वो २०१३ एप्रिल की रात थी| आख़िर काफ़ी देर इंतेज़ार के बाद बक्सर इंजिनियरिंग कॉलेज के एक सहयोगी लेक्चरर को कॉलेज लौटता देखा| रात के करीब ११ बज रहे थे| जब की बक्सर कॉलेज की ओर आनेवाली ट्रेन को उन्होने दिन के बारह बजे पटना रेलवे स्टेशन से पकड़ा था| पटना से अपने कॉलेज के नज़दीकी स्टेशन टूडीगंज को आने में पॅसेंजर ट्रेन से ढाई से तीन घंटे लगते हैं| लेकिन हुआ क्या.. जो उन्हें इतनी देर लगी !! हुआ यूँ की जिस ट्रेन को उन्होने पकड़ा वो लौटते वक़्त आरा स्टेशन से अपनी ट्रॅक बदलकर सासाराम वाले रूट पे चली जाती है.. दक्षिण की ओर.. जबकि हमें बक्सर रूट पे पश्चिम की ओर आना होता है| ट्रेन पे चढ़ते ही वो सो से गये.. फिर ट्रेन कब आरा स्टेशन से अपने नये रूट को चल दी कुछ पता ही नहीं चला| आख़िर जब नींद खुली तो वो सासाराम के थोड़े नज़दीक आ पहुँचे थे| खैर.. अब तो वो सही सलामत कॉलेज आ पहुँचे थे|

सुबह सुबह की वसंती हवाओं में नींद भी कब आ गयी कुछ पता ही न चला| लेकिन फिर जब नींद खुली तो थोड़ा गर्मी का एहसास हुआ| दिन के करीब १० बजने को होंगे.. चलती ट्रेन में लोगों की भीड़ भी बढ़ गयी थी| फिर एक मूँगफली वाले से पूछा.. मधेपुरा कितने बजे तक आएगा... इतने में एक नीचे बैठे सज्जन ने कहा.. "आपको जाना कहाँ है?" मैने कहा "मधेपुरा".. उन्होने कहा.. " अब तो कुछ मिनटों में बिहारीगंज आ जाएगा.. आपको मधेपुरा जाने के लिए बनमंखी स्टेशन पे उतर जाना था.." ये सब सुन मेरी समझ में तो कुछ भी नहीं आ रहा था| मैने कहा "कुछ दिनो पहले तो इसी ट्रेन से सहरसा से पूर्णिया आया था.. मधेपुरा होते हुए.." उस सज्जन ने मुझे रोकते हुए कहा.. "जाते वक़्त ये ट्रेन मधेपुरा होके ही जाती है.. मगर लौटती है.. बिहारीगंज... घबराईए नहीं आपको अगर मधेपुरा जाना है.. तो बिहारीगंज से मधेपुरा के लिए जीप.. ट्रॅकर मिल जाएगी.."| बात भी सही थी.. इस रूट पे मेरी यह तीसरी यात्रा थी..| पहली यात्रा हुई थी.. १९९३ में मैट्रिक परीक्षा में.. जब परीक्षा केंद्र धमदाहा पड़ा था.. दूसरी यात्रा थी कूछ दिनो पहले मेरे एक मित्र के शादी के बरात में सहरसा को जाना.. और तीसरी ये जो मुझे पहली बार "बिहारीगंज" के दर्शन को करवा रही थी| ऐसे तो किसी नये रास्ते पे अकारण भटक जाने में शुरुआती झुंझलाहट तो होती है.. मगर साथ ही मिलने वाली आत्मिक-संतोष से फिर आपको.. आपके मंज़िल की ओर ले जानेवाले साधन भी नज़र आने लगते हैं|

फिर मैं अपने बर्थ से नीचे उतर.. चलती ट्रेन की खिड़की से बाहर के नज़ारो को देखने लगा| रेणु जी के मैला आँचल की प्रतिबद्धता जैसे आज भी कायम हो| जगह जगह दिखे जलाशय और पोखर.. मानो ये आज भी आपके पाँव धोने को आतुर हों| ट्रेन के बिहारीगंज स्टेशन रुकते ही.. उस बगल बैठे सज्जन के बताए निर्देशों पे मैं चल दिया| स्टेशन से बाहर निकल मैं बस-अड्डे आ पहुँचा| "ग्वालपाड़ा.. मधेपुरा.. सहरसा.. " "ग्वालपाड़ा.. मधेपुरा.. सहरसा.." की आवाज़ लगाते गाड़ीवालों की ज़ोर की आवाज़ें कानो को भेद रहीं थी| फिर एक जीप में आगे वाली सीट खाली देख जा बैठा| वहाँ कुछ देर रुकने के बाद.. अन्य यात्रियों को लेकर जीप खुली| जीप बिल्कुल ठसाठस भरी हुई थी| जीप के उपर भी कुछ लोग थे| छोटे शहर और कस्बों के मार्केट एरिया भी कम रोचक नहीं होते| फिर उस शहर को छोड़ने के बाद.. ग्रामीण क्षेत्र की टेढ़े-मेढ़े और उबर-खाबर रास्तों को होती हुई.. फिल्मी गानों के साथ हम हिचकोले खाते आगे बढ़ रहे थे| उन फिल्मी धुनों और उस जीप के जर्रे-जर्रे से निकलती सिसकती आवाज़ भी अपनी शमा खूब बाँध रही थी.. मेरे उस अंजान सफ़र में| जीप के आगे बैठे-बैठे उसके सामने की धुंधली शीशे से मैं जो भी देख पा रहा था.. वो हमारे जीवन के ही अंश थे.. लेकिन आज भी मानो अनसुलझी ही थी| बिहारीगंज पे पहली बार आके मुझे लगा मानो जीवन के किसी छोर पे आ पहुँचा हूँ.. जहाँ से आने-जाने का रास्ता एक परीया ही है,,, एक सुदूर टापू के समान|
बिहारीगंज नाम तो वर्षों से सुन रखा था.. जब हमारे जिले के कुछ छात्र यहाँ से दसवीं बोर्ड मैट्रिक परीक्षा के फॉर्म भरा करते थे.. परीक्षा में मन-मुताबिक माहौल के लिए.. भौगोलिक सुदुरता में जो था.. बिल्कुल निश्चिंत भाव लिए.. एक-परीया भाव| बिहारीगंज से मधेपुरा लगभग ४०-४१ कि. मी. की दूरी पे था| दिन के पौने-ग्यारह बज गये थे.. फिर वहाँ पहुँच.. यूनिवर्सिटी भी जल्दी पहुँचना था| करीब १ घंटे बाद ग्वालपाड़ा पहुँचने पे.. जीप जाके रुकी| फिर जीप से नीचे उतर कमर थोड़ा सीधा किया.. बैग से बोतल निकाल पानी पिया.. फिर जाके थोड़ी राहत मिली| कुछ लोगों के ग्वालपाड़ा में उतरने के बाद.. मैं जीप की पीछे वाली सीट खाली देख वहाँ बैठ गया.. ताकि उस धुंधले शीशे से हट इस ग्रामीण परिदृश्य की जमकर अनुभूति ली जा सके| मेरी उत्कट्ता इस तरह हावी हो गयी थी.. की चलती जीप से पीछे उड़ती धूल की भी परवाह नहीं थी| गाँवो के बीच से गुज़रते दिखे रोड के दोनो ओर सुखते पटुवे.. जिसे बाजारू भाषा में जूट कहतें हैं| इसकी खेती खूब होती है यहाँ.. और फिर हवाओं में पिरोती इसकी दूर तक तैरती खुसबू| फिर दिखे जगह-जगह मिट्टीपन की मिठास लिए हरी-भारी वादियों से गुज़रते भैंसो की टोली.. और उन सब पे सवार छोटे-छोटे बच्चे| कुछ बच्चे तो दूर तक अपनी लोहे की रेला-चक्की को लिए उस चलती गाड़ी के उड़ते धूल के पीछे दौड़ लगाते रहे.. मानो वो भी किसी अबोध प्रतिस्पर्धा में ही सही... आने वाले कल के संघर्षों के लिए खुद को तैयार कर रहे हैं| आख़िर हमारी आज की सभ्यता के किस साम्राज्य को मैं बस टक-टकी लगाए देखे जा रहा था| इन्हीं सोचों और अनुभवों को मन में क़ैद किए मैं दिन के लगभग १ बजे मधेपुरा यूनिवर्सिटी आ पहुँचा|
फिर मैं अपने बर्थ से नीचे उतर.. चलती ट्रेन की खिड़की से बाहर के नज़ारो को देखने लगा| रेणु जी के मैला आँचल की प्रतिबद्धता जैसे आज भी कायम हो| जगह जगह दिखे जलाशय और पोखर.. मानो ये आज भी आपके पाँव धोने को आतुर हों| ट्रेन के बिहारीगंज स्टेशन रुकते ही.. उस बगल बैठे सज्जन के बताए निर्देशों पे मैं चल दिया| स्टेशन से बाहर निकल मैं बस-अड्डे आ पहुँचा| "ग्वालपाड़ा.. मधेपुरा.. सहरसा.. " "ग्वालपाड़ा.. मधेपुरा.. सहरसा.." की आवाज़ लगाते गाड़ीवालों की ज़ोर की आवाज़ें कानो को भेद रहीं थी| फिर एक जीप में आगे वाली सीट खाली देख जा बैठा| वहाँ कुछ देर रुकने के बाद.. अन्य यात्रियों को लेकर जीप खुली| जीप बिल्कुल ठसाठस भरी हुई थी| जीप के उपर भी कुछ लोग थे| छोटे शहर और कस्बों के मार्केट एरिया भी कम रोचक नहीं होते| फिर उस शहर को छोड़ने के बाद.. ग्रामीण क्षेत्र की टेढ़े-मेढ़े और उबर-खाबर रास्तों को होती हुई.. फिल्मी गानों के साथ हम हिचकोले खाते आगे बढ़ रहे थे| उन फिल्मी धुनों और उस जीप के जर्रे-जर्रे से निकलती सिसकती आवाज़ भी अपनी शमा खूब बाँध रही थी.. मेरे उस अंजान सफ़र में| जीप के आगे बैठे-बैठे उसके सामने की धुंधली शीशे से मैं जो भी देख पा रहा था.. वो हमारे जीवन के ही अंश थे.. लेकिन आज भी मानो अनसुलझी ही थी| बिहारीगंज पे पहली बार आके मुझे लगा मानो जीवन के किसी छोर पे आ पहुँचा हूँ.. जहाँ से आने-जाने का रास्ता एक परीया ही है,,, एक सुदूर टापू के समान|


फिर तो उल्टे पैर मधेपुरा रेलवे स्टेशन का रुख़ किया| भूख भी जोरों की लगी थी| स्टेशन पहुँच.. बाहर गेट के एक होटल में बने लज़ीज़ "बगेरी-भात" खींच के खाया.. और बमुश्किल ट्रेन पकड़ Purnea को आया| अगले दिन मेरी यात्रा वृतांत को सुन मेरे कुछ मित्र और सहयोगी हँस ही पड़े.. तो कुछ ने कहा.. "बुद्धू.." "बोका.." | जैसे मानो अपने मंज़िल को पाते ही नये नामों की नामाकरण शब्दावली उमर पड़ती हो.. लेकिन मन ही मन " बुद्ध-तत्व" को लिए मैं तो उन्हीं रास्तों में था.. जिसे मैने मधेपुरा-बिहारीगंज के इस सफ़र में जीया था| कुछ दिनो पहले Internet से मधेपुरा और बिहारीगंज के इतिहास की झलक मिली तो उन रास्तों के पौराणिक वैभवॉ का भी..|
...The ancient name of Bihariganj was "Nishankhpur kodha". In medieval times this place was ruled by "Sen dynasty". In the 16th century the main stream of the Koshi river flowed to this place, named "ha-ha dhar", & there have a small market in Bihariganj . Approximately 2 kilometers near this place, also Gamail Gola was used as a local market where jute, rice, wheat, and other commercial items were purchased and bought by the local people.
http://en.wikipedia.org/wiki/Bihariganj
The history of Madhepura can be traced back to the reign of Kushan Dynasty of Ancient India. The "Bhant" communities living in villages of Basantpur and Raibhir under Shankarpur block are the descendants of the Kushan Dynasty. Madhepura was then part of Maurya Dynasty, a fact asserted by the Mauryan pillar at Uda-kishunganj. The name Madhepura is believed to have evolved from Gangapur - a village named after Gangadeo, the grandson of King Mithi, who is said to have established the state of Mithila. Gangapur village itself is said to be named after King Gangsen of the Sen Dynasty. From 1704 AD to 1892, the Kosi river with its diverse courses remained striding the areas right from Forbisganj to Chandeli Karamchand and Raghuvansha Nagar & thereafter submerging itself into the Ganges at Kursela. As Madhepura stands at the centre of Kosi ravine, it was called Madhyapura- a place centrally situated which was subsequently transformed as Madhipura into present Madhepura. Another view is also there as to its naming as the area is said to have been inhabited by the bulk of Madhavas - clan of Lord Krishna. It was termed as Madhavpur which gradually became Madhavpur into Madhepura. (Extracted from Brihad Hindi Kosh, 5th Edition, Page- 887). In ancient times, Madhepura remained a part of Anga Desh. It was also governed by Maurya, Sunga, Kanva and Kushan dynasties. It was a part of Mithila province during Gupta Dynasty. The Mauryan Pillar discovered at Kishunganj bears testimony to it. Madhepura remained under the dominance of Bihar rulers during Rajput rule. Present Raibhir village under Singheshwar block was a stronghold of Bhars.During Mughal period Madhepura remained under Sarkar Tirhut. A mosque of the time of Akbar is still present in Sarsandi village under Uda-Kishunganj. Sikander Sah had also visited the district, which is evident from the coins discovered from Sahugarh village
NSS (National Service Scheme) राष्ट्रीय सेवा योजना का मेरा कार्यकाल बहूत कम दिन ही रहा| पर आज भी उस मर्म-स्पर्शी सफ़र का ध्यान खींचा चला जाता है.. जब-जब NSS का ज़िक्र सामने आता है| राष्ट्र के ऐसे सुदूर छोरों पे ना जाने ऐसे कितने ही काम किए जाने बाकी हैं.. बशर्ते इनका संचालन कुछ स्पष्ट नीतियों के भी साथ हों| आज के वर्तमान का भूत और भविष्य के साक्ष्यों से तालमेल बेहद ज़रूरी हैं.. नहीं तो हम अपने बनाए रास्तों पे ही मंज़िल बस ढूँढते ही रह जायेंगे.. कुछ-कुछ एक परीया सा..|
आज हमें अपने राज्य बिहार के रूप में जो भी मिला है.. वो मैदानी व हरित भू-भाग ही है| जिसकी पुख़्ता पूंजी ऐसे सुदूर छोरों पे ही है| ग्रामीण कृषक ही ऐसे सुदुरता में भी सुंदरता पिरो सकते हैं.. बशर्ते इनके रास्तों को पौराणिक शक्ति-स्तंभों से पुख़्ता किया जाए| यहाँ सभी धर्मों व वर्गों का समान स्वरूप हैं| पौराणिक कालों के मंदिरों के साथ.. मस्जिदों-मज़ारों का भी मेल है.. तो चर्च, गिरिजाघर और गुरुद्वारे भी हैं| बक्सर के एक पौराणिक शिवमंदिर के दर्शन के बाद मन में उठी उत्कंठा में.. कुछ समीपवर्ती शिवमंदिरों व अन्य देवी-देवताओं के शक्ति-पिठों के साथ दिखाई दी भू-भागीय आस्था से जुड़ने की आत्मीय-कला भी| यहाँ की लोक-भाषा, लोक-गीतें, लोक-कलायें, लोक-परंपरायें भी तो सुदूर इन्ही रास्तों में छिपी हैं| बुद्ध-कालीन लोक-पर्व ने भी कितने ही स्थानो को गौरवमय बनवाया.. तो नयी परंपराओं के गठन के लिए बिहार व भारत के सुदूर रास्तों को भी वैभव-विहारों की मंज़िल पे लाना होगा... ताकि आज के युवा इन शक्ति-स्तंभों के ही इर्द-गिर्द सू-शोभित हो सकें.. और बिहार पर्यटन व भारत-दर्शन को भी कुछ नये रास्तें मिल जायें..|
आज हमें अपने राज्य बिहार के रूप में जो भी मिला है.. वो मैदानी व हरित भू-भाग ही है| जिसकी पुख़्ता पूंजी ऐसे सुदूर छोरों पे ही है| ग्रामीण कृषक ही ऐसे सुदुरता में भी सुंदरता पिरो सकते हैं.. बशर्ते इनके रास्तों को पौराणिक शक्ति-स्तंभों से पुख़्ता किया जाए| यहाँ सभी धर्मों व वर्गों का समान स्वरूप हैं| पौराणिक कालों के मंदिरों के साथ.. मस्जिदों-मज़ारों का भी मेल है.. तो चर्च, गिरिजाघर और गुरुद्वारे भी हैं| बक्सर के एक पौराणिक शिवमंदिर के दर्शन के बाद मन में उठी उत्कंठा में.. कुछ समीपवर्ती शिवमंदिरों व अन्य देवी-देवताओं के शक्ति-पिठों के साथ दिखाई दी भू-भागीय आस्था से जुड़ने की आत्मीय-कला भी| यहाँ की लोक-भाषा, लोक-गीतें, लोक-कलायें, लोक-परंपरायें भी तो सुदूर इन्ही रास्तों में छिपी हैं| बुद्ध-कालीन लोक-पर्व ने भी कितने ही स्थानो को गौरवमय बनवाया.. तो नयी परंपराओं के गठन के लिए बिहार व भारत के सुदूर रास्तों को भी वैभव-विहारों की मंज़िल पे लाना होगा... ताकि आज के युवा इन शक्ति-स्तंभों के ही इर्द-गिर्द सू-शोभित हो सकें.. और बिहार पर्यटन व भारत-दर्शन को भी कुछ नये रास्तें मिल जायें..|
Vipra Prayag Ghosh
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