उम्र के साथ आपकी प्रवृतियों के भी रूप बदलने से लगते हैं.. हमेशा की तरह.. इस बार पूर्णियाँ आर एन साव चौक वाले बुक स्टॉल के सामने था.. फिर तो बचपन से ही कुछ ना कुछ पढ़ने व गढने की आदतें आपका पीछा भी बड़ी आसानी से नहीं छोड़ा करतीं। बचपन के दिनो में चाचा चौधरी, पिंकी, रमण की कॉमिक्स से लेकर मनोज पॉकेट बुक्स की राम-रहीम, क्रूक-बॉन्ड.. कभी मधु-मुस्कान लोट-पोट.. तो कभी चंपक-नंदन.. अमर चित्रकथाओं का दुर्लभ संसार..फिर इंद्रजाल कॉमिक्स का मॅनड्रेक और वेताल वन का फॅनटम.. और नागराज के कारनामे..। और फिर स्कूली दिनों से निकल कॉलेजिया उम्र १९९२ से स्पोर्ट-स्टार मॅगजिन का अनवरत संग्रह-कोष.. आपके मनोरूपी सफ़र के साथी तो बनते ही हैं.. और फिर भी जैसे पढ़ने की ललक ख़त्म होती नहीं दिखती। ..पर जीवन के इस मोड़ पे एक नये साथी ने अपनी ओर ध्यान आकृष्ट करने का काम जो किया.. वो भारतीय भाषा परिषद से प्रकाशित "वागर्थ" मासिक पत्रिका रही.. अपने समकालीन कथा साहित्य और प्रेमचंद का भारत विशेषांक के साथ..।
..वागर्थ के इस अंक के अंतिम पेज पे छपी कुछ पंक्तियों का ज़िक्र करना ज़रूरी है। ये शब्द ब्रिटिश प्ले-राइटर, नॉवेलिस्ट सॉमर्सेट मोंम के हैं.. "जब मैं भारत छोड़ रहा था, तो लोगों ने मुझसे पूछा की भारत में मुझसे सबसे अधिक किस बात ने प्रभावित किया, लेकिन मुझे प्रभावित करने वाली चीज़ों में न ताजमहल था, न बनारस के घाट। न मदुरै के मंदिर और न त्रावणकोट के पहाड़। ऐसा नहीं की मैं इन सबसे प्रभावित नहीं हुआ था, लेकिन जिसका सबसे अधिक प्रभाव पड़ा था, वह था- भारत का किसान, दुबला-पतला। जिसके पास अपना तन ढँकने के लिए एक मोटी धोती के अलावा कुछ नहीं था। जो सुबह से शाम तक चटकती धूप में धरती को जोतता है, दोपहर में पसीने से नहाता है और शाम को डूबते हुए सूरज की किरणो की तरह परिश्रम से थककर सो जाता है। और ऐसा वह आज से नहीं; बल्कि उस समय से कर रहा है जबकि आर्यों ने इस धरती पे कदम रखा था। सिर्फ़ एक आशा उसके मन में काम करती है की वह इसी परिश्रम के बल पर अपने को जिंदा रखने की एक छोटी सी ज़रूरत, पेट भरने की, पूरी करता रह सकता है। "
http://en.wikipedia.org/wiki/W._Somerset_Maugham
वागर्थ के इस अंक में हिन्दी साहित्य के नये-पुराने धुरंधर महारथियों के लेखों-कहानियों के बाद सॉमर्सेट मॉम की भाव्य उपस्थिति.. इस बात का संकेत है.. की साहित्यिक-अभिव्यक्ति आपके भौगोलिक या औपनिवेशिक आवरणो से परे ही है।आज के शहरीकरण और पूंजीवादी व्यवस्था के बीच से झाँकती भारत की ये तस्वीर.. क्या बस उस जमाने की है.. या आज के अंक में इसकी मौजूदगी.. आज भी इसके जीवंत अंशों का अहसास करवा रही है। इसे आज़ादी के बाद से चले आ रहे.. मिलते आघातों का दर्द कहें.. या बनते विश्वासघाती तंत्रों के मंथन का विषय..। कहीं ऐसा तो नहीं की इन ज़मीनी शक्तियों की अवहेलना के कारण ही.. भीतरघाती विनाशलीलाओं का विषपान भी रह रह कर भारतीय समाज को करना पर रहा है।
सॉमर्सेट मॉम के ये शाब्दिक विचार आज भी ब्रिटिश कालीन निर्मित उन भव्य भवनो और संसाधन सदृश ही हैं.. जिन्हें आज के परिप्रेक्ष्य में अगर समय रहते संरक्षित कर लिया जाए.. तो आज के भारतीय डेवेलपमेंट मॉडेल को उचित मानको पे खड़ा उतारा जा सकता है.. चाहे वो खेतो में पसीने बहाता एक परिश्रमी किसान के पुनर्जागरण के लिए ही क्यों ना हो। चीन देश के किसान और उनकी कृषि पद्धति अपने देश से दूर अफ्रिकन देशों में जाकर नये आयामों को पुनर्जीवित और पुनर्गठित कर रही है तो हमारे किसानो के समस्याओं की पुनरावृति भी नियमतः संभव नहीं है। ..पीछे से कुछ पन्नो को उलट आगे बढ़ा.. तो.. हरिशंकर परसाई की " भारत को चाहिए जादूगर और साधु" लेख पढ़ने को मिली। खुद को इन महान आत्माओं की कृतियों से अंगीकृत करते हुए जो कुछ पढ़ने को मिला-
"..अंत में इस निर्णय पे पहुँचा की अन्न नहीं 'आनंद' ही ब्रम्ह है। ...पर भरे पेट और खाली पेट का आनंद क्या एक-सा है? नहीं है, तो ब्रम्ह एक नहीं अनेक हुए। यह शास्त्रोक्त भी है-'एको ब्रम्ह बहुस्याम'। ब्रम्ह एक है, पर वह कई हो जाता है। एक ब्रम्ह ठाठ से रहता है, दूसरा राशन की दुकान में लाइन से खड़ा रहता है, तीसरा रेलवे के पुल के नीचे सोता है। ...सब ब्रम्ह ही ब्रम्ह है। ..शक्कर में पानी डालकर, जो उसे वज़नदार बनाकर बेचता है, वह भी ब्रम्ह है और जो उसे मजबूरी में खरीदता है, वह भी ब्रम्ह है। ..ब्रम्ह, ब्रम्ह को धोखा दे रहा है। ...साधु का यही कर्म है कि मनुष्य को ब्रम्ह की तरफ के जाय और पैसे इकट्ठे करे; क्योंकि 'ब्रम्ह सत्यं जगन्मिथ्या'। ..२६ जनवरी (१९७२) आते-आते मैं यही सोच रहा हूँ कि, 'हटाओ ग़रीबी' के नारे को, हटाओ महँगाई को, हटाओ बेकारी को, हटाओ भूखमरी को, क्या हुआ? ..बस, दो तरह के लोग बहुतायत से पैदा करें- जादूगर और साधु। ..ये इस देश की जनता को कई शताब्दी तक प्रसन्न रखेंगे और ईश्वर के पास पहुँचा देंगे। ..भारत-भाग्य विधाता। हममें वह क्षमता दे कि हम तरह-तरह के जादूगर और साधु इस देश में लगातार बढ़ते जाएँ। ..हमें इससे क्या मतलब कि 'तर्क की धारा सूखे मरुस्थल की रेत में न छिपे' (रवीन्द्रनाथ) वह तो छिप गई। इसलिए जन-गण-मन अधिनायक! बस हमें जादूगर और पेशेवर साधु चाहिए। तभी तुम्हारा यह सपना सच होगा कि हे परमपिता, उस स्वर्ग में मेरा यह देश जाग्रत हो। (जिसमें जादूगर और साधु जनता को खुश रखें)। ... यह हो रहा है, परमपिता की कृपा से! "
हरिशंकर परसाई की इस लेख के कुछ अंशो को पढ़ मैं रुक सा गया था। ..जादूगर और साधु के इस भाव ने मुझे दोबारा बक्सर के खेतों और खलिहानो में जो दौड़ा दिया था।अपने बक्सर इंजिनियरिंग कॉलेज के कार्यकाल के दौरान.. हर दिन के शाम के वक़्त मैं हाथ में कॅमरा लिए..आसपास के खेतों और खलिहानो में चला जाता था। फिर कभी उन खेतों में लगे गन्नो को तोड़ मीठे रसों का रसास्वादन.. तो कभी जगह जगह बने ब्रम्ह-स्थलों का दिव्य-अवलोकन। कॉलेज के चारों ओर बसे बसाए गाँवो से निकलती कच्ची पगडंडिया जो मेन-रोड पे आ मिलती। ..और फिर इन्ही पगडंडीयों से निकलती ग्रामीण वेश-भूषा से सुसज्जित मानवीय आभायें। शादी-ब्याह में पाई जाने वाली पुराने जमाने की पालकी को मैने आज भी इन गावों में विरजते देखा था.. तो कभी जंगली खरगोशों की एक के पीछे एक की लंबी कतार.. तो कभी टांय-टांय करते तोतों और खलिहानो में कदमताल करते भेंडो का विहंगम समूह..। ग्रामीण और वन्य-संसाधनो की इसी खूबसूरती ने ही मुझे यहाँ खींचा था। आज भी याद है.. जब मैं पहली बार यहाँ इंटरव्यू के लिए बुलाया गया था तो.. खेतों में चरते नील-गायों के समूह को देख लगा मानो.. मैं किसी फोरेस्ट रेंज में तो नहीं आ गया। ..फिर एक पुराने नाले के बगल से निकलता भयावह कर देने वाला.. विशालकाय गोह..भी दिखा था.. इन्हें आज के डिफिनेशन में लिटिल डाइनॉसॉर ही कहलें..। मैं आश्चर्य में था..कि "धान का कटोरा" कहे जाने वाले इस भूभाग में आज भी इन जीवों की जादुई उपस्थिति मौजूद है।
..तो कुछ दिन यहाँ बिताने पर यहाँ के ग़रीब किसानो का साधुई दर्द भी दिख ही गया। नील-गायों की बढ़ती संख्या ने इनके खेत खलिहानो में नज़र सी लगा दी है.. बहूत कुछ मारीच-सुबाहु दानवों की तरह..। पूछने पे पता चला की विगत कुछ वर्षों पहले इन्हें कहीं से ट्रक गाड़ियों पे लादकर यहाँ छोड़ा गया था.. जिनका दृश्य आज त्रहिमाम कर देने जैसा है.. अच्छी-ख़ासी फसल चट कर जाते हैं। इन्हें ये भगा भी नहीं सकते.. ना तो मार ही सकते हैं.. अब तो ये आस्था से जो जुड़ गई है. एक बार मैने बड़े प्रोफेशनल अंदाज में कहा था..-"गाय है तो दूध तो देती ही होगी.." जवाब मिला.."पकड़ में आए तब ना.." .."नहीं तो बांग्लादेशे भेजवा दो.. चमरिए कुछ काम में आ जाए.."। ...फिर तो ऐसी बातों से आप बस खुद को ही थोड़ा बहला सकते हैं। यहाँ के नीलगायों की समस्या अब राजनीतिक रूप भी लेने लगी है। समाचार पत्र से जो जानने को मिला था कि पिछले साल औरंगाबाद के गावों में हैदराबाद के नवाब को बुलाया गया था.. कुछ उत्पाती नीलगायों को मारने के लिए.. आख़िर जादूगरी का लाइसेन्स हर किसी को कहाँ मिलता यहाँ..। हर बनती सरकार देश की बाहरी सीमाओं की रक्षा को प्रतिबद्ध नज़र आती है.. रक्षा सौदों के मद्देनजर..पर आत्मीय सुरक्षा और वो भी जब बात ग़रीब किसानो के हित में हो तो... सारी प्रतिबद्धतायें साधुई रुख़ लेने सी लगती हैं। आज भी हम बड़ी बड़ी तकनीकी संस्थाओं में पढ़ाई जाने वाली लेटेस्ट टेक्नालजी की बात करते हैं... लेकिन इन आंतरिक समस्याओं के प्रति सरकारी जादूगरी नही चल पाती। GIS and Remote Sensing Forest application के ज़रिए हम ऐसी कितनी ही समस्याओं का निदान कर सकते हैं.. लेकिन हमें हमारे आंतरिक मामलों को साधुई रूप दे..हवाई-यानो की जादूगरी जो सिद्ध करनी है... आगे भगवान मालिक..।
http://remote-sensing-biodiversity.org/zsl-symposium
....फिर वागर्थ के इन पन्नो में अपने फणीश्वरनाथ रेणु की "नैना जोगिन" पढ़ने को मिली..और संतुष्टि भी.. कि साहित्यिक शब्द-कोषों से रची इन रचनाओं में.. पक्षीय गल्पो के साथ-साथ विपक्षीय गल्पो का भी अपना संसार है..। सत्कार है..तो तिरस्कार भी.. सब कुछ परम पावन उपकार ही है, साहित्यिक विधा में। अमृतलाल नागर की "प्रायश्चित" के कुछ शुरुआती अंश कुछ इस तरह-- " जीवन वाटिका का वसंत, विचारों का अंधड़, भूलों का पर्वत और ठोकरों का समूह है यौवन। इसी अवस्था में मनुष्य त्यागी, सदाचारी, देश-भक्त एवं समाज-भक्त भी बनते हैं, तथा अपने खून के जोश में वह काम कर दिखाते हैं, जिससे कि उनका नाम संसार के इतिहास में स्वर्ण-अक्षरों में लिख दिया जाता है, तथा इसी आयु में मनुष्य विलासी, लोलूपी और व्यभिचारी भी बन जाता है, अंत में पछताता है, प्रायश्चित करता है, परंतु प्रत्यंचा से निकला हुआ बाण फिर वापस नहीं लौटता, खोई हुई सच्ची शांति फिर कहीं नहीं मिलती।"
पुराने लेखकों में जहाँ भगवती चरण वर्मा की "मुगलों ने सल्तनत बख्स दी", भुवनेश्वर की "आज़ादी:एक पत्र" और गोविंद मिश्र की "जीवन को पूरा नहीं पकड़ा जा सकता.." पढ़ने को मिला तो वहीं नये लेखकों के कलम से दूधनाथ सिंह की "किसी लेखक का जीवन सुखमय नहीं है", स्वयं प्रकाश की "कथाकार में पसीने की नहीं, आंसूओं की कमी है", आंनद हरषुल की "जीवन को छूना कम, विषय को छूना ज़्यादा हुआ है", कैलाश बनवासी की "आज कथा से गाँव गायब है" और वंदना राग की " आदिवासियों पर कम लिखा गया है"... रोचक लगी।
बस वागर्थ की रोचकता मेरे जीवन में बरकरार रहे...।
..वागर्थ के इस अंक के अंतिम पेज पे छपी कुछ पंक्तियों का ज़िक्र करना ज़रूरी है। ये शब्द ब्रिटिश प्ले-राइटर, नॉवेलिस्ट सॉमर्सेट मोंम के हैं.. "जब मैं भारत छोड़ रहा था, तो लोगों ने मुझसे पूछा की भारत में मुझसे सबसे अधिक किस बात ने प्रभावित किया, लेकिन मुझे प्रभावित करने वाली चीज़ों में न ताजमहल था, न बनारस के घाट। न मदुरै के मंदिर और न त्रावणकोट के पहाड़। ऐसा नहीं की मैं इन सबसे प्रभावित नहीं हुआ था, लेकिन जिसका सबसे अधिक प्रभाव पड़ा था, वह था- भारत का किसान, दुबला-पतला। जिसके पास अपना तन ढँकने के लिए एक मोटी धोती के अलावा कुछ नहीं था। जो सुबह से शाम तक चटकती धूप में धरती को जोतता है, दोपहर में पसीने से नहाता है और शाम को डूबते हुए सूरज की किरणो की तरह परिश्रम से थककर सो जाता है। और ऐसा वह आज से नहीं; बल्कि उस समय से कर रहा है जबकि आर्यों ने इस धरती पे कदम रखा था। सिर्फ़ एक आशा उसके मन में काम करती है की वह इसी परिश्रम के बल पर अपने को जिंदा रखने की एक छोटी सी ज़रूरत, पेट भरने की, पूरी करता रह सकता है। "
http://en.wikipedia.org/wiki/W._Somerset_Maugham
वागर्थ के इस अंक में हिन्दी साहित्य के नये-पुराने धुरंधर महारथियों के लेखों-कहानियों के बाद सॉमर्सेट मॉम की भाव्य उपस्थिति.. इस बात का संकेत है.. की साहित्यिक-अभिव्यक्ति आपके भौगोलिक या औपनिवेशिक आवरणो से परे ही है।आज के शहरीकरण और पूंजीवादी व्यवस्था के बीच से झाँकती भारत की ये तस्वीर.. क्या बस उस जमाने की है.. या आज के अंक में इसकी मौजूदगी.. आज भी इसके जीवंत अंशों का अहसास करवा रही है। इसे आज़ादी के बाद से चले आ रहे.. मिलते आघातों का दर्द कहें.. या बनते विश्वासघाती तंत्रों के मंथन का विषय..। कहीं ऐसा तो नहीं की इन ज़मीनी शक्तियों की अवहेलना के कारण ही.. भीतरघाती विनाशलीलाओं का विषपान भी रह रह कर भारतीय समाज को करना पर रहा है।
सॉमर्सेट मॉम के ये शाब्दिक विचार आज भी ब्रिटिश कालीन निर्मित उन भव्य भवनो और संसाधन सदृश ही हैं.. जिन्हें आज के परिप्रेक्ष्य में अगर समय रहते संरक्षित कर लिया जाए.. तो आज के भारतीय डेवेलपमेंट मॉडेल को उचित मानको पे खड़ा उतारा जा सकता है.. चाहे वो खेतो में पसीने बहाता एक परिश्रमी किसान के पुनर्जागरण के लिए ही क्यों ना हो। चीन देश के किसान और उनकी कृषि पद्धति अपने देश से दूर अफ्रिकन देशों में जाकर नये आयामों को पुनर्जीवित और पुनर्गठित कर रही है तो हमारे किसानो के समस्याओं की पुनरावृति भी नियमतः संभव नहीं है। ..पीछे से कुछ पन्नो को उलट आगे बढ़ा.. तो.. हरिशंकर परसाई की " भारत को चाहिए जादूगर और साधु" लेख पढ़ने को मिली। खुद को इन महान आत्माओं की कृतियों से अंगीकृत करते हुए जो कुछ पढ़ने को मिला-
"..अंत में इस निर्णय पे पहुँचा की अन्न नहीं 'आनंद' ही ब्रम्ह है। ...पर भरे पेट और खाली पेट का आनंद क्या एक-सा है? नहीं है, तो ब्रम्ह एक नहीं अनेक हुए। यह शास्त्रोक्त भी है-'एको ब्रम्ह बहुस्याम'। ब्रम्ह एक है, पर वह कई हो जाता है। एक ब्रम्ह ठाठ से रहता है, दूसरा राशन की दुकान में लाइन से खड़ा रहता है, तीसरा रेलवे के पुल के नीचे सोता है। ...सब ब्रम्ह ही ब्रम्ह है। ..शक्कर में पानी डालकर, जो उसे वज़नदार बनाकर बेचता है, वह भी ब्रम्ह है और जो उसे मजबूरी में खरीदता है, वह भी ब्रम्ह है। ..ब्रम्ह, ब्रम्ह को धोखा दे रहा है। ...साधु का यही कर्म है कि मनुष्य को ब्रम्ह की तरफ के जाय और पैसे इकट्ठे करे; क्योंकि 'ब्रम्ह सत्यं जगन्मिथ्या'। ..२६ जनवरी (१९७२) आते-आते मैं यही सोच रहा हूँ कि, 'हटाओ ग़रीबी' के नारे को, हटाओ महँगाई को, हटाओ बेकारी को, हटाओ भूखमरी को, क्या हुआ? ..बस, दो तरह के लोग बहुतायत से पैदा करें- जादूगर और साधु। ..ये इस देश की जनता को कई शताब्दी तक प्रसन्न रखेंगे और ईश्वर के पास पहुँचा देंगे। ..भारत-भाग्य विधाता। हममें वह क्षमता दे कि हम तरह-तरह के जादूगर और साधु इस देश में लगातार बढ़ते जाएँ। ..हमें इससे क्या मतलब कि 'तर्क की धारा सूखे मरुस्थल की रेत में न छिपे' (रवीन्द्रनाथ) वह तो छिप गई। इसलिए जन-गण-मन अधिनायक! बस हमें जादूगर और पेशेवर साधु चाहिए। तभी तुम्हारा यह सपना सच होगा कि हे परमपिता, उस स्वर्ग में मेरा यह देश जाग्रत हो। (जिसमें जादूगर और साधु जनता को खुश रखें)। ... यह हो रहा है, परमपिता की कृपा से! "
हरिशंकर परसाई की इस लेख के कुछ अंशो को पढ़ मैं रुक सा गया था। ..जादूगर और साधु के इस भाव ने मुझे दोबारा बक्सर के खेतों और खलिहानो में जो दौड़ा दिया था।अपने बक्सर इंजिनियरिंग कॉलेज के कार्यकाल के दौरान.. हर दिन के शाम के वक़्त मैं हाथ में कॅमरा लिए..आसपास के खेतों और खलिहानो में चला जाता था। फिर कभी उन खेतों में लगे गन्नो को तोड़ मीठे रसों का रसास्वादन.. तो कभी जगह जगह बने ब्रम्ह-स्थलों का दिव्य-अवलोकन। कॉलेज के चारों ओर बसे बसाए गाँवो से निकलती कच्ची पगडंडिया जो मेन-रोड पे आ मिलती। ..और फिर इन्ही पगडंडीयों से निकलती ग्रामीण वेश-भूषा से सुसज्जित मानवीय आभायें। शादी-ब्याह में पाई जाने वाली पुराने जमाने की पालकी को मैने आज भी इन गावों में विरजते देखा था.. तो कभी जंगली खरगोशों की एक के पीछे एक की लंबी कतार.. तो कभी टांय-टांय करते तोतों और खलिहानो में कदमताल करते भेंडो का विहंगम समूह..। ग्रामीण और वन्य-संसाधनो की इसी खूबसूरती ने ही मुझे यहाँ खींचा था। आज भी याद है.. जब मैं पहली बार यहाँ इंटरव्यू के लिए बुलाया गया था तो.. खेतों में चरते नील-गायों के समूह को देख लगा मानो.. मैं किसी फोरेस्ट रेंज में तो नहीं आ गया। ..फिर एक पुराने नाले के बगल से निकलता भयावह कर देने वाला.. विशालकाय गोह..भी दिखा था.. इन्हें आज के डिफिनेशन में लिटिल डाइनॉसॉर ही कहलें..। मैं आश्चर्य में था..कि "धान का कटोरा" कहे जाने वाले इस भूभाग में आज भी इन जीवों की जादुई उपस्थिति मौजूद है।
..तो कुछ दिन यहाँ बिताने पर यहाँ के ग़रीब किसानो का साधुई दर्द भी दिख ही गया। नील-गायों की बढ़ती संख्या ने इनके खेत खलिहानो में नज़र सी लगा दी है.. बहूत कुछ मारीच-सुबाहु दानवों की तरह..। पूछने पे पता चला की विगत कुछ वर्षों पहले इन्हें कहीं से ट्रक गाड़ियों पे लादकर यहाँ छोड़ा गया था.. जिनका दृश्य आज त्रहिमाम कर देने जैसा है.. अच्छी-ख़ासी फसल चट कर जाते हैं। इन्हें ये भगा भी नहीं सकते.. ना तो मार ही सकते हैं.. अब तो ये आस्था से जो जुड़ गई है. एक बार मैने बड़े प्रोफेशनल अंदाज में कहा था..-"गाय है तो दूध तो देती ही होगी.." जवाब मिला.."पकड़ में आए तब ना.." .."नहीं तो बांग्लादेशे भेजवा दो.. चमरिए कुछ काम में आ जाए.."। ...फिर तो ऐसी बातों से आप बस खुद को ही थोड़ा बहला सकते हैं। यहाँ के नीलगायों की समस्या अब राजनीतिक रूप भी लेने लगी है। समाचार पत्र से जो जानने को मिला था कि पिछले साल औरंगाबाद के गावों में हैदराबाद के नवाब को बुलाया गया था.. कुछ उत्पाती नीलगायों को मारने के लिए.. आख़िर जादूगरी का लाइसेन्स हर किसी को कहाँ मिलता यहाँ..। हर बनती सरकार देश की बाहरी सीमाओं की रक्षा को प्रतिबद्ध नज़र आती है.. रक्षा सौदों के मद्देनजर..पर आत्मीय सुरक्षा और वो भी जब बात ग़रीब किसानो के हित में हो तो... सारी प्रतिबद्धतायें साधुई रुख़ लेने सी लगती हैं। आज भी हम बड़ी बड़ी तकनीकी संस्थाओं में पढ़ाई जाने वाली लेटेस्ट टेक्नालजी की बात करते हैं... लेकिन इन आंतरिक समस्याओं के प्रति सरकारी जादूगरी नही चल पाती। GIS and Remote Sensing Forest application के ज़रिए हम ऐसी कितनी ही समस्याओं का निदान कर सकते हैं.. लेकिन हमें हमारे आंतरिक मामलों को साधुई रूप दे..हवाई-यानो की जादूगरी जो सिद्ध करनी है... आगे भगवान मालिक..।
http://remote-sensing-biodiversity.org/zsl-symposium
....फिर वागर्थ के इन पन्नो में अपने फणीश्वरनाथ रेणु की "नैना जोगिन" पढ़ने को मिली..और संतुष्टि भी.. कि साहित्यिक शब्द-कोषों से रची इन रचनाओं में.. पक्षीय गल्पो के साथ-साथ विपक्षीय गल्पो का भी अपना संसार है..। सत्कार है..तो तिरस्कार भी.. सब कुछ परम पावन उपकार ही है, साहित्यिक विधा में। अमृतलाल नागर की "प्रायश्चित" के कुछ शुरुआती अंश कुछ इस तरह-- " जीवन वाटिका का वसंत, विचारों का अंधड़, भूलों का पर्वत और ठोकरों का समूह है यौवन। इसी अवस्था में मनुष्य त्यागी, सदाचारी, देश-भक्त एवं समाज-भक्त भी बनते हैं, तथा अपने खून के जोश में वह काम कर दिखाते हैं, जिससे कि उनका नाम संसार के इतिहास में स्वर्ण-अक्षरों में लिख दिया जाता है, तथा इसी आयु में मनुष्य विलासी, लोलूपी और व्यभिचारी भी बन जाता है, अंत में पछताता है, प्रायश्चित करता है, परंतु प्रत्यंचा से निकला हुआ बाण फिर वापस नहीं लौटता, खोई हुई सच्ची शांति फिर कहीं नहीं मिलती।"
पुराने लेखकों में जहाँ भगवती चरण वर्मा की "मुगलों ने सल्तनत बख्स दी", भुवनेश्वर की "आज़ादी:एक पत्र" और गोविंद मिश्र की "जीवन को पूरा नहीं पकड़ा जा सकता.." पढ़ने को मिला तो वहीं नये लेखकों के कलम से दूधनाथ सिंह की "किसी लेखक का जीवन सुखमय नहीं है", स्वयं प्रकाश की "कथाकार में पसीने की नहीं, आंसूओं की कमी है", आंनद हरषुल की "जीवन को छूना कम, विषय को छूना ज़्यादा हुआ है", कैलाश बनवासी की "आज कथा से गाँव गायब है" और वंदना राग की " आदिवासियों पर कम लिखा गया है"... रोचक लगी।
बस वागर्थ की रोचकता मेरे जीवन में बरकरार रहे...।
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