बात उन दीनो की है, जब हम.. मैं और मेरे प्रिय मित्र-मंडली मैट्रिक के रिजल्ट के बाद अच्छे कॉलेजों में एड्मिशन की फॉर्म फिल्लिंग के लिए पटना और भागलपुर के चक्कर लगा रहे थे। पटना और भागलपुर के कुछ चुनिंदा कॉलेज में पटना साइन्स कॉलेज, बी. एन. कॉलेज, ए. एन. कॉलेज एवं टी.एन.बी. कॉलेज का चुनाव और फिर इन कॉलेजों में एड्मिशन हो जाना बिहार के लगभग सभी मैट्रिक पास छात्रों का एक स्वप्न हुआ करता था। पटना भ्रमण के दौरान मैने महसूस किया कि आने वाले दिनों में जिन साईन्स और मैथेमैटिक्स की किताबों से हम मुखातिब होने वाले हैं.. उनके राईटर्स की यहाँ कोचिंग क्लासेस चला करती है। पटना के उस दौर के नामी गिरामी शिक्षकों में बिल्टु सिंह, नफीस हैदर, अख़्तर साहब, के.सी. सिन्हा भाईयों के नाम प्रमुख थे।
फिर कुछ दिनो बाद अपना अड्मिशन पूर्णिया कॉलेज पूर्णिया में ही संभव हो पाया। स्कूल छूटते ही खुला व उन्मुक्त एक नयी पाठशाला.. फिर तो पूर्णिया कॉलेज का भी अपना एक स्वर्णिम इतिहास रहा है। कॉलेज प्रक्रिया में आने के कुछ दिनों बाद पूर्णियाँ के ही एक साईंस कोचिंग क्लास के साथ विषयवार होम टेबल ट्यूशन को भी जाय्न किया, जिनमें कुछ शिक्षक प्रोफेसर तो पूर्णिया कॉलेज में भी पढ़ाते थे। जिनमें केमिस्ट्री के प्रख्यात प्रोफेसर डा. टी.वी.आर.के.राव, ऊ.एम.ठाकुर.. फिज़िक्स में टी.के. डे, एस. पी. यादव, ए.के. पाण्डेय.. मैथेमैटिक्स में रवि मुखर्जी, महादेव चौधरी, अमल घोष, विजय तिवारी, सुभाष बाबू आदि उस समय के फेमस शिक्षकों में मान्य थे। बॉटेनी ज़ूलोजी में भी प्रोफेसर एस.के.राकेश, बी.एन. पाण्डेय, अजय सिंह व अन्य अच्छे फेमस प्रोफेसर थे। फिर प्राईवेटाईजेशन दौर में कुछ ब्रांड महासभाओं के शिक्षाटन में इनकी निजी प्रतिभाओं को मानो ग्रहण सा लग गया। जो शैक्षणिक ब्रांड व्यापार में अपने निजी शिष्टाचार को पिरों पाए, उनकी राह लग गयी.. लेकिन कुछ को पलायन का मार्ग भी अपनाना पड़ा। खुद मैं जब अपने दस-बारह वर्षों के पूर्णियाँ इंजीनियरिंग कॉलेजों के अनुभवों को देखता हूँ तो अनुकरणीय शिक्षकों की कमी बहूत महसूस हुई। जो समाज में बचे थे उनकी मूल बोलती ब्रांड व्यापार के समीकरणों में सुसुप्त थी। आज जागरण देने वाला खुद.. मूह ताक रहा मानो। महाविद्यालयों के इन गुरुजनों से लैस तात्कालिन समाज भी सामाजिक आग्नेयास्त्रों से खुद में समृद्ध समझा जा सकता था। अनुशासन की कटिबद्धता ऐसे प्रतिबद्ध अनुसरणों में ही निहित थी। हर एक शहर प्रोफेसर कॉलोनी के दिव्य स्थापन से ही सुशोभित था। क्या साहित्य.. क्या इतिहास और क्या दर्शन-शास्त्रों से निकल सामाजिक रसों में जा घुलते विज्ञान.. आज कहाँ विलुप्त हैं? फिर कुछ नाम जो रिसते दिखे थे.. एल.एन.मिश्रा मैनेजमेंट कॉलेज मुजफ्फरपुर वर्ष २०१३ के प्रैक्टिकल एग्जाम कंडक्शन में। पटना के रहने वाले प्रोफेसर मेरे ही साथ बुलाऐ गए थे। बातों बातों में जो ज्ञात हुआ.. १९९५ की फेमस मिश्रा एंड मिश्रा की प्रोबैबेलिटी मैथेमैटिक्स किताब उनकी ही लिखी थी.. लेकिन अब के नए बाजारु दौर में वो उत्साह भी निष्क्रिय हो चला था।
शिक्षावादिता का वंदन तो गुरु समक्ष ही जान पड़ता है और फिर ऐसी आभाऐं जो बचपन से ही प्रमण्डलीय ऋचाओं में घुली पड़ी हों। ज्ञानसूत्र के ऐसे नव-अंकुरण जो अनेकानेक व्याधियों से परे विचरण को उन्मुक्त स्वतंत्र नित मंचन.. अभिरंजन। पूर्णियाँ के कॉलेजी शिक्षा को बल देने की पृष्ठभूमि भी तो स्कूली दिनों के मास्टर साहब ही करते नजर आते। अनुशासन व नैतिक अभिक्रियाओं की पहली पाठशाला। सहस याद है माँ सरस्वती के समक्ष स्लेट और खल्ली लिए वो पूजा के पहले अक्षर.. अ.. आ.. इ.. ई.. और भी एक स्कूली प्रांगण में पूर्णियाँ कोशी अंचल के महान संस्कृताचार्य पंडित श्री केशवनाथ त्रिपाठी जी के हाथों। वे तत्कालिन पूर्णियाँ गर्ल्स हाई स्कूल में पदस्थापित थे और नजदीकी मधुबनी के ही मुहल्ले में निवास भी था। रोजाना की भाँति ब्रह्म वेश में धोती कुर्ता व माथे पे तिलक मेरे घर के बगल से ही स्कूल को पैदल ही जाते.. फिर तो जैसे इन प्रकांड महात्माओं की पद छाप ही कितने श्लोकों व छंदों को गढते चले जाते। उम्रदराजी होने पे भी अपने परममित्र श्री मदन सिंह से मिलने संध्या बेला में रोजाना की भांति सहस ही आते दिखते। मित्र बंधुता व संबंध प्रगाढता के कितने ही साहित्य जो उन भोजपुरी वार्तालाप के तानों बानों में बुने जा सकते हैं। सौभाग्यवश उसी गर्ल्स हाई स्कूल में मेरी माँ ने भी शिक्षा ग्रहण की और फिर रिटायरमेंट तक शिक्षिका पद पे अपने गुरुजनों के साथ ही सतत सुशोभित रहीं। संस्कृत व हिन्दी साहित्य से जुड़ी अनुभवी शिक्षिकाओं में हमारे समाज की ही धार्मिक प्रवृत्त व मेरे मित्र की दादी श्रीमति सुदामा मिश्रा भी थी। युं कहें तो साहित्य शास्त्रों में हमने बस महादेवी वर्मा का नाम ही सुना था.. पर मुखमंडल ध्यान बस उनका ही आता। क्रिश्चियन व रोमन कैथोलिक मिशनों से जुड़े स्कूली पाठशालाओं में भी कोई भेद ना था.. आपके कौशल सक्षमता का सटीक मूल्यांकन मिलता। फिर ज्ञान गर्भ के वेदकोषों में कितने ही गुरुजनों के नाम सुनने को मिलते.. काशी बाबू.. भुवनेश्वर बाबू, भोला बाबू.. गजेन्द्र बाबू.. तिलोत्तम बाबू.. गायत्री दी.. करतार दी.. उमा वर्मा दी.. रमा लाहिड़ी दी आदि आदि जिनसे पूर्णियाँ के कितने ही अभिभावक वृंदों ने भी शिक्षा दीक्षा ग्रहण की थी। फिर पढने पढाने व गुरु निष्ठा के सम्मान व आचरणों से भरे जीवन में.. मेरी दादी माँ के एक शिक्षक श्री सुरेन्द्र नारायण सिंह पिता श्री बिरेन्द्र नारायण सिंह का निवास भी सन्निकट ही था। फिर शिक्षकों के सम्मान से जूड़ी उस आस्था को भी बड़े ही पास से देख पाया हूँ। याद है अक्सर मेरी दादी का नाम "उषा" "उषा" लिए वो आते और फिर ब्रिटिश हुकूमत व आजादी के दिनों की कहानियां बता जाते। मेरी दादा-दादी के विवाहोपरांत.. दादी ने स्कूल टिचर ट्रेनिंग उन्हीं के प्रिंंसिपलसिप के निगरानी में भागलपुर बाँका से किया था। दादाजी उस वक्त भागलपुर पुलिस अॉफिस में थे और कुशलक्षेम हेतु यदा कदा टीचर्स ट्रेनिंग के दौरान दादी से मिलने उनका आना भी होता था.. तो इस प्रसंग को जीठठोली लहजे में मास्टर साब हम बच्चों को कहानी बताते कि तुम्हारा दादा पुलिसिया हाफ पैंट में आता था.. लेकिन मैं बाहर घंटो खड़ा रखता था.. और फिर जोर से हँसने लग जाते। गाँधी टोपी, धोती, कड़क मूँछ और अपने सख्त अंदाजों में वे हम बच्चों के लिए चाचा चौधरी से कम ना थे.. और तो और उनके आगमन से सख्त मिजाजी मेरे दादा दादी भी विनम्र हो जाते। सच में जीवन के ऐसे श्रद्धेय भावों के हम कभी पार उतर ही नहीं सकते।
विद्या ददाति विनयं विनयाद्याति पात्रताम्।
पात्रत्वाद्धनमाप्नोति धनाद्धर्मं ततः सुखम्॥
..फिर तो बचपन के दिनों से ही अपने मुहल्ले समाज में स्थापित व सुसज्जित इन्हीं भव्यताओं में हम सभों के नए बोल भी फुटे थे। घर के सामने ही कुरसेला राज परिवार के प्रोफेसर विजय कुमार सिंह का निवास व सामने वाला खुला फिल्ड। आज भी वो प्रोफेसर साहब के नाम से ही सुशोभित है.. हम सभी बच्चों के खासे प्रिय.. प्रेम व आदर वश हम उन्हें बाबा ही बुलाया करते। उनके उस पुराने बड़े से घर आंगन में हम सभी बच्चों की खुब धमा चौकड़ी होती। लुका छिपी हो या क्रिकेट या बैडमिंटन.. हर तरह का खेल उनके ही घर आंगन। खेलकूद के गतिरोधों व मतान्तरों में उनका निर्णय ही श्रेष्ठ होता। फिर पिताजी के साथ मधुबनी वाले छोर पे केमिस्ट्री के प्रोफेसर अरुण कुमार सिन्हा के घर बचपन में जाना होता था। शालीन और सभ्य समाज के पूरक प्रोफेसर नामावली की इस गरिमा में कितने ही वरिष्ठ मानुवों को हम सब ने अपने ही समाज में देखा.. जिनमें प्रोफेसर एन.के. सिंह, इन्दुबाला सिंह, प्रमोद कुमार सिंह, रामू बाबू, उर्मिला यादव, राजलक्ष्मी सिंह, विजया झा तो आदरणीय स्कूली शिक्षकों में महावीर बाबू, रणविजय सिंह, बिरेन्द्र सिंह, शंभु मिश्रा, कौशल बाबू आदि शिक्षकों के नाम आज भी स्मृतिपटल पे सुसज्जित हैं।
ज्ञान विज्ञान के साथ साहित्य व कला को बल देते भाव भी संजोने को मिले थे। चाहे हो अपना घर आंगन या पास ही का कला भवन। श्री अखिलेश्वर वर्मा को अपने घर पे साहित्यकार व कवि अज्ञेय की रचनाओं पे पी.एच.डी के शोधपत्रों को लिखते पाता था। अपने कमरे में कभी लालटेन तो कभी जलते लैंप की लौ में हिन्दी साहित्य की कमर कसते.. सोचता कि आखिर इन अक्षरों में क्या छिपा है तो फिर घर पे दिख पड़ते दादाजी के लिखे कितने ही लेख.. जिनमें यात्रा उल्लेखों के साथ कविताऐं भी संलिप्त रहतीं। १९८९ विदेश यात्रा में तो उनकी लिखी कुछ ईंग्लिश कविताएँ भी पढने को मिली। या फिर कहें तो सामाजिक व प्रदेशिय जीवन के हर एक छोर पे इन शिक्षण ध्रुवों का सार छिपा है.. पुनर्जागरण हेतु इन मर्मों के आध्यात्मों को जीवंत करना ही होगा तो ही ऋषि योग में महर्षि, राजर्षि व ब्रह्मर्षियों के साथ कल्पांतों के सप्तर्षियों को जाना व समझा जा सकता है।
अब तो दशक पे दशक बिते.. नयी पीढ़ी कुछ जानने को आकुल.. बताने वाला कोई नहीं। टेलिवीजन, रुपहले पर्दे और पत्र-पत्रिकाओं के माध्यम से नयी पीढ़ी को क्या मिलने वाला, जब मानव प्रकाश पुंज बिखेरने वाला सामाजिक शिक्षित गजमुक्ता ही विलुप्त है। सटीक मार्गदर्शन के इसी आक्रांत भाव में आज के छात्र कोटा, देल्ही व अन्य विकसित राज्यों के महानगरों का बेबस रुख़ कर लेते हैं। स्वयं सिद्ध महासभाओं के दंश में एक मौन प्रखर कथित शिक्षाटन को मजबूर... तो फिर उन समाज शिक्षकों का क्या जो इन ब्रांड दंश से अपने भिक्षाटन पे हैं..।
विप्र प्रयाग घोष
फिर कुछ दिनो बाद अपना अड्मिशन पूर्णिया कॉलेज पूर्णिया में ही संभव हो पाया। स्कूल छूटते ही खुला व उन्मुक्त एक नयी पाठशाला.. फिर तो पूर्णिया कॉलेज का भी अपना एक स्वर्णिम इतिहास रहा है। कॉलेज प्रक्रिया में आने के कुछ दिनों बाद पूर्णियाँ के ही एक साईंस कोचिंग क्लास के साथ विषयवार होम टेबल ट्यूशन को भी जाय्न किया, जिनमें कुछ शिक्षक प्रोफेसर तो पूर्णिया कॉलेज में भी पढ़ाते थे। जिनमें केमिस्ट्री के प्रख्यात प्रोफेसर डा. टी.वी.आर.के.राव, ऊ.एम.ठाकुर.. फिज़िक्स में टी.के. डे, एस. पी. यादव, ए.के. पाण्डेय.. मैथेमैटिक्स में रवि मुखर्जी, महादेव चौधरी, अमल घोष, विजय तिवारी, सुभाष बाबू आदि उस समय के फेमस शिक्षकों में मान्य थे। बॉटेनी ज़ूलोजी में भी प्रोफेसर एस.के.राकेश, बी.एन. पाण्डेय, अजय सिंह व अन्य अच्छे फेमस प्रोफेसर थे। फिर प्राईवेटाईजेशन दौर में कुछ ब्रांड महासभाओं के शिक्षाटन में इनकी निजी प्रतिभाओं को मानो ग्रहण सा लग गया। जो शैक्षणिक ब्रांड व्यापार में अपने निजी शिष्टाचार को पिरों पाए, उनकी राह लग गयी.. लेकिन कुछ को पलायन का मार्ग भी अपनाना पड़ा। खुद मैं जब अपने दस-बारह वर्षों के पूर्णियाँ इंजीनियरिंग कॉलेजों के अनुभवों को देखता हूँ तो अनुकरणीय शिक्षकों की कमी बहूत महसूस हुई। जो समाज में बचे थे उनकी मूल बोलती ब्रांड व्यापार के समीकरणों में सुसुप्त थी। आज जागरण देने वाला खुद.. मूह ताक रहा मानो। महाविद्यालयों के इन गुरुजनों से लैस तात्कालिन समाज भी सामाजिक आग्नेयास्त्रों से खुद में समृद्ध समझा जा सकता था। अनुशासन की कटिबद्धता ऐसे प्रतिबद्ध अनुसरणों में ही निहित थी। हर एक शहर प्रोफेसर कॉलोनी के दिव्य स्थापन से ही सुशोभित था। क्या साहित्य.. क्या इतिहास और क्या दर्शन-शास्त्रों से निकल सामाजिक रसों में जा घुलते विज्ञान.. आज कहाँ विलुप्त हैं? फिर कुछ नाम जो रिसते दिखे थे.. एल.एन.मिश्रा मैनेजमेंट कॉलेज मुजफ्फरपुर वर्ष २०१३ के प्रैक्टिकल एग्जाम कंडक्शन में। पटना के रहने वाले प्रोफेसर मेरे ही साथ बुलाऐ गए थे। बातों बातों में जो ज्ञात हुआ.. १९९५ की फेमस मिश्रा एंड मिश्रा की प्रोबैबेलिटी मैथेमैटिक्स किताब उनकी ही लिखी थी.. लेकिन अब के नए बाजारु दौर में वो उत्साह भी निष्क्रिय हो चला था।
शिक्षावादिता का वंदन तो गुरु समक्ष ही जान पड़ता है और फिर ऐसी आभाऐं जो बचपन से ही प्रमण्डलीय ऋचाओं में घुली पड़ी हों। ज्ञानसूत्र के ऐसे नव-अंकुरण जो अनेकानेक व्याधियों से परे विचरण को उन्मुक्त स्वतंत्र नित मंचन.. अभिरंजन। पूर्णियाँ के कॉलेजी शिक्षा को बल देने की पृष्ठभूमि भी तो स्कूली दिनों के मास्टर साहब ही करते नजर आते। अनुशासन व नैतिक अभिक्रियाओं की पहली पाठशाला। सहस याद है माँ सरस्वती के समक्ष स्लेट और खल्ली लिए वो पूजा के पहले अक्षर.. अ.. आ.. इ.. ई.. और भी एक स्कूली प्रांगण में पूर्णियाँ कोशी अंचल के महान संस्कृताचार्य पंडित श्री केशवनाथ त्रिपाठी जी के हाथों। वे तत्कालिन पूर्णियाँ गर्ल्स हाई स्कूल में पदस्थापित थे और नजदीकी मधुबनी के ही मुहल्ले में निवास भी था। रोजाना की भाँति ब्रह्म वेश में धोती कुर्ता व माथे पे तिलक मेरे घर के बगल से ही स्कूल को पैदल ही जाते.. फिर तो जैसे इन प्रकांड महात्माओं की पद छाप ही कितने श्लोकों व छंदों को गढते चले जाते। उम्रदराजी होने पे भी अपने परममित्र श्री मदन सिंह से मिलने संध्या बेला में रोजाना की भांति सहस ही आते दिखते। मित्र बंधुता व संबंध प्रगाढता के कितने ही साहित्य जो उन भोजपुरी वार्तालाप के तानों बानों में बुने जा सकते हैं। सौभाग्यवश उसी गर्ल्स हाई स्कूल में मेरी माँ ने भी शिक्षा ग्रहण की और फिर रिटायरमेंट तक शिक्षिका पद पे अपने गुरुजनों के साथ ही सतत सुशोभित रहीं। संस्कृत व हिन्दी साहित्य से जुड़ी अनुभवी शिक्षिकाओं में हमारे समाज की ही धार्मिक प्रवृत्त व मेरे मित्र की दादी श्रीमति सुदामा मिश्रा भी थी। युं कहें तो साहित्य शास्त्रों में हमने बस महादेवी वर्मा का नाम ही सुना था.. पर मुखमंडल ध्यान बस उनका ही आता। क्रिश्चियन व रोमन कैथोलिक मिशनों से जुड़े स्कूली पाठशालाओं में भी कोई भेद ना था.. आपके कौशल सक्षमता का सटीक मूल्यांकन मिलता। फिर ज्ञान गर्भ के वेदकोषों में कितने ही गुरुजनों के नाम सुनने को मिलते.. काशी बाबू.. भुवनेश्वर बाबू, भोला बाबू.. गजेन्द्र बाबू.. तिलोत्तम बाबू.. गायत्री दी.. करतार दी.. उमा वर्मा दी.. रमा लाहिड़ी दी आदि आदि जिनसे पूर्णियाँ के कितने ही अभिभावक वृंदों ने भी शिक्षा दीक्षा ग्रहण की थी। फिर पढने पढाने व गुरु निष्ठा के सम्मान व आचरणों से भरे जीवन में.. मेरी दादी माँ के एक शिक्षक श्री सुरेन्द्र नारायण सिंह पिता श्री बिरेन्द्र नारायण सिंह का निवास भी सन्निकट ही था। फिर शिक्षकों के सम्मान से जूड़ी उस आस्था को भी बड़े ही पास से देख पाया हूँ। याद है अक्सर मेरी दादी का नाम "उषा" "उषा" लिए वो आते और फिर ब्रिटिश हुकूमत व आजादी के दिनों की कहानियां बता जाते। मेरी दादा-दादी के विवाहोपरांत.. दादी ने स्कूल टिचर ट्रेनिंग उन्हीं के प्रिंंसिपलसिप के निगरानी में भागलपुर बाँका से किया था। दादाजी उस वक्त भागलपुर पुलिस अॉफिस में थे और कुशलक्षेम हेतु यदा कदा टीचर्स ट्रेनिंग के दौरान दादी से मिलने उनका आना भी होता था.. तो इस प्रसंग को जीठठोली लहजे में मास्टर साब हम बच्चों को कहानी बताते कि तुम्हारा दादा पुलिसिया हाफ पैंट में आता था.. लेकिन मैं बाहर घंटो खड़ा रखता था.. और फिर जोर से हँसने लग जाते। गाँधी टोपी, धोती, कड़क मूँछ और अपने सख्त अंदाजों में वे हम बच्चों के लिए चाचा चौधरी से कम ना थे.. और तो और उनके आगमन से सख्त मिजाजी मेरे दादा दादी भी विनम्र हो जाते। सच में जीवन के ऐसे श्रद्धेय भावों के हम कभी पार उतर ही नहीं सकते।
विद्या ददाति विनयं विनयाद्याति पात्रताम्।
पात्रत्वाद्धनमाप्नोति धनाद्धर्मं ततः सुखम्॥
..फिर तो बचपन के दिनों से ही अपने मुहल्ले समाज में स्थापित व सुसज्जित इन्हीं भव्यताओं में हम सभों के नए बोल भी फुटे थे। घर के सामने ही कुरसेला राज परिवार के प्रोफेसर विजय कुमार सिंह का निवास व सामने वाला खुला फिल्ड। आज भी वो प्रोफेसर साहब के नाम से ही सुशोभित है.. हम सभी बच्चों के खासे प्रिय.. प्रेम व आदर वश हम उन्हें बाबा ही बुलाया करते। उनके उस पुराने बड़े से घर आंगन में हम सभी बच्चों की खुब धमा चौकड़ी होती। लुका छिपी हो या क्रिकेट या बैडमिंटन.. हर तरह का खेल उनके ही घर आंगन। खेलकूद के गतिरोधों व मतान्तरों में उनका निर्णय ही श्रेष्ठ होता। फिर पिताजी के साथ मधुबनी वाले छोर पे केमिस्ट्री के प्रोफेसर अरुण कुमार सिन्हा के घर बचपन में जाना होता था। शालीन और सभ्य समाज के पूरक प्रोफेसर नामावली की इस गरिमा में कितने ही वरिष्ठ मानुवों को हम सब ने अपने ही समाज में देखा.. जिनमें प्रोफेसर एन.के. सिंह, इन्दुबाला सिंह, प्रमोद कुमार सिंह, रामू बाबू, उर्मिला यादव, राजलक्ष्मी सिंह, विजया झा तो आदरणीय स्कूली शिक्षकों में महावीर बाबू, रणविजय सिंह, बिरेन्द्र सिंह, शंभु मिश्रा, कौशल बाबू आदि शिक्षकों के नाम आज भी स्मृतिपटल पे सुसज्जित हैं।
ज्ञान विज्ञान के साथ साहित्य व कला को बल देते भाव भी संजोने को मिले थे। चाहे हो अपना घर आंगन या पास ही का कला भवन। श्री अखिलेश्वर वर्मा को अपने घर पे साहित्यकार व कवि अज्ञेय की रचनाओं पे पी.एच.डी के शोधपत्रों को लिखते पाता था। अपने कमरे में कभी लालटेन तो कभी जलते लैंप की लौ में हिन्दी साहित्य की कमर कसते.. सोचता कि आखिर इन अक्षरों में क्या छिपा है तो फिर घर पे दिख पड़ते दादाजी के लिखे कितने ही लेख.. जिनमें यात्रा उल्लेखों के साथ कविताऐं भी संलिप्त रहतीं। १९८९ विदेश यात्रा में तो उनकी लिखी कुछ ईंग्लिश कविताएँ भी पढने को मिली। या फिर कहें तो सामाजिक व प्रदेशिय जीवन के हर एक छोर पे इन शिक्षण ध्रुवों का सार छिपा है.. पुनर्जागरण हेतु इन मर्मों के आध्यात्मों को जीवंत करना ही होगा तो ही ऋषि योग में महर्षि, राजर्षि व ब्रह्मर्षियों के साथ कल्पांतों के सप्तर्षियों को जाना व समझा जा सकता है।
विप्र प्रयाग घोष
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