Sunday, 25 January 2015

मंज़िलें अपनी जगह हैं.. रास्ते अपनी जगह...

वो २०१३ एप्रिल की रात थी| आख़िर काफ़ी देर इंतेज़ार के बाद बक्सर इंजिनियरिंग कॉलेज के एक सहयोगी लेक्चरर को कॉलेज लौटता देखा| रात के करीब ११ बज रहे थे| जब की बक्सर कॉलेज की ओर आनेवाली ट्रेन को उन्होने दिन के बारह बजे पटना रेलवे स्टेशन से पकड़ा था| पटना से अपने कॉलेज के नज़दीकी स्टेशन टूडीगंज को आने में पॅसेंजर ट्रेन से ढाई से तीन घंटे लगते हैं| लेकिन हुआ क्या.. जो उन्हें इतनी देर लगी !! हुआ यूँ की जिस ट्रेन को उन्होने पकड़ा वो लौटते वक़्त आरा स्टेशन से अपनी ट्रॅक बदलकर सासाराम वाले रूट पे चली जाती है.. दक्षिण की ओर.. जबकि हमें बक्सर रूट पे पश्चिम की ओर आना होता है| ट्रेन पे चढ़ते ही वो सो से गये.. फिर ट्रेन कब आरा स्टेशन से अपने नये रूट को चल दी कुछ पता ही नहीं चला| आख़िर जब नींद खुली तो वो सासाराम के थोड़े नज़दीक आ पहुँचे थे| खैर.. अब तो वो सही सलामत कॉलेज आ पहुँचे थे|

फिर हमसब कॉलेज कॅंटीन में   रात का खाना खाया.. और खाते खाते मैने उनसे पूछा.. तजुर्बा कैसा रहा ?? वो मुस्कुरा रहे थे.. और कहा.." इस तजुर्बे पे तो जैसा लगता है  मेरी मोहर  ही लगी थी|" खूशी का कोई ठिकाना ना था| ...रात बीरात टेंपो- जीप - बस पकड़कर उस अंजान जगह से आरा स्टेशन को जो आए थे| ये सब सुन मन ही मन.. मैं भी मुस्कुराए जा रहा था| मुझे याद आ रहा था.. मेरी भी वो भूल-.भूलइए वाली यात्रा...|  बात २००८ फ़रवरी की थी| उस समय मैं MIT, Purnea में कार्यरत था| कुछ दिनो पहले ही अपने कॉलेज के NSS विंग का Programme Officer नियुक्त हुआ था| NSS कार्यक्रमों का मुख्य-संचालन मधेपुरा यूनिवर्सिटी से ही होता था| फिर एक पत्र मिला.. जिसमें Purnea-Koshi प्रमंडल के अन्य कॉलेज के Programme Officers की एक मीटिंग तय की गई थी.. मधेपुरा यूनिवर्सिटी में| खूश था की कुछ नया तो मिला..| फिर तय दिन पे सुबह सुबह दही चूड़ा खाकर Purnea Court स्टेशन से पॅसेंजर ट्रेन को पकड़ा| ... और कुछ दिन पहले भी एक मित्र के शादी की बारात से लौटते वक़्त इसी ट्रेन से पहली बार सुबह सुबह Saharsa से Purnea आया था.. जो मधेपुरा होकर ही आती थी|  फिर उस दिन भी टिकट काउंटर से मधेपुरा का टिकट लिया और ट्रेन में उपर वाली बर्थ खाली देख.. उस बर्थ पे लेट गया.. की सोते-सोते ही मधेपुरा पहुँच जायेंगे|

सुबह सुबह की वसंती हवाओं में नींद भी कब आ गयी कुछ पता ही न चला| लेकिन फिर जब नींद खुली तो थोड़ा गर्मी का एहसास हुआ| दिन के करीब १० बजने को होंगे.. चलती ट्रेन में लोगों की भीड़ भी बढ़ गयी थी| फिर एक मूँगफली वाले से पूछा.. मधेपुरा कितने बजे तक आएगा... इतने में एक नीचे बैठे सज्जन ने कहा.. "आपको जाना कहाँ है?" मैने कहा "मधेपुरा".. उन्होने कहा.. " अब तो कुछ मिनटों में बिहारीगंज आ जाएगा.. आपको मधेपुरा जाने के लिए बनमंखी स्टेशन पे उतर जाना था.." ये सब सुन मेरी समझ में तो कुछ भी नहीं आ रहा था| मैने कहा "कुछ दिनो पहले तो इसी ट्रेन से सहरसा से पूर्णिया आया था.. मधेपुरा होते हुए.." उस सज्जन ने मुझे रोकते हुए कहा.. "जाते वक़्त ये ट्रेन मधेपुरा होके ही जाती है.. मगर लौटती है.. बिहारीगंज... घबराईए नहीं आपको अगर मधेपुरा जाना है.. तो बिहारीगंज से मधेपुरा के लिए जीप.. ट्रॅकर मिल जाएगी.."| बात भी सही थी.. इस रूट पे मेरी यह तीसरी यात्रा थी..| पहली यात्रा हुई थी.. १९९३ में मैट्रिक परीक्षा में.. जब परीक्षा केंद्र धमदाहा पड़ा था.. दूसरी यात्रा थी कूछ दिनो पहले मेरे एक मित्र के शादी के बरात में सहरसा को जाना.. और तीसरी ये जो मुझे पहली बार "बिहारीगंज" के दर्शन को करवा रही थी| ऐसे तो किसी नये रास्ते पे अकारण भटक जाने में शुरुआती झुंझलाहट तो होती है.. मगर साथ ही मिलने वाली आत्मिक-संतोष से फिर आपको.. आपके मंज़िल की ओर ले जानेवाले साधन भी नज़र आने लगते हैं| 


फिर मैं अपने बर्थ से नीचे उतर.. चलती ट्रेन की खिड़की से बाहर के नज़ारो को देखने लगा| रेणु जी के मैला आँचल की प्रतिबद्धता जैसे आज भी कायम हो| जगह जगह दिखे जलाशय और पोखर.. मानो ये आज भी आपके पाँव धोने को आतुर हों| ट्रेन के बिहारीगंज स्टेशन रुकते ही.. उस बगल बैठे सज्जन के बताए निर्देशों पे मैं चल दिया| स्टेशन से बाहर निकल मैं बस-अड्डे आ पहुँचा| "ग्वालपाड़ा.. मधेपुरा.. सहरसा.. " "ग्वालपाड़ा.. मधेपुरा.. सहरसा.." की आवाज़ लगाते गाड़ीवालों की ज़ोर की आवाज़ें कानो को भेद रहीं थी| फिर एक जीप में आगे वाली सीट खाली देख जा बैठा| वहाँ कुछ देर रुकने के बाद.. अन्य यात्रियों को लेकर जीप खुली| जीप बिल्कुल ठसाठस भरी हुई थी| जीप के उपर भी कुछ लोग थे| छोटे शहर और कस्बों के मार्केट एरिया भी कम रोचक नहीं होते| फिर उस शहर को छोड़ने के बाद.. ग्रामीण क्षेत्र की टेढ़े-मेढ़े और उबर-खाबर रास्तों को होती हुई.. फिल्मी गानों के साथ हम हिचकोले खाते आगे बढ़ रहे थे| उन फिल्मी धुनों और उस जीप के जर्रे-जर्रे से निकलती सिसकती आवाज़ भी अपनी शमा खूब बाँध रही थी.. मेरे उस अंजान सफ़र में| जीप के आगे बैठे-बैठे उसके सामने की धुंधली शीशे से मैं जो भी देख पा रहा था.. वो हमारे जीवन के ही अंश थे.. लेकिन आज भी मानो अनसुलझी ही थी| बिहारीगंज पे पहली बार आके मुझे लगा मानो जीवन के किसी छोर पे आ पहुँचा हूँ.. जहाँ से आने-जाने का रास्ता एक परीया ही है,,, एक सुदूर टापू के समान|


बिहारीगंज नाम तो वर्षों से सुन रखा था.. जब हमारे जिले के कुछ छात्र यहाँ से दसवीं बोर्ड मैट्रिक परीक्षा के फॉर्म भरा करते थे.. परीक्षा में मन-मुताबिक माहौल के लिए.. भौगोलिक सुदुरता में जो था.. बिल्कुल निश्चिंत भाव लिए.. एक-परीया भाव| बिहारीगंज से मधेपुरा लगभग ४०-४१ कि. मी. की दूरी पे था| दिन के पौने-ग्यारह बज गये थे.. फिर वहाँ पहुँच.. यूनिवर्सिटी भी जल्दी पहुँचना था| करीब १ घंटे बाद ग्वालपाड़ा पहुँचने पे.. जीप जाके रुकी| फिर जीप से नीचे उतर कमर थोड़ा सीधा किया.. बैग से बोतल निकाल पानी पिया.. फिर जाके थोड़ी राहत मिली| कुछ लोगों के ग्वालपाड़ा में उतरने के बाद.. मैं जीप की पीछे वाली सीट खाली देख वहाँ बैठ गया.. ताकि उस धुंधले शीशे से हट इस ग्रामीण परिदृश्य की जमकर अनुभूति ली जा सके| मेरी उत्कट्ता इस तरह हावी हो गयी थी.. की चलती जीप से पीछे उड़ती धूल की भी परवाह नहीं थी| गाँवो के बीच से गुज़रते दिखे रोड के दोनो ओर सुखते पटुवे.. जिसे बाजारू भाषा में जूट कहतें हैं| इसकी खेती खूब होती है यहाँ.. और फिर हवाओं में पिरोती इसकी दूर तक तैरती खुसबू| फिर दिखे जगह-जगह मिट्टीपन की मिठास लिए हरी-भारी वादियों से गुज़रते भैंसो की टोली.. और उन सब पे सवार छोटे-छोटे बच्चे| कुछ बच्चे तो दूर तक अपनी लोहे की रेला-चक्की को लिए उस चलती गाड़ी के उड़ते धूल के पीछे दौड़ लगाते रहे.. मानो वो भी किसी अबोध प्रतिस्पर्धा में ही सही... आने वाले कल के संघर्षों के लिए खुद को तैयार कर रहे हैं| आख़िर हमारी आज की सभ्यता के किस साम्राज्य को मैं बस टक-टकी लगाए देखे जा रहा था| इन्हीं सोचों और अनुभवों को मन में क़ैद किए मैं दिन के लगभग १ बजे मधेपुरा यूनिवर्सिटी आ पहुँचा|

पहली बार मधेपुरा यूनिवर्सिटी आया था.. और वो भी एक मीटिंग अटेंड करने| देर से पहुँचने की चिंता भी थी.. तो थोड़ी बहूत खुशी भी..| गेट से प्रवेश के बाद ही पूछते-पूछते मैं NSS Office आ पहुँचा| अंदर आने पे अन्य कॉलेज से आए कुछ Programme Officers को भी Co-Ordinator  साहब के साथ बैठा पाया| Co-Ordinator साहब मुझे देखते ही पहचान गये| अपने सामने वाली कुर्सी में बैठने को कहा| फिर मैं देर से आने का कारण बताया| सब कुछ सुनने के बाद उन्होने कहा..." कोई बात नही.. मीटिंग तो कॅन्सल हो गयी है.. कुछ  यूनिवर्सिटी स्टाफ के हड़ताल की वजह से..| अगर हो सके तो आप जितनी जल्दी हो लौट जायें.. नहीं तो Purnea जाने की ट्रेन छूट जाएगी..| मैं अवाक सा रह गया|

फिर तो उल्टे पैर मधेपुरा रेलवे स्टेशन का रुख़ किया| भूख भी जोरों की लगी थी| स्टेशन पहुँच.. बाहर गेट  के एक होटल में बने लज़ीज़ "बगेरी-भात"  खींच के  खाया.. और बमुश्किल ट्रेन पकड़ Purnea को आया| अगले दिन  मेरी यात्रा वृतांत को सुन मेरे कुछ मित्र और सहयोगी  हँस ही पड़े.. तो कुछ ने कहा.. "बुद्धू.." "बोका.." | जैसे मानो अपने मंज़िल को पाते ही नये नामों की नामाकरण शब्दावली उमर पड़ती हो.. लेकिन मन ही मन " बुद्ध-तत्व" को लिए मैं तो उन्हीं रास्तों में था.. जिसे मैने मधेपुरा-बिहारीगंज के इस सफ़र में जीया था| कुछ दिनो पहले Internet से मधेपुरा और बिहारीगंज के इतिहास की झलक मिली तो उन रास्तों के पौराणिक वैभवॉ का भी..|

...The ancient name of Bihariganj was "Nishankhpur kodha". In medieval times this place was ruled by "Sen dynasty". In the 16th century the main stream of the Koshi river flowed to this place, named "ha-ha dhar", & there have a small market in Bihariganj . Approximately 2 kilometers near this place, also Gamail Gola was used as a local market where jute, rice, wheat, and other commercial items were purchased and bought by the local people.
http://en.wikipedia.org/wiki/Bihariganj
The history of Madhepura can be traced back to the reign of Kushan Dynasty of Ancient India. The "Bhant" communities living in villages of Basantpur and Raibhir under Shankarpur block are the descendants of the Kushan Dynasty. Madhepura was then part of Maurya Dynasty, a fact asserted by the Mauryan pillar at Uda-kishunganj. The name Madhepura is believed to have evolved from Gangapur - a village named after Gangadeo, the grandson of King Mithi, who is said to have established the state of Mithila. Gangapur village itself is said to be named after King Gangsen of the Sen Dynasty. From 1704 AD to 1892, the Kosi river with its diverse courses remained striding the areas right from Forbisganj to Chandeli Karamchand and Raghuvansha Nagar & thereafter submerging itself into the Ganges at Kursela. As Madhepura stands at the centre of Kosi ravine, it was called Madhyapura- a place centrally situated which was subsequently transformed as Madhipura into present Madhepura. Another view is also there as to its naming as the area is said to have been inhabited by the bulk of Madhavas - clan of Lord Krishna. It was termed as Madhavpur which gradually became Madhavpur into Madhepura. (Extracted from Brihad Hindi Kosh, 5th Edition, Page- 887). In ancient times, Madhepura remained a part of Anga Desh. It was also governed by Maurya, Sunga, Kanva and Kushan dynasties. It was a part of Mithila province during Gupta Dynasty. The Mauryan Pillar discovered at Kishunganj bears testimony to it. Madhepura remained under the dominance of Bihar rulers during Rajput rule. Present Raibhir village under Singheshwar block was a stronghold of Bhars.During Mughal period Madhepura remained under Sarkar Tirhut. A mosque of the time of Akbar is still present in Sarsandi village under Uda-Kishunganj. Sikander Sah had also visited the district, which is evident from the coins discovered from Sahugarh village
NSS (National Service Scheme) राष्ट्रीय सेवा योजना का मेरा कार्यकाल बहूत कम दिन ही रहा| पर आज भी उस मर्म-स्पर्शी सफ़र का ध्यान खींचा चला जाता है.. जब-जब NSS का ज़िक्र सामने आता है| राष्ट्र के ऐसे सुदूर छोरों पे ना जाने ऐसे कितने ही काम किए जाने बाकी हैं.. बशर्ते इनका संचालन कुछ स्पष्ट नीतियों के भी साथ हों| आज के वर्तमान का भूत और भविष्य के साक्ष्यों से तालमेल बेहद ज़रूरी हैं.. नहीं तो हम अपने बनाए रास्तों पे ही मंज़िल बस ढूँढते ही रह जायेंगे.. कुछ-कुछ एक परीया सा..| 

आज हमें अपने राज्य बिहार के रूप में जो भी मिला है.. वो मैदानी व हरित भू-भाग ही है| जिसकी पुख़्ता पूंजी ऐसे सुदूर छोरों पे ही है| ग्रामीण कृषक ही ऐसे सुदुरता में भी सुंदरता पिरो सकते हैं.. बशर्ते इनके रास्तों को पौराणिक शक्ति-स्तंभों से पुख़्ता किया जाए| यहाँ सभी धर्मों व वर्गों का समान स्वरूप हैं| पौराणिक कालों के मंदिरों के साथ.. मस्जिदों-मज़ारों का भी मेल है.. तो चर्च, गिरिजाघर और गुरुद्वारे भी हैं| बक्सर के एक पौराणिक  शिवमंदिर के दर्शन के बाद मन में उठी उत्कंठा में.. कुछ समीपवर्ती  शिवमंदिरों व अन्य देवी-देवताओं के शक्ति-पिठों  के साथ दिखाई दी भू-भागीय आस्था से जुड़ने की आत्मीय-कला भी| यहाँ की लोक-भाषा, लोक-गीतें, लोक-कलायें, लोक-परंपरायें भी तो सुदूर इन्ही रास्तों में छिपी हैं| बुद्ध-कालीन लोक-पर्व ने भी कितने ही स्थानो को गौरवमय बनवाया.. तो  नयी परंपराओं के गठन के लिए बिहार व भारत के  सुदूर रास्तों को भी वैभव-विहारों की मंज़िल पे लाना होगा... ताकि आज के युवा इन शक्ति-स्तंभों के ही इर्द-गिर्द सू-शोभित हो सकें.. और बिहार पर्यटन  व भारत-दर्शन को भी कुछ नये रास्तें मिल जायें..|

Vipra Prayag Ghosh

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Tuesday, 20 January 2015

शिक्षक: क्रान्ति का अग्रदूत ...



आज के अख़बार में पढ़ा, किसी बच्चे ने पूछा की ब्राम्‍हांड की खोज किसने की ? जबाव था... हर वो बच्चा जो इस दुनिया में जीवन लेता है और अपने ज्ञान के सृजन से रचता और बसाता है| पर ज्ञान के सृजन का सूत्र कौन देता है... शिक्षक...!!! एक ऐसा ज्ञान केन्द्र जो खुद में सम्मानित है, अपनी ऊर्जा और अपने तेज से...| दुनिया नहीं बचती नहीं रचती नही बसती अगर शिक्षकों का आभार समाज और जगत को नहीं मिलता| दुनिया को छोड़ अगर मैं अपने भारत की बात करूँ तो राम लक्ष्मण के शिक्षक महर्षि विश्वामित्रा किसी को याद नहीं पर पोस्ट इनडिपेंडेन्स एरा में इस दिवस को सर्वपल्ली राधाकृष्णन की याद में समर्पित किया जाता है| और फिर सामने एक सुंदर चित्र-मुखमंडल पे मल्यार्पण और कर्णप्रिया और दृश्याप्रिया कार्यक्रमों का आयोजन| क्या इतना काफ़ी है... एक नव-भारत की नव-रचना में...| शिक्षा से संबंधित वो सारे प्रयास बेकार हैं जब हम अपनी भारतीय सभ्यताओं में पुरातन तत्वों का आकर्षण ना पिरों सकें, और जब हम डेवेलपमेंट की नयी सीमाओं के सन्निकट हैं तो नये चर्म-रोगों का सामना भी तो साहस से करना होगा....याद रहे की यह रोग दिल और आत्मा तक ना पहुँच जाए| किसी ने कहा आप आज जहाँ हैं वो बिहार है... कुछ दिनों बाद आप का कर्मास्थल पूर्वांचल ना बन जाए... निवास स्थल सीमानचल ना बन जाए... और पैत्रीक स्थल अंगाचल ना बन जाए.... जब की आज से पहले १८५७ की तस्वीर कुछ ऐसी थी की... यह बंगाल था, फिर बिहार और ओड़ीसा बने ... अब तो झारखंड नये अस्तित्वा में आ चूका है| लेकिन फिर यह कोई नहीं कहता की यह एक दिव्यनचल है.... ब्राम्‍हंचल है... अध्यातमानचल है| यह बताने वाला एक शिक्षक ही है.... जो समग्र ज्ञान लिए खुद में पुरातन है, हर दिवस में चलयमान है.... आपके जीवन का सम्मान है| ये है तो एक सम्रिध राष्ट्र निर्माण है.... नहीं तो धृतराष्ट्र महान है|

~ विप्र प्रयाग घोष



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Monday, 19 January 2015

"महासभाओं के होड़ में आदर्श शिक्षकों का भिक्षाटन...."

   बात उन दीनो की है, जब हम.. मैं और मेरे प्रिय मित्र-मंडली मैट्रिक के रिजल्ट के बाद अच्छे कॉलेजों में एड्मिशन की फॉर्म फिल्लिंग के लिए पटना और भागलपुर के चक्कर लगा रहे थे। पटना और भागलपुर के कुछ चुनिंदा कॉलेज में पटना साइन्स कॉलेज, बी. एन. कॉलेज, ए. एन. कॉलेज एवं टी.एन.बी. कॉलेज का चुनाव और फिर इन कॉलेजों में एड्मिशन हो जाना बिहार के लगभग सभी मैट्रिक पास छात्रों का एक स्वप्न हुआ करता था। पटना भ्रमण के दौरान मैने महसूस किया कि आने वाले दिनों में जिन साईन्स और मैथेमैटिक्स की किताबों से हम मुखातिब होने वाले हैं.. उनके राईटर्स की यहाँ कोचिंग क्लासेस चला करती है। पटना के उस दौर के नामी गिरामी शिक्षकों में बिल्टु सिंह, नफीस हैदर, अख़्तर साहब, के.सी. सिन्हा भाईयों के नाम प्रमुख थे।

    फिर कुछ दिनो बाद अपना अड्मिशन पूर्णिया कॉलेज पूर्णिया में ही संभव हो पाया। स्कूल छूटते ही खुला व उन्मुक्त एक नयी पाठशाला.. फिर तो पूर्णिया कॉलेज का भी अपना एक स्वर्णिम इतिहास रहा है। कॉलेज प्रक्रिया में आने के कुछ दिनों बाद पूर्णियाँ के ही एक साईंस कोचिंग क्लास के साथ विषयवार होम टेबल ट्यूशन को भी जाय्न किया, जिनमें कुछ शिक्षक प्रोफेसर तो पूर्णिया कॉलेज में भी पढ़ाते थे। जिनमें केमिस्ट्री के प्रख्यात प्रोफेसर डा. टी.वी.आर.के.राव, ऊ.एम.ठाकुर.. फिज़िक्स में टी.के. डे, एस. पी. यादव, ए.के. पाण्डेय.. मैथेमैटिक्स में रवि मुखर्जी, महादेव चौधरी, अमल घोष, विजय तिवारी, सुभाष बाबू आदि उस समय के फेमस शिक्षकों में मान्य थे। बॉटेनी ज़ूलोजी में भी प्रोफेसर एस.के.राकेश, बी.एन. पाण्डेय, अजय सिंह व अन्य अच्छे फेमस प्रोफेसर थे। फिर प्राईवेटाईजेशन दौर में कुछ ब्रांड महासभाओं के शिक्षाटन में इनकी निजी प्रतिभाओं को मानो ग्रहण सा लग गया। जो शैक्षणिक ब्रांड व्यापार में अपने निजी शिष्टाचार को पिरों पाए, उनकी राह लग गयी.. लेकिन कुछ को पलायन का मार्ग भी अपनाना पड़ा। खुद मैं जब अपने दस-बारह वर्षों के पूर्णियाँ इंजीनियरिंग कॉलेजों के अनुभवों को देखता हूँ तो अनुकरणीय शिक्षकों की कमी बहूत महसूस हुई। जो समाज में बचे थे उनकी मूल बोलती ब्रांड व्यापार के समीकरणों में सुसुप्त थी। आज जागरण देने वाला खुद.. मूह ताक रहा मानो। महाविद्यालयों के इन गुरुजनों से लैस तात्कालिन समाज भी सामाजिक आग्नेयास्त्रों से खुद में समृद्ध समझा जा सकता था। अनुशासन की कटिबद्धता ऐसे प्रतिबद्ध अनुसरणों में ही निहित थी। हर एक शहर प्रोफेसर कॉलोनी के दिव्य स्थापन से ही सुशोभित था। क्या साहित्य.. क्या इतिहास और क्या दर्शन-शास्त्रों से निकल सामाजिक रसों में जा घुलते विज्ञान.. आज कहाँ विलुप्त हैं? फिर कुछ नाम जो रिसते दिखे थे.. एल.एन.मिश्रा मैनेजमेंट कॉलेज मुजफ्फरपुर वर्ष २०१३ के प्रैक्टिकल एग्जाम कंडक्शन में। पटना के रहने वाले प्रोफेसर मेरे ही साथ बुलाऐ गए थे। बातों बातों में जो ज्ञात हुआ.. १९९५ की फेमस मिश्रा एंड मिश्रा की प्रोबैबेलिटी मैथेमैटिक्स किताब उनकी ही लिखी थी.. लेकिन अब के नए बाजारु दौर में वो उत्साह भी निष्क्रिय हो चला था।

  शिक्षावादिता का वंदन तो गुरु समक्ष ही जान पड़ता है और फिर ऐसी आभाऐं जो बचपन से ही प्रमण्डलीय ऋचाओं में घुली पड़ी हों। ज्ञानसूत्र के ऐसे नव-अंकुरण जो अनेकानेक व्याधियों से परे विचरण को उन्मुक्त स्वतंत्र नित मंचन.. अभिरंजन। पूर्णियाँ के कॉलेजी शिक्षा को बल देने की पृष्ठभूमि भी तो स्कूली दिनों के मास्टर साहब ही करते नजर आते। अनुशासन व नैतिक अभिक्रियाओं की पहली पाठशाला। सहस याद है माँ सरस्वती के समक्ष स्लेट और खल्ली लिए वो पूजा के पहले अक्षर.. अ.. आ.. इ.. ई.. और भी एक स्कूली प्रांगण में पूर्णियाँ कोशी अंचल के महान संस्कृताचार्य पंडित श्री केशवनाथ त्रिपाठी जी के हाथों। वे तत्कालिन पूर्णियाँ गर्ल्स हाई स्कूल में पदस्थापित थे और नजदीकी मधुबनी के ही मुहल्ले में निवास भी था। रोजाना की भाँति ब्रह्म वेश में धोती कुर्ता व माथे पे तिलक मेरे घर के बगल से ही स्कूल को पैदल ही जाते.. फिर तो जैसे इन प्रकांड महात्माओं की पद छाप ही कितने श्लोकों व छंदों को गढते चले जाते। उम्रदराजी होने पे भी अपने परममित्र श्री मदन सिंह से मिलने संध्या बेला में रोजाना की भांति सहस ही आते दिखते। मित्र बंधुता व संबंध प्रगाढता के कितने ही साहित्य जो उन भोजपुरी वार्तालाप के तानों बानों में बुने जा सकते हैं। सौभाग्यवश उसी गर्ल्स हाई स्कूल में मेरी माँ ने भी शिक्षा ग्रहण की और फिर रिटायरमेंट तक शिक्षिका पद पे अपने गुरुजनों के साथ ही सतत सुशोभित रहीं। संस्कृत व हिन्दी साहित्य से जुड़ी अनुभवी शिक्षिकाओं में हमारे समाज की ही धार्मिक प्रवृत्त व मेरे मित्र की दादी श्रीमति सुदामा मिश्रा भी थी। युं कहें तो साहित्य शास्त्रों में हमने बस महादेवी वर्मा का नाम ही सुना था.. पर मुखमंडल ध्यान बस उनका ही आता। क्रिश्चियन व रोमन कैथोलिक मिशनों से जुड़े स्कूली पाठशालाओं में भी कोई भेद ना था.. आपके कौशल सक्षमता का सटीक मूल्यांकन मिलता। फिर ज्ञान गर्भ के वेदकोषों में कितने ही गुरुजनों के नाम सुनने को मिलते.. काशी बाबू.. भुवनेश्वर बाबू, भोला बाबू.. गजेन्द्र बाबू.. तिलोत्तम बाबू.. गायत्री दी.. करतार दी.. उमा वर्मा दी.. रमा लाहिड़ी दी आदि आदि जिनसे पूर्णियाँ के कितने ही अभिभावक वृंदों ने भी शिक्षा दीक्षा ग्रहण की थी। फिर पढने पढाने व गुरु निष्ठा के सम्मान व आचरणों से भरे जीवन में.. मेरी दादी माँ के एक शिक्षक श्री सुरेन्द्र नारायण सिंह पिता श्री बिरेन्द्र नारायण सिंह का निवास भी सन्निकट ही था। फिर शिक्षकों के सम्मान से जूड़ी उस आस्था को भी बड़े ही पास से देख पाया हूँ। याद है अक्सर मेरी दादी का नाम "उषा" "उषा" लिए वो आते और फिर ब्रिटिश हुकूमत व आजादी के दिनों की कहानियां बता जाते। मेरी दादा-दादी के विवाहोपरांत.. दादी ने स्कूल टिचर ट्रेनिंग उन्हीं के प्रिंंसिपलसिप के निगरानी में भागलपुर बाँका से किया था। दादाजी उस वक्त भागलपुर पुलिस अॉफिस में थे और कुशलक्षेम हेतु यदा कदा टीचर्स ट्रेनिंग के दौरान दादी से मिलने उनका आना भी होता था.. तो इस प्रसंग को जीठठोली लहजे में मास्टर साब हम बच्चों को कहानी बताते कि तुम्हारा दादा पुलिसिया हाफ पैंट में आता था.. लेकिन मैं बाहर घंटो खड़ा रखता था.. और फिर जोर से हँसने लग जाते। गाँधी टोपी, धोती, कड़क मूँछ और अपने सख्त अंदाजों में वे हम बच्चों के लिए चाचा चौधरी से कम ना थे.. और तो और उनके आगमन से सख्त मिजाजी मेरे दादा दादी भी विनम्र हो जाते। सच में जीवन के ऐसे श्रद्धेय भावों के हम कभी पार उतर ही नहीं सकते।

विद्या ददाति विनयं विनयाद्याति पात्रताम्।
पात्रत्वाद्धनमाप्नोति धनाद्धर्मं ततः सुखम्॥

..फिर तो बचपन के दिनों से ही अपने मुहल्ले समाज में स्थापित व सुसज्जित इन्हीं भव्यताओं में हम सभों के नए बोल भी फुटे थे। घर के सामने ही कुरसेला राज परिवार के प्रोफेसर विजय कुमार सिंह का निवास व सामने वाला खुला फिल्ड। आज भी वो प्रोफेसर साहब के नाम से ही सुशोभित है.. हम सभी बच्चों के खासे प्रिय.. प्रेम व आदर वश हम उन्हें बाबा ही बुलाया करते। उनके उस पुराने बड़े से घर आंगन में हम सभी बच्चों की खुब धमा चौकड़ी होती। लुका छिपी हो या क्रिकेट या बैडमिंटन.. हर तरह का खेल उनके ही घर आंगन। खेलकूद के गतिरोधों व मतान्तरों में उनका निर्णय ही श्रेष्ठ होता। फिर पिताजी के साथ मधुबनी वाले छोर पे केमिस्ट्री के प्रोफेसर अरुण कुमार सिन्हा के घर बचपन में जाना होता था। शालीन और सभ्य समाज के पूरक प्रोफेसर नामावली की इस गरिमा में कितने ही वरिष्ठ मानुवों को हम सब ने अपने ही समाज में देखा.. जिनमें प्रोफेसर एन.के. सिंह, इन्दुबाला सिंह, प्रमोद कुमार सिंह, रामू बाबू, उर्मिला यादव, राजलक्ष्मी सिंह, विजया झा तो आदरणीय स्कूली शिक्षकों में महावीर बाबू, रणविजय सिंह, बिरेन्द्र सिंह, शंभु मिश्रा, कौशल बाबू आदि शिक्षकों के नाम आज भी स्मृतिपटल पे सुसज्जित हैं।

ज्ञान विज्ञान के साथ साहित्य व कला को बल देते भाव भी संजोने को मिले थे। चाहे हो अपना घर आंगन या पास ही का कला भवन। श्री अखिलेश्वर वर्मा को अपने घर पे साहित्यकार व कवि अज्ञेय की रचनाओं पे पी.एच.डी के शोधपत्रों को लिखते पाता था। अपने कमरे में कभी लालटेन तो कभी जलते लैंप की लौ में हिन्दी साहित्य की कमर कसते.. सोचता कि आखिर इन अक्षरों में क्या छिपा है तो फिर घर पे दिख पड़ते दादाजी के लिखे कितने ही लेख.. जिनमें यात्रा उल्लेखों के साथ कविताऐं भी संलिप्त रहतीं। १९८९ विदेश यात्रा में तो उनकी लिखी कुछ ईंग्लिश कविताएँ भी पढने को मिली। या फिर कहें तो सामाजिक व प्रदेशिय जीवन के हर एक छोर पे इन शिक्षण ध्रुवों का सार छिपा है.. पुनर्जागरण हेतु इन मर्मों के आध्यात्मों को जीवंत करना ही होगा तो ही ऋषि योग में महर्षि, राजर्षि व ब्रह्मर्षियों के साथ कल्पांतों के सप्तर्षियों को जाना व समझा जा सकता है।

  अब तो दशक पे दशक बिते.. नयी पीढ़ी कुछ जानने को आकुल.. बताने वाला कोई नहीं। टेलिवीजन, रुपहले पर्दे और पत्र-पत्रिकाओं के माध्यम से नयी पीढ़ी को क्या मिलने वाला, जब मानव प्रकाश पुंज बिखेरने वाला सामाजिक शिक्षित गजमुक्ता ही विलुप्त है। सटीक मार्गदर्शन के इसी आक्रांत भाव में आज के छात्र कोटा, देल्ही व अन्य विकसित राज्यों के महानगरों का बेबस रुख़ कर लेते हैं। स्वयं सिद्ध महासभाओं के दंश में एक मौन प्रखर कथित शिक्षाटन को मजबूर... तो फिर उन समाज शिक्षकों का क्या जो इन ब्रांड दंश से अपने भिक्षाटन पे हैं..।

विप्र प्रयाग घोष

संजीवनी से जुड़ी खुशियाँ ही सही...!!!



कभी कभी समाचारों के माध्यम से ही सही, मिलने वाली यह खुशियाँ भी तो कुछ कम नहीं| हिन्दुस्तान दैनिक के इस आलेख में आज भी हमारे पौराणिक काल की संजीवनी बूटी के संरक्षण को बल देता संदेश हमें आज भी मिल पा रहा है, ये खुद में सुखद है की आज भी इसके विलुप्त अस्तित्व को जोड़ कर रखने वाले योग-पुरुष हमारे समाज में मुस्तैदी के साथ बने हुए हैं| संजीवनी बूटी और इससे जुड़ी बातों का ज़िक्र तो हम बचपन के दिनो में ही दादा दादी से सुनी रामायण की कहानियों में पौ फटते ही हर रोज़ कर लिया करते थे, और बचपन के पल हर रोज़ इस संजीवनी के संजीवन से उन्मुक्त हो खिल उठता था| ये बात उन दिनो की है जब मैं मैट्रिक बोर्ड दसवी की परीक्षा की तैयारी में जुटा हुआ था| हमारे बोर्ड के विषयों में हिन्दी के साथ संस्कृत की अपनी विशेषता थी| उस समय हमारे अंचल के प्रकांड संस्कृत शिक्षक और विद्वान हुआ करते थे श्री त्रिपाठी जी...| मेरी माँ भी अपने समय में उन्ही से संस्कृत और हिन्दी की शिक्षा ग्रहण की थी| हिन्दी और संस्कृत मेरी बहूत बुरी भी नहीं थी, लेकिन अगर आपने त्रिपाठी सर का आशीर्वाद नहीं लिया तो बहूत कुछ छूटा सा रह जाएगा| रिटाइयर्मेंट के बाद वो अपने घर पे ही संस्कृत की ट्यूसन पढ़ाते| अपनी मा के कहने पे मैने भी उनकी ट्यूसन क्लास जाय्न की| संस्कृत के साथ साथ कभी कभी हिन्दी पद भाग को भी पढ़ाते| याद है एक बार हिन्दी पद में जब वो तुलसीदास रचित राम चरित मानस के कुछ छंदों का ज़िक्र कर रहे थे, और सबरी के आश्रम की बातों का ज़िक्र आया, कि " कैसे उन्होने भगवान राम को बेर खिलाने के पहले उन बेरों को खुद चख लिया करती थी, ये पता लगाने की कहीं वो ज़्यादा खट्टे तो नहीं| राम तो उन चखे हुए बेरो को बड़े प्यार से खा लेते .. लेकिन लक्ष्मण उन्हें बिना खाए बगल में फेंक दिया करते... फिर जब आगे चल रावण के साथ युद्ध में मेघनाद का वान से लक्ष्मण मूर्छित हुए थे सबरी के आश्र्म में फेंके वही बेर संजीवनी बूटी बन लक्ष्मण की प्राण रखा में सहायक सिद्ध हुई थी, जो हनुमान जी ने हिमालय की पहाड़ियों से ही उस संजीवनी बूटी को पहाड़ सहित अपने हथेली पे रख लाए थे...|"
 इस अद्ध्याय के बाद मैं अपने घर आया.... पर मेरा मन कुछ बिंदूओं पे आके रुक सा गया था की... सबरी का आश्र्म तो कहीं भारत के दक्षिण में था फिर... हनुमान संजीवनी बूटी हिमालय की पहाड़ियों से लाए थे... लक्ष्मण ने बेर वहाँ फेंका था... फिर वो बेर दक्षिण से उत्तर के हिमालय पर्वत पे कैसे पहुँचा.. संजीवनी कैसे बना... और बहूत कुछ...!!! फिर अगले दिन अपने इन्ही प्रश्नो के साथ मैं त्रिपाठी सर के सामने था... और फिर पढ़ाने के बीच मैने अपने इन प्रश्नो को उनके सामने रखा... फिर क्या था.. मेरे उन तर्क-संगत प्रश्नो को सुन वो गुस्से में आग बबुला हो गये... मुझे सभों के बीच बेंच पे खड़ा कर दिया... और संस्कृत की गालियो से मुझे नहला सा दिया.... हराशंख, गार्दभ... और ना जाने क्या क्या...| उन्होने कहा जिसकी दादी इतनी धर्मात्मा, दादा इतना कर्मठ... उनका पोता इतना पाखंडी होगा.. इतना कह उन्होने मुझे अपने क्लास से निकाल दिया| मुझे समझ में ही नहीं आ रहा था की मुझसे ग़लती क्या हो गयी... बस केवल वो संस्कृत की गालियाँ मेरे कानो में गूँज रही थी.. फिर कुछ दिनो बाद मैट्रिक की परीक्षा हुई, फिर रिज़ल्ट आए| सबसे ज़्यादा नंबर मुझे संस्कृत में ही मिले थे... मुझे विश्वास ही नहीं हो रहा था| फिर एक दिन मेरा एक मित्र मुझे बुलाने मेरे घर पे आया की त्रिपाठी सिर ने तुम्हें बुलाया है... इस बार उनके यहाँ पढ़ने वालों में तुमें ही सबसे ज़्यादा नंबर आयें हैं..| फिर मैं उनसे मिला, उनके पावं छुए... आशीर्वाद लिया... मानो मेरी संजीवनी मुझे मिल सी गयी थी| फिर वर्ष २००७ में विवाह उपरांत जब मैं महाराष्ट्र के महाबालेश्वर गया था तो वहाँ उन पर्वतों पे मेरी धर्म-पत्नी को संजीवनी के पत्ते मिले थे, मैं वहाँ भी संजीवनी की यादों में ठिठक पड़ा था... और फिर आज भी... |

विप्र प्रयाग घोष

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अध्यापन में पौराणिक अविष्कारों की विलुप्त संस्कृति... !!!


अभी अभी एक साइबर केफे में बैठ कुछ काम कर रहा था की तभी, बाहर से एक १४-१५ वर्षीय युवा की अपने मित्र से बात करने की आवाज़ कुछ यों आयी| " यार ये वेद क्या होता है... कहीं इसकी किताब इंग्लीश में मिलेगी....!!!" बस इन बातों से जान लीजिए की आज की युवा पीढ़ी, जब अपने देश की इंग्लीश मॉडेल शिक्षा से ओत-प्रोत है तो फिर भी इनकी अपने मिट्टी की पुरातन दिव्य-ज्ञान को जानने के उत्साह और ललक को भी नज़र-अंदाज़ नहीं किया जा सकता| ... और अगर समय के साथ हम अपने अध्यापन शोध से मोबाइल और मीडीया लोलुप बच्चों में पौराणिक अविष्कारों के सूत्रों के रहस्शयों का बीजा-रोपण ना करें तो... ये कह सकते हैं की बिना जड़-शक्ति संवर्धन के आप अपनी परिभाषा में जटिलताओं का आंकलन नहीं कर सकते|

 मैं खुद अपने विषय-वार अध्यापन अनुभवों को छात्रों के सामने जब भी उकेरने की कोशिश करता करता हूँ,तो जब तक उन टॉपिक्स के जन्म लेने के आलेखों का वर्णन नहीं करता हूँ... तब तक आज की डेवेलप्ड एप्रोच और उनकी विविधताओं को सामने रखने की आत्म-संतुष्टि नहीं मिल पाती| कंप्यूटर साइन्स इंजिनियरिंग की एक सब्जेक्ट है सिस्टम प्रोग्रामिंग... अन्य सारे सब्जेक्ट के मुक़ाबले कुछ जटिलताओं से समाहृत... तभी आज हम सूपर और क्वांटम कंप्यूटिंग के कमपाइलेसन और प्रोग्राम एक्सेक्यूशन को संभव होते देख पाते हैं| लेकिन जब इन टोपीक्सों को किताब की परिभाषा में पिरोना हो तो जॉन जे डोनोवान की किताब से रूबरू होना पड़ता है... जहाँ आपके सामने आइबीएम ३६०/३७० मसीनों का ही उल्लेख करना होता है... और फिर इन मसीनो पे किसी प्रोग्राम का कमपाइलेसन और एक्सेक्यूशन फेज़...|
http://en.wikipedia.org/wiki/John_J._Donovan
http://en.wikipedia.org/wiki/IBM_System/360
http://en.wikipedia.org/wiki/IBM_System/370

अब आज के समय विदेशों के कुछ नामी महाविद्यालयों को छोड़... इन मसीनो के सिम्युलेटर या फिर शोध व्याख्यानो से ही इनके वर्चुयल रूप को सामने रखा जा सकता है| तो जब भी इस सब्जेक्ट टॉपिक की व्याख्यान की बारी आती है तो मैं अपने जीवन की इस रोचक प्रसंग को कंप्यूटर साइन्स छात्रों के सामने रखने से खुद को नहीं रोक सकता|

 मेरे ठीक जन्म के बाद, ये बात एप्रिल १९७७ की है, तब मेरे चाचाजी जो उस वक़्त यूनिवर्सिटी ऑफ वॉशिंग्टन अमेरिका में मास्टर ऑफ साइन्स- फोरेस्ट रिसोर्सस की पढ़ाई कर रहे थे... उन्होने अपने पत्राचार में अपने खुशी की अभिव्यक्ति कुछ इस तरह की थी... " मैं अपने कंप्यूटर लैब में था जब बाबा (पिताजी) का पत्र मिला... जान कर  खुशी से उछल पड़ा की दादा(बड़ेभाई) को बेटा हुआ है ,  अभी अभी यूनिवर्सिटी लैब के   कंप्यूटर पे अपने प्रोग्राम को SET कर आया हूँ, आधे घंटे में पूरा हो जाएगा... इस बीच थोड़ा वक़्त मिला तो आप सभो को पत्र लिख रहा हूँ... "

.... तो ये बात १९७७ की थी जब एक कंप्यूटर प्रोग्राम को कंपाइल और रिज़ल्ट देने में आधे घंटे का समय लगता और तब... जब वो प्रोग्राम सही हो तो... नहीं तो फिर थोड़ा मॉडिफिकेशन और रिज़ल्ट का घंटों इंतज़ार... जो आज के पेंटियम मसीनो में पलक झपकते हासिल हो जाता है|

आज जब हम अपने कोर्स मेटीरियल को आज के प्रोफेशनल डिमांड से को-रिलेट करने की कोशिश में जुटे हैं, तो इस बात का ख्याल रखना बिल्कुल ज़रूरी है की इन सब्जेक्ट के नये विज्ञान के साथ इनके उत्सर्जन के जड़-तत्वों को भी जोड़ कर रखा जाय तो फिर ही आज के हमारे छात्र इनके भविष्य-शोधों में भी दिलचस्पी दिखा सकते हैं... और इस मामले में मैं दावे के साथ कह सकता हूँ की भारत में इन अध्यापन शोधों की भारी कमी सी है, और आज भी इस क्रम में चीन, जापान, कोरिया... जैसे देश हम से आगे हैं|

भारत के पिछड़े प्रांतों में नयी यूनिवर्सिटी खुल रही है, नये कोर्स सिलेबस बन रहे हैं जो आइ आइ टी के तर्ज़ पे ही बनाए जा रहे हैं... लेकिन क्या हम आज के नये सरकारी और प्राइवेट संस्थानो में पढ़ रहे छात्रों को अपने अध्यापन तंत्रों के ज़रिए उनके स्कूली समय से ही उस उत्साह को संवर्धित करवा पा रहे हैं| जब की आज भी उन प्राइवेट टेक्निकल संस्थानो में पढ़ने वाले ६०-७०% छात्र छोटे कस्बों और गावों से ही बड़ी सहजता से तो प्रवेश कर जाते हैं, लेकिन जड़ आधार गायब दिखता है| आप इंजिनियर डिग्री होल्डर तो बन जाते हैं, लेकिन जड़ तत्वों के ज्ञान के आभाव में... विषय-वार शोध और अपनी प्रोफेसनल गरिमा को स्वीकृत नहीं कर पाते|


~ विनायक रंजन

Friday, 9 January 2015

एलियंस की खूशफ़हमी से ज़्यादा...

भारतीय गणतंत्र दिवस 2013 के शुभ-अवसर पे दिए गये अपने संतोषप्रद भाषण के बाद.. ज्यों पलटा तो मेरी नज़रें ठंड में ठिठुरते बगल के गाँव के उन नन्हें बच्चों पे जा टिकी.. जो उस दिन हमारे इंजिनियरिंग कॉलेज में आए थे। वे बड़े ही कौतुहुल भाव से टक-टकी लगाए बस उस नज़ारे को देखे ही जा रहे थे। उनके लिए सब-कुछ विचित्र ही था। दिवस के महत्व से ज़्यादा शायद खुद के प्रत्यक्ष प्रमाणों में कुछ खोए हुए से..। कॉलेज में उस दिन के समारोह में हम सब उनके लिए विचित्र थे तो उनकी भावुकता मेरे लिए.. मानो मुझे एक अजीबोगरीब ग्रह की ओर खींचे चली जा रही है। फिर समारोह समापन के उपरांत सभो को गरमागरम जलेबीयाँ दी गई.. और वे बड़े ही वृहत-भाव में फूले नहीं समा रहे थे। उन सभो के संस्थान परिसर से जाने के बाद... जैसी मेरी व्याकुलता भी उन सभी बच्चों के संग हो चली थी। वो हमारे ही जैसे  भारत माता के ही बच्चे थे.. हमारी आने वाली कल की धरोहर..। मन ही मन मैं अपने संस्थान के चेयरमॅन को धन्यवाद दे रहा था.. की अच्छा हुआ जो उन्होने मुझे एक दिन पूर्व पटना जाने से रोक दिया.. नहीं तो मैं उस क्षण को दोबारा नहीं जी पाता। फिर दिन के भोजन के बाद मैं अपने कमरे में आया और थोड़े विश्राम के मन से पलंग पे लेट सा गया..। कुछ ही पलों में लगा जैसे वे बच्चे मुझे निमंत्रण दे गये हों। उनकी स्थिति देख मैं गहन चिंतन में डूब सा गया था। उस दिन की ठंडी में भी कम कपड़ों से ठिठुरते उनके उत्साहित भाव ने ही मुझे झकझोड़ सा दिया था। फिर तो जैसे एक नये सफ़र को निकलना ही था। झट मैने अपने बॅग से अपना कॅमरा निकाला.. अपने एक लेक्चरर कलिग को साथ लिया और पास के ही गाँव को निकल पड़ा। शुक्र था की वो लेक्चरर भी मेरा छात्र रहा था.. इसलिए बेमौके मेरे निर्देशों पे भी उसे ज़रा भी अचरज नहीं हुआ.. और हम उस दोपहर को कुछ लुभावने फोटोग्राफी करते हुए आगे चले जा रहे थे। रास्ते में मिले कुछ नील-गायों के दृश्यों को कॅमरे में समेटे आगे बढ़े ही थे की.. कुछ बच्चे गाँव के बगल वाली एक सपाट मैदान पे क्रिकेट खेलते नज़र आ गये।
हम जैसे जैसे उनकी ओर बढ़ते जा रहे थे.. उन सभो का ध्यान भी हमारी ओर ही आकृष्ट हुआ जा रहा था। फिर मैदान की बाउंड्री पे ही हम जा बैठे की कहीं हमें देख उनके खेल में कुछ खलल ना पड़ जाए। फिर मैं बाउंड्री से ही "कंट्री-साइड क्रिकेट थीम " की कुछ रोचक तस्वीरें अपने कॅमरे से निकालता रहा। धीरे-धीरे कुछ बच्चे भी हमारी ओर आने लगे.. ये छोटे नन्हे बच्चे वही थे.. जो आज हमारे कॉलेज को आए थे। वो हमें देख मुस्कुरा रहे थे.. एक बच्चे ने भोजपुरी में कहा.. " ई ता कॅलिज के पोफेसर लागा तानी"। और फिर पास आकर मुझे और मेरी फोटोग्राफी को देखने लगे। मैं भी उन्हें अपनी ली गयी कुछ फोटोस को उस डिजिटल कॅमरे से दिखाने लगा। फिर तो धीरे-धीरे अच्छी ख़ासी भीड़ सी जमा हो गयी हमारे आस-पास। ढलती शाम और मॅच की समाप्ति के बाद सारे मैदान के लड़के हमारे आस-पास ही थे। बहूत दिनो बाद उस विश्मय भावुकता का एक विह्वल कर देने सा दृश्य उभरकर मेरे सामने था। उनके और हम-सभो के भिन्न कद-काठीयों में बस एक समानता थी.. वो था एक प्यारा सा मन.. जो उस जीवन को भी साकार था। उन सभो के हंसते हुए चेहरों से निकलते भावों की रूप-रेखा अन्यतम सी थी। फिर मैने सभो से पूछा- " आप लोगो को पता है.. की आप जिस प्रदेश में रहते हो वो क्यों प्रसिद्ध है ?" उनके भाव शून्य से थे। फिर एक लड़के ने कहा -" हाँ, बक्सर का युद्ध हुआ था यहाँ..।" फिर मैने कहा-" भगवान राम-लक्ष्मण को जानते हो..? रामायण की कहानियाँ पढ़ी है। ये वही जगह जगह है जहाँ राम-लक्ष्मण महर्षि विश्वामित्र के आश्रम में पढ़ाई करते थे.. और ये सदियों से बड़ा ही अलौकिक प्रदेश रहा है। "... इतना कहते  ही मैने सभो में एक दिव्य-अंकुरण को देखा। फिर उनके पढ़ाई-लिखाई से जुड़ी बातों का कुछ ज़िक्र किया। इतने में एक लड़के ने पूछा.. "ई कॉलेज में ITI के पढ़ाई होता है क्या? हमरा दुगो चाचा यही पढ़ाई कर के दुबई में नौकरी कर र्रहे हैं।" ...और बात भी सही है.. इस भू-भाग के सैंकड़ों लोग अर्थाभाव में  ITI जैसी प्राथमिक  तकनीकी शिक्षा को हासिल कर बहूत कम उम्र में मोटी रकम कमाई के लिए खाड़ी देशों का रुख़ कर लेते हैं..और स्नातक स्तर की वैचारिकता और शिक्षण का बोध नहीं कर पाते। फिर मैने उन्हें इंजिनियरिंग के विषय और महत्व के बारे में बताया। इतने में देखा गाँव के कुछ युवक हाथों में मोबाइल लिए.. भोजपुरी गानो की धुन के साथ हमारी ओर घूरते चले आ रहे हैं। इतने में वहाँ जमा बच्चे उनके मोबाइल की धुन की ओर चल परे... और फिर मैं भी वहाँ से अपने कॉलेज की ओर निकल पड़ा।

शायद वो पहला मौका थे जब हम कॉलेज से अगल-बगल की हरी वादियों में पहली बार निकले थे। उस बार याद है.. मकर-संक्रांति के बाद मैं दो-तीन हफ्ते बाद ही पटना को आया था। ..लेकिन गाँव के बच्चों के साथ बिताए कुछ पलों ने मुझे बाहर की प्रकृति के साथ खोल कर रख दिया था। मानसिक क्लेश को कुछ कम होता भी देख पा रहा था.. और हो भी क्यों ना.. जब जीवन में आपकी अभिव्यक्ति को कम ही मौके मिलते हों.. उसके अंतरिम दर्पण में समाने को। फिर हम उस दिन की तरह हर रोज़ कॉलेज के चारो ओर किसी न किसी दिशा में निकल पड़ते.. और खोज लाते जीवन की उस समृद्ध संजीवनी को जो आज भी हमारे जैविक-विन्यास को सहेजे हुएँ हैं। उसी दौरान एक दिन शाम के वक़्त कानो में भक्ति-रस में गूंजते कुछ बोल सुनने को मिले। कॉलेज के चारो ओर छायी हरियाली से वो आवाज़ कुछ रिस-रिस का कानो में समा जाती.. और मैं खुद में मग्न हो जाता। फिर पता चला दूर गाँव में एक नये मंदिर में देवी-देवताओं की मूर्तियों की प्राण-प्रतिष्ठा स्थापन कार्य चल रहा है। ये सुनने के बाद मैं मन ही मन वहाँ जाने को आतुर हो उठा था। जैसे उस दृश्य-वींणा में मुझे खो जाना सा था। लेकिन सुबह होते ही कॉलेज की दिन-चर्या में मन थोड़ा बँट सा जाता और फिर शाम होते होते वो भाव भी थोड़े मद्धिम से हो जाते। मैं अंदर ही अंदर रुक सा गया था। फिर एक दिन अगली सुबह...

करीब सुबह के साढ़े तीन बज रहे होंगे.. मगर चारो ओर छायी घने कोहरे के अंधेरे में वो रात ही थी। पल भर के लिए नींद टूटी ही होगी की वो  मंदिर से आती ढोल मंज़ीरों की आवाज़ कानो में समा सी गयी। आँखें बंद किए उस ठंडी रात में फिर से सो जाने की कोशिश की.. पर सो ना पाया। शायद उस ओर जाने की बेचैनी बढ़ती ही जा रही थी.. लेकिन उस रात के अंधेरे में वहाँ जा पाना भी दूभर ही था। फिर करीब चार बजे मैने कॉलेज के लाइब्रेरियन श्री पाठक जी को फोन लगा अपनी इच्छा बताई और उन्हें साथ चलने को राज़ी कर लिया। आधे घंटे बाद हम उस आती आवाज़ के सीध में थे... सीध इतना की मेन रोड होते हुए भी हम उस कोहरे भरी रात में सन्नाटे को चीरते हुए खेते-खेत एक शॉर्ट-कट रास्ते पे थे। गर्म कपड़ों के साथ माथे में वूलेन टोपी, वर्षों पहले मेरे दादाजी की दी हुई लाल-ईमली चादर लपेटे और एक हाथ में चाइनीस टॉर्च और पुलिसिया हंटर लिए मैं उस सफ़र में अति-उन्मादित था। उस वीरान खेतो, बगीचो और छोटे जंगलों को पारकर हम धीरे-धीरे आगे बढ़ते ही जा रहे थे की... दूर से आग की लपते उठती नज़र आई.. पास आया तो देखा उस घने अंधेरे में कोहरे की चादर ओढ़े..   कुछ लोग बगीचे के बगल आग ताप रहे हैं। वो पहरा दे रहे थे.. अपने फसलों की..। पास आने पे उन्होने टॉर्च दिखाया और हमें रास्ता भी..। मगर वे आख़िर किस नव-ग्रह की  रक्षा में लगे थे.. पूरी रात उस वियावान जंगलों और खेतों के बीच..। और मैं भी अपने अनुभवों को टॉर्च दिखाता उन मेडों पे सजगता के साथ आगे बढ़ रहा था। आख़िर २० मिनिट पैदल चलने के बाद हम गाँव में प्रवेश कर ही गये.. आगे बढ़ने पे गाँव की कुछ महिलाओं व बच्चों को उस पगडंडी के दोनो ओर बैठा पाया। पाठक जी के निर्देश पे मैं अपनी सीध में नाक दबाए चला जा रहा था और दोनो ओर बैठी महिलायें अपनी नज़र बचाती जा रहीं थी। फिर गाँव के मध्य आके हम थोड़े पासचिं की ओर मंदिर की ओर चलने लगे। गाँव की कुछ महिलाओं को अपने परिवार के साथ माथे पे कलश लेकर भक्ति-भाव में डूब लोक-गीतों के साथ उसी रास्ते मंदिर की ओर जाते देखा और फिर हम उनका अनुसरण करने लगे..।

पौ फटते ही उषा-काल में हम उस नव-निर्मित मंदिर के सम्मुख थे। फिर थोड़ी देर मंदिर के परिसर को भ्रमण कर हम दुबारा गाँव की ओर ही रुख़ कर लिए। गाँव का नाम अरियांव था। मंदिर आते वक़्त ही मैने ये निश्चित कर लिया था की थोड़ी देर ही सही कुछ पल इस गाँव में ज़रूर बिताऊँगा। गाँव के पुराने मकानो में भी तो एक भव्य स्थापत्य नज़र आता है.. और वास्तव में इसी स्थापत्य ने ही भारत की भीतरी नीव को बचाए रखा भी है। पाठक जी के जान-पहचान वाले कुछ लोगो से मिलकर हम उस गाँव की एक लाइब्ररी जा पहुँचे। इस लाइब्ररी का नाम भी "विद्या-दान" ही था, जिसकी स्थापना वर्षों पहले मेरे कॉलेज के चेयरमॅन ने की थी। हमें आदर-पूर्वक बिठाया गया.. सुबह-सुबह चाय की चुस्की के साथ उस लाइब्ररी के संग्रह को देख मैं विस्मित था। अध्यात्म और इतिहास के किताबों के साथ बांग्ला, हिन्दी और रसीयन साहित्य की किताबों को देख मैं अचरज में था.. और ख़ास कर इसलिए भी की वो मुझे उस गाँव में मिली थी। इन किताबो की मौजूदगी ही उस गाँव की प्राचीन भव्यता के पुख़्ता सबूत थे.. और वहीं मुझे पहली बार परमहंस योगानंद की "ऑटोबाइयोग्रफी ऑफ योगी " मिली थी। फिर उस गाँव से निकलते समय दिखे सुंदर नाक्काशी की हुई तीन-मजिली लकड़ी का घर..। कुछ पलों के लिए लगा इस स्थापत्य में कश्मीर के भाव दिख रहे हों..। लेकिन उचित रख-रखाव के कारण वो भी दम तोड़ रही थी। लौटते वक़्त बस मैं यही सोच रहा था की अगर मैं इस ओर रुख़ नहीं करता तो शायद इस नवग्रह की आभाओं से कोसों दूर ही रहता..।

 अभी अभी फिल्म "पीके" देखने को मिली। किसी नये ग्रह से आए एक एलीयन को भारतीय सरजमीन पे एक शोध-स्वरूप के रूप में। फिल्म ने कारोबार भी बहूत किया।उत्कृष्ट अभिनय और संवाद अदायगी भी कुशल निर्देशन के साथ बेहतरीन थी। मनोरंजन जी भर कर मिला। लेकिन क्या भारतीय उम्मीदों का बस ऐसे मनोरंजक फिल्मों से ही मरहम होता रहेगा। आप एक पात्र के माध्यम से दो देशों की भावनाओ को जोड़ने का तो प्रयत्न बड़ी मुस्तैदी से करते नज़र आते हैं लेकिन देश की छाती कहे जाने वाले प्रदेशों के खोखलेपन की पीड़ा को नहीं देख पाते। भोजपुर जैसे कितने ही प्राचीन भू-भागों में आज भी लोग बस मनोरंजन की पट्टी लगाते ही नज़र आते हैं। ज़रूरत है.. आपकी संवेदन श्रोतों का.. जो एक एलीयन बनके ही सही.. ज़मीनी हक़ीकतों से रूबरू तो हों।

Vinayak Ranjan