बक्सर का पहला युद्ध २३ अक्टूबर १७६४ को ब्रिटिश ईस्ट-इंडिया कंपनी और बंगाल, अवध व मुगल सल्तनत की संयुक्त सेना के बीच हुआ था.. और लगभग इसी युद्ध ने.. ब्रिटिश हुक्मरानों को हिन्दुस्तानी सरज़मी पे अपने पाव पसारने का एक मजबूत आधार-स्तंभ भी दिया था।
फिर शुरू होती है बक्सर की दूसरी लड़ाई.. भारत के आज़ादी के बाद.. अपने खुद के संवर्धन के लिए। लेकिन आज तक एक उचित मापदंड पे इस पौराणिक भू-भाग का कोई नया मसीहा अवतरित नहीं हो पाया। पटना और बनारस के मध्य शाहाबाद और भोजपुर की जनता और संसाधन बस अपना मुँह ताकते ही नज़र आते हैं। इस भूभाग को धान का कटोरा कहे जाने पे भी.. यहाँ की ग्रामीण जनता में असंतोष सहस ही दिख पड़ता है।

..और हाँ ..जो थोड़ा बहुत संतोष दिखता भी है ..वो है उन पौराणिक और धार्मिक आस्थाओं के कारण ..जो आज भी यहाँ जीवंत हैं। पौराणिक काल से ही इस क्षेत्र को सिद्धाश्रम कहा जाता रहा है। कहतें हैं चौरासी अट्ठासी हज़ार ऋषि-मुनियों की ये तपोभूमि रही है.. और आज भी यहाँ की प्राकृतिक ऋचाओं में उस सिद्ध-द्रव्यों को देखा जा सकता है।
राम-लक्ष्मण के गुरु विश्वामित्र की ये धरा रही.. तो महर्षि गौतम और दुरवासा की भी ये सिद्धपीठ रही। फिर तो शुभ-शक्तियों के साथ अशुभ-शक्तियाँ भी ताड़िका, मारीच, सुबाहु के रूप में इस हरितिम नैमिषारण्य में विराजने को सदैैैैव आतुर रहे। जहाँँ भगवान राम ने अपने गुरु सेवा में गंगा नदी की दिशा ही मोड़ दी थी, जो आज भी राम-रेखा घाट के रूप में स्थित है तो अहिल्या उद्धार की जगह अहिरौली के साथ... बक्सर युद्ध की कतकौली भी भारत के भाग्य की गाथा आज भी गाती नज़र आती है।
पटना और बनारस जैसे महानगरों के मध्य का ये भूभाग शायद आज भी उन भीष्म-शक्तियों की उपस्थिति से ही या तो अपने अतीत के सौंदर्य को बटोर पा रहा है.. या आज के डेवेलपमेंट प्रोग्राम में वर्षों पिछड़ता चला जा रहा है। कुछ दिन हुए मेरे छात्रों ने बक्सर युद्ध की उस जगह को चलती ट्रेन से दिखाया था। अब तो उस जगह एक बड़े स्कूल का निर्माण कार्य भी चल रहा है। फिर दिखे उस इलाक़े की हरी-वादियों में विचर रहे... हिरणो और मृगों का विहंगम झुंड..। मैं घोर .आश्चर्य में था। उन मृगों में कुछ कृष्ण-श्याम मृग भी थे। ये बस इस सिद्ध-पीठ की मानवीय आस्था ही है.. जो आज भी ये अपना जीवन बचाए रखने में कायम हैं। बरबस एक ख्याल आया की भारत सरकार इस क्षेत्र को जैविक उद्दान के रूप में विकसित क्यों नहीं करती है.. कम से कम इसी बहाने लोगों को इस ओर आने की रोचकता तो बनी रहेगी और इसके साथ न जाने कितने डेवेलपमेंट प्रोग्रामों को अमलीजामा पहनाया जा सकेगा।
सावन के इस महीने में आरा और बक्सर के बीच रघुनाथपूर के उत्तर अवस्थित ब्रम्हपुर के अपरूपी सिद्ध बाबा बरमेश्वर नाथ शिव मंदिर का दिव्य दर्शन भी हो पाया। कहा जाता है.. बनारस के काशी विश्वनाथ और देवघर के वैद्यनाथ धाम के मध्य का ये एक अलौकिक सिद्ध-पीठ है। फिर जो मंदिर के उस प्रांगण में पाया वो वर्ष २००४ के IIT Guwahati के QIP (Quality Improvement Programme) के दौरान देखे गये.. कामरूप कामाख्या मंदिर के प्रांगण से कम न था। संतुष्टि थी के बहूत दिनो बाद खुद के साक्षात को वृहत होते देख पाया। यहाँ आने का सुख जो भी मिला हो... लेकिन यहाँ से जाने की जैसे कोई समय-सारिणी पट्ट ही गायब कर दी गई हो.. मानों इस सिद्ध-क्षेत्र का प्रभाव प्रबल हो चला हो।

टूडीगंज स्टेशन के यात्री विश्रामालय के दीवार पे खुदी रेलवे समय-सारिणी इसकी गवाह है।एक तो समय सारिणी १० साल पुरानी और पूर्व की ओर जाने का पट्ट दीवार से उखड़ा हुआ। पटना-बनारस रूट पे आज भी इंडियन रेलवे ही आवागमन का सर्वोत्तम साधन है।लेकिन अस्वस्थ दिशा-निर्देशों की वजह से विकास की गति धीमी है। स्कूल-कॉलेज में पढ़ने वाले नव-पाठकों को अगर समय पे ट्रेनो की सुविधा मिल जाए तो बिहार के बच्चों को अन्य राज्यों का मार्ग न पकड़ना परे। मेरे दस वर्षों के अध्यापन अनुभव में बिहार में इंजिनियरिंग कॉलेज की संख्या में गुणात्मक वृद्धि हुई है तो वहीं स्टूडेंट के अड्मिशन इनपुट अपेक्षाकृत घटे हैं। जिसका सीधा संबंध हमारी लचर राजकीय व्यवस्थाओं और छात्रानुरूप माहौलों से है। फिर वे क्यों करें आपकी राजकीय इंजिनियरिंग अलाइयेन्स की कद्र। फिर तो अब गाँवों और कस्बों को बाँधने की बारी है.. नगर वाले तो महानगर देखते हैं। अब कृपया पॅसेंजर के साथ सूपरफास्ट ट्रेनो को भी इन विद्या-स्थलों पे ज़रूर रोकें... तो ऐसे ग्रामीण वनस्थलियों में पड़ने वाले विद्यालयों को ऐसे बहुमूल्य दान भी चंदन रूपी विद्यादान एक्सप्रेस बनते नज़र आयेंगे।

...और बरबस ऐसी ही माधुर्य गूँज लिए हर कोई आज भी यहाँ के आध्यात्मिक व ग्रामीण दर्शनो से जुड़ने की कोशिश में लगा रहता है। मुझको भी अब इस परिदृश्य में आए लगभग दो साल होने को आए। महानगरों की भागा-दौरी से अलग हरियाली की चादर ओढ़े इन वादियों में ही शिक्षण अधिक भाता है। प्रकृति की गोद में बैठ अपनी ऊर्जा को अपने वश में पाता हूँ। जीवन के शोध-रूपी युद्ध से परे इसकी सटीक समीक्षा ही एक पवित्र सुध के समान है। तो फिर अब क्या बचा है... इसे देने को..? मन में ये ख्याल बार-बार आता है। फिर से नये नये महानगर बसाने के कयास लगाए जा रहे हैं। बुलेट ट्रेनो की दौड़ भी लगने वाली है। फिर भी क्या इन प्रयत्नो से हम भारत की आत्मा को जगा सकतें हैं..? हाँ, अब बहूत सारी सरकारी योजनाओं के तहत ग्रामीण क्षेत्रों में सड़कों के पक्कीकरण का काम तेज़ी से हुआ है। लेकिन उन सड़कों में खुश-मिज़ाज आवाजाही का ज़रिया आज भी नहीं बना। आज भी रोजमर्रा के कामो से आने जाने वालों लोगो और विशेषतः स्कूली छात्रों को छोटे-छोटे प्राइवेट टेंपो या मिनी बस का ही सहारा लेना पड़ता है। तो फिर क्यों ना ग्रामीण क्षेत्रों के ऐसे भू-भागों को कलकत्ता में चलने वाली ट्राम-रेलों के नेटवर्क से जोड़ दिया जाए.. आम-जनो में नये उत्साह के लिए। ट्रामों के उस प्रकृति-पूर्ण सफ़र से शायद कुछ कवित्त व लेखन भावों को भी बल मिल पाए।सड़कों की मजबूती के साथ विद्दुति-करण योजनाओं के नये प्रारूपों को भी पटल पे लाया जा सकेगा। धान का कटोरा कहे जाने वाले इस भू-भाग में सौर-उर्जा के अलावा धान-भूसी उर्जा के उत्सर्जन और संवर्धन को भी विशेष बल मिल पाएगा..। यहाँ तक की ट्राम पटरियों पे बड़ी आसानी से छोटे बग्घी-नुमा गाड़ियों को भी यहाँ पाए जाने वाले उन्नत नस्ल के घोड़ों और बैलों से चलाया जा सकेगा। पशु-संवर्धन की नीतियों के तहत बड़ी आसानी से दुग्ध विक्रेताओं को भी बड़ी आसानी से बाज़ार के नज़दीक सुलभता के साथ लाया जा सकेगा। कम से कम बनारस से सटे भू-भागों पे तो ऐसे एक्सपेरिमेंट किए ही जा सकते हैं.. फिर तो ऐसे प्रयासों की गूँज भी शहनाई और बाँसुरी से कुछ कम नहीं।
"आपन देशो त अमेरिका-चीन.. अउर जापान बने के बानी.." इति विद्यादान एक्सप्रेसम...
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http://en.wikipedia.org/wiki/Bismillah_Khan
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