Friday, 27 September 2013

" दूरियों को मत बांधो, उसे तय होने दो...!!! "

दूरियों को मत बांधो, उसे तय होने दो, जीवन सत्य को पा जाओगे, जब सूक्ष्म दिख जाएगा। पता नहीं मन ही मन ये विचार कुछ कौंधते से दिखे। बात उन दिनों की है जब मैं अपने शहर पूर्णियाँ से किशनगंज हर दिन आना जाना कर रहा था, एक नया इंजिनियरिंग कॉलेज खुला था वहाँ। पर कभी कभी ऐसा होता की कॉलेज के कुछ काम से जल्द ही वापस किशनगंज से पूर्णियाँ आना पड़ता। ऐसा ही था उस दिन भी, पर जैसे ही मैं किशनगंज वाले कॉलेज से पूर्णिया के लिए निकला कि पता नहीं कहाँ से घनघोर तेज बारिश होने लगी। कहा गया ज़रूरी कागजात हैं ज़रा संभाल कर लेते जाइएएगा। वहाँ से किशनगंज बस स्टैंड तक आते आते पूरा शरीर भींग गया था, और फिर बस से पूर्णियाँ तक डेढ़ घंटे का सफ़र। चलती बस में कपड़े भी थोड़े सूखते दिखे और फिर बस जैसे ही पूर्णिया बस स्टैंड को रुकी की फिर से मूसलाधार बारिश का सामना यहाँ भी। कागज़ातों को जल्दी पहुँचाना है सोचकर बस स्टैंड पर रखी अपनी स्कूटर से होती उस घनघोर बारिश में भींगते भागते रामबाग वाले हेड अॉफिस को आ पहुँचा, कागजात दिए और फिर तुरंत घर की ओर निकल पड़ा। ये सबकुछ बिल्कुल ही असहज सा था.. इतनी देर भींगते हुए लगा जैसे तबीयत भी साथ से जाती रही, तो मैं स्कूटर मेन रुट से अलग डी एम एस पी आवास वाले सेफ रूट से कम भीड़ भाड़ वाले उर्स लाईन कॉन्वेंट स्कूल के रास्ते होकर आने लगा, की चलो भीड़ से तो सामना नहीं होगा। घर आ ही रहा था की ठीक गांधी नगर वाले बड़े बड़े पेड़ों से लदे हरे भरे भींगते परिदृश्य में सामने से किसी पूर्व परिचित का आता जान पड़ा। हाथों में छाता लिए, मलिन मुख, मंद चाल और स्वेत वस्त्र धारण। मैं उन्हे क्रॉस कर आगे भी निकल गया पर एकाएक बीते वर्षो की उन यादों से मूँह मोड़ ना सका। मैने स्कूटर घुमाई और उनके पास आया, वो रुक से गये थे। मैने कहा फूफा " यहाँ देख रहा हूँ, की बात.!" "दादी ते नेय रहले.." उन्होने कहा। उनके कहे ये शब्द जैसे सूक्ष्म को दर्शा रहे थे। मेरी पूरी थकान जाती रही। जैसे लगा वो अपना भाग लेने ही मुझे इस रास्ते से लाई हो। मेरी दादी से बहूत बनती थी उनकी.. मेरी दादी श्रद्धा से उन्हें माँ बुलाती और वो मेरी दादी को बेटी कहती। जब तक मेरी दादी जीवित रही वर्षों का साथ नीभता गया। कुछ दिन पहले ही उस ब्राह्मण परिवार को कुछ कारण वश अपना सब कुछ छोड़ रंगभूमि मैदान के बगल में शरण लेना पड़ा था। मुझे आज भी याद है जब बचपन में मेरी दादी मुझे उनके फूंस के घर लेते जाती, तो जैसे मुझे लगता मैं सबरी के आश्रम में आ गया हूँ। अब वो सारे भाव मृत प्राय से थे। मेरे पास देने को कुछ नहीं थे, मेरे पास जो कुछ भी था मैं फूफा के हाथों में रख पाया ये जान कर...



~ विनायक रंजन


Thursday, 26 September 2013

"आज फिर मंन चला बक्सर की ओर....!!!"


एक बार फिर मौसम ने फिर अपनी पुरानी तान छेड़ी है| पिछले साल भी कुछ ऐसा ही था, जब मैं बक्सर के एक इंजिनियरिंग कॉलेज को जाय्न किया था| याद है जब पहली बार इंटरव्यू के लिए बुलाया गया था| सुबह के ७/२० में एक पस्संजेर ट्रेन मिली थी दानापुर स्टेशन से, टिकेट मूल्य बस १० रुपये और सफ़र लगभग १०० किं.मी. का| जिस स्टेशन पे उतरना था, वो भी कुछ ज़्यादा ही इंग्लीश सा था... नाम था ट्रूलिगंज... किसी इंग्लीशमॅन के नाम पे था| इस नामकरण का भी अपना एक इतिहास है| मेरे इंजिनियरिंग यात्रा के रिसर्च एंड डेवेलपमेंट की यह तीसरी सीढ़ी थी मानो... ठीक बिल्कुल राज कपूर की तीसरी कसम की तरह या शम्मी कपूर की तीसरी मंज़िल की तरह.... इनोसेन्स एंड सस्पेनस से भरपूर..| ट्रेन से आते वक़्त ही लगा मानो मुझे कोई अदृश्या शक्ति खिच रही है| आज का विकाश भी मानो यहाँ आने के लिए शीशक रहा हो| प्रकृति आज भी पुरानी चादर लपेटे हुई सी थी| ट्रेन बिहटआ कोईल्वर आरा होते हुए आगे की ओर बढ़ रही थी और मुझे मेरे मंज़िल को पाने की ललक अपने चरम पे थी| फिर कुछ छोटे स्टेशन को क्रॉस करते हुए ट्रेन ट्रूलिगंज जा पहुँची| स्टेशन छोटा था लेकिन लगा जैसे आधी ट्रेन खाली हो गयी उस जगह| फिर एक जीप में बैठ मैं उस इंजिनियरिंग कॉलेज की ओर जाने लगा| स्टेशन से वो जगह कुछ ४-५ कि. मी. का रहा होगा| लेकिन इसी दूरी ने मुझमें जो छाप छोड़ी.. उससे शायद ही मैं कभी मुक्ति ले पाऊँ| पूरी तरह से ग्राम्य-जीवन से भरपूर, और डेग डेग पे ब्रम्‍ह-स्थलों का मिलना... जैसे ना जाने कब से ये दुस्साहसी ब्रम्हचर्यों के आहमन को आतुर रही हो| ब्रम्‍ह-स्थलों की महिमा मैं कुछ चंद पंक्तियों में नहीं कर सकता|
फिर इंजिनियरिंग कॉलेज पहुँचने पे बहूत कुछ अद्भूत ही था| डेवेलपमेंट के आज के युग में आप सोच ही नहीं सकते की... कोई इंजिनियरिंग कॉलेज खोलने का दुस्साहस भी करेगा ऐसे वीरान जंगलों के बीच...| फिर मेरा सामना हुआ... वहाँ के डाइरेक्टर से जो भारत सरकार के डी. आर. डी. ओ. में चीफ साइंटिस्ट पद पे कार्यरत थे| मेरे प्रोफाइल को देख उन्होने सहसा कह डाला की आप ऐसे जगह की तलाश कर रहे थे... उन्हें मेरे रेज़्यूमे में अंडर-प्रीविलेदगेड वर्ड बहुत पसंद आया था| इंटरव्यू के बाद मैने एक क्लास भी ली... बड़ा ही सुखद अनुभव था ये.....

विप्र प्रयाग घोष



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" क्यों ना फिर चलें प्रेमचंद- शरतचंद्र की ओर...!!! "


आज भी वो बचपन की कहानियाँ जो कभी दादा-दादी से सूनी तो कभी अमर-चित्र कथा कॉमिक्सों में पढ़ी या फिर दूरदर्शन के विक्रम वेताल या सिंहासन बत्तीसी में देखी सहसा आपको उस लोक में लेते जाती हैं जिसे बस आप और हम अपनी कल्पनाशीलता से ही अनुभव कर आनंदित हो उठते हैं| फिर आप खुद को अपने समाज, देश और कालों में पिरोते हुए जीवन-सूत्रों को ढूँढने का प्रयास ही करते हैं, और यह सिलसिला बदस्तूर जारी रहता है| फिर हम और हमारी मर्यादायें किसका अनुशीलन करती हैं... कहते हैं आप जिस घड़े में रहोगे उसी तरह बनॉगे या फिर अपने कार्यानुभव से खुद को बदलने या मॉडरेट करने की कोशिश भर...| जिस हिन्दी एडिटर के साथ आपके समक्ष हूँ यह पहले मिला ना था, और अब मिला है तो जैसे कुछ लिखने का सूखापन, अब बारिश की फुहारों से इसे भींगा सा रहा है| वास्तव में हम आज भी गाँव के ही हैं... बिल्कुल ही बेफ़िक्र... अंजान की बारिश होगी या नहीं.... भगवान भरोसे.. लगभग सभों के साथ कुछ ऐसा ही... इसलिए तो भगवान आज भी हैं| याद है जब दादाजी के साथ अपने गाँव जया करता था, और जहाँ बस रुकती थी वहाँ से मेरा गाँव कुछ ३-४ किंमी की दूरी पे था| बस या तो ज़मीनो के मेड या फिर उबर खाबर पगडंडिया गाँव पहुँचने के लिए| अपने घर पहुँचते पहुँचते पैरों में दर्द हो जाता, तो दादाजी से कहता यहाँ रिक्शा वग़ैरह नहीं मिलता है... वो कहते ठीक है तो आ जाओ मेरे कंधे पे बैठ जाओ... यह सुन फिर मैं पैदल चलने लगता | फिर याद है... एक बार गाँव से वापसी के समय दादाजी ने कहा चलो गिनती करो तो यहाँ से वो जगह जहाँ बस मिलेगी कितने डेग में आता है.... फिर क्या था मेरी गिनती स्टार्ट हो गई... फिर चलते चलते वो जगह आ गयी जहाँ बस आके रुकती थी... फिर हम बस में भी बैठे... ददाही ने कहा कितना डेग हुआ यहाँ तक... मैने जवाब भी दिया... उन्होने फिर पूछा पैरों में अब दर्द हो रहा है... मेरे पास बस मुस्कुराहट थी| प्रेमचंद ने भी सयद ऐसा ही कुछ किया अपनी लेखनी में... जो देखा वो लेखन में बोया, पिरोया और डुबोया| जीवन संघर्ष ही आपको अभिव्यक्ति की शक्ति दे पता है.. और मुक्ति भी...| एक बार अपने भागलपुर यात्रा में कुछ वर्ष पहले ही, एक पत्रकार के मेरी मुलाक़ात हुई... उनसे मैं शरतचंद्र के बारे में कुछ जानना चाहा क्योंकि उनकी लिखित देवदास उनकी भागलपुर और उनकी खुद की रियल स्टोरी पे ही आधारित है, जिसका ज़िकरा विष्णु प्रभाकर की आवारा मसीहा से भी मिलता है.| तो यह जानकर मैं दंग रह गया जब पता चला की रबींद्रनाथ टैगोर खुद साहित्य-स्पर्धा के द्वेष में उनके विषय में जानने को ही भागलपुर आए थे, और वहीं भागलपुर यूनिवर्सिटी की टिल्ला पहाड़ी पे ही रहकर नोबेल पुरस्कार वीदित गीतांजलि की प्रथम रचना किए थे| शरतचंद्र के पूर्व जीवन को उन्होने इतना खनगाला की शरतचंद्र को कलकत्ता छोड़ बर्मा जाना पड़ा... और वहीं रहकर शरतचंद्र को अपनी कालजयी रचनाओं को प्रकाशित करना पड़ा|

तो फिर क्यों ना चलें प्रेमचंद... शरतचंद्र की ओर....

~ विनायक रंजन




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