अभी अभी एक साइबर केफे में बैठ कुछ काम कर रहा था की तभी, बाहर से एक १४-१५ वर्षीय युवा की अपने मित्र से बात करने की आवाज़ कुछ यों आयी| " यार ये वेद क्या होता है... कहीं इसकी किताब इंग्लीश में मिलेगी....!!!" बस इन बातों से जान लीजिए की आज की युवा पीढ़ी, जब अपने देश की इंग्लीश मॉडेल शिक्षा से ओत-प्रोत है तो फिर भी इनकी अपने मिट्टी की पुरातन दिव्य-ज्ञान को जानने के उत्साह और ललक को भी नज़र-अंदाज़ नहीं किया जा सकता| ... और अगर समय के साथ हम अपने अध्यापन शोध से मोबाइल और मीडीया लोलुप बच्चों में पौराणिक अविष्कारों के सूत्रों के रहस्शयों का बीजा-रोपण ना करें तो... ये कह सकते हैं की बिना जड़-शक्ति संवर्धन के आप अपनी परिभाषा में जटिलताओं का आंकलन नहीं कर सकते|
मैं खुद अपने विषय-वार अध्यापन अनुभवों को छात्रों के सामने जब भी उकेरने की कोशिश करता करता हूँ,तो जब तक उन टॉपिक्स के जन्म लेने के आलेखों का वर्णन नहीं करता हूँ... तब तक आज की डेवेलप्ड एप्रोच और उनकी विविधताओं को सामने रखने की आत्म-संतुष्टि नहीं मिल पाती| कंप्यूटर साइन्स इंजिनियरिंग की एक सब्जेक्ट है सिस्टम प्रोग्रामिंग... अन्य सारे सब्जेक्ट के मुक़ाबले कुछ जटिलताओं से समाहृत... तभी आज हम सूपर और क्वांटम कंप्यूटिंग के कमपाइलेसन और प्रोग्राम एक्सेक्यूशन को संभव होते देख पाते हैं| लेकिन जब इन टोपीक्सों को किताब की परिभाषा में पिरोना हो तो जॉन जे डोनोवान की किताब से रूबरू होना पड़ता है... जहाँ आपके सामने आइबीएम ३६०/३७० मसीनों का ही उल्लेख करना होता है... और फिर इन मसीनो पे किसी प्रोग्राम का कमपाइलेसन और एक्सेक्यूशन फेज़...|
http://en.wikipedia.org/wiki/John_J._Donovan
http://en.wikipedia.org/wiki/IBM_System/360
http://en.wikipedia.org/wiki/IBM_System/370
अब आज के समय विदेशों के कुछ नामी महाविद्यालयों को छोड़... इन मसीनो के सिम्युलेटर या फिर शोध व्याख्यानो से ही इनके वर्चुयल रूप को सामने रखा जा सकता है| तो जब भी इस सब्जेक्ट टॉपिक की व्याख्यान की बारी आती है तो मैं अपने जीवन की इस रोचक प्रसंग को कंप्यूटर साइन्स छात्रों के सामने रखने से खुद को नहीं रोक सकता|
मेरे ठीक जन्म के बाद, ये बात एप्रिल १९७७ की है, तब मेरे चाचाजी जो उस वक़्त यूनिवर्सिटी ऑफ वॉशिंग्टन अमेरिका में मास्टर ऑफ साइन्स- फोरेस्ट रिसोर्सस की पढ़ाई कर रहे थे... उन्होने अपने पत्राचार में अपने खुशी की अभिव्यक्ति कुछ इस तरह की थी... " मैं अपने कंप्यूटर लैब में था जब बाबा (पिताजी) का पत्र मिला... जान कर खुशी से उछल पड़ा की दादा(बड़ेभाई) को बेटा हुआ है , अभी अभी यूनिवर्सिटी लैब के कंप्यूटर पे अपने प्रोग्राम को SET कर आया हूँ, आधे घंटे में पूरा हो जाएगा... इस बीच थोड़ा वक़्त मिला तो आप सभो को पत्र लिख रहा हूँ... "
.... तो ये बात १९७७ की थी जब एक कंप्यूटर प्रोग्राम को कंपाइल और रिज़ल्ट देने में आधे घंटे का समय लगता और तब... जब वो प्रोग्राम सही हो तो... नहीं तो फिर थोड़ा मॉडिफिकेशन और रिज़ल्ट का घंटों इंतज़ार... जो आज के पेंटियम मसीनो में पलक झपकते हासिल हो जाता है|
आज जब हम अपने कोर्स मेटीरियल को आज के प्रोफेशनल डिमांड से को-रिलेट करने की कोशिश में जुटे हैं, तो इस बात का ख्याल रखना बिल्कुल ज़रूरी है की इन सब्जेक्ट के नये विज्ञान के साथ इनके उत्सर्जन के जड़-तत्वों को भी जोड़ कर रखा जाय तो फिर ही आज के हमारे छात्र इनके भविष्य-शोधों में भी दिलचस्पी दिखा सकते हैं... और इस मामले में मैं दावे के साथ कह सकता हूँ की भारत में इन अध्यापन शोधों की भारी कमी सी है, और आज भी इस क्रम में चीन, जापान, कोरिया... जैसे देश हम से आगे हैं|
भारत के पिछड़े प्रांतों में नयी यूनिवर्सिटी खुल रही है, नये कोर्स सिलेबस बन रहे हैं जो आइ आइ टी के तर्ज़ पे ही बनाए जा रहे हैं... लेकिन क्या हम आज के नये सरकारी और प्राइवेट संस्थानो में पढ़ रहे छात्रों को अपने अध्यापन तंत्रों के ज़रिए उनके स्कूली समय से ही उस उत्साह को संवर्धित करवा पा रहे हैं| जब की आज भी उन प्राइवेट टेक्निकल संस्थानो में पढ़ने वाले ६०-७०% छात्र छोटे कस्बों और गावों से ही बड़ी सहजता से तो प्रवेश कर जाते हैं, लेकिन जड़ आधार गायब दिखता है| आप इंजिनियर डिग्री होल्डर तो बन जाते हैं, लेकिन जड़ तत्वों के ज्ञान के आभाव में... विषय-वार शोध और अपनी प्रोफेसनल गरिमा को स्वीकृत नहीं कर पाते|
~ विनायक रंजन
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