।

एक अछूत, दुखी अपनी बेटी के शादी की तारीख तय करने के लिए गाँव के पुजारी के पास जाता है। पुजारी इस शर्त पर सहमत होता है कि दुखी उसके लिए मुफ्त में काम करेगा। इसी शर्त पे एक दिन भूखे प्यासे वो लकड़ी का गट्ठर काटते काटते सदगति को प्राप्त कर लेता है। जड़वादी ग्रामीण पृष्ठभूमि पे फिल्मांकन अत्यंत मार्मिक भाव उकेरता है।
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बड़े भाई साहब (शॉर्ट फिल्म)

"बड़े भाई साहब" शीर्षक कहानी में लेखक प्रेमचंद ने अपने बड़े भाई के बारे में लिखा है।

"मेरे भाई साहब मुझसे पाँच साल बड़े थे, लेकिन केवल तीन दरजे आगे। उन्होंने भी उसी उम्र में पढ़ना शुरू किया था जब मैने शुरू किया था; लेकिन तालीम जैसे महत्व के मामले में वह जल्दबाजी से काम लेना पसंद न करते थे। इस भावना की बुनियाद खूब मज़बूत डालना चाहते थे जिस पर आलीशान महल बन सके। एक साल का काम दो साल में करते थे। कभी-कभी तीन साल भी लग जाते थे। बुनियाद ही पुख्ता न हो, तो मकान कैसे पायेदार बने!

मैं छोटा था, वह बड़े थे। मेरी उम्र नौ साल की थी, वह चौदह साल ‍के थे। उन्हें मेरी तंबीह और निगरानी का पूरा जन्मसिद्ध अधिकार था। और मेरी शालीनता इसी में थी कि उनके हुक्म को क़ानून समझूँ। वह स्वभाव से बड़े अध्ययनशील थे। हरदम किताब खोले बैठे रहते और शायद दिमाग को आराम देने के लिए कभी कॉपी पर, कभी किताब के हाशियों पर चिड़ियों, कुत्तों, बिल्लियों की तस्वीरें बनाया करते थे। कभी-कभी एक ही नाम या शब्द या वाक्य दस-बीस बार लिख डालते। कभी एक शेर को बार-बार सुंदर अक्षर में नकल करते। कभी ऐसी शब्द-रचना करते, जिसमें न कोई अर्थ होता, न कोई सामंजस्य! मसलन एक बार उनकी कॉपी पर मैने यह इबारत देखी- स्पेशल, अमीना, भाइयों-भाइयों, दर-असल, भाई-भाई, राधेश्याम, श्रीयुत राधेश्याम, एक घंटे तक- इसके बाद एक आदमी का चेहरा बना हुआ था। मैंने चेष्टा की‍ कि इस पहेली का कोई अर्थ निकालूँ; लेकिन असफल रहा और उनसे पूछने का साहस न हुआ।

वह नवीं जमात में थे, मैं पाँचवी में। उनकी रचनाओं को समझना मेरे लिए छोटा मुँह बड़ी बात थी। मेरा जी पढ़ने में बिलकुल न लगता था। एक घंटा भी किताब लेकर बैठना पहाड़ था। मौक़ा पाते ही हॉस्टल से निकलकर मैदान में आ जाता और कभी कंकरियाँ उछालता, कभी काग़ज़ की तितलियाँ उड़ाता, और कहीं कोई साथी ‍मिल गया तो पूछना ही क्या? कभी चारदीवारी पर चढ़कर नीचे कूद रहे हैं, कभी फाटक पर सवार, उसे आगे-पीछे चलाते हुए मोटरकार का आनंद उठा रहे हैं। लेकिन कमरे में आते ही भाई साहब का रौद्र रूप देखकर प्राण सूख जाते। उनका पहला सवाल होता- ‘कहाँ थे?‘ हमेशा यही सवाल, इसी ध्वनि में पूछा जाता था और इसका जवाब मेरे पास केवल मौन था। न जाने मुँह से यह बात क्यों न निकलती कि जरा बाहर खेल रहा था। मेरा मौन कह देता था कि मुझे अपना अपराध स्वीकार है और भाई साहब के लिए इसके सिवा और कोई इलाज न था कि स्नेह और रोष से मिले हुए शब्दों में मेरा सत्कार करें। ‘इस तरह अंग्रेज़ी पढ़ोगे, तो ज़िंदगी-भर पढ़ते रहोगे और एक हर्फ़ न आयेगा। अंग्रेज़ी पढ़ना कोई हँसी-खेल नहीं है कि जो चाहे पढ़ ले, नहीं, ऐरा-गैरा नत्थू-खैरा सभी अंग्रेज़ी के विद्वान् हो जाते। यहाँ रात-दिन आँखें फोड़नी पड़ती है और ख़ून जलाना पड़ता है, तब कहीं यह विधा आती है। और आती क्या है, हाँ, कहने को आ जाती है। बड़े-बड़े विद्वान् भी शुद्ध अंग्रेज़ी नहीं लिख सकते, बोलना तो दूर रहा। और मैं कहता हूँ, तुम कितने घोंघा हो कि मुझे देखकर भी सबक नहीं लेते। मैं कितनी मेहनत करता हूँ, तुम अपनी आँखों देखते हो, अगर नहीं देखते, जो यह तुम्हारी आँखों का कसूर है, तुम्हारी बुद्धि का कसूर है। इतने मेले-तमाशे होते है, मुझे तुमने कभी देखने जाते देखा है, रोज ही क्रिकेट और हॉकी मैच होते हैं। मैं पास नहीं फटकता। हमेशा पढ़ता रहता हूँ, उस पर भी एक-एक दरजे में दो-दो, तीन-तीन साल पड़ा रहता हूँ फिर तुम कैसे आशा करते हो कि तुम यों खेल-कुद में वक़्त, गँवाकर पास हो जाओगे? मुझे तो दो ही तीन साल लगते हैं, तुम उम्र-भर इसी दरजे में पड़े सड़ते रहोगे। अगर तुम्हें इस तरह उम्र गँवानी है, तो बेहतर है, घर चले जाओ और मजे से गुल्ली-डंडा खेलो। दादा की गाढ़ी कमाई के रुपये क्यों बरबाद करते हो?’



मैं यह लताड़ सुनकर आँसू बहाने लगता। जवाब ही क्या था। अपराध तो मैंने किया, लताड़ कौन सहे? भाई साहब उपदेश की कला में निपुण थे। ऐसी-ऐसी लगती बातें कहते, ऐसे-ऐसे सूक्ति-बाण चलाते कि मेरे जिगर के टुकड़े-टुकड़े हो जाते और हिम्मत छूट जाती। इस तरह जान तोड़कर मेहनत करने कि शक्ति मैं अपने में न पाता था और उस निराशा में जरा देर के लिए मैं सोचने लगता- क्यों न घर चला जाऊँ। जो काम मेरे बूते के बाहर है, उसमें हाथ डालकर क्यों अपनी ज़िंदगी ख़राब करूँ। मुझे अपना मूर्ख रहना मंजूर था; लेकिन उतनी मेहनत ! मुझे तो चक्कर आ जाता था। लेकिन घंटे-दो घंटे बाद निराशा के बादल फट जाते और मैं इरादा करता कि आगे से खूब जी लगाकर पढ़ूँगा। चटपट एक टाइम-टेबिल बना डालता। बिना पहले से नक्शा बनाये, बिना कोई स्कीम तैयार किये काम कैसे शुरू करूँ? टाइम-टेबिल में, खेल-कूद की मद बिलकुल उड़ जाती। प्रात:काल उठना, छ: बजे मुँह-हाथ धो, नाश्ता कर पढ़ने बैठ जाना। छ: से आठ तक अंग्रेज़ी, आठ से नौ तक हिसाब, नौ से साढ़े नौ तक इतिहास, ‍फिर भोजन और स्कूल। साढ़े तीन बजे स्कूल से वापस होकर आधा घंटा आराम, चार से पाँच तक भूगोल, पाँच से छ: तक ग्रामर, आधा घंटा होस्टल के सामने टहलना, साढ़े छ: से सात तक अंग्रेज़ी कम्पोज़ीशन, फिर भोजन करके आठ से नौ तक अनुवाद, नौ से दस तक हिंदी, दस से ग्यारह तक विविध विषय, फिर विश्राम। मगर टाइम-टेबिल बना लेना एक बात है, उस पर अमल करना दूसरी बात। पहले ही दिन से उसकी अवहेलना शुरू हो जाती।

मैदान की वह सुखद हरियाली, हवा के वह हल्के-हल्के झोंके, फुटबाल की उछल-कूद, कबड्डी के वह दाँव-घात, बॉलीबॉल की वह तेजी और फुरती मुझे अज्ञात और अनिवार्य रूप से खींच ले जाती और वहाँ जाते ही मैं सब कुछ भूल जाता। वह जानलेवा टाइम- टेबिल, वह आँखफोड़ पुस्तकें किसी की याद न रहती, और फिर भाई साहब को नसीहत और फजीहत का अवसर मिल जाता। मैं उनके साये से भागता, उनकी आँखों से दूर रहने कि चेष्टा करता। कमरे मे इस तरह दबे पाँव आता कि उन्हें खबर न हो। उनकी नजर मेरी ओर उठी और मेरे प्राण निकले। हमेशा सिर पर एक नंगी तलवार-सी लटकती मालूम होती। फिर भी जैसे मौत और विपत्ति के बीच में भी आदमी मोह और माया के बंधन में जकड़ा रहता है, मैं फटकार और घुडकियाँ खाकर भी खेल-कूद का तिरस्कार न कर सकता।