Tuesday, 24 June 2014

"राजा रवि वर्मा की चित्रलीला.. रामलीला.."

हाल के दिनो में ही प्रदर्शित संजय लीला भंसाली की फिल्म " गोलियों की रास-लीला... राम-लीला" देख रहा था.. की फिल्म के दृश्यों में बड़ी खूबसूरती से फ़िल्माई गयी कुछ बॅक-ग्राउंड पैंटिंग्स पे नज़लें ठहर सी गयी...| अरे ये तो राजा रवि वर्मा की पेंटिंग्स हैं.. मन ही मन मैं चहक पड़ा। फिर तो अगले कुछ दृश्यों से लेकर लगभग समूचे फिल्म में ही.. उनकी पेंटिंग्स छाई रही..| मेरा मन मानो फिल्म की विषय-वस्तु को छोड़ बीते दिनो की उन अमूल्य कृतियों को देखने में ही लगा रहा| ...कुछ पलों के लिए लगा आख़िर क्यों आज भी इन कला-कृतियों की कद्र बनी हुई है... फिल्म मेकिंग के स्तरहीन संवाद और मंचन में इनकी मौजूदगी.. किस सूत्र-धार का काम कर रही है..| इसका सटीक  जवाब बस यही है की आज भी हमारे वेद और पुराणो में संग्रहित पौराणिकता अपने दिव्य ढाल लिए हमें संरक्षित कर रही है|


करीब आज से तीन-चार साल पहले फ़ेसबुक पे एक रिटाइर्ड फ़ौज़ी ने मेरी कलात्मक रुझानो को देख... राजा रवि वर्मा के नाम की फ़ेसबुक पेज बनाने का रिक्वेस्ट भेजा था..| ये नाम मेरे लिए अपरिचित सा था.. सो मैं नाम को गूगल पे सर्च किया.. तो दंग रह गया.. की अब तक मैं भारत के महानतम चित्रकार के नाम से परे था..| लेकिन फिर उनकी बनाई रामायण और महाभारत की कुछ दुर्लभ चित्रों की अनुभूतियों का स्पर्श तो मैं बचपन से ही करता रहा हूँ... गीता प्रेस गोरखपुर से निकली कल्याण मासिक पत्रिका के सौजन्य से..|  प्रख्यात फिल्मकार और टीवी सीरियल के जरिए देश में एक क्रांति लाने वाले रामानंद सागर ने जब ‘रामायण’ सीरियल बनाया था तो उस समय तक लोगों ने हिंदू देवी-देवताओं का जीवंत और वास्तविक रूप पहले कभी नहीं देखा था.... तब इस सीरियल ने लोगों पर काफी प्रभाव छोड़ा था।  इतिहास में कुछ इसी तरह का माहौल उस दौर में  भी देखने को मिला था जब विश्वविख्यात चित्रकार राजा रवि वर्मा ने भारतीय साहित्य और संस्कृति के पात्रों का चित्रण किया था। चित्रकार राजा रवि वर्मा पहले भारतीय चित्रकार थे, जिन्होंने पश्चिमी शैली के रंग-रोगन-सामग्रियों और तकनीक का प्रयोग भारतीय विषय वस्तुओं पर किया। उनकी चित्रकारी ने हिंदू देवी-देवताओं की ऐसी अद्भुत छवियां पेश करनी शुरू की, जैसी पहले कभी नहीं की गई थीं|  http://en.wikipedia.org/wiki/Raja_Ravi_Varma

भारत के मिथकीय चरित्रों पर कृतियां बनाने वाले राजा रवि वर्मा का जन्म 29 अप्रैल, 1848 को केरल के एक छोटे से गांव किलिमन्नूर में हुआ. उनके पिता एक बहुत ही बड़े विद्धान थे जबकि उनकी माता एक लेखिका थीं. पांच वर्ष की छोटी सी आयु में ही उन्होंने अपने घर की दीवारों को दैनिक जीवन की घटनाओं से चित्रित करना प्रारंभ कर दिया था. उनके चाचा कलाकार राजा राज वर्मा ने उनकी प्रतिभा को पहचाना और कला की प्रारंभिक शिक्षा दी। चौदह वर्ष की आयु में वे उन्हें तिरुवनंतपुरम ले गये जहां राजमहल में उनकी तैल चित्रण की शिक्षा हुई। वर्मा ने चित्रकला की शुरुआती कला चित्रकार रामा स्वामी नायडू से सीखी. यहीं वह तंजौर शैली से मुखातिब हुए. इसके बाद उन्हें ब्रिटिश चित्रकार थियोडोर जेनसन से सीखने का मौका मिला. यहीं से उनके सामने पश्चिम की आधुनिक चित्रकला की एक नयी दुनिया के दरवाजे खुल गए. वर्मा को असली पहचान सन 1873 में ‘मल्लप्पू चुटिया नायर स्त्री’ नामक चित्र से मिली. आस्ट्रिया के वियना में सम्पन्न हुई चित्र प्रदर्शनी में यह चित्र पुरस्कृत हुआ. वर्मा की पेंटिंग को विश्व कोलंबियन प्रदर्शनी में भेजा गया जो 1893 में शिकागो में आयोजित किया गया. वहां उन्हें अपने चित्रकारी के लिए दो गोल्ड मेडल भी मिले.

भारतीय इतिहास में राजा रवि वर्मा का नाम ऐसे चित्रकार के रूप में लिया जाता है जिन्होंने पश्चिमी शैली का प्रयोग कर भारत के मिथकीय चरित्रों में अपनी कल्पना के सुंदर रंग भरे. शुरुआत में उनकी कलाकृतियों को लोगों ने स्वीकार नहीं किया लेकिन बाद में कई लोग उनकी चित्रकारी शैली से काफी प्रभावित हुए. उन्होंने अपनी चित्रकारी में सरस्वती, दुर्गा, नल-दमयंती तथा दुष्यंत-शकुंतला जैसे पौराणिक चरित्रों पर आधारित देवी-देवताओं के चित्र खूबसूरती से उकेरे. उनकी चित्रकारी शैली को अगर देखें तो यह बिलकुल ही यथार्थ चित्रण से हटकर है. उन्होंने अपनी कला को बेहद ही सीमित दायरे में रखा। कला के इस महान आचार्य ने अक्टूबर 1906 में दुनिया से अलविदा कह दिया. भारतीय चित्रकला में उनके योगदान को देखते हुए केरल सरकार ने उनकी याद में राजा रवि वर्मा पुरस्कार शुरू किया जो प्रति वर्ष कला एवं संस्कृति के क्षेत्र की किसी होनहार शख्सियत को दिया जाता है। राजा रवि वर्मा की बनाई पेंटिंग्स में जो सबसे प्रसिद्ध पैंटिंग रही.. वह थी  " Lady in  the  Moon - Light .. " http://ravivarma.org/

मेरे बचपन के दिनो में मुझे भी चित्रकारी में गहरी रूचि थी.. जो सिलसिला दसवीं बोर्ड की परीक्षा तक बदस्तूर रहा| अपने इस शौक के कारण कई बार पिताजी से डाँट भी खानी पड़ती..| चित्रकला से जुड़े इस प्रसंग में एक रोचक घटना भी याद आती है| उस वक़्त मैं सातवीं में पढ़ता था..| उस वक़्त मुझे कॉमिक्स पढ़ना और स्टिकर कलेक्षन का जबरदस्त जुनून था| एक बार एक मिकी माउस के स्टिकर को देख... एक बड़ा सा पोस्टर बना दिया था| फिर कुछ दिनो बाद पूर्णिया के कला-भवन में आयोजित चित्रकला प्रदर्शिनी में मुझे पुरस्कार भी मिला था| लेकिन जिस बात को लेकर चित्रकला की ओर मेरी रुझान को जो प्रथम आघात मिला था.. वो था.. जिस वक़्त मेरी बनाई पोस्टर पे मुझे सम्मानित किया जा रहा था.. उसी समय उस आर्ट-गॅलरी से उस पोस्टर की चोरी भी हो गयी थी..| सम्मान पाके जब मैं आर्ट-गॅलरी की ओर गया तब वहाँ देखा की मेरी पोस्टर और कुछ अन्य चित्रकृतियाँ भी गायब थी..| मैं सदमे में था.. रोना भी आया.. फिर मायूस हो बस अपने प्राइज़ सर्टिफिकेट और मेडल लिए घर को लौटा| ....फिर दो-तीन वर्ष.. मेट्रीक के बाद सरस्वती पूजा के चंदा कलेक्षन के लिए.. महल्ले के ही अपने मित्र के घर गया तो देखा.. मेरी वो पोस्टर उसके घर की दीवारों पे चिपकी हुई है..| मैं वर्षों बाद अपनी उस कला-कृति को निहार रहा था..| फिर मैं बिना कुछ कहे.. उसके घर से निकल गया..|

आपकी सभ्यताओं पे हमले होते ही रहेंगे.. और शायद तभी हम आज के समाज में कलाकारों का घोर अभाव देख रहें हैं| मानवीय संवेदनाओं का प्रसफूटन रुक सा गया है... अपनी नैसर्गिक कला और प्रतिभाओं को दिखाने वाले  मैदान ही नज़र नहीं आते..  तो.. ओजस्वी मदन कहाँ मिलेंगे... तो शायद "गोलियों को रासलीला.. रामलीला" की जगह "राजा रवि वर्मा की चित्रलीला.. रामलीला.." ही दिखने को मिल जाती..|


Vipra Prayag 



Saturday, 21 June 2014

तुझको चलना होगा... एक चलंत कथा...!!!


.........."ये कौन सा स्टेशन है भाई?" " सुल्तानगंज.." कहीं से आवाज़ आयी। ट्रेन अपने रुकने वक़्त की एक झटके को लिए.. स्टेशन पे आ खड़ी थी। और फिर बाहर प्लेटफॉर्म से आती आवाज़े। चायवालों की चेय..चेय..करती भारतीय ट्रेन-यात्रा क़ी एक नॉस्टॅल्जिक फीलिंग। खिड़की से मैने भी अब कुछ झाँक कर देखने की कोशिश की.. मगर ये क्या..! पूरा का पूरा स्टेशन मानो गेरुवा रंग से नहाया हुआ। अचानक याद आया सावन महीना तो कल से ही स्टार्ट हो गया है। भागलपुर का सुल्तानगंज यही वो जगह है.. जहाँ से शिव भक्तिभाव में डूबे कांवरिया अपने कांवरो में इसी जगह से गंगा-जल लिए देवघर की ओर प्रस्थान करते हैं। पूरा स्टेशन औरतों बच्चे-बूढ़े जवानो से भरा हुआ था। उस सुबह दिखे उस दृश्य से आज भी शक्ति मिलती नज़र आती है। फिर कुछ देर बाद.. पौ फटते ही मैं भागलपुर जंकशन आ पहुंचा। वहाँ से मुझे  भागलपुर इंजिनियरिंग कॉलेज में प्रॅक्टिकल वायवा लेने के लिए जाना था। स्टेशन के बाहर निकलते ही रिक्शा लिया.. और उसे छोटी खंजरपुर चलने को कहा। भागलपुर ने समय समय पे हमेशा ही मुझे एक वैचारिक जीवन देने का काम किया है.. और अब तो यहाँ के पुराने गवर्नमेंट इंजिनियरिंग कॉलेज से एक प्रोफेशनल जुड़ाव भी हो गया है। चलती रिक्शा से मैने अपने कैमरे से सुबह सुबह भागलपुर की कुछ तस्वीरों को भी लिया.. कुछ हद तक फोटोग्राफी भी आपके एकांत भ्रमण का एक अच्छा साथी होता है। मेरी फोटोग्रॅफिक ललक को देख उस रिक्शेवाले ने भी थोड़ा बहूत गाइड का ही काम किया.. और भागलपुर में भारतीय सिनेमा के नामचिन एक्टर अशोक कुमार-किशोर कुमार का घर भी दिखाया था। फिर छोटी खंजरपुर के गंगा घाट के पास उस रिक्शे-वाले को छोड़ा। पैसे देते वक़्त मैने उसका नाम पूछा.. तो उसने अपना नाम "जग-नारायण.." बताया। मेरे जेहन में ये नाम जैसे कौंध सी गयी। धीरे धीरे मैं बगल के गंगा घाट की ओर बढ़ने लगा तो जैसे मेरे उन बढते कदमों में "जग-नारायण.." नाम की प्रतिछाया भी साथ हो चली हो.. जिसे मैने पिछले कुछ महीनो में पुनर्जीवित करने का काम किया था।

छोटी खंजरपुर घाट के उस दर्शन में अब पहले वाली बात न थी.. लेकिन पुरानी वो शिव मंदिर आज भी थी.. उस जगह पे। गंगा नदी की धार उस घाट पे कम थी.. लेकिन मेरे लिए तो उस घाट पे पहुँचना ही अद्वितीय था। मानो सृष्टि के रचयिता " जग-नारायण.." भी मेरे साथ हो चले हों। इस शब्द के साथ एक जूड़ाव इसलिए भी की शायद फिर कभी मैं वापस ना जा पाऊँ.. उस "जग-नारायण" के पास जिसे मैं अपनी बक्सर की यात्रा में छोड़ आया था.. लेकिन उस पुनर्जन्म में मैने दो जीवनो को जीवित होते देखा था।

"जग-नारायण" को जानने के लिए पहले भोजपुर और शाहाबाद के उस तस्वीर को भी देखना होगा.. जो अपने दिव्य इतिहास के होने के बावजूद भी आज आधी अधूरी ही है। पटना और वाराणसी के मध्य का ये प्रदेश.. कई मामलों में अपने सीमावर्ती प्रदेशों में हो रहे डेवेलपमेंट की तुलना में वर्षों पीछे है। इस पूरे प्रदेश की विवशता ये है की जो थोड़े काबिल थे.. वे अब बाहर चले गये। जो रह गये वो या तो अपनो के गुलाम या जड़ सामाजिक परिदृश्य के मानसिक उत्पीड़न में गुम हो गये। आज भी यहाँ के शेक्सपियर " भिखारी ठाकुर" की चर्चित "बिदेशिया" काफ़ी कुछ यहाँ के भावामंडल में अपने शाब्दिक चरितार्थ को बनाए दिख जाती है.. और फिर जो अपनी मिट्टी में रह गये.. उन्हें "जग-नारायण" के मार्मिक चित्रण में जाना ही पड़ता है।
http://en.wikipedia.org/wiki/Bhikhari_Thakur


वर्षों गहन अध्ययन में रहने के बाद भी मानो उसकी प्रतिभा को ग्रहण लग गया था। IAS/IPS परीक्षाओं के असफल परिणामों के बाद हुई घोर निराशा ने ही उसे अपने गाँव आने को मजबूर किया था। मन-मुताबिक लक्ष्य हासिल न कर पाना भी तो खुद को काल-कोठरी में फेंकने जैसा ही होता है। फिर तो और... जब सब कुछ होते हुए भी.. आप के बनाए अपने.. जब आपसे दूरी बढ़ा लें। वो दर दर भटकने लगा था। एक गाँव.. से दूसरे गाँव। किसी द्वार पे जा पहुँचे तो लोग उसके पूर्वजों और परिचितों के नाम पे तरश खा.. कुछ खाने को दे दें। ऐसा ही कुछ हुआ था उस दिन भी.. जब वो मेरे बक्सर वाले इंजीनियरिंग कॉलेज आया था। बातचीत के बाद उसे नाश्ता करने कॉलेज कैंटीन भेज दिया गया। तब तक मैं अपनी सुबह की क्लास लेकर लौट रहा ही था की.. बीच रास्ते में उसे जाते हुए भी देखा था। उसे देख कोई भी कह देता की अपने जमाने में वो कोई Athelete या Basket-ball player रहा होगा। फिर  कॉलेज के ऑफीस चैंबर में मुझे बुलाया गया.. उसके बारे में मैं जान कर... थोड़ा सकते में था। जीवन के इस साक्षात्कार में इतना सुखापन.. अपनो का रूखापन। वो कॉलेज कुछ काम माँगने आया था.. वो काम कर ही खाना चाहता था.. और इसलिए भी की उसके बौद्धिकता की कुछ तो पुष्टि हो सके। वो आज भी खुद  को सिद्ध करने को लालायित था.. लेकिन बीते कुछ सालों का विषपान अबतक  उसकी मानसिकता को जकड़े हुआ था। बहूत सारी बातों को जान.. मैने अपने चेयरमैन से फौरन कहा कि.. " सर, इसे रखा जा सकता है.." फिर मुझे कहा गया ".. तो फिर आपको इसका मेंटर बनना होगा।"

अपने अध्यापन और विषय शोधों से अलग ये एक सचमुच दुर्लभ शोध था.. मेरे लिए। उसे उस संस्थान में चल रहे १०+२ क्लास में English और GK/GS पढ़ाने का जिम्मा सौपा गया। धीरे धीरे उसके अभावग्रस्त अवस्था में सुधार आने लगा। उसकी ओर मेरे रुझान के कारण वो मुझसे ही हमेशा बात करना चाहता। मैं उसे बड़े ध्यान से सुनता.. और हमेशा उसे प्रोत्साहित और अपनी चुटकिले बातों से खूश रखने की कोशिश करता। उम्र में वो मुझसे काफ़ी बड़ा था... लेकिन खूशी के छींटों में जैसे वो अपने बचपने को जी उठा था। देल्ही के अपने अनुभव में वो Times of India news paper के लिए लिखता भी था। रणजी क्रिकेट खिलाड़ियों के साथ भी उसने खेल रखा था.. रमण लांबा का नाम हमेशा लिया करता। एक बार मेरे मोबाइल के पुराने फिल्मी गानो और ग़ज़लों को सुन एक दम से झूम ही उठा। फिर उसने भी कुछ गाने गाऐ। कुछ ही दिनो में मैने काफ़ी बदलाव देखा.. उसके पर्सनॅलिटी में... डिप्रेशन के दौर से वो अब उबर रहा था। मेरे बक्सर के दिनो तक.. मुझसे जीतना हो पाया.. मैने उसे उसके खोए जीवन को पाने में.. अपना धर्म समझ.. कुछ सकारात्मक कर्मों को कर पाया। मेरे आने के दिन.. वो काफ़ी उदास सा था। जीवन तो आगे बढ़ने का ही नाम है। उसी दौरान मैने अखबारो में पढ़ा था.. की आरा बिहार के प्रख्यात गणितज्ञ वशिष्ट नारायण सिंह को वर्षों बाद भूपेंद्र नारायण यूनिवर्सिटी मधेपुरा में विज़िटिंग फॅकल्टी के रूप में सम्मानित किया गया है।
http://theranveer.blogspot.in/2013/04/a-great-mathematician-dr-vashishtha.html

.......गंगा नदी के मंझधार में खड़ी एक नाव को देख मैं ठिठक पड़ा... अपने "जग-नारायण" की यादों से उभर लगा..लगा मानो उस मंझधार का मांझी कुछ सुखद संदेश दे रहा हो...




"नदियाँ चले, चले रे धारा, चंदा चले, चले रे तारा...
तुझ को चलना होगा, तुझ को चलना होगा...

जीवन कही भी ठहरता नहीं हैं
आँधी से, तूफां से डरता नहीं हैं
तू ना चलेगा तो चले तेरी राहें...
मंज़िल को तरसेगी तेरी निगाहें....
तुझ को चलना होगा....

पार हुआ वो रहा जो सफ़र में....
जो भी रुका, घिर गया वो भंवर में
नाव तो क्या, बह जाये किनारा....
बड़ी ही तेज समय की हैं धारा...
तुझ को चलना होगा.."


Vinayak Ranjan

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Wednesday, 18 June 2014

ये दुनियाँ अगर मिल भी जाये तो क्या हैं...

"ये महलों, ये तख्तों, ये ताजों की दुनियाँ..
ये इंसान के दुश्मन समाजों की दुनियाँ..
ये दौलत के भूखे रवाजों की दुनियाँ..
ये दुनियाँ अगर मिल भी जाये तो क्या हैं..।

हर एक जिस्म घायल, हर एक रूह प्यासी..
निगाहो में उलझन, दिलों में उदासी..
ये दुनियाँ हैं या आलम-ए-बदहवासी..
ये दुनियाँ अगर मिल भी जाये तो क्या हैं..।

जहाँ एक खिलौना हैं, इंसान की हस्ती..
ये बस्ती हैं मुर्दा परस्तों की बस्ती..
यहाँ पर तो जीवन से मौत सस्ती..
ये दुनियाँ अगर मिल भी जाये तो क्या हैं..।

जवानी भटकती हैं बदकार बन कर..
जवां जिस्म सजते हैं बाजार बनकर..
यहाँ प्यार होता हैं व्योपार बनकर..
ये दुनियाँ अगर मिल भी जाये तो क्या हैं..।

ये दुनियाँ जहाँ आदमी कुछ नहीं है..
वफ़ा कुछ नहीं, दोस्ती कुछ नहीं हैं..
यहाँ प्यार की कद्र ही कुछ नहीं है..
ये दुनियाँ अगर मिल भी जाये तो क्या हैं..।

जला दो इसे, फूँक डालो ये दुनियाँ..
मेरे सामने से हटा लो ये दुनियाँ..
तुम्हारी हैं तुम ही संभालो ये दुनियाँ..
ये दुनियाँ अगर मिल भी जाये तो क्या हैं...।"


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इस गीत के बोल.. भारतीय सिनेमा के महान फिल्म-मेकर गुरुदत्त की १९५७ की बनी फिल्म "प्यासा" के  है... आध्यात्मिक सूफिज़म को केंद्रित इस गीत को मैने सर्व-प्रथम १९८४-८५ में दूर-दर्शन में प्रसारित किए गये.. गुरुदत्त साहब की चुनिंदा फिल्में "कागज के फूल", "मिस्टर एंड मिसेज़ ५५", "साहब बीबी और गुलाम" को "प्यासा" के साथ देखा था..| उनकी फ़िल्मो में संवाद का आकर्षण और वस्तु-स्थिति की भव्यता देखते ही बनते थे| उस जमाने की कॉमेरसीयल फ़िल्मो को भी आर्ट फ़िल्मो के कॅन्वस पे सजोने में उन्हें महारत हासिल थी| पिछले साल २०१३ स्वतंत्रता दिवस के मौके पे.. पटना के इंदिरा गाँधी प्लानेटोरीयम में गुरुदत्त की प्यासा फिल्म का निःशुल्क प्रसारण किया गया| आज की युवा पीढ़ी में भारतीय सामाजिक संवेदनशीलता के प्रति पुनर्गठन को ऐसे प्रयास सराहनीय हैं, ताकि उन्हें आज की भ्रष्ट कॉंमेरसीयल सिनेमा के कोप से बचाया जा सके|

वर्षों बाद गुरुदत्त के जीवन पे.. उनके सहकर्मी रहे अबरार अल्वी के माध्यम से एक अच्छी किताब पढ़ने को मिली.. Ten Years with GURU DUTT: Abrar Alvi's Journey... must read..

Vipra Prayag


Tuesday, 17 June 2014

हिच-हाइकिंग के अध्यात्मिक सफ़र में...



करीब साल भर पहले अपने बक्सर कार्यानुभव के दौरान प्रभात खबर समाचार पत्र के माध्यम से स्वामी विवेकानंद व राधानाथ स्वामी की जीवनियों पे आधारित संस्मरणों का विराट उल्लेख पढ़ने को मिला था। १९वीं सदी के मध्यान में जहाँ संपूर्ण विश्व ने स्वामी विवेकानंद की आध्यात्मिक चेतना यात्रा को देखा और सुना.. वहीं २०वीं सदी के मध्यान से लेकर अब तक राधानाथ स्वामी की परम भारतीय आध्यात्मिक तृष्णा ने उन्हें अमेरिका जैसे उन्नत देश से बाहर.. भारत में आकर ही संतुष्टि का बोध करवाया। जीवन की इन दोनो  ही यात्राओं में जो एक समानता दिखती है.. वो है एक संपूर्ण ज्ञान प्राप्ति को निरंतर क्रियाशील रहना। ऐसा ही कुछ गौतम बुद्ध से लेकर आज के महान तपस्वीयों ने भी किया। फिर जीवन की वो क्रियाशीलता भी कैसी.. जहाँ भटकाव ना हो। जीवन के इन वैचारिक संघर्षों और उत्पीड़न में तो बस एक दृढ़ इच्छा-शक्ति ही खुद अपना नेतृत्व करती नज़र आएगी.. और फिर इस अनोखे यात्रा को आप कई मुकम्मल मुकामों पे पहुँचते भी देखेंगे.. अपने अपने जीवन की " हिच-हाइकिंग" Hitchhiking के साथ.. या इसे " भिक्षाटन" ही कह लें। आज के इस भौतिकतावादी युग में "हिच-हाइकिंग" जैसा इंग्लीश शब्द ही आपके आध्यात्मिक खोज को नया version देता नज़र आऐगा। नहीं तो " भिक्षाटन" जैसे शब्द मानवीय "नर-नारायण" से ज़्यादा "दरिद्र-नारायण" रूप को ही परिलक्षित करते हैंं।
http://en.wikipedia.org/wiki/Hitchhiking

वर्षों पहले अपने चर्च वाले स्कूल के बगल वाले ऊँचे-ऊँचे सेमल पेड़ों पे लदे लाल-लाल फूल.. और फिर इन फूल-फलों से हवाओं में झड़ते.. एक-एक हल्के सफेद रूई समान कण... स्वचंद हवाओं में तैरते... बचपन में हम सब इसे पकरने की पुरजोर कोशिश भी किया करते.. तो हवा के झोंको में ये फिर पकड़ से कोसो दूर  निकल जाते... प्रकृति के इस अनोखे हिच-हाइकिंग को भी आप क्या कहेंगे..! जहाँ उन कणो के एक संपुष्ट वृहत भंडार के कोमल भावों को आधार बना कर हम जीवन प्रयंत.. स्वप्न निंद्रा में खोए रहतें हैं.. वहीं इसके एक एक कणो का स्वच्छंद विचरन इसके स्वरूप को उस विराट सेमल पेड़ की आभा से कोसों दूर लेता चला जाता है... एक ब्रम्‍ह-पुष्टि के लिए..।

सदियों वर्ष पहले कुछ साधु सन्यासियों फकिरों का दल.. अपनी जमात में विश्व-भ्रमण को निकला था.. दिन भर की भरी दुपहरी में जब सभो को प्यास लगी तो पास ही एक नीले रंग लिए एक दिव्य सरोवर दिखाई दी। उस अद्भुत सरोवर को देख.. सभो ने अपने कमर में लटकी मिट्टी के छोटे घड़े को ले उस सरोवर के पास गये। जी भर कर पानी पिया.. और फिर अपने अपने घड़ो में पानी भर अपने आगे की यात्रा को बढ़ते ही की... उस सरोवर का यक्ष निकल पड़ा.. और साधुओं से कहा.." इस सरोवर के जल का मूल्य कौन देगा..?" ये सुन सारे साधु सन्यासी अवाक थे.. की इस सरोवर में पानी की कोई कमी नहीं..फिर भी.. इस यक्ष को अपने मूल्यों की पड़ी है। फिर एक साधु ने कहा.." महाराज आपके सरोवर के जल की कीमत तो हमारे जीवन से जुड़ गयी है.. क्यों की अब तो इस सरोवर का जल..हमारे शरीरों में प्रवेश कर गया है.." ..ये सुन यक्ष ने कहा.. " फिर ये जो उन घड़ो में हैं.. उसका क्या..?" .. साधु ने जवाब दिया.." किंचित ये जल इन घड़ो  में हैं.. हम इन घड़ो से पानी दुबारा सरोवर में डाल भी दें तो आपका मूल्य आपको दे नहीं सकते.. आपकी मूल्य तो तभी दे पाएँगे.. जब प्राण-आहुति दी जाएगी...".. ऐसा कह सभो ने एक एक कर अपने जल से भरे घड़ो  को सरोवर में प्रवाह कर दिया। ये देख यक्ष ने कहा.." जल का मूल्य माँगा था.. घड़े क्यों दिए..।" साधु ने कहा.. "राजन.. इन घड़ो के अनेकों सूक्ष्म छिद्रों ने वर्षों से जिन जल-कणो को सिंचित रखा है.. वही आपका माँगा हुआ मूल्य है.. और फिर हमने जो जल ग्रहण किया है..तो हम सभो को मोक्ष भी यहीं लेना होगा.. ये हमारा इस मान-सरोवर के प्रति अर्पित.. जीवन-मूल्य है..।"



इन आध्यात्मिक संस्मरणो में जहाँ हिच-हाइकिंग की यात्रा नज़र आती है.. तो.. त्याग की अभिव्यक्ति भी..। हिच-हाइकिंग को बस जीवन के कुछ संस्मरणो से जोड़ देखना ही प्रयाप्त नहीं.. बल्कि आपके हर एक कर्मों में आपके परिवार, समाज, राज्य, देश की भागीदारी भी समाहृत है। आपके जीवन के हर एक मोडों पे किसी ना किसी रूप में मिले साथ और विश्वास भी.. इसे शक्ति देने का ही काम करती है। मेरे जीवन के अनुभवों में.. जिन अमूल्य अनुभवों से मेरा मन सृजित हुआ.. उनमें सर्व-प्रथम मेरे दादा-दादी के प्रकृतिपूर्ण उद्दात भाव से किए हुए कर्म, त्याग, लोकहित और धर्म के प्रति अटूट आस्था ही मेरे हिच-हाइकर बने नज़र आते हैं... जिन भावों के साथ मैने एक सामाजिक परिवार को बनते देखा। ..फिर तो स्कूली और कॉलेज दिनो के साथी भी.. जो आपके भावों को देखते और सराहते दिख जाते हैं।

नागपुर के अपने इंजिनियरिंग छात्र जीवन में.. अपने हॉस्टल के बगल में खड़े हो आनेवाली कॉलेज बस का इंतज़ार करना.. और अनायास रूप से किसी अंजान व्यक्ति से लिफ्ट या साथ मिल जाना भी तो हिच-हाइकिंग ही था।


..देखिए ना ये सबकुछ जीवन के ऐसे संस्मरण हैं कि आपको आपके प्रोफेशनल निर्माण के साथ साथ कितने ही सुनहरे स्तंभो के निर्माण होते दिख जाएँगे। फिर इस हिच-हाइकिंग को बल देने में उस प्रबुद्ध समाज और संस्कृति के योगदान को भी महसूस किया जा सकता है.. जो महाराष्ट्र जैसे अंजान जगह पे बिहार से गये एक भयमुक्त भाव को मिला था। ..फिर तो जैसेे इन्ही भयमुक्तत भावों को बल मिलने से ही आपकी क्रियात्मक प्रबुद्धता को भी बल मिलता है.. और आप पहचाने जाते हैं। वैश्विक सभ्यता, प्रबुद्धता या जातीय संघर्ष में इन भावों को तोड़ा मरोड़ा भी जाता रहा है.. तो फिर आपके अनुष््ठान में बूँद-बूँद मिलते समर्थन भी अनायास ही दिख जाते हैं। अपने इंजिनियरिंग कॉलेज के शिक्षण अनुभवों में पूर्णिया से किशनगंज रोजाना आते जाते वक़्त.. तो फिर किशनगंज पहुँच उस नये इंजिनियरिंग कॉलेज तक के सफ़र में.. मुझे कभी मोटर-साइकल वाले से सहयोग मिला.. तो कभी ट्रक-वाले से तो कभी किसी ठेलावाले से। ऐसे अनुभवों की गरिमा और मिलने वाले सहयोग भी तो धर्म और वर्ण से परे ही नजर आते हैं। बक्सर अनुभव में दानापुर रेलवे स्टेशन से लेकर उस गाँव वाले इंजिनियरिंग कॉलेज तक पहुँचने की प्रक्रिया भी तो असाधारण ही थी। याद है.. उस कॉलेज को जाय्न करने वाले दिन की यात्रा वृतांत को सुन कॉलेज के चेयरमॅन ने सहसा ही कह डाला था.. की जिन अनुभवों को लेकर यहाँ आने वालों के पैर पहले ही जकड़ जाते हैं.. उन अनुभवो को आपने अपने पहले यात्रा में ही जी लिया.. क्योंकि कॉलेज पहुँचने का वो एक उल्टा और दूभर रास्ता था.. और इन्ही उल्टे रास्तों पे जाकर ही आध्यात्म दिखता है.. और मेरी वो यात्रा भी वहाँ के सिद्ध ब्रम्‍हपूर शिव मंदिर के बगल होकर ही गुज़री थी।

इस यात्रा वृतांत में एक बार दानापुर स्टेशन पे ही मिले भोजपुर के ही एक रिटाइर्ड इंजिनियर श्री एस.बी. दूबे साहब, जो मेरे नागपुर के दिनो के यूनिवर्सिटी डीन श्री हेमंत ओंकार ठाकरे से पूर्व-परिचित थे.. उन्होने ज़मीन से जुड़ी मेरी वैचारिकता और रुदन को सून सहसा ही कह डाला.. की.. "आप भी.. इस सूखेपन को ही पाटने आयें हैं..फिर यहाँ मूल्य क्या मिलेगा..?" ... फिर मेरी समझ में बक्सर भी तो महर्षि विश्वामित्र का पुरातन व्याघ्रसर ही था। मेरे प्रयासो और हिच-हाइकिंग यात्रा का एक नया पड़ाव.. मेरा "मान-सरोवर"। फिर.. उनसे जो मैं कह पाया..की.. "सर.. कुछ सरोवरों को स्वच्छ कर आया हूँ.. काश ये पुण्य-कर्म जीवन-प्रयंत जारी ही रहे।"


-Vinayak Ranjan

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Saturday, 14 June 2014

नीलगिरि..ऊटॅकमंडलम का दैविक दर्शन और रहस्यमयी छाता...

अपने रायसोनी इंजिनियरिंग कॉलेज नागपुर के कुछ सुहाने पलों में.. वर्ष २००१ जून की वो.. ऊटी यात्रा आज भी इस उमस भरे गर्मी के दिनों में कुछ पलों के लिए एक शीतल छाया दे जाती है। कॉलेज के अपने डिपार्टमेंट के दोस्तों के साथ नागपुर से हम चेन्नई होते हुए.. कोयंबटूर आ पहुँचे थे। फिर कोयंबटूर से एक मिनी बस रिज़र्व कर दो ढाई घंटे के सफर के बाद हम ऊटी की रमणीय मंत्र-मुग्ध कर देने वाली फ़िज़ाओं के बीच पहुँच सके थे। हमसभो में एक गजब का ही उत्साह उछालें खा रहा था.. और ये सबकुछ इसलिए भी कि कॉलेज के सारे दोस्तों दोस्तिनियों के साथ अपनी जगह से इतनी दूर ये हमारा पहला कॉलेज ट्रिप था। कोयंबटूर से दोपहर निकलते वक़्त ही भूख जोरों की लगी थी.. सो मैने आगे के लंबे सफ़र को देख कोयंबटूर रेलवे स्टेशन पे मिल रही.. फिश फ्राइ और राइस दोस्तों से छुपाकर पहले ही पैक करवा ली थी। कहतें हैं ना की.. "मन चंगा.. तो कठौती में गंगा.. और भूख भागे दरभंगा" तो सबसे पहले पेट पूजा का ख्याल भी तो बखूबी रखना ही पड़ता है। आज भी याद है.. कोयंबटूर से बस खुलने के बाद जैसे-जैसे हम नीलगिरि की ऊँचाइयों को बढ़ने लगे थे.. मेरे सारे दोस्तों को भूख भी बड़ी ज़ोर की लगने लगी थी.. और इन सभो के बीच बस की सबसे पीछे वाली सीट पे मैं अपने एक दोस्त सतीश अलासपुरकर के साथ.. फिश और राइस का आनंद ले रहे थे। ..फिर तो आज भी उस चलती बस में मिले उस फिश फ्राइ राईस के स्वाद का कोई जोड़ नहीं.. और फिर तब तो और.. जब भूख भी बड़ी ज़ोर की लगी हो। खाने पीने के मामले में एक बात तो तय है की.. फ़ुर्सत के सफ़र में.. लगने वाली भूख भी अपने चरम पे ही होती है.. तो जब जो चाहे उचित लगे अपने पास स्टोर करके रख लेने में ही बुद्धिमानी है। कहते हैं ना.. " जिंदगी का सफ़र.. है ये कैसा सफ़र... कोई समझा नही.. कोई जाना नही.." ...तो फिर कुछ समझने समझाने के लिए भी अग्रसोची तो बनना ही होगा। http://en.wikipedia.org/wiki/Ooty

नीलगिरि की यात्रा जारी थी... चलती बस की खिड़की से दिखती बाहर के विहंगम दृश्य.. तो सोच में आती बहूत सारी सवालें भी कि.. दक्षिण भारत में भी काफ़ी कुछ है देखने को.. और ख़ास कर पर्वतों और पहाड़ों के ऊपर बसे ऐसे लोकेशन्स। लगभग दो-तीन घंटे सफ़र के बाद हम ऊटी.. पुराना नाम उटकमंडलम सकुशल पहुँच पाए। जेहन में नीलगिरि की उन ख़तरनाक मोडों से होते बस के उस सफ़र के बाद हम खुद को थोड़ा खूश और राहत लेते देख पा रहे थे। फिर हमनें एक अच्छे होटेल की तलाश की.. और होटेल वुडलॅंड को खोज पाए। वहाँ पहुँच हम अपने सामानो को लिए.. अपने-अपने कमरों में जा गिरे। .. लेकिन हाँँ.. वो कमरे नहीं.. छोटे छोटे कॉटेज थे।
 
  पूरी ३६ घंटे वाली लंबी यात्रा की थकान के बाद हम सभो को उस सुहाने मौसम में जैसे कॉटेज पहुँचते ही नींद आने लगी।हम सब थक कर चूर थे और फिर बाहर बारिश की हल्की फुहारों ने भी मौसम को कुछ ज्यादा ही खूशमिज़ाज बना दिया था। कुछ देर आराम करने के बाद.. मैं जैसे ही बाहर निकला.. तो जैसे दिल ने कहा.. इतनी दूर आए हो सिर्फ कॉटेज में ही समय गुजारने! सचमुच अद्भुत सा था.. बाहर प्रकृति का वह नज़ारा.. चारोंं ओर पहाड़ों की ऊँची चोटियों से टकराते बादल.. और रह रह कर आती बारिश की फुहारों ने तो जैसे क्षण भर के लिए उस हरी भरी वादी को धरती का स्वर्ग ही बना दिया था। सचमुच एक दैविक विहंगम दृश्य ही था चारों ओर। बाहर के इन खुले नजारों को देख मैं तेजी से अपने कमरे की ओर गया.. और फिर चुपके से होटेल के बाहर खुली वादियों में निकल गया। बारिश की होती फुहारों की परवाह किए बगैर.. मैं तेज कदमों से नीचे वहाँ से दिखती दुकानो की तरफ बढ़ने लगा। सब कुछ ही नया सा था वहाँ.. फिर एक टेलिफोन बूथ से अपने घर बिहार फोन लगाकर.. घरवालों से बातें की। एक बगल की दुकान से वहीं की बनी लोकल कॅड्बेरी चॉकलेटों को भी खरीद खाया और वहाँ से पास के ही एक मार्केट एरिया की तरफ बढ गया। वहाँ पहुँच एक होटल में चिकन बिरयानी भी खाया। तब तक बाहर बारिश तेज हो चली थी.. और फिर मुझे अपने होटेल भी जल्दी ही पहुँचना था.. क्योंकि किसी को बिना बताऐ जो जा निकला था शहर की ओर। फिर ठीक उस होटल के बिल्कुल सामने एक एनटिक कलेक्सन वाली दुकान को देखा.. तब तो बाहर बारिश भी थोड़ी धीमी हो चली थी। खाने का बिल पेमेंट कर सामने वाली उस एनटिक कलेक्सन वाले दुकान को भी देखने जा पहुंचा। वहाँ देश और विदेशों की ढेर सारी एनटिक कलेक्सन्स की भरमार थी.. लेकिन तब तक तो मेरा दिल वहाँ लटके एक बेहद ही खूबसूरत छाते पे रम गया था। मन ही मन मैं खुद को थोड़ा टटोल भी रहा था.. की इसे खरीदूँ की नहीं। फिर वहाँ के बदलते मौसम को देख.. मैने जैसे मन बना ही लिया। थोड़ा मँहगा सा तो था वो छाता.. लेकिन था बड़ा ही प्यारा। फिर मैं उसे खरीद छतरी ताने बाहर आ निकला.. और हल्की बारिश की उन फुहारों में थोड़ा गुनगुनाता हुआ.. आगे अपने होटेल की ओर बढ़ने लगा। फिर जैसे ही मैं उस होटेल के मेन गेट पे पहुँचा.. तो तब तक बारिश भी जाती रही थी। फिर वहाँ उस वुडलैंड होटल के एक बहादुर गेट कीपर से थोड़ी उस जगह व उसके आस-पास की जगहों के बारे में पूछ ताछ किया। मुझे बिहार का जानकर वो गेट कीपर भी खूश हो गया क्योंकि वो भी दारज़ीलिंग का ही रहने वाला था। फिर उसने मेरे हाथों में उस छाते को देख झट से कहा.. " क्या साहब.. यहाँ भी छाता लिए ही घूमने आए हो क्या.. ?" मैं कुछ पल के लिए बिल्कुल ही ठिठक सा गया। उसकी कही बातों को हल्के में लेकर.. वापस अपने दोस्तों के पास अपने होटल वाले कॉटेज को आ पहुँचा। सारे दोस्त तब तक एक गहरी नींद लेकर जाग चुके थे। फिर हम सब साथ में चाय-कॉफी लेने के बाद उस होटेल से बाहर निकल पड़े। शाम को हमने बोन-फायर किया.. और दोस्तों के साथ खूब नाचे गाए। दूसरे दिन हमें ऊटी की खूबसूरत जगहों को देखने भी जाना था। मौसम के बदलते मिज़ाज को देखकर.. मैनें अपने बैग में छाते को भी रख लिया।


दूसरे दिन ऊटी भ्रमण को हम सब तैयार थे। दो तीन मिनी बस में हम ऊटी की साइट सीईंंग को निकल पड़े। इस क्रम में हम.. सबसे पहले दोदाबेटा पीक को देखने गये। दक्षिण भारत में मौजूद इस उँचे पर्वत शृंखला की उम्मीद तो मैने कभी नहीं की थी। सचमुच अद्वितीय ही था.. वहाँ से संपूर्ण प्रकृति का आकर्षण। फिर उस जगह को पहुंचते ही लगा.. कि जैसे कितनी सारी बॉलीवुड फिल्में बनी हो इस जगह पर। फिर हम वहाँ से नीलगिरि की चाय के बागानो को देखते हुए... ऊटी लेक आ पहुँचे। वहाँ हमने बोटिंग की.. फिर एक रेस्टरौंत में खाना खाकर हम.. शाम को वहाँ के बोटैनिकल गार्डेन आ पहुँचे। दिन भर बहुत ही मज़ा आया.. उस गार्डेन के हरे घाँसो को देख तो मैं वहीं लेट गया। दिन भर की थकान को थोड़ा कम करने। फिर वहाँ से निकल कर हम पास के मार्केट एरिया को  भी गये। मार्केट एरिया घूम ही रहे थे की तेज मूसलाधार बारिश अचानक से होने लगी.. तेजी से मैं अपने बैग में रखे छाते को निकालने की कोशिश की.. लेकिन ये क्या..  वो छाता तो बैग में था ही नहीं। फिर मैं तेज़ी से अपने मिनी बस की ओर भागा.. की कहीं बैग से निकल वो वहाँ सीट के नीचे तो नहीं गिर गया.. लेकिन वो वहाँ भी नहीं मिला। मन बड़ा ही अब मायूस सा हो गया था। मैं हल्के कदमों से बारीश में भींगते अपने दोस्तों की ओर उस मार्केट एरिया को बढ़ने लगा.. की तभी उस होटेल के गेटकीपर बहादुर की कही बात कौंध सी गयी.. " क्या साहब.. यहाँ भी छाता लिए ही घूमने आए हो क्या..?" मैं जैसे खुद पे ही हँस पड़ा और उस शाम ऊटी की होती उस मदमस्त बारिश में बिल्कुल ही डूब सा गया। फिर तो ये सबकुछ एक अद्भुत आनंद ही था.. एक जेनुइन नॉलेज.. कभी न खोने वाला।

 ऊँटी की सुहानी यादों को सजोए हम एक दिन Mysore रुकते हुए Bangalore आ पहुंचे.. और फिर एक दिन बाद हम सब नागपुर लौट आऐ। आज इतने दिन होने के बाद भी.. ऊटी के उस ट्रिप को नहीं भूला हूँ.. ना ही गुम हुए उस छाते को ही। जीवन में जैसे बहुत सारी ऐसी वजहों से आपका जुड़ाव भी तो उस छाते के समान ही है.. एक आवरण मिल जाए तो सुख ही सुख है.. नहीं तो अपना समझा हुआ एक दुख के समान। सच मानिए तो ऐसा कुछ भी नहीं है.. प्रकृति से मिली हर एक रसों को स्वछंदता से आपको लेना ही होगा.. नहीं तो भूल जायें उस रहस्यमयी छाते के समान।



- Vinayak Ranjan


Friday, 13 June 2014

अमूल्य धरोहरों की प्राण-प्रतिष्ठा...


कुछ दिन हुए टाइम्स जॉब्स डॉट कॉम पे मेरे रेज़्यूमे को देख देल्ही से एक कॉल आया... बातचीत से पता चला यह कॉल राजस्थान के एक कॉलेज में असिस्टेंट प्रोफेसर पद के लिए था| उस कॉल में मुझसे उस जॉब के लिए सहमति माँगी गयी..फिर मेरे मनोनुकूल वेतन संबंधी बातों पे भी बातें हुई| फिर कुछ दिन बाद उस कॉलेज के प्रिन्सिपल से भी मेरी बातें हुई| ये क्रम कुछ दिन और चला.. फिर एक दिन उस कॉलेज की वेबसाइट को मैने देखा.. तो दंग रह गया| मुझे विश्वास ही नहीं हो रहा था की.. इतने दिन पुराने कॉलेज को आज भी सही मार्ग-दर्शनो और शोधित निर्णयों से  से जीवित रखने की कोशिश की जा रही है..| उस कॉलेज के पहले चेयरमॅन राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी थे.. तो दूसरे चेयरमॅन पंडित मदन मोहन मालवीय थे.. और ये कॉलेज १९२० में पोदार एजुकेशनल ट्रस्ट द्वारा राजस्थान के नवलगढ़ में स्थापित की गयी थी.. और आज भी अपने सटीक  प्रयत्नो से आगे बढ़ रहा है..| लेकिन इस द्रस्टव्य से जो चकित करने वाली बात थी.. की आज भी वो कॉलेज.. चाहे वो महात्मा गाँधी के रूप में हो..या पंडित मदन मोहन मालवीय के रूप में... उन अमूल्य धरोहरो को बचाकर और उनकी प्राण-प्रतिष्ठा में आज भी जुटा हुआ है| ये शोध का भी विषय है की... उस पराधीन भारत में शिक्षा प्रयासों की कोई सीमा राजनीतिक अथवा राजकीय प्रणालियों से बँधी नहीं होती होंगी.. और आज भी ऐसे विचार हमें शिक्षा-प्रसार और इसके स्वस्थ क्रम को आगे बढ़ाने में बल देता ही नज़र आएगा| फिर उस कॉलेज के अकॅडेमिक प्रोग्राम वाले लिंक में अपने कंप्यूटर प्रोफेशन से जुड़ी शोध संबंधी प्रयासों को भी बड़ी सजगता से जोड़ कर रखा पाया| कंप्यूटर सब्जेक्ट्स में इसके विज्ञान और अविष्कारों को प्राथमिकता देते हुए.. अन्य आधारभूत विषयों के साथ टेक्निकल राइटिंग स्किल्स आदि विधाओं पे भी जोड़ दिया गया है.. जो एक सकारात्मक रुख़ है| आज की पीढ़ी को नये ज्ञान के साथ साथ पुराने ध्रुव केंद्रों से भी जोड़े रखना भी सही दिशा में लिया गया कदम है| http://www.podarcollege.in/bca.html

आज भी अगर हम कुछ अमूल्य धरोहरो को सहेज कर रखने की बात करें तो... हमारे हिन्दुस्तान में कितने ही राजा रजवाड़ों के किलों को भारत सरकार ने अपने अधिग्रहण में ले रखा है.. और एक सटीक कार्य-योजनाओ के तहत उनके रख रखाव पे विशेष ध्यान भी दिया जा रहा है| मैने भी अब तक जिन किलों को देखा है.. उनमे देल्ही का लाल किला, आगरा और फतेहपुर सीकरी का किला, बुरहानपूर मध्यप्रदेश का असीरगढ़ किला और हैदराबाद का गोलगुंडा किला.. और तो और अपने बक्सर कार्यानुभव में बगल के डुमराव महाराज के किले को भी देख पाया| डुमराव किले में उस रात के अंधेरे में जो दिखा था.. वो था.  शहर से लगा उस किले का बाहरी  परिसर और मुख्य द्वार.. कुछ जीर्ण-शीर्ण सा दिखा| उस किले से निकलते ही ठीक सामने वाली मार्केट के चौराहे पे एक पुरानी मिठाईवाली  दुकान से निकलती तेज और चकाचौंध रोशनी... मानो अपने अंदाज में कह रही हो... "कहाँ गंगू तेलि.. और कहाँ राजा भोज.." कुछ कुछ कबीर की उल्टी वाणी की तरह...| सच में उस रात.. डुमराव किले से वापस आकर भी उस पुरातन अवशेषों की छाया.. मन में बैठी हुई सी  थी| फिर उस भावावेषों से भी.. जिस चादर को ओढ़े वो मानो पुराने अतित पे रो रही हो| वो भोजपुर की दिव्य धरती थी... जहाँ की भोजपुरी संस्कृति आज देश विदेशों में अपनी अच्छी पैठ रखने में कायम तो है... लेकिन अपनो जड़ों से जड़ आधार ही गायब दिखता है..| १९७०-८० के कुछ एक भोजपुरी  फिल्मों और भोजपुर के शेक्सपियर "भिखारी ठाकुर" की अन्यतम कृति "बिदेशिया" को छोड़.... आज की भोजपुरी फिल्मों और गानो ने तो मानवीय संवेद नाओं की तिलांजलि ही दे दि  है..| इस मामले में.. मैथिली भाषाई अंचलों ने आज भी सांस्कृतिक चमक और मधुरताओं को सहेजे रखा है| ..तो अपने भागलपुर मुंगेर की अंगीका भी दम तोड़ती ही नज़र आती है| इन अमूल्य धरोहरो के प्राण प्रतिष्ठाओं को भी पुनर्जीवित करना अनिवार्य है.. तभी आज के विकास-पोषक के रूप में हम खुद को भी जाने जा सकेंगे|
http://en.wikipedia.org/wiki/Bhikhari_Thakur

२००९ में अपने पूर्णिया सिटी के राजा पृथ्विचंद लाल के किले के कुछ पुरातन अवशेषों को भी देखने का मौका लगा| एक खंडहर सी वीरान मंदिर के शिल्प-वास्तु कला को देख आप आज भी उसके भव्यता का अनुमान लगा सकते है| वो मंदिर प्रसिद्ध त्रिपुर-सुंदरी देवी की थी.. लेकिन मंदिर से देवी की मूर्ति नदारद... | उस पूजा के फर्शों पे दुर्गा पूजा मेले में बिकने वाले नमकीन के आंटे गूथे और तले जा रहे थे...| कुछ आगे बढ़ देखा तो पुराने तालाब के बगल के दो सटे मंदिर... जिनमे एक पुराना  शिव मंदिर था|  मंदिर के शिवलिंग से बँधी एक गाय.. उस जीर्ण मंदिर के अंदर बैठी थी| इन दृश्यों से ही ये स्पष्ट होता है की... राजा रजवाड़ों के अंत के साथ ही.. सामाजिक चेतना भी इन शक्ति-पिठों के प्रति कितनी उदासीन सी हो गयी..| आज ज़रूरत है तो उस ओर भी मुखर होने की... चाहे वो मंदिर हो या मस्जिद.. चर्च हो या गुरु द्वारे.. या पुराने भक्ति-शक्तिमठ  या शिक्षा केंद्र ही क्यों ना हो... इनके जीर्णोद्धार को आज के हमारे प्रबुद्ध समाज-शास्त्रियों को  कृत संकल्पित होना ही होगा... अपनी जड़ों और मूल्यों के प्रति आपकी  कार्मिक व वैचारिक  भागीदारी ही... अपनी अमूल्य धरोहरों की सच्ची प्राण-प्रतिष्ठा है...|



विप्र प्रयाग घोष

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Wednesday, 11 June 2014

आध्यात्मिक अभिलेखों के सन्पोषण और संवर्धन की वकालत...

कुछ दिन हुए हिमाचल प्रदेश में व्यास नदी में २४ छात्रों की अप्राकृतिक रूप से बढ़े जल-स्तर में डूबने से अकाल मृत्यु हो गयी| सारे छात्र भारत के नये बने तेलंगाना राज्य के एक इंजिनियरिंग कॉलेज के छात्र थे| फिर रह रह कर मृत शवों का मिलना.. न्यूज़ और मीडीया रिपोर्ट से मिलती खबरें.. शोक में रोते और चिल्लाते परिजन..| खबरों का ये सिलसिला कुछ और दिन चलेगा.. फिर एक नये हादसों की ओर अपना रुख़ कर लेगा..| केद्र और राज्य सरकारें इसे महज एक मानवीय चूक समझ.. शोक संतृप्त परिवारों के कुछ मुआवजो का एलान कर.. अपना पल्ला झाड़ते ही नज़र आयेंगी|

...फिर जीवन मृत्यु के इस झंझावात में इस विस्मयकारी नुकसान को किस रूप में देखा जाए|

याद रहे की वो सभी मानवीय विधाओं में सर्वश्रेष्ठ इंजिनियरिंग संकाय के छात्र थे| अपने राज्य.. अपनी संस्कृति को छोड़ दूसरे राज्य और उन दृश्यों से जुड़ने आए थे.. जिन्हें वो जिंदगी भर की संपत्ति समझ अपने दिलों में सजो कर रख पाते| ... और शायद ऐसी अतुलनीय संपत्तियों को ही मेरे शब्दों में अध्यात्म कहतें हैं... और इंसानी ज़ज्बात आध्यात्मिक अभिलेखों के इर्द गिर्द ही मूर्त रूप लिए खड़ा नज़र आता है|

अगर प्रकृति के इन कड़वे सत्यों से खुद के अनुभवों को पिरोने की कोशिश करूँ तो.. अपने इस आध्यात्मिक वकालत को थोड़ा जीवंत कर सकूँ| इस संसार में सभों के अपने अपने मनो-विश्लेषण रहे हैं.. और फिर एक अणु की पुष्टि ही परम-आणविक समर्थन ले पाया है| इसी तरह कुछ... मैं भी जब अपने इंजिनियरिंग जीवन की यात्रा को घर से निकला था.. तो बहूत सारे पड़ावों से गुज़रते हुए.. आज जीवन के वृतांत पे आ रुका हूँ| जिस आध्यात्मिक अभिलेखों को देख पला-बढ़ा.. फिर वहाँ पहुँच कुछ नये अनुभवों से जन्मे अभिलेखों की रचना होते देख पा रहा हूँ| ....  मेरे इंजिनियरिंग विद्यार्थी जीवन की मेरी पहली पाठशाला होती थी... कोलकाता सियालदह का रेलवे स्टेशन...| भारत के अति-व्यस्ततम रेलवे स्टेशनो में एक.. हज़ारों हज़ार की संख्या में एक साथ आते-जाते  लोगो का रेला..| ...और इस अलौकिक दर्शन में मुझको लुभाता.. स्टेशन पे स्थित राम-कृष्ण मिशन का बुक स्टॉल..| ..और उस बुक स्टॉल पे उपलब्ध रामकृष्ण परमहंस, स्वामी विवेकानंद आदि महान आध्यात्मिक आत्माओं का साहित्य संदेश..| वहाँ से नागपुर की ओर जाने और लौटते वक़्त वो जगह हमेशा ही मेरा मार्ग-दर्शन करती.. और वहाँ मिले कुछ अनमोल आध्यात्मिक व साहित्य कृतियों से मैं खुद को धन्य समझता| उस जगह से मेरी दोस्ती हो गयी थी... और बगल वाले एप्पल जूस सेंटर से भी...| घर से दूर होने पे भी... आपके इस आत्मीयता की वजह क्या होती है..| शायद इसलिए की आपके मनो-भावों को उकेरती जीवन के कुछ मूल्यों का दर्शन आपको सहज मिलती दिख जाती हो.. और आपकी भारतीयता और आपके सांस्कृतिक धरोहर से जुड़े कुछ पक्षों की संपुष्टि भी हो जाती हो|

     बचपन से मुझे जितना जुड़ाव मेरे बंगाली परिदृश्य में रह कर भी ना मिला था... कोलकाता से
होकर गुजरने वाली इन यात्राओं ने पूरी कर दी थी| कटिहार से हाटे-बाज़ारे एक्सप्रेस के लम्हों ने उन तानो को जोड़ने की कोशिश की... जो कभी शरत-रवीन्द्र साहित्य तो कभी सलिल चौधरी.. सचिन देव बर्मन.. काजी नज़रुल  के संगीतों से निकले हों| अगर इस बीच कोलकाता दर्शन को कुछ वक़्त मिल जाए तो.. बेलुर मठ और ब्रिटिश राज के अवशेषों से खुद को अभिभूत कर पाता| एक बार तो कोलकाता प्रेसीडेंसी कॉलेज भी घूम आया था.. उस वक़्त वहाँ मेरा एक प्रिय मित्र जो पढ़ाई कर रहा था| बातों बातों मे ही पता चला की आज भी मेरे पूर्णिया के सतीनाथ भादुरी की "ढोढाय चरित-मानस" वहाँ पी.जी. कोर्स में चल रही है| ... जीवन में मिलने वाले ये कुछ ऐसे तत्वों से ही आपका अध्यात्म मिलता चला जाता है.. वहाँ राम का वनवास भी दिखता है तो पांडवों का अग्यात-वास भी..| फिर आध्यात्मिक अनुभवों के  ऐसे धरोहरों को बचाने में.. मानवीकी चूक क्यों...!!!!

अपने देश में अगर सबसे ज़्यादा बच्चे अपने गृह-राज्यों को छोड़ दूसरे राज्यों का रुख़ करतें हैं तो वो इंजिनियरिंग और मेडिकल की पढ़ाई के लिए ही..| इन ज्ञान-वर्धन और संवहन में अपने विषयवार ज्ञान के साथ साथ.. जिस महान संज्ञान को वो हासिल करते हैं.. वो है देश और विदेशों की विविध शैलियाँ, धर्माचार, रस्मो-रिवाजों के आए लोगों से सामनजस्य स्थापन में.. जिसे वो कालांतर अपनी सेवाओं से जोड़ पुनः विश्व-कर्म को निकल पड़ते हैं| अपनी आज़ादी के पूर्व और उसके बाद भी विदेशों की ओर भारत की एक अच्छी पौध.. अमेरिका, आफ्रिका, यूरोप महादेशों की ओर माइग्रेट करने लगी..| उसकी ख़ास वजह वहाँ मिल रहे उँचे पगारों  और सुख सुविधाओं से नहीं.. बल्कि उनके ज्ञान के मिलने वाले उचित संवर्धन,सनपोषण और मिलने वाले सम्मान से ही था| फिर तो आज भी स्वामी विवेकानंद के अध्यात्म उल्लेखों की पुष्टि उनके शिकागो में दिए भाषण से ही विश्व-जगत को मिलती नज़र आती है|फिर इस कड़ी को आगे बढ़ाते परमहंस स्वामी योगानंद ने भी इसी समाज से उठ अपने योग दर्शन को कॅलिफॉर्निया, अमेरिका में स्थापित किया| फिर अमेरिका में प्रसारित इन अध्यात्म शक्तियों के कारण ही अमेरिका के शिकागो शहर में जन्मा एक यहूदी.. अध्यात्म की खोज में एक दूभर यात्रा के बाद भारत आ... राधानाथ स्वामी के अवतार को स्वीकृत कर पाता है|

आध्यात्मिक अभिलेखों के इन कड़ियों में न जाने ऐसे कितने ही नाम हैं.. जिन्होने
समय समय पे भारतीय आध्यात्मिक प्रतिबद्धताओं पे अडिग रह.. अपने समाज, देश और विदेशों को एक नयी दिशा देने की कोशिश की.. और फिर इस विश्व-निर्माण में भी उन अमूल्य जीवन-यात्राओं ने ही विशेष योगदान भी दिया था| अपने नागपुर इंजिनियरिंग यात्रा में भी औरों के अनुभव की ही तरह... दूसरे राज्यों से आए सहपाठियों.. और महाराष्ट्र की ओजपूर्ण संस्कृति में कुछ दुर्लभ अनुभव मिले.. और इस अभिव्यक्ति में वे मेरे अध्यात्मिक अभिलेख ही नज़र आतें हैं| कभी दोस्तों के साथ.. नागपुर से सटे रामटेक.. कालिदास की काव्य-रचना मेघदूत की रामगिरी का अद्भूत दर्शन का होना.. तो कभी बगल के खिन्द्शि डॅम पे जाना| इंजिनियरिंग परीक्षाओं के समय.. नागपुर के हनुमान टेकरी.. तो पास के क्रिस्चियन लुर्ड माता मंदिर के चरण स्पर्श को जाना| फिर दोस्तों के साथ बाबा ताज्जुद्दीन की दरगाह का सूफ़ी स्पर्श.. तो पंजाबी मित्रों के साथ गुरुद्वारे पे मत्था टेक आना...| घर के बाहर मिले इन अनुभवों को आप क्या कहेंगे.. अपने जीवन का आध्यात्मिक अभिलेख ही ना..| चाहे पुनः अपने अर्ध-विकसित राज्यों  की जड़ व्यवस्था मे आकर में इन आध्यात्मिक अभिलेखों को जगह मिले ना मिले... आपका मनो-विश्लेषण आगे बढ़ अपना नेतृत्व करता ही नज़र आएगा|
http://en.wikipedia.org/wiki/Radhanath_Swami
http://en.wikipedia.org/wiki/Tajuddin_Muhammad_Badruddin



वर्ष २००२ में चेन्नई विज़िट के दौरान वहाँ हमारे बिहार के रत्न और भारत के प्रथम राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्र प्रसाद के नाम पे बने हुए "राजेन्द्र भवन" को देखा था| जिस ज़मीन का अलॉटमेंट हमारे द्वितीय राष्ट्रपति सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने राजेंद्र बाबू की जीवित रहते ही.. उनके स्मृति चिन्ह सम्मान के लिए किया था| आज हमारे देश के हिंदीभाषी राज्यों से चेन्नई भ्रमण और इलाज के लिए आए लोगों की सेवा में ये भवन अपना योगदान देता आ रहा है| देश के हर राज्यों में देश के दूसरे राज्यों के प्रति ऐसे सकारात्मक पहल से ही हम ऐसे कितने ही कार्य-योजनाओं को एकीकृत कर सकतें हैं| फिर उस चेन्नई दर्शन में चेन्नई स्थित एक गुरुद्वारे में हुए लंगर के सामूहिक भोज में भी अपने दादाजी के साथ शामिल हुआ था| बड़े-बुजुर्गों के अनुभव भी तो आध्यात्मिक अभिलेख ही हैं| ...और फिर जब आज के बदलते माहौल में इन अभिलेखों पे किसी भी तरह का बर्बरतापूर्ण अतिक्रमण हो.. चाहे वो सामाजिक या राजनीतिक पृष्ठ-भूमि से निकले अवसाद हों तो.. कष्ट तो होता ही है..|

http://www.justdial.com/Chennai/deshratna-dr-rajendra-prasad-memorial-trust-%3Cnear%3E-Gopalapuram/044PXX44-XX44-110825122454-C1J5_BZDET?utm_source=adwords&utm_medium=codered

 आज  सभी प्रबुद्ध जीवंत यात्रियों के साथ घटित होते कुछ ऐसे ही संदर्भों के आध्यात्मिक अभिलेखों की सुरक्षा की गारंटी कौन लेगा..| हमारे देश की युवा-शक्ति ही हमारे कल का अध्यात्म है, इसके संवर्धन और समपोषण के लिए भी उचित नीति-निर्धारण तय किए जाने चाहिए.. जो किसी भी स्तर-हीन राजनीति से परे हो|


विप्र प्रयाग घोष

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Tuesday, 10 June 2014

मेघदूतम.. मॉनसूनम.. क्लाउड कंप्युटम...

एप्पेल कंपनी के संस्थापक स्टीव जॉब्स के लेखों को पढ़ ही रहा था की... अचानक कल रात तेज आँधियों के साथ बारिश होने लगी| फिर अपने कमरे की खिड़कियों को बंद करने के बाद सहसा ख्याल आया की.. मॉनसून तो अभी केरल के तटों पे ही है.. फिर इस बारिश को क्या कहूँ.. क्या नाम दूँ...| लेकिन जो भी है ये... है तो वैसी ही अवधारणायें लिए.. बिल्कुल मॉनसून की प्रखर प्रतिछाया..| फिर स्टीव जॉब्स के लेखों को लेकर आगे बढ़ा ही था की... उन लेखो से निकला एक शब्द " क्लाउड कंप्यूटिंग"... हिन्दी शब्द रूपांतरण में इसे " मेघ संगणना" के रूप में जाना जा सकता है| फिर तो जैसे.. मुझे कुछ दिख सा गया हो... बाहर तेज़ बारिश में मेघों की गरगराहट और हाथों में क्लाउड कंप्यूटिंग विज्ञान.. और फिर कुछ आगे बढ़ते इससे जुटता दिखा महाकवि कालिदास का मेघदूतम संज्ञान भी...| रात के अंधेरे में मिले कुछ ऐसे ही अंतर्मनो को निर्देश देता स्वर मिल ही गया| 

जहाँ महाकवि कालिदास ने मेघदूत में मेघों के माध्यम से विरही मनो के संप्रेषण को अभिभूत किया तो... प्रकृति-पूर्ण मेघो से लबालब मॉनसून ने भारतीय काया को अपने आगमन से निरंतर जीवन देने का... तो ज्ञान विज्ञान के इस कड़ी में स्टीव जॉब्स ने भी क्लाउड कंप्यूटिंग तकनीक द्वारा नये आयामो को छूने का ही काम किया| इसे महज आध्यात्मिक सूफिज़म की अनुभूतियों से ही समझा जा सकता है की... स्टीव जॉब्स एक अमेरिकन होते हुए भी अपने अविष्कारों से दुनिया को बाँधने का काम किया.. तो मॉनसून की भारतीय अभिव्यक्ति भी तो सभी वर्णो.. वर्गो और धर्मों से परे नज़र आती है| महाकवि कालिदास की अद्भूत रचनाओ को भी तो विश्व के महान कवियों और साहित्यकारों का मत प्राप्त है| 


 फिर आज चाहे वो कालिदास की दिव्य रचना मेघदूत हो.. या प्रकृति-पूर्ण मॉनसून का आगमन... या स्टीव जॉब्स संचारित क्लाउड कंप्यूटिंग की गति.. अपने अपने काल-खंडों और जीवन-चक्र से निकल कर आती ऐसी रचनाओं ने मानव जीवन की औषधियों का काम ही किया है| इस संबंध में अपने इस लेख को अपने प्रोफेशन से जुड़ी क्लाउड कंप्यूटिंग पे ही केंद्रित रखना चाहता हूँ.. मेघदूतम और मॉनसून की फुहारें खुद-ब-खुद मिलती चली जाएँगी...

एपल के सीईओ स्टीव जॉब्स जब भी किसी मंच पर आते थे , तो दुनिया चौकन्नी हो जाती थी.. की न जाने इस बार वो कौन सा उपकरण दिखाएंगे जिससे लोगों की जिंदगी बदल जाएगी। आखिर एपल वही कंपनी है, जिसने हमें आईपॉड, मैकिंटोश और आईफोन जैसे उपकरण दिए हैं। उपकरणों के साथ उन्होने ऐसी सर्विस भी दी.. , जिससे लोग अपना सारा डाटा और जानकारी विभिन्न उपकरणों पर एक तरह से रख सकते हैं। चाहे वो फोन का इस्तेमाल कर रहे हों या टैबलेट का या अपने डेस्कटॉप कंप्यूटर का ... उनको वह जानकारी और सॉफ्टवेयर प्राप्त हो सकता है। एपल की इस सर्विस का नाम था आईक्लाउड। लेकिन यह असल में एपल की नहीं, बल्कि क्लाउड कंप्यूटिंग की शक्ति दर्शाती है। सर्विस का नाम कोई भी हो, सर्विस देने वाला चाहे एपल हो, या गूगल, या माइक्रोसॉफ्ट... लेकिन आने वाले दिनों में क्लाउड कंप्यूटिंग की धूम रहेगी और  हमारी जिंदगी बदल देगी ।  आखिर यह क्लाउड कंप्यूटिंग है क्या बला, और इसने दुनिया पर ऐसा कौन सा जादू कर दिया है कि सब इसके भक्त हो गए हैं... ठीक बिल्कुल उसी तरह, जिस तरह महाकवि कालिदास की रचनायें.. " अभिज्ञान शाकुनतलम".. "मालविकाअग्निमित्रम".. "मेघदूतम" ने आज तक भारतीय साहित्य कोष को अपने दिव्य उपस्थिति से भिंगोये रखा और मानव मन थोड़ा मॉनसून रूपी तृप्त धारा में बह निकला| 

अगर आप सोच रहे हैं कि क्लाउड कंप्यूटिंग बादलों से संबंधित है, तो आप एकदम सही सोच रहे हैं। बस इतना याद रखिए कि इन बादलों में पानी नहीं, बल्कि डिजिटल डाटा- तरह-तरह की जानकारियां तथा उनसे संबंधित अन्य सामग्री भरी होती है। और ये बादल आकाश में नहीं, बल्कि काफी विशालकाय कंप्यूटरों पर... जिन्हें सर्वर कहते हैं ... पाए जाते हैं। क्लाउड कंप्यूटिंग की बात आजकल कुछ ज्यादा हो रही है, पर यह कोई नयी चीज नहीं है। अगर आप इंटरनेट पर गए हैं, तो जाने-अनजाने आपने भी इसका इस्तेमाल किया होगा। विश्वास नहीं होता
तो ई-मेल जैसी साधारण सी इंटरनेट सेवा का उदाहरण ले लें... ज्यादातर लोग ई-मेल अपने कंप्यूटर पर डाउनलोड नहीं करते, बल्कि इंटरनेट पर देख कर वहीं छोड़ देते हैं। आखिर कौन अपने कंप्यूटर के हार्ड ड्राईव को ई-मेल से भरना चाहता है? पर आपने कभी यह सोचा कि यह ई-मेल जो आपने इंटरनेट या वेब पर छोड़ रखी है, आखिर कहां सहेज कर रखी जाती है, ताकि आप जब चाहें तब अपने ई-मेल अकाउंट में जा कर उसे देख लें। जवाब सीधा सा है -क्लाउड पर। आपको शायद यह पता न हो, लेकिन आप लगभग जब भी कोई चीज वेब पर छोड़ते हैं, तो वह डाटा के इन बादलों पर ही रखी जाती है। चाहे वो फेसबुक पर कोई चित्र हो, यू -ट्यूब पर कोई विडियो, या आपके ब्लॉग पर कोई नया लेख। अगर वह आपने वेब पर छोड़ा है तो आप क्लाउड कंप्यूटिंग का प्रयोग कर रहे हैं...  कुछ उनही भावों के तरह..  जिस तरह मान्सून अपनी प्रखरता से आम जन-जीवन.. नदी नालों को मानवोपयोग हेतु  सतत् पाटने का काम करती है तो साहित्य कोष भी अपने अनमीत संचरण से विस्मित मानव मन के सतत ढाल का काम ही करती नज़र आती है.. कुछ कुछ क्लाउड कंप्यूटिंग विज्ञान की ही तरह... |


     कंप्यूटिंग कार्य पद्धति में आपने देखा ही होगा कि आप जो  भी content इंटरनेट पर छोड़ते हैं, उसे किसी भी कंप्यूटर या सेलफोन या टेबलेट जैसे उपकरण पर देख सकते हैं। इसके लिए ऐसी कोई बंदिश नहीं होती कि उस चीज को देखने के लिए एक विशेष प्रकार के उपकरण का ही इस्तेमाल किया जाए। आखिर आप अपनी ई-मेल या फेसबुक का हाल ऑफिस और घर के कंप्यूटर या अपने फोन से भी जान सकते हैं। यही है क्लाउड कंप्यूटिंगकी सबसे बड़ी शक्ति और विशेषता...। यह आपको इंटरनेट पर रखी अपनी सामग्री या डाटा कहीं से भी, कभी भी देखने और बदलने की क्षमता देता है। शुरू-शुरू में क्लाउड कंप्यूटिंग को मात्र वेब पर स्थित एक डाटा भंडार माना जाता था, लेकिन आज इसकी क्षमता इतनी है कि कई विशेषज्ञों के अनुसार आगे यह आपकी
डिजिटल जिंदगी का केंद्र होगा। यह परिवर्तन आया है ऐसे सॉफ्टवेयर की बदौलत जो कंप्यूटर पर नहीं, बल्कि वेब या इंटरनेट पर चलते हैं। कुछ साल पहले किसी सॉफ्टवेयर को इस्तेमाल करने का मतलब होता था उसको अपने कंप्यूटर या सेलफोन पर डाउनलोड करना। इसके बाद वह सॉफ्टवेयर केवल उसी कंप्यूटर या सेलफोन पर चलाया जा सकता था। आज क्लाउड कंप्यूटिंग के जरिये आप वैसे ही सॉफ्टवेयर का इस्तेमाल कर सकते हैं, बिना कुछ डाउनलोड किये हुए, लगभग किसी भी उपकरण -फोन, टैबलेट, कंप्यूटर या यहां तक कि टीवी से भी। समझ लीजिए कि क्लाउड ने आपके कंप्यूटर की जगह ले ली है। आप उस पर काम कर सकते हैं, उस पर अपने दस्तावेज, चित्र, विडियो इत्यादि रख सकते हैं और जब भी चाहें किसी भी उपकरण से उनको देख और बदल सकते हैं। 

          उदाहरण- स्वरूप आम तौर पर हम कंप्यूटर पर दस्तावेज बनाने के लिए माइक्रोसॉफ्ट ऑफिस नाम के सॉफ्टवेयर का इस्तेमाल करते हैं जिसे हमें कंप्यूटर पर डालना पड़ता है और जिससे बनी फाइलें और सामग्री हमें आम तौर पर कंप्यूटर पर ही छोड़नी पड़ती हैं। अब देखिए, गूगल के गूगल डॉक्स को, जो पूरी तरह इंटरनेट पर चलता है और आपको लगभग वही सुविधाएं देता है जो आपको माइक्रोसॉफ्ट ऑफिस से मिलती हैं, डाउनलोड करने की कोई जरूरत नहीं है। इससे बनी फाइलें और दस्तावेज इंटरनेट पर ही रहेंगे, जिन्हें आप किसी भी कंप्यूटर या सेलफोन पर देख सकते हैं।  संसार की दर्जनों कंपनियां क्लाउड कंप्यूटिंग के दम और लाभ को देखते हुए इसका उपयोग करने की कोशिश कर रही हैं। रोचक बात यह कि कई क्लाउड कंप्यूटिंग सर्विस मुफ्त प्राप्त हो सकती हैं।  जैसे-जैसे वेब पर चलने वाले सॉफ्टवेयरों
की संख्या बढ़ती जाएगी, वैसे-वैसे हम चलने लगेंगे डिजिटल बादलों की तरफ । हमारा काम खास उपकरणों पर नहीं, बल्कि हमारे इंटरनेट कनेक्शन पर निर्भर करेगा। जहां इंटरनेट होगा, वहीं हम काम कर पाएंगे या अपना मन बहला सकेंगे। चाहे हमारे पास कंप्यूटर हो या टैबलेट, या सेलफोन, या टीवी, या गेम कंसोल, या इंटरनेट से संपर्क करने वाली एक घड़ी ही क्यों न हो। आपका काम और मनोरंजन होगा, जहां भी इंटरनेट होगा। वह किसी उपकरण से बंधा नहीं होगा।...और फिर उन्मुक्त हो ऐसे ही भाव लिए अपने जीवन की साहित्य कोष की अनुभूतियों को भी यदा कदा थोड़ा जी पाएगा| 

आज क्लाउड कंप्यूटिंग के इस विषय पे लिखते ही भारतीय दर्शन में रचा मन अपने शब्द सम्मिलन लिए  बादलों की उत्कट छाया  मॉनसून के आगमन को.. तो साहित्य सम्राट कालिदास रचित मेघदूत की उत्कृष्ट छवियों को आज भी भारतीय मानस पटल पे उकेरने का प्रयास कर रही है| आज चाहे वो अपनी प्रेयसी से दूर बैठा कालिदास का यक्ष हो.. या मॉनसून की वृष्टि-छाया की आशाओं में लालायित भारतीय किसान..या फिर स्टीव जॉब्स के सपनो से भी आगे जाता हमारे आज का क्लाउड कंप्यूटिंग विज्ञान.. आध्यात्मिक सूफिज़म से उपजे ऐसे अंतलेखों को भारतीयता के साथ मुस्तैदी से जोड़े रखना ही होगा... की कहीं कुछ रोचक मिल जाए..

http://in.reuters.com/article/2014/06/09/uk-india-monsoon-idINKBN0EK15P20140609
http://rajaniyer.blogspot.in/2008/02/kalidas.html
http://www.sanskritebooks.org/2010/10/meghadutam-of-kalidasa-with-sanskrit-commentary-english-translation/

भारत के ऐसे पौराणिक और सीमांतीय राज्यों के कॉलेज और तकनीकी संस्थानो में आज भी ऐसे प्रारूप तैयार नहीं हैं.. की उनके लाइब्ररी में पौराणिक और साहित्यिक विधाओं से जुड़ी लेखों का संग्रह मिल सके.. सच मानिए यह भी कुछ क्लाउड कंप्यूटिंग विज्ञान को धरातल पे लाने ही जैसा है|



विप्र प्रयाग घोष 

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Sunday, 8 June 2014

गंगा किनारे मोरा घाट...


केदारनाथ धाम पे आए महा-सूनामी को अब एक वर्ष होने को आए| कल रात ही डिस्कवरी चॅनेल पे उस भीषण त्रासदी पे एक डोकुमएंट्री आ रही थी| फिर तो अब नई सरकार के आने पे भारत की आत्मा गंगा नदी की साफ सफाई के वादे भी पूरे जोरो पे किए जा रहें हैं| ऐसा नहीं की ऐसे वादे पहली बार ही किए जा रहे हैं| इनके पहले भी कितनी सरकारें आई और गयी... राम तेरी गंगा मैली के नाम पे कितने ही कयास लगाए तो.. इसके संरक्षण को भी  कितने ही प्रयास किए गये| फिर हम एक नई उम्मीदों के साथ इसके मैलेपन को धोने का बस प्रण  ही करते दिखाई दे रहे हैं| कुछ विशेषणो के साथ आज की गंगा को.. कल की विशुद्ध गंगा में बदलने हेतु  ... इसके कुछ दुर्लभ परिदृश्य में जाकर ही हम... आने वाली पीढ़ियों के लिए... अपने सफल परिणामों को हासिल कर सकते हैं|

गंगा पे भारत में न जाने कितनी ही फिल्में बनी| १९८४-८५ की एक भोजपुरी फिल्म याद आती है.. जिसका नाम था " गंगा किनारे मोरा गॉव"... उस फिल्म का एक गाना था.. " गंगा किनारे मोरा गॉव हो... घर पहुँचा दे देवी मैया.."| वो गॉव अब मिलता नहीं... न ही वो आवाज़..| मुझे आज भी याद है... गंगा नदी के उस जल-पूर्ण  फैलाव की.. जब मैं अक्सर भागलपुर जाता था.. पूर्णिया से अपने दादाजी के साथ..| गंगा नदी के तट को देखने की इच्छा पूरी यात्रा के थकान को महसूस होने  ही नहीं देती थी| उस समय भागलपुर जाने के लिए आज का विक्रमशिला सेतु नहीं था| हम या तो पूर्णिया से मोटर बस से या फिर कटिहार से ट्रेन द्वारा बिहपुर पहुँचते... फिर बिहपुर से भगवानपूर घाट का ट्रेन से अद्भुत सफ़र..|

 ग्रामीण जन-जीवन का विहंगम दर्शन...|  याद है... उस स्वाद का जो वहाँ की फिश फ्राइ और रोटियों में मिलता था| मेरे दादाजी, मेरे इस स्वाद को भाँप गये थे.. और हर बार मुझे उस लज़ीज़ स्वाद का सुख मिलता रहता| वैसे स्वादों की कल्पना बस आप उस परिदृश्य में ही कर सकते हैं| फिर गंगा घाट पे आकर "स्टीमर" नदी के जहाज़ का घंटों इंतेज़ार..| फिर घाट पे मिलने वाले फलों में ककरी और खीरा का स्वस्थ स्वाद...| वो वक़्त स्टीम इंजनो का ही था... चाहे वो गंगा के घाट वाली Narrow Gauge ट्रेन हो या.. पानी पे चलने वाले जहाज़...|



जहाज़ का आकार टाइटॅनिक जैसा तो नहीं... पर वो तो मेरे बचपन का टाइटॅनिक जहाज़ ही था..| आज के गंगा नदी को देख आप उस फैलाव की कल्पना ही नहीं कर सकते हैं| हां, उस विहंगम भाव की पुष्टी हुई थी... जब मैं २००५ में IIT Guwahati के ट्रैनिंग के दौरान ब्रम्हपुत्र नदी के फैलाव को देखा था.. और उन बड़े जहाज़ों को भी जो कभी भागलपुर के घाटों पे भी देखी जाती थी| एक बार तो हॉलीवुड
फिल्म Pirates of Caribbeans के तर्ज़ पे काढ़ागोला घाट से कहलगॉव जाते वक़्त पानी के जहाज़ पे हुई डकेती की वारदात भी याद है| उस जमाने की ऐसी घटनाओं से ये समझा जा सकता है की... गंगा घाटों पे बसे सभ्यताओं को जोड़े रखने में इस नदी की भागीदारी कितनी रही होगी|

भागलपुर के घाटों में छोटी खंजरपुर के एक घाट को बचपन में बहूत करीब से देखा था| रोज सुबह और शाम वहाँ जाता था... सुबह जहाँ उस घाट पे नहाने के बाद बगल के शिव मंदिर में पूजा कर घर को लौटता.. तो शाम को फिर गंगा की लहरों को निहारने चला जाता... फिर दूर से आते पतवार वाले नावों का समूह... और साथ ही पंछीयों का मंदिर के प्रांगण वाले पीपल के पेड पे लौटना...| अब वर्षों बाद उन घाटों पे कोई नहीं जाता... बस घरों से निकलने वाली नालियों का रुख़ घाट लगे कूड़े करकटो को भिंगोने का काम करती है... नदी का रुख़ भी कटाव के कारण.. घाटों से  से कहीं दूर जाता दिखाई देता है... मन का देवदास अब इन घाटों को रोचता नहीं... न तो पारो अपनी गगरी ले पनघट को जाती ही है| घर को लौटते मांझीयों के गीतों को अब सुनने वाला कोई नहीं.. बस बीच मंझधार में फँसते होड़ में... इनसे पार उतरने के कयास लगाए जाते हैं|


आज फिर से गंगा के प्रति नये सरकार की आस्था जहाँ उनके भविष्य में किए जाने वाले कार्यों की Forward Chaining समीक्षाओं से है तो...कल के Backward Chained Knowledge Bank को भी नज़र अंदाज नहीं किया जा सकता...| २००६-०७ में पटना से कटिहार ट्रेन से आने के दौरान हमारे बगल वाले सीट पे कुछ रिटायर्ड प्रबुद्ध जनो को एक साथ बातें करते देखा था| उनकी बातों की गंभीरता से पता चला की वो गंगा नदी पे होने वाले सुधार और इससे जुड़े पक्षो पे बातें कर रहे थे| फिर मैने कुछ हिम्मत कर अपना परिचय भी सभो को दिया... और उनके समक्ष खुद को ले जाने का साहस बटोर पाया| बातचीत में पता चला वो भारत सरकार के वरिष्ठ रिटायर्ड अफ़सर थे.. जिन्हें नीतीश कुमार बिहार सरकार ने गंगा में लाने वाली कुछ सुधारात्मक प्रक्रियाओं के सिलसिले में कोलकाता और गुवाहाटी से  पटना बुलाया था| गंगा बचाओ अभियान और डॉल्फ़िन संरक्षण से जुड़ी  बहूत सारे रोचक तत्थयों की जानकारी मिली... तो अपने स्वाद से जुड़ी एक रोचक तथ्य भी... की अगर गंगा नदी में पाई जाने वाली दुर्लभ मछलियों का प्रवास फिर से बंगाल की खाडी से लेकर इल्लहाबाद तक होने लगे.. तभी समझो की गंगा पुनर्जीवित हो पाई| मछलियों का खारे पानी से लेकर मीठे जलश्रोत तक जाने की इस जीवन चक्र को ही.. गंगा में आए सुधारात्मक कार्यों का द्योतक माना जाए| तब ही गंगा नदी के किनारे बसी सभ्यताओं का पुनर्गठन भी हो पाएगा|

http://www.fao.org/docrep/007/ad525e/ad525e0f.htm

 इति गंगा जलम.....


Vinayak Ranjan

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Wednesday, 4 June 2014

परीदृश्य हरण....


कुछ दिनो पहले ही इस अलौकिक पौराणिक चित्र को गूगल सर्च के दौरान देखा| फिर इसे फ़ेसबुक पे अपडेट किया... पहली प्रतिक्रिया कुछ इस तरह आई की ये महाभारत के द्रौपदी चिर हरण का दृश्य रहा हो.. मैने झट इसका उत्तर दिया की महाशय ये देवी सीता का भूमि प्रवेश है| ...फिर पल भर के लिए जो विचार मन में आए की... आख़िर इस दृश्य पे जो प्रतिक्रिया आई.. आख़िर उन्होने इस दृश्य में क्या देखा... और क्या न देखा जो मैं देख पा रहा हूँ| झट में राम को दुशाशन बना दिया... या फिर  आज के भारत में महाभारत ने रामायण को पीछे छोड़ा... या फिर प्रतिकिया देने वाले का रामायण के पक्ष में अल्प ज्ञान..|

कुछ क्षणो के लिए मैं भी यहाँ रुकता हूँ..........



.....मर्यादा पुरुषोत्तम के नाम में.. राम ने भी न जाने कितने त्याग किए होंगे| कठिन परीक्षा की बलि वेदी पे कितने कठोर निर्णयों पे अड़े होंगे| फिर माता जानकी का सारे कर्मो के बाद... मोह त्याग... जाना फिर अपने उत्सर्जन का मार्ग..| कुछ लगा मानो देवी सीता भी जिस शक्ति लिए इस धरा को आई.. राजा जनक के घर... फिर उसी शक्ति को समा गयी|

कुछ ऐसे ही विचार कौंधे थे... बक्सर 2013 के मेरे कार्यानुभव में| एक बार इंजिनियरिंग कॉलेज के ही एक संघतीया प्राइमरी स्कूल के डेवेलपमेंट प्रोग्रेस के सिलसिले में बगल के गॉव जाने का मौका मिला था| वहाँ पढ़ रहे गॉव के छोटे छोटे बच्चे और उन सभो को पढ़ाती गॉव की ही शिक्षिकाएे...| उस जगह के लिए एक अच्छी पहल थी| पढ़ाने वाली शिक्षिकाएे... कुछने  इंटेरमेडिएट कर रखा था.. तो कुछ ग्रॅजुयेशन कर रही थी| फिर उस जगह से कॉलेज आने के बाद मैने अपने कॉलेज संचालक से कहा की... आज ये गॉव की बेटी हैं.. और खुद पढ़ और पढ़ा भी रही हैं... कालांतर भी क्या वो अपनी   इस उर्जा और ज्ञान को सन्चरीत और संवहित कर पायेंगी| ...... फिर  क्यों न हम आज की   इन सीताओं को भी यहीं शक्ति-वाहिनी बना दें| मेरे मन में नारी सशक्तिकरण के प्रति एक बृहत विहंगम भाव उमड़ता दिखाई दिया| और संभवतः इस लिए भी.. क्योंकि भारत के ऐसे रूढ़िवादी प्रदेशों में ऐसे पहल की सख़्त आवश्कता है| ...और खास कर वैसे प्रदेशों में जहाँ आज भी मानसीकता राजशाही की चादर ओढ़े हुए है| किसी गॉव को अगर आप सुबह सुबह जाने की कोशिश करें.. तो या तो खुद की नज़र बचाते जायेंगे... या नाक बंद किए| आज भी शौच- प्रावधानो का उचित प्रबंध ऐसे प्रबुद्ध प्रदेशों में भी देखने को नहीं मिलता... खास कर महिलाओं के लिए.... और वो भी वैसे प्रदेशों में.. जिन प्रदेशों ने पौराणिक काल से ही भारत वर्ष को दशा और दिशा दोनो देने का काम किया है|

अपने २००३ के अहमदाबाद गुजरात आवास के दौरान, एक बार वहाँ के एक शिल्पकार के साथ एक सम्म्रिध गुजराती परिवार के घर पे गया था... उस घर में उसकी बनाई प्लास्टर ऑफ पॅरिस के कुछ नमूनो को देखने| घर में प्रवेश करते ही लगा, की किसी मंदिर में आ गया हूँ.. सब कुछ व्यवस्थित सा..| उस घर के मालिक जो अपने वृद्धावस्था में थे.. उनसे कुछ बातें हुई..| पता चला वो वहाँ अकेले ही रहते हैं.. मैं काफ़ी आश्चर्य में था..| फिर सामने की दिवाल पे दो तस्वीरें नज़र आई.. बिल्कुल सादगी भरी..| उन्होने ने बताया.. ये उनकी दो बेटियो की तस्वीरें हैं..| मैं थोड़ा सहम सा गया..| फिर उन्होने ने बताया.. उनकी बस दो ही संताने हैं... और दोनो बेटियों ने माउंट आबू स्थित ब्रह्म-कुमारी पंथ को अपना जीवन-दान दिया है..| मैं हैरान था.. इस उम्र में इस मार्ग को जाने की क्या विवशता हुई| आज के सन्दर्भ में जहाँ ये बहूत सारे प्रश्नो का हल है तो... भारत के पौराणिक भू-भागों में इन शोध-विषयों को दरकिनार नहीं किया जा सकता..|

महिलाओं के प्रति हुए कुछ घृणित अपराध आज भी अपना असर बनाए हुए हैं... ज़रूरत है.. राम को पहचानने की.. रामायण खुद बनता नज़र आएगा|


विप्र प्रयाग घोष

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Sunday, 1 June 2014

स्पिलबर्ग से वापसी... रेणुग्राम...अभिज्ञान शाकुन्तलम तक...

इस शीर्षक को देख आप यक़ीनन यही  सोचेंगे.. की हॉलीवुड के महान फिल्मकार स्टेफेन स्पिलबर्ग से भारतीय साहित्य लोक के फ्लॅश बॅक में झाँकती  यह कैसी तस्वीर है। ..यक़ीनन मैं भी थोड़ा अचंभित ही हूँ ..क्योंकि न तो जन्म से ही मैने स्पिलबर्ग को जाना है, और ..न तो अभिज्ञान शाकुनतलम के प्रेम और विरह रस को ही.. और अपने साहित्योन्मुख रुझानों को लिए न तो अब तक अपने पास के ही एक प्रखर साहित्यकार.. औराही हिंगना अररिया के फणीश्वरनाथ रेणु को ही.. जिनका महाप्रयाण संभवतः मेरे जन्म के महज.. ६ दिनो बाद ही वर्ष १९७७ में हुआ था। साहित्यिक नक्षत्रों से रिसती.. रात के चाँद की कुछ शीतल आभायें ही नसीब हुई हो.. जब ६ दिनो के बाद छट्ठी को ही किसी नवजात को प्रकृतिपूर्ण अद्येसटा का आभास करवाया जाता है। ..और फिर तो आज इस बात को ३७ वर्ष होने को आए। पिछले ३-४ सालों में कुछ विचित्र अनुभूतियों को आते देख रहा हूँ। ..आकाशगंगा  से आते नवग्रह की तरह..। प्रोफेशन के तौर पे अध्यापन.. तो नैसर्गिकता संवेदनाओं से लोट-पोट। खुद में उमरी इस मीमांसा को क्या नाम दूं..। रह रह कर अंतःकरण से आती आवाज़ कुछ यूँ हो जाती है की.. इंसान का पहला ज्ञान बोध तो शायद किसी अपने के जन्म लेने से है तो.. फिर संसारिक ज्ञान किसी ख़ास के दूर जाने से होता है ..और फिर अंततोगत्वा परम आध्यात्मिकता का चरम स्पर्श।

बात कुछ दिन पहले की है.. पूर्णिया के आर. एन. शॉ. चौक हनुमान मंदिर से सटी साहित्य पुस्तकों की एक मंदिर..। हमेशा की तरह मंदिर में पूजा कर उस साहित्य सदन को साधा.. तो ठीक सामने रखी एक पुस्तक.. साहित्य सम्राट कालिदास रचित "अभिज्ञान शाकुन्तलॅम" दिख गई। इस दिव्य रचना को पढ़ने का मन तो बहूत दिनो पहले से था.. पर अब तक अपने साहित्य संग्रह में इसके स्थान का सौभाग्य मिला न था। ..रात को भोजन पश्चात थोड़ा दुष्यंत बन.. उस विधा को पढ़ता चला गया..। फिर उस दुष्यंत व शकुंतला के अद्भूत मधुर-रस योग में नींद ने भी अपनी खलल डाल ही दी..।
http://abhigyanshakuntlam.blogspot.in/2012/03/introduction-to-abhigyanshakuntalam.html

सुबह उठते ही पहला ध्यान जो आया.. वो ये था की इस माधुर्य व विरही रसों की वृत्तियों को आज के साहित्यकारों ने भी कितना सहेज कर रखा हुआ है.. अपनी अपनी रचनाओं में..। फिर इनकी कुछ झलक शरतचंद्र के उपन्यासो में तो कुछ फणीस्वर नाथ रेणु की कहानी संग्रहों में भी दिखाई दे ही जाती है..। वर्ष 2007 में रेणु ग्राम की यात्रा के बाद तो जैसे... साहित्य भी बहुत कुछ विरह आवेशित ही प्रतीत होता नजर आने लगा है..।

मन में चल रहे कुछ ऐसे ही उथल पुथल आभाशों के साथ अपने घर के दैनिक प्रक्रियाओं में पटना के कबाड़ से खरीदी एक पुरानी शोध पुस्तक हाथ लगी.. साहेबगंज कॉलेज हिन्दी विभाग के प्रो. डॉ. जगन्नाथ ओझा की.. " हिन्दी उपन्यास और शरतचंद्र "..फिर उस पुस्तक के कुछ शुरुआती पन्नो के उल्लेखों को देख दंग रह गया की.. कैसे शरतचंद्र की रचनाओं को पारंपरिक बांग्ला साहित्यकारों के साथ साथ हिन्दी साहित्यकारों ने भी सराहा है.. और तो और उनकी रचनाओं के तुलनात्मक अध्ययन में अभिज्ञान शाकुनतलम के छंदों  का भी स्पष्ट ज़िक्र किया गया है। ..इन संदर्भों को देख फिर तो जैसे  मेरे अल्प-साहित्य भावों को  भी थोड़ा रचनात्मक समर्थन मिल ही गया। मन में मनोकुल प्रसन्नता भी छायी तो असीम संतुष्टि मिलती भी दिखी.. जैसे मैं अपने आरोहन में बढ चला था।
http://forum.banglalibrary.org/viewtopic.php?pid=23965#p23965
http://ianwoolford.wordpress.com/2014/03/04/happy-birthday-phanishwarnath-renu/

जीवन में मिलने वाली इस तरह संपुष्टियों के रचयिता तो आप ही हैं.. और फिर तो जैसे इस साहित्योलोलुप क्रियेटिव प्रक्रिया में मिलने वाली पहली पुष्टि का ज़िक्र तो मैं  कर ही सकता हूँ..।

   बात नागपुर महाराष्ट्र के  उन दिनो की है... जब २००१ में अपने इंजिनियरिंग के दौरान फाइनल ईयर में.. एक लघु-नाट्य का निर्देशन किया था.. शीर्षक था..    " Implementation of Artificial Intelligence on Human Life"....उस स्किट के सफल प्रस्तुतीकरण के कुछ दिनो बाद मेरे एक मित्र ने मुझे अपने घर पे बुलाया। दोस्तों में कुछ ही ऐसे दोस्त होते है... जिन्हे आपकी थोड़ी फ़िक्र तो थोड़ी कद्र भी होती है। वो अक्सर मेरे ऐसे प्रयासों को ध्यान पूर्वक देखता... समीक्षा करता... और फिर फीडबॅक भी देता..। जैसे ही मैं उसके घर पे गया... उसने मुझे एक फिल्म दिखाई... हॉलीवुड के विख्यात निर्देशक स्टीवन स्पीलबर्ग की.. " आर्टिफिशियल इंटेलिजेन्स"। उस फिल्म को देख मन ही मन मैं अभिभूत हो रहा था... ये देख मेरे मित्र ने मुस्कुरा कर कहा...  तुम अपने उस स्किट में इसी थीम को  दिखाना चाह रहे थे ना..।



आज लग रहा मानो ये  सब कुछ आर्टिफिशियल इंटेलिजेन्स (Artificial Intelligence) सब्जेक्ट की बॅक्वर्ड चेनिंग (Backward Chaining) जैसा ही था...



http://www.webopedia.com/TERM/B/backward_chaining.html


Vipra Prayag