Thursday, 24 July 2014

विद्यादान एक्सप्रेस: बक्सर का तीसरा युद्ध और सिद्धाश्रम की सुध..!!!

    कुछ दिन हुए बिहार बक्सर जिले के बक्सर पटना रुट के टूडीगंज रेलवे स्टेशन पे खड़ा था। दोपहर के लगभग ढाई बज रहे होंगे.. की तभी रेलवे अनाउन्समेंट आई की पटना से बक्सर की ओर जाने वाली ट्रेन २ घंटे लेट चल रही है। मालूम हो कि.. ये ट्रेन कोई मेल या एक्सप्रेस नहीं.. ये तो एक पैसेंजर ट्रेन है.. और फिर इस छोटे से स्टेशन पे कोई एक्सप्रेस या सुपरफास्ट ट्रेनें रुकती ही नहीं.. और जो रुकती भी है तो उनका टाइम-टेबल से कोई लेना देना नहीं। तो बस.. यहीं से स्टार्ट होता है.. आज के बक्सर का तीसरा युद्ध।


बक्सर का पहला युद्ध २३ अक्टूबर १७६४ को ब्रिटिश ईस्ट-इंडिया कंपनी और बंगाल, अवध व मुगल सल्तनत की संयुक्त सेना के बीच हुआ था.. और लगभग इसी युद्ध ने.. ब्रिटिश हुक्मरानों को हिन्दुस्तानी सरज़मी पे अपने पाव पसारने का एक मजबूत आधार-स्तंभ भी दिया था।




 फिर शुरू होती है बक्सर की दूसरी लड़ाई.. भारत के आज़ादी के बाद.. अपने खुद के संवर्धन के लिए। लेकिन आज तक एक उचित मापदंड पे इस पौराणिक भू-भाग का कोई नया मसीहा अवतरित नहीं हो पाया। पटना और बनारस के मध्य शाहाबाद और भोजपुर की जनता और संसाधन बस अपना मुँह ताकते ही नज़र आते हैं। इस भूभाग को धान का कटोरा कहे जाने पे भी.. यहाँ की ग्रामीण जनता में असंतोष सहस ही दिख पड़ता है। 


  ..और हाँ ..जो थोड़ा बहुत संतोष दिखता भी है ..वो है उन पौराणिक और धार्मिक आस्थाओं के कारण ..जो आज भी यहाँ जीवंत हैं। पौराणिक काल से ही इस क्षेत्र को सिद्धाश्रम कहा जाता रहा है। कहतें हैं चौरासी अट्ठासी हज़ार ऋषि-मुनियों की ये तपोभूमि रही है.. और आज भी यहाँ की प्राकृतिक ऋचाओं में उस सिद्ध-द्रव्यों को देखा जा सकता है।

 राम-लक्ष्मण के गुरु विश्वामित्र की ये धरा रही.. तो महर्षि गौतम और दुरवासा की भी ये सिद्धपीठ रही। फिर तो शुभ-शक्तियों के साथ अशुभ-शक्तियाँ भी ताड़िका, मारीच, सुबाहु के रूप में इस हरितिम नैमिषारण्य में विराजने को सदैैैैव आतुर रहे। जहाँँ भगवान राम ने अपने गुरु सेवा में गंगा नदी की दिशा ही मोड़ दी थी, जो आज भी राम-रेखा घाट के रूप में स्थित है तो अहिल्या उद्धार की जगह अहिरौली के साथ... बक्सर युद्ध की कतकौली भी भारत के भाग्य की गाथा आज भी गाती नज़र आती है।

पटना और बनारस जैसे महानगरों के मध्य का ये भूभाग शायद आज भी उन भीष्म-शक्तियों की उपस्थिति से ही या तो अपने अतीत के सौंदर्य को बटोर पा रहा है.. या आज के डेवेलपमेंट प्रोग्राम में वर्षों पिछड़ता चला जा रहा है। कुछ दिन हुए मेरे छात्रों ने बक्सर युद्ध की उस जगह को चलती ट्रेन से दिखाया था। अब तो उस जगह एक बड़े स्कूल का निर्माण कार्य भी चल रहा है। फिर दिखे उस इलाक़े की हरी-वादियों में विचर रहे... हिरणो और मृगों का विहंगम झुंड..। मैं घोर .आश्चर्य में था। उन मृगों में कुछ कृष्ण-श्याम मृग भी थे। ये बस इस सिद्ध-पीठ की मानवीय आस्था ही है.. जो आज भी ये अपना जीवन बचाए रखने में कायम हैं। बरबस एक ख्याल आया की भारत सरकार इस क्षेत्र को जैविक उद्दान के रूप में विकसित क्यों नहीं करती है.. कम से कम इसी बहाने लोगों को इस ओर आने की रोचकता तो बनी रहेगी और इसके साथ न जाने कितने डेवेलपमेंट प्रोग्रामों को अमलीजामा पहनाया जा सकेगा।

    सावन के इस महीने में आरा और बक्सर के बीच रघुनाथपूर के उत्तर अवस्थित ब्रम्हपुर के अपरूपी सिद्ध बाबा बरमेश्वर नाथ शिव मंदिर का दिव्य दर्शन भी हो पाया। कहा जाता है.. बनारस के काशी विश्वनाथ और देवघर के वैद्यनाथ धाम के मध्य का ये एक अलौकिक सिद्ध-पीठ है। फिर जो मंदिर के उस प्रांगण में पाया वो वर्ष २००४ के IIT Guwahati के QIP (Quality Improvement Programme)  के दौरान देखे गये.. कामरूप कामाख्या मंदिर के प्रांगण से कम न था। संतुष्टि थी के बहूत दिनो बाद खुद के साक्षात को वृहत होते देख पाया। यहाँ आने का सुख जो भी मिला हो... लेकिन यहाँ से जाने की जैसे कोई समय-सारिणी पट्ट ही गायब कर दी गई हो.. मानों इस सिद्ध-क्षेत्र का प्रभाव प्रबल हो चला हो।


टूडीगंज स्टेशन के यात्री विश्रामालय के दीवार पे खुदी रेलवे समय-सारिणी इसकी गवाह है।एक तो समय सारिणी १० साल पुरानी और पूर्व की ओर जाने का पट्ट दीवार से उखड़ा हुआ। पटना-बनारस रूट पे आज भी इंडियन रेलवे ही आवागमन का सर्वोत्तम साधन है।लेकिन अस्वस्थ दिशा-निर्देशों की वजह से विकास की गति धीमी है। स्कूल-कॉलेज में पढ़ने वाले नव-पाठकों को अगर समय पे ट्रेनो की सुविधा मिल जाए तो बिहार के बच्चों को अन्य राज्यों का मार्ग न पकड़ना परे। मेरे दस वर्षों के अध्यापन अनुभव में बिहार में इंजिनियरिंग कॉलेज की संख्या में गुणात्मक वृद्धि हुई है तो वहीं स्टूडेंट के अड्मिशन इनपुट अपेक्षाकृत घटे हैं। जिसका सीधा संबंध हमारी लचर राजकीय व्यवस्थाओं और छात्रानुरूप माहौलों से है। फिर वे क्यों करें आपकी राजकीय इंजिनियरिंग अलाइयेन्स की कद्र। फिर तो अब गाँवों और कस्बों को बाँधने की बारी है.. नगर वाले तो महानगर देखते हैं। अब कृपया पॅसेंजर के साथ सूपरफास्ट ट्रेनो को भी इन विद्या-स्थलों पे ज़रूर रोकें... तो ऐसे ग्रामीण वनस्थलियों में पड़ने वाले विद्यालयों को ऐसे बहुमूल्य दान भी चंदन रूपी विद्यादान एक्सप्रेस बनते नज़र आयेंगे।

 सुबह ७ बजे के करीब आरा स्टेशन पे फरकका एक्सप्रेस का इंतजार कर ही रहा था की.. लाउड-स्पीकर पे शहनाई वादन के साथ घोषणा हुई की प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी ने अगस्त के द्वितीय हफ्ते को संस्कृत सप्ताह मनाने की विधिवत घोषणा की.. और फिर संस्कृत के मंत्र मानो सामूहिक उपचार में संलग्न हो उठे हो.. और मेरा अगला पड़ाव भी ब्रम्हपुर शिव-धाम ही था.. जिसकी राह रघुनाथपुर स्थित संत-महाकवि तुलसीदास के तुलसी-स्थान के सम्मुख ही गुजरती है। कहते हैं तुलसीदास जी भारतीय आध्यात्म की नगरी काशी-वाराणसी-बनारस को छोड़ अगर पूर्व की ओर रुख़ करते तो अक्सर उनका दूसरा निवास बक्सर का रघुनाथपुर ही होता और उन्ही के दिव्य स्मरण को लिए इस जगह का नाम उस समय के प्रसिद्ध और महादानी राजा रघुनाथ सिंह के नाम पर... संत तुलसीदास ने ही इस जगह का नामकरण रघुनाथपुर कर दिया। नहीं तो पहले दो गाँव "बेला" और "पत्र" के कारण इस जगह का नाम "बेलापत्र" ही था।  कुछ दिन हुए फ़ेसबुक पे बक्सर डुमराव के मेरे एक छात्र ने महान शहनाई वादक भारत रत्न बिस्मिल्ला ख़ान के पुण्य तिथि २१ अगस्त पे कुछ अपडेट दिया... जान पड़ा ख़ान साहब का जन्म २१ मार्च १९१३ को बक्सर के डुमराव राज में हुआ था। उनके वालिद महाराजा भोजपुर-डुमराव दरबार के खानदानी शहनाई वादक थे। ६ वर्ष की उम्र में ही उन्हें बनारस उनके चाचा अली बख़्श विलायतू के पास भेज दिया गया जो बनारसी घराने के विख्यात शहनाई वादक होने के साथ-साथ उनकी आध्यात्मिक घनिष्टता काशी विश्वनाथ मंदिर से काफ़ी थी। आरा स्टेशन पे सुनी गयी शहनाई की धुन बरबस कानो में गूँज रही थी..."गूँज उठी शहनाई " की तरह..।

...और बरबस ऐसी ही माधुर्य गूँज लिए हर कोई आज भी यहाँ के आध्यात्मिक व ग्रामीण दर्शनो से जुड़ने की कोशिश में लगा रहता है। मुझको भी अब इस परिदृश्य में आए लगभग दो साल होने को आए। महानगरों की भागा-दौरी से अलग हरियाली की चादर ओढ़े इन वादियों में ही शिक्षण अधिक भाता है। प्रकृति की गोद में बैठ अपनी ऊर्जा को अपने वश में पाता हूँ। जीवन के शोध-रूपी युद्ध से परे इसकी सटीक समीक्षा ही एक पवित्र सुध के समान है। तो फिर अब क्या बचा है... इसे देने को..? मन में ये ख्याल बार-बार आता है। फिर से नये नये महानगर बसाने के कयास लगाए जा रहे हैं। बुलेट ट्रेनो की दौड़ भी लगने वाली है। फिर भी क्या इन प्रयत्नो से हम भारत की आत्मा को जगा सकतें हैं..? हाँ, अब बहूत सारी सरकारी योजनाओं के तहत ग्रामीण क्षेत्रों में सड़कों के पक्कीकरण का काम तेज़ी से हुआ है। लेकिन उन सड़कों में खुश-मिज़ाज आवाजाही का ज़रिया  आज भी नहीं बना। आज भी रोजमर्रा के कामो से आने जाने वालों लोगो और विशेषतः स्कूली छात्रों को छोटे-छोटे प्राइवेट  टेंपो या मिनी बस का ही सहारा लेना पड़ता है। तो फिर क्यों ना ग्रामीण क्षेत्रों के ऐसे भू-भागों को कलकत्ता में चलने वाली ट्राम-रेलों के नेटवर्क से जोड़ दिया जाए.. आम-जनो में नये उत्साह के लिए। ट्रामों के उस प्रकृति-पूर्ण सफ़र से शायद कुछ कवित्त व लेखन भावों को भी बल मिल पाए।सड़कों की मजबूती के साथ विद्दुति-करण योजनाओं के नये प्रारूपों को भी पटल पे लाया जा सकेगा। धान का कटोरा कहे जाने वाले इस भू-भाग में सौर-उर्जा के अलावा धान-भूसी उर्जा के उत्सर्जन और संवर्धन को भी विशेष बल मिल पाएगा..। यहाँ तक की ट्राम पटरियों पे बड़ी आसानी से छोटे बग्घी-नुमा गाड़ियों को भी यहाँ पाए जाने वाले उन्नत नस्ल के घोड़ों और बैलों से चलाया जा सकेगा। पशु-संवर्धन की नीतियों के तहत बड़ी आसानी से दुग्ध विक्रेताओं को भी बड़ी आसानी से बाज़ार के नज़दीक सुलभता के साथ लाया जा सकेगा। कम से कम बनारस से सटे भू-भागों पे तो ऐसे एक्सपेरिमेंट किए ही जा सकते हैं.. फिर तो ऐसे प्रयासों की गूँज भी शहनाई और बाँसुरी से कुछ कम नहीं।




 "आपन देशो त अमेरिका-चीन.. अउर जापान बने के बानी.."  इति विद्यादान एक्सप्रेसम... 


http://en.wikipedia.org/wiki/Brahmapur,_Bihar
http://en.wikipedia.org/wiki/Tulsidas
http://en.wikipedia.org/wiki/Bismillah_Khan

Vipra Prayag Ghosh

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Saturday, 12 July 2014

झाल-मूरी इंडिया....

दिनभर की दैनिक प्रक्रियाओं और थकान के बाद.. मिजाजी तबीयत को भी दुरुस्त रखना ज़रूरी होता है.. तो अपने तबीयत के  इस सूखेपन को हरा करने निकल पड़ा | बड़े शहरों की गूँज और उँचे-उँचे अपार्टमेंटो के आगे तो दम ही घूट जाए| फिर इस शाम जाऊं तो जाऊँ.. कहाँ.. |  ..तो अचानक याद आया वो पुरानी झाल-मूरी की दुकान..| झाल-मूरी के साथ-साथ यहाँ.. रोजमर्रा की वो सारी चीज़ें मिलती हैं.. जो कभी हमारे घर पे बना करती थी.. लेकिन अब तो वो सेटेलाइट शान के खिलाफ है.. तो फिर पहले वाली "मदर-इंडिया" के जमाने की बात भी नहीं रही..| अब तो हर वो चीज़ रेडी-मेड ही आपके बाजार में उपलब्ध है.. लेकिन घर वाली वो बात कहाँ...| जी हाँ.. अब खाने वाली वो "बरी"  और "तिल-बरी" कितनो के घरोंं पे बनती होगी... या फिर चूल्‍हे पे चढी मिट्टी बर्तन के गर्म बालू पे कौन मेहनत कर चावल, चना और मकई को भूंजने बैठता होगा..| तो समझ लीजिये यहाँ सब कुछ मिलता है..   चना-जौ की सत्तू से लेकर चूड़ा मूरी और तिल के लाई तक.. फिर कह सकते हैं ना इसे भी आप... अपने गॉव के स्वाद का अध्यात्म..| जी हाँ.. बेशक आप बने ही इन स्वादों से हैं.. और आपकी भारतीयता आज भी आपके स्वादों के कारण ही बची हुई है| पटना का वो दुकान वाला बड़े फक्र से कहता.. "हमर दुकान के समान त अमिरका-जापान के दूरी तय करत है.. बबुआ.."|  ...लेकिन मेरे दिल को जो भाता वो है उस दुकान की झाल-मूरी..| झाल-मूरी  हम सभो के स्वाद की ऐसी पसंद..जो शायद ही भारत के किसी छोर पे ना पाई जाती हो| हाँ, देश के अलग-अलग जगहों पे बनाई गयी तरीकों में कुछ भिन्नता पाई जाती हो.. मगर है तो वह इंडिया की नंबर वन "झाल-मूरी" ही..|

अगर आपके सफ़र के दौरान ये सामने दिख जाए तो जेब के सिक्के आपके मिज़ाज बनाने को मचल   ही निकलते हैं| भारतीय मिज़ाज को भाती सस्ती और सुलभ स्टार्ट-टर.. थोड़ा मटर तो थोड़ा टमाटर भी.. कटे प्याज.. कटे नारियल और तीखी मिर्च के साथ..और थोड़ा दाल-मोट भी..मूरी के साथ| इसे आप मुरही तो मुढी भी कहते हैं.. कहीं कहीं इसे मूर-मूरे भी कहा जाता है.. तभी आप बाज़ार के तीखे और दिल खूश कर देने वाले "कूर-कुरे" के भी मुरीद बन जाते हैं.. तो फिर हल्दीराम भुजिया और मिक्शरों के भी| घर पे बनाई आलू फ्राइ और चिप्स.. बड़े रेस्तरॉं और होटेलों की मेनूओं में फिंगर फ्राय और  ब्रांडेड चिप्स बनी ज़्यादा शोभती हैं.. और आपके सुलभ बजट की अठन्नी की आलू..१० से १०० के नोट निकाल ले जाती है| ..क्यों है ना ये इंडिया की रियल मशालेदार और चटपटी झाल-मूरी..|

विगत कुछ वर्षों में रोजाना ट्रेन के सफ़र में.. कुछ खाश स्टेशनो पे  लुभाते टाइम-पास भी मिलते दिख जाते हैं.. तो इन्हे बेचने वाले सेल्समन की व्यग्र-उत्कट इच्छाशक्ति भी..| कितना जोखिम लिए.. ये हर-दिन आपके मिज़ाज को बनाए रखने में तत्पर नज़र आते हैं.. और आपकी यात्रा आपकी मन मुताबिक  मिले सुखद सफ़र की अनुभूतियों में खो जाती है| पटना बिहटा के आगे आरा से आगे बढ़ने पर... चना-ज़ोर गरम बाबू.. मैं लाया मजेदार वाला वो मनोज कुमार की क्रांति फिल्म का गाना सहसा याद आने लगता है तो शत्रुघ्न सिन्हा के साथ हेमा मालिनी भी..| जी हाँ.. यहाँ का चना-ज़ोर गरम.. हैं वाकई में काफ़ी गरम.. नहीं पड़ने देता आपके मिज़ाज को नरम..| आख़िर है भी तो ये बाबू कुंवर सिंह की धरती ना..| ये बस इस जगह की भारतीय चने का ज़ोर ही है की आज भी यहाँ के अविकसित इलाक़ों में रहने वाली सभ्यता.. दिन के दो वक़्त में एक वक़्त.. गॉव के लहजे में इसे बकत की कहलें.. घर पे बनाई उन्ही चावल चूड़ा चना के  भुज्जे से ही थोड़ा सरसों का तेल, प्याज और मिर्च के साथ बड़े मज़े से अपने अध्यात्म में रमते नज़र आते हैं| एक बार बक्सर के अपने अनुभव में.. वहाँ के इंजिनियरिंग संस्थान के चेयरमॅन के सौजन्य से लोकल गन्ने से बने "गुड़" और "शुद्ध घी" के सम्मिश्रण का भी स्वाद मिला.. फिर तो जैसे आपके स्वाद की भी रिसर्च होती दिखने ही लगी| जहाँ गॉव घरों में रोजाना की मिठाइयाँ नहीं आती तो लोग इन्ही पुराने तरीक़ो के दुर्लभ स्वादों से खुद को जोड़े रखते हैं.. क्यों है ना असली झाल-मूरी इंडिया..|

कंप्यूटर साइन्स एंड इंजिनियरिंग निहित Algorithmic Computation मोड्यूलों के विषयवार अध्यापन और शोधों में Travelling Salesman problem टॉपिक की टेक्निकल वर्णनो को भी सर्व-प्रथम दैनिक जीवन में मिलने वाले इन्ही चलंत सेल्समन रूपी "सन ऑफ इंडिया" के उदाहरणो से ही छात्रों को रूबरू करवाना होता हैं.. तो फिर ऐसे चरित्रों से झाँकता दिखता है.. भारत के महान शिक्षाविद साहित्यिक रबींद्रनाथ टागॉर का "काबुलीवाला" भी...
http://en.wikipedia.org/wiki/Travelling_salesman_problem
http://www.angelfire.com/ny4/rubel/kabuliwala.html

काबुलीवाला, एक ऐसा जीवन चरित्र..जो अपने देश अफ़ग़ानिस्तान से काजू-किशमीस बेचता.. काबुल से कलकत्ता आता है.. फिर एक छोटी सी बच्ची में अपनी छोटी सी बेटी के बालपन को ढूँढने लगता है.. फिर विषम परिस्थितियों में मिले विश्वासघात के कॉप और अपने सम्मान के बचाव में दस वर्षों के कठोर कारावास को चला जाता है.. तो फिर वर्षों बाद मधुर यादों को सजोकर अपने घर..काबुल को लौटता है..| इन संस्मरणो में जहाँ एक साहित्यिक भाव आज भी जागता नज़र आता है तो.... ऐसे ही कुछ बचपन के यादों से हर कोई जीवन प्रयंत पिरोया हुआ भी रहता है..| मेरे बचपन के दिनो का वो हर सुबह को आनेवाला "पॉव-रोटीवाला" जिसके  ग्रामीण बांग्ला गीतों को हम हर दिन सुना करते.. तो भरी दुपहरी में "ए..रसगुल्लई.." की आवाज़ लगाता वो बूढ़ा रसगुल्लावाला भी तो आज भी याद आतें हैं.. तो हर शाम को चना-चूर लेकर आता "मुगलई टोपी" पहने.. वो झाम-लाल भी..| ऐसे स्मरण आज भी आपके झाल-मूरी इंडिया के सुखद माइल-स्टोन बने ही नज़र आते हैं.. जिनके जात और धर्म से हमें दूर-दूर तक कोई लेना देना नही था| बस वो आते और कुछ ही पलों में  खूशियाँ बिखेर गुम हो जाते..|

नागपुर के अपने विद्यार्थी जीवन में कलकत्ता से नागपुर जाने के दौरान.. एक स्टेशन आता  था.. झारसुगड़ा, ओड़ीसा का एक इंडस्ट्रियल सिटी..| ये स्टेशन पौ फटते ही सुबह-सुबह आता.. और मेरा सर सहला जगाने का काम करते.. दो छोटे-छोटे मासूम से बच्चे..| पता नहीं मेरी इन यात्राओं में... ये कैसे मुझे पहचान से गये थे.. जबकि मैं हर ६ महीने बाद ही ट्रेन की यात्रा कर पाता था| फिर पता चला बर्थ के नीचे रखे कतरनी चावल की बोरी देख ही वो मुझे जगाते.. जो मेरी लंबी यात्रा की एक Grand-Father testing नीतियों के तहत ही.. हर बार मुझे नागपुर ले जाने के लिए दे दिया जाता था| ... पर ट्रेन की यात्रा में मिलने वाले उन बच्चों का मैं कायल हो गया था.. दोनो भाई बहन थे.. उम्र महज ७-८ साल रही होगी दोनो की..| दोनो सुबह-सुबह वहाँ के जंगली सूखे बेरों को लिए चढ़ते..फिर ट्रेन की साफ-सफाई करते.. लोगों को कला-बाजियाँ दिखाते.. नये-नये गाना सुनाते.. अपने बेरों को बेचते.. और फिर २-३ घंटे बाद यात्रियों से पैसे कमाकर किसी स्टेशन पे उतर जाते..| उनके भावों से मैं हैरान हो जाता था.. इतनी कम उम्र में उनकी निडरता देखते ही बनती थी.. फिर ऐसा ही बहूत कुछ "Slumdog Millionaire" मूवी में भी देखने को मिली थी..| घर से बाहर निकलते ही.. आपको झाल-मूरी इंडिया के कीचड़ में खिले इन फूलों का दर्शन अनायास ही हो जाता होगा.. तो फिर ज़रूरत है इन सस्ते बजट वाले जीवन- अंशों को भी एक मँहगे भाव से देखने की...|





झाल-मूरी इंडिया... Continued...


Vipra Prayag 

Saturday, 5 July 2014

सफ़र का नया साथी....वागर्थ

   उम्र के साथ आपकी प्रवृतियों के भी रूप बदलने से लगते हैं.. हमेशा की तरह.. इस बार पूर्णियाँ आर एन साव चौक वाले बुक स्टॉल के सामने था.. फिर तो बचपन से ही कुछ ना कुछ पढ़ने व गढने की आदतें आपका पीछा भी बड़ी आसानी से नहीं छोड़ा करतीं। बचपन के दिनो में चाचा चौधरी, पिंकी, रमण की कॉमिक्स से लेकर मनोज पॉकेट बुक्स की राम-रहीम, क्रूक-बॉन्ड.. कभी मधु-मुस्कान लोट-पोट.. तो कभी चंपक-नंदन.. अमर चित्रकथाओं का दुर्लभ संसार..फिर इंद्रजाल कॉमिक्स का मॅनड्रेक और वेताल वन का फॅनटम.. और नागराज के कारनामे..। और फिर स्कूली दिनों से निकल कॉलेजिया उम्र १९९२ से स्पोर्ट-स्टार मॅगजिन का अनवरत संग्रह-कोष.. आपके मनोरूपी सफ़र के साथी तो बनते ही हैं.. और फिर भी जैसे पढ़ने की ललक ख़त्म होती नहीं दिखती। ..पर जीवन के इस मोड़ पे एक नये साथी ने अपनी ओर ध्यान आकृष्ट करने का काम जो किया.. वो भारतीय भाषा परिषद से प्रकाशित "वागर्थ" मासिक पत्रिका रही.. अपने समकालीन कथा साहित्य और प्रेमचंद का भारत विशेषांक के साथ..।

..वागर्थ के इस अंक के अंतिम पेज पे छपी कुछ पंक्तियों का ज़िक्र करना ज़रूरी है। ये शब्द ब्रिटिश प्ले-राइटर, नॉवेलिस्ट सॉमर्सेट मोंम के हैं.. "जब मैं भारत छोड़ रहा था, तो लोगों ने मुझसे पूछा की भारत में मुझसे सबसे अधिक किस बात ने प्रभावित किया, लेकिन मुझे प्रभावित करने वाली चीज़ों में न ताजमहल था, न बनारस के घाट। न मदुरै के मंदिर और न त्रावणकोट के पहाड़। ऐसा नहीं की मैं इन सबसे प्रभावित नहीं हुआ था, लेकिन जिसका सबसे अधिक प्रभाव पड़ा था, वह था- भारत का किसान, दुबला-पतला। जिसके पास अपना तन ढँकने के लिए एक मोटी धोती के अलावा कुछ नहीं था। जो सुबह से शाम तक चटकती धूप में धरती को जोतता है, दोपहर में पसीने से नहाता है और शाम को डूबते हुए सूरज की किरणो की तरह परिश्रम से थककर सो जाता है। और ऐसा वह आज से नहीं; बल्कि उस समय से कर रहा है जबकि आर्यों ने इस धरती पे कदम रखा था। सिर्फ़ एक आशा उसके मन में काम करती है की वह इसी परिश्रम के बल पर अपने को जिंदा रखने की एक छोटी सी ज़रूरत, पेट भरने की, पूरी करता रह सकता है। "
http://en.wikipedia.org/wiki/W._Somerset_Maugham

वागर्थ के इस अंक में हिन्दी साहित्य के नये-पुराने धुरंधर महारथियों के लेखों-कहानियों के बाद सॉमर्सेट मॉम की भाव्य उपस्थिति.. इस बात का संकेत है.. की साहित्यिक-अभिव्यक्ति आपके भौगोलिक या औपनिवेशिक आवरणो से परे ही है।आज के शहरीकरण और पूंजीवादी व्यवस्था के बीच से झाँकती भारत की ये तस्‍वीर.. क्या बस उस जमाने की है.. या आज के अंक में इसकी मौजूदगी.. आज भी इसके जीवंत अंशों का अहसास करवा रही है। इसे आज़ादी के बाद से चले आ रहे.. मिलते आघातों का दर्द कहें.. या बनते विश्वासघाती तंत्रों के मंथन का विषय..। कहीं ऐसा तो नहीं की इन ज़मीनी शक्तियों की अवहेलना के कारण ही.. भीतरघाती विनाशलीलाओं का विषपान भी रह रह कर भारतीय समाज को करना पर रहा है।

सॉमर्सेट मॉम के ये शाब्दिक विचार आज भी ब्रिटिश कालीन निर्मित उन भव्य भवनो और संसाधन सदृश ही हैं.. जिन्हें आज के परिप्रेक्ष्य में अगर समय रहते संरक्षित कर लिया जाए.. तो आज के भारतीय डेवेलपमेंट मॉडेल को उचित मानको पे खड़ा उतारा जा सकता है.. चाहे वो खेतो में पसीने बहाता एक परिश्रमी किसान के पुनर्जागरण के लिए ही क्यों ना हो। चीन देश के किसान और उनकी कृषि पद्धति अपने देश से दूर अफ्रिकन देशों में जाकर नये आयामों को पुनर्जीवित और पुनर्गठित कर रही है तो हमारे किसानो के समस्याओं की पुनरावृति भी नियमतः संभव नहीं है। ..पीछे से कुछ पन्नो को उलट आगे बढ़ा.. तो.. हरिशंकर परसाई की " भारत को चाहिए जादूगर और साधु" लेख पढ़ने को मिली। खुद को इन महान आत्माओं की कृतियों से अंगीकृत करते हुए जो कुछ पढ़ने को मिला-

"..अंत में इस निर्णय पे पहुँचा की अन्न नहीं 'आनंद' ही ब्रम्‍ह है। ...पर भरे पेट और खाली पेट का आनंद क्या एक-सा है? नहीं है, तो ब्रम्‍ह एक नहीं अनेक हुए। यह शास्त्रोक्त भी है-'एको ब्रम्‍ह बहुस्याम'। ब्रम्‍ह एक है, पर वह कई हो जाता है। एक ब्रम्‍ह ठाठ से रहता है, दूसरा राशन की दुकान में लाइन से खड़ा रहता है, तीसरा रेलवे के पुल के नीचे सोता है। ...सब ब्रम्‍ह ही ब्रम्‍ह है। ..शक्कर में पानी डालकर, जो उसे वज़नदार बनाकर बेचता है,  वह भी ब्रम्‍ह है और जो उसे मजबूरी में खरीदता है, वह भी ब्रम्‍ह है। ..ब्रम्‍ह, ब्रम्‍ह को धोखा दे रहा है। ...साधु का यही कर्म है कि मनुष्य को ब्रम्‍ह की तरफ के जाय और पैसे इकट्ठे करे; क्योंकि 'ब्रम्‍ह सत्यं जगन्मिथ्या'। ..२६ जनवरी (१९७२) आते-आते मैं यही सोच रहा हूँ कि, 'हटाओ ग़रीबी' के नारे को, हटाओ महँगाई को, हटाओ बेकारी को, हटाओ भूखमरी को, क्या हुआ? ..बस, दो तरह के लोग बहुतायत से पैदा करें- जादूगर और साधु। ..ये इस देश की जनता को कई शताब्दी तक प्रसन्न रखेंगे और ईश्वर के पास पहुँचा देंगे। ..भारत-भाग्य विधाता। हममें वह क्षमता दे कि हम तरह-तरह के जादूगर और साधु इस देश में लगातार बढ़ते जाएँ। ..हमें इससे क्या मतलब कि 'तर्क की धारा सूखे मरुस्थल की रेत में न छिपे' (रवीन्द्रनाथ) वह तो छिप गई। इसलिए जन-गण-मन अधिनायक! बस हमें जादूगर और पेशेवर साधु चाहिए। तभी तुम्हारा यह सपना सच होगा कि हे परमपिता, उस स्वर्ग में मेरा यह देश जाग्रत हो। (जिसमें जादूगर और साधु जनता को खुश रखें)। ... यह हो रहा है, परमपिता की कृपा से! "

हरिशंकर परसाई की इस लेख के कुछ अंशो को पढ़ मैं रुक सा गया था। ..जादूगर और साधु के इस भाव ने मुझे दोबारा बक्सर के खेतों और खलिहानो में जो दौड़ा दिया था।अपने बक्सर इंजिनियरिंग कॉलेज के कार्यकाल के दौरान.. हर दिन के शाम के वक़्त मैं हाथ में कॅमरा लिए..आसपास के खेतों और खलिहानो में चला जाता था। फिर कभी उन खेतों में लगे गन्नो को तोड़ मीठे रसों का रसास्वादन.. तो कभी जगह जगह बने ब्रम्‍ह-स्थलों का दिव्य-अवलोकन। कॉलेज के चारों ओर बसे बसाए गाँवो से निकलती कच्ची पगडंडिया जो मेन-रोड पे आ मिलती। ..और फिर इन्ही पगडंडीयों से निकलती ग्रामीण वेश-भूषा से सुसज्जित मानवीय आभायें। शादी-ब्याह में पाई जाने वाली पुराने जमाने की पालकी को मैने आज भी इन गावों में विरजते देखा था.. तो कभी जंगली खरगोशों की एक के पीछे एक की लंबी कतार.. तो कभी टांय-टांय करते तोतों और खलिहानो में कदमताल करते भेंडो का विहंगम समूह..। ग्रामीण और वन्य-संसाधनो की इसी खूबसूरती ने ही मुझे यहाँ खींचा था। आज भी याद है.. जब मैं पहली बार यहाँ इंटरव्यू के लिए बुलाया गया था तो.. खेतों में चरते नील-गायों के समूह को देख लगा मानो.. मैं किसी फोरेस्ट रेंज में तो नहीं आ गया। ..फिर एक पुराने नाले के बगल से निकलता भयावह कर देने वाला.. विशालकाय गोह..भी दिखा था.. इन्हें आज के डिफिनेशन में लिटिल डाइनॉसॉर ही कहलें..। मैं आश्चर्य में था..कि "धान का कटोरा" कहे जाने वाले इस भूभाग में आज भी इन जीवों की जादुई उपस्थिति मौजूद है।

 
..तो कुछ दिन यहाँ बिताने पर यहाँ के ग़रीब किसानो का साधुई दर्द भी दिख ही गया। नील-गायों की बढ़ती संख्या ने इनके खेत खलिहानो में नज़र सी लगा दी है.. बहूत कुछ मारीच-सुबाहु दानवों की तरह..। पूछने पे पता चला की विगत कुछ वर्षों पहले इन्हें कहीं से ट्रक गाड़ियों पे लादकर यहाँ छोड़ा गया था.. जिनका दृश्य आज त्रहिमाम कर देने जैसा है.. अच्छी-ख़ासी फसल चट कर जाते हैं। इन्हें ये भगा भी नहीं सकते.. ना तो मार ही सकते हैं.. अब तो ये आस्था से जो जुड़ गई है. एक बार मैने बड़े प्रोफेशनल अंदाज में कहा था..-"गाय है तो दूध तो देती ही होगी.." जवाब मिला.."पकड़ में आए तब ना.." .."नहीं तो बांग्लादेशे भेजवा दो.. चमरिए कुछ काम में आ जाए.."। ...फिर तो ऐसी बातों से आप बस खुद को ही थोड़ा बहला सकते हैं। यहाँ के नीलगायों की समस्या अब राजनीतिक रूप भी लेने लगी है। समाचार पत्र से जो जानने को मिला था कि पिछले साल औरंगाबाद के गावों में हैदराबाद के नवाब को बुलाया गया था.. कुछ उत्पाती नीलगायों को मारने के लिए.. आख़िर जादूगरी का लाइसेन्स हर किसी को कहाँ मिलता यहाँ..।  हर बनती सरकार देश की बाहरी सीमाओं की रक्षा को प्रतिबद्ध नज़र आती है.. रक्षा सौदों के मद्देनजर..पर आत्मीय सुरक्षा और वो भी जब बात ग़रीब किसानो के हित में हो तो... सारी प्रतिबद्धतायें साधुई रुख़ लेने सी लगती हैं। आज भी हम बड़ी बड़ी तकनीकी संस्थाओं में पढ़ाई जाने वाली लेटेस्ट टेक्नालजी की बात करते हैं... लेकिन इन आंतरिक समस्याओं के प्रति सरकारी जादूगरी नही चल पाती। GIS and Remote Sensing Forest application के ज़रिए हम ऐसी कितनी ही समस्याओं का निदान कर सकते हैं.. लेकिन हमें हमारे आंतरिक मामलों को साधुई रूप दे..हवाई-यानो की जादूगरी जो सिद्ध करनी है... आगे भगवान मालिक..।
http://remote-sensing-biodiversity.org/zsl-symposium

....फिर वागर्थ के इन पन्नो में अपने फणीश्वरनाथ रेणु की "नैना जोगिन" पढ़ने को मिली..और संतुष्टि भी.. कि साहित्यिक शब्द-कोषों से रची इन रचनाओं में.. पक्षीय गल्पो के साथ-साथ विपक्षीय गल्पो का भी अपना संसार है..। सत्कार है..तो तिरस्कार भी.. सब कुछ परम पावन उपकार ही है, साहित्यिक विधा में। अमृतलाल नागर की "प्रायश्चित" के कुछ शुरुआती अंश कुछ इस तरह-- " जीवन वाटिका का वसंत, विचारों का अंधड़, भूलों का पर्वत और ठोकरों का समूह है यौवन। इसी अवस्था में मनुष्य त्यागी, सदाचारी, देश-भक्त एवं समाज-भक्त भी बनते हैं, तथा अपने खून के जोश में वह काम कर दिखाते हैं, जिससे कि उनका नाम संसार के इतिहास में स्वर्ण-अक्षरों में लिख दिया जाता है, तथा इसी आयु में मनुष्य विलासी, लोलूपी और व्यभिचारी भी बन जाता है, अंत में पछताता है, प्रायश्चित करता है, परंतु प्रत्यंचा से निकला हुआ बाण फिर वापस नहीं लौटता, खोई हुई सच्ची शांति फिर कहीं नहीं मिलती।"

पुराने लेखकों में जहाँ भगवती चरण वर्मा की "मुगलों ने सल्तनत बख्स दी", भुवनेश्वर की "आज़ादी:एक पत्र" और गोविंद मिश्र  की "जीवन को पूरा नहीं पकड़ा जा सकता.." पढ़ने को मिला तो वहीं नये लेखकों के कलम से दूधनाथ सिंह की "किसी लेखक का जीवन सुखमय नहीं है", स्‍वयं प्रकाश की "कथाकार में पसीने की नहीं, आंसूओं की कमी है", आंनद हरषुल की "जीवन को छूना कम, विषय को छूना ज़्यादा हुआ है", कैलाश बनवासी की "आज कथा से गाँव गायब है" और वंदना राग की " आदिवासियों पर कम लिखा गया है"... रोचक लगी।

बस वागर्थ की रोचकता मेरे जीवन में बरकरार रहे...।