कुछ दिन हुए टाइम्स जॉब्स डॉट कॉम पे मेरे रेज़्यूमे को देख देल्ही से एक कॉल आया... बातचीत से पता चला यह कॉल राजस्थान के एक कॉलेज में असिस्टेंट प्रोफेसर पद के लिए था| उस कॉल में मुझसे उस जॉब के लिए सहमति माँगी गयी..फिर मेरे मनोनुकूल वेतन संबंधी बातों पे भी बातें हुई| फिर कुछ दिन बाद उस कॉलेज के प्रिन्सिपल से भी मेरी बातें हुई| ये क्रम कुछ दिन और चला.. फिर एक दिन उस कॉलेज की वेबसाइट को मैने देखा.. तो दंग रह गया| मुझे विश्वास ही नहीं हो रहा था की.. इतने दिन पुराने कॉलेज को आज भी सही मार्ग-दर्शनो और शोधित निर्णयों से से जीवित रखने की कोशिश की जा रही है..| उस कॉलेज के पहले चेयरमॅन राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी थे.. तो दूसरे चेयरमॅन पंडित मदन मोहन मालवीय थे.. और ये कॉलेज १९२० में पोदार एजुकेशनल ट्रस्ट द्वारा राजस्थान के नवलगढ़ में स्थापित की गयी थी.. और आज भी अपने सटीक प्रयत्नो से आगे बढ़ रहा है..| लेकिन इस द्रस्टव्य से जो चकित करने वाली बात थी.. की आज भी वो कॉलेज.. चाहे वो महात्मा गाँधी के रूप में हो..या पंडित मदन मोहन मालवीय के रूप में... उन अमूल्य धरोहरो को बचाकर और उनकी प्राण-प्रतिष्ठा में आज भी जुटा हुआ है| ये शोध का भी विषय है की... उस पराधीन भारत में शिक्षा प्रयासों की कोई सीमा राजनीतिक अथवा राजकीय प्रणालियों से बँधी नहीं होती होंगी.. और आज भी ऐसे विचार हमें शिक्षा-प्रसार और इसके स्वस्थ क्रम को आगे बढ़ाने में बल देता ही नज़र आएगा| फिर उस कॉलेज के अकॅडेमिक प्रोग्राम वाले लिंक में अपने कंप्यूटर प्रोफेशन से जुड़ी शोध संबंधी प्रयासों को भी बड़ी सजगता से जोड़ कर रखा पाया| कंप्यूटर सब्जेक्ट्स में इसके विज्ञान और अविष्कारों को प्राथमिकता देते हुए.. अन्य आधारभूत विषयों के साथ टेक्निकल राइटिंग स्किल्स आदि विधाओं पे भी जोड़ दिया गया है.. जो एक सकारात्मक रुख़ है| आज की पीढ़ी को नये ज्ञान के साथ साथ पुराने ध्रुव केंद्रों से भी जोड़े रखना भी सही दिशा में लिया गया कदम है| http://www.podarcollege.in/bca.html
आज भी अगर हम कुछ अमूल्य धरोहरो को सहेज कर रखने की बात करें तो... हमारे हिन्दुस्तान में कितने ही राजा रजवाड़ों के किलों को भारत सरकार ने अपने अधिग्रहण में ले रखा है.. और एक सटीक कार्य-योजनाओ के तहत उनके रख रखाव पे विशेष ध्यान भी दिया जा रहा है| मैने भी अब तक जिन किलों को देखा है.. उनमे देल्ही का लाल किला, आगरा और फतेहपुर सीकरी का किला, बुरहानपूर मध्यप्रदेश का असीरगढ़ किला और हैदराबाद का गोलगुंडा किला.. और तो और अपने बक्सर कार्यानुभव में बगल के डुमराव महाराज के किले को भी देख पाया| डुमराव किले में उस रात के अंधेरे में जो दिखा था.. वो था. शहर से लगा उस किले का बाहरी परिसर और मुख्य द्वार.. कुछ जीर्ण-शीर्ण सा दिखा| उस किले से निकलते ही ठीक सामने वाली मार्केट के चौराहे पे एक पुरानी मिठाईवाली दुकान से निकलती तेज और चकाचौंध रोशनी... मानो अपने अंदाज में कह रही हो... "कहाँ गंगू तेलि.. और कहाँ राजा भोज.." कुछ कुछ कबीर की उल्टी वाणी की तरह...| सच में उस रात.. डुमराव किले से वापस आकर भी उस पुरातन अवशेषों की छाया.. मन में बैठी हुई सी थी| फिर उस भावावेषों से भी.. जिस चादर को ओढ़े वो मानो पुराने अतित पे रो रही हो| वो भोजपुर की दिव्य धरती थी... जहाँ की भोजपुरी संस्कृति आज देश विदेशों में अपनी अच्छी पैठ रखने में कायम तो है... लेकिन अपनो जड़ों से जड़ आधार ही गायब दिखता है..| १९७०-८० के कुछ एक भोजपुरी फिल्मों और भोजपुर के शेक्सपियर "भिखारी ठाकुर" की अन्यतम कृति "बिदेशिया" को छोड़.... आज की भोजपुरी फिल्मों और गानो ने तो मानवीय संवेद नाओं की तिलांजलि ही दे दि है..| इस मामले में.. मैथिली भाषाई अंचलों ने आज भी सांस्कृतिक चमक और मधुरताओं को सहेजे रखा है| ..तो अपने भागलपुर मुंगेर की अंगीका भी दम तोड़ती ही नज़र आती है| इन अमूल्य धरोहरो के प्राण प्रतिष्ठाओं को भी पुनर्जीवित करना अनिवार्य है.. तभी आज के विकास-पोषक के रूप में हम खुद को भी जाने जा सकेंगे|
http://en.wikipedia.org/wiki/Bhikhari_Thakur
२००९ में अपने पूर्णिया सिटी के राजा पृथ्विचंद लाल के किले के कुछ पुरातन अवशेषों को भी देखने का मौका लगा| एक खंडहर सी वीरान मंदिर के शिल्प-वास्तु कला को देख आप आज भी उसके भव्यता का अनुमान लगा सकते है| वो मंदिर प्रसिद्ध त्रिपुर-सुंदरी देवी की थी.. लेकिन मंदिर से देवी की मूर्ति नदारद... | उस पूजा के फर्शों पे दुर्गा पूजा मेले में बिकने वाले नमकीन के आंटे गूथे और तले जा रहे थे...| कुछ आगे बढ़ देखा तो पुराने तालाब के बगल के दो सटे मंदिर... जिनमे एक पुराना शिव मंदिर था| मंदिर के शिवलिंग से बँधी एक गाय.. उस जीर्ण मंदिर के अंदर बैठी थी| इन दृश्यों से ही ये स्पष्ट होता है की... राजा रजवाड़ों के अंत के साथ ही.. सामाजिक चेतना भी इन शक्ति-पिठों के प्रति कितनी उदासीन सी हो गयी..| आज ज़रूरत है तो उस ओर भी मुखर होने की... चाहे वो मंदिर हो या मस्जिद.. चर्च हो या गुरु द्वारे.. या पुराने भक्ति-शक्तिमठ या शिक्षा केंद्र ही क्यों ना हो... इनके जीर्णोद्धार को आज के हमारे प्रबुद्ध समाज-शास्त्रियों को कृत संकल्पित होना ही होगा... अपनी जड़ों और मूल्यों के प्रति आपकी कार्मिक व वैचारिक भागीदारी ही... अपनी अमूल्य धरोहरों की सच्ची प्राण-प्रतिष्ठा है...|
विप्र प्रयाग घोष
www.vipraprayag1.blogspot.in
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