आज भी वो बचपन की कहानियाँ जो कभी दादा-दादी से सूनी तो कभी अमर-चित्र कथा कॉमिक्सों में पढ़ी या फिर दूरदर्शन के विक्रम वेताल या सिंहासन बत्तीसी में देखी सहसा आपको उस लोक में लेते जाती हैं जिसे बस आप और हम अपनी कल्पनाशीलता से ही अनुभव कर आनंदित हो उठते हैं| फिर आप खुद को अपने समाज, देश और कालों में पिरोते हुए जीवन-सूत्रों को ढूँढने का प्रयास ही करते हैं, और यह सिलसिला बदस्तूर जारी रहता है| फिर हम और हमारी मर्यादायें किसका अनुशीलन करती हैं... कहते हैं आप जिस घड़े में रहोगे उसी तरह बनॉगे या फिर अपने कार्यानुभव से खुद को बदलने या मॉडरेट करने की कोशिश भर...| जिस हिन्दी एडिटर के साथ आपके समक्ष हूँ यह पहले मिला ना था, और अब मिला है तो जैसे कुछ लिखने का सूखापन, अब बारिश की फुहारों से इसे भींगा सा रहा है| वास्तव में हम आज भी गाँव के ही हैं... बिल्कुल ही बेफ़िक्र... अंजान की बारिश होगी या नहीं.... भगवान भरोसे.. लगभग सभों के साथ कुछ ऐसा ही... इसलिए तो भगवान आज भी हैं| याद है जब दादाजी के साथ अपने गाँव जया करता था, और जहाँ बस रुकती थी वहाँ से मेरा गाँव कुछ ३-४ किंमी की दूरी पे था| बस या तो ज़मीनो के मेड या फिर उबर खाबर पगडंडिया गाँव पहुँचने के लिए| अपने घर पहुँचते पहुँचते पैरों में दर्द हो जाता, तो दादाजी से कहता यहाँ रिक्शा वग़ैरह नहीं मिलता है... वो कहते ठीक है तो आ जाओ मेरे कंधे पे बैठ जाओ... यह सुन फिर मैं पैदल चलने लगता | फिर याद है... एक बार गाँव से वापसी के समय दादाजी ने कहा चलो गिनती करो तो यहाँ से वो जगह जहाँ बस मिलेगी कितने डेग में आता है.... फिर क्या था मेरी गिनती स्टार्ट हो गई... फिर चलते चलते वो जगह आ गयी जहाँ बस आके रुकती थी... फिर हम बस में भी बैठे... ददाही ने कहा कितना डेग हुआ यहाँ तक... मैने जवाब भी दिया... उन्होने फिर पूछा पैरों में अब दर्द हो रहा है... मेरे पास बस मुस्कुराहट थी| प्रेमचंद ने भी सयद ऐसा ही कुछ किया अपनी लेखनी में... जो देखा वो लेखन में बोया, पिरोया और डुबोया| जीवन संघर्ष ही आपको अभिव्यक्ति की शक्ति दे पता है.. और मुक्ति भी...| एक बार अपने भागलपुर यात्रा में कुछ वर्ष पहले ही, एक पत्रकार के मेरी मुलाक़ात हुई... उनसे मैं शरतचंद्र के बारे में कुछ जानना चाहा क्योंकि उनकी लिखित देवदास उनकी भागलपुर और उनकी खुद की रियल स्टोरी पे ही आधारित है, जिसका ज़िकरा विष्णु प्रभाकर की आवारा मसीहा से भी मिलता है.| तो यह जानकर मैं दंग रह गया जब पता चला की रबींद्रनाथ टैगोर खुद साहित्य-स्पर्धा के द्वेष में उनके विषय में जानने को ही भागलपुर आए थे, और वहीं भागलपुर यूनिवर्सिटी की टिल्ला पहाड़ी पे ही रहकर नोबेल पुरस्कार वीदित गीतांजलि की प्रथम रचना किए थे| शरतचंद्र के पूर्व जीवन को उन्होने इतना खनगाला की शरतचंद्र को कलकत्ता छोड़ बर्मा जाना पड़ा... और वहीं रहकर शरतचंद्र को अपनी कालजयी रचनाओं को प्रकाशित करना पड़ा|
तो फिर क्यों ना चलें प्रेमचंद... शरतचंद्र की ओर....
~ विनायक रंजन
तो फिर क्यों ना चलें प्रेमचंद... शरतचंद्र की ओर....
~ विनायक रंजन
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