.........."ये कौन सा स्टेशन है भाई?" " सुल्तानगंज.." कहीं से आवाज़ आयी। ट्रेन अपने रुकने वक़्त की एक झटके को लिए.. स्टेशन पे आ खड़ी थी। और फिर बाहर प्लेटफॉर्म से आती आवाज़े। चायवालों की चेय..चेय..करती भारतीय ट्रेन-यात्रा क़ी एक नॉस्टॅल्जिक फीलिंग। खिड़की से मैने भी अब कुछ झाँक कर देखने की कोशिश की.. मगर ये क्या..! पूरा का पूरा स्टेशन मानो गेरुवा रंग से नहाया हुआ। अचानक याद आया सावन महीना तो कल से ही स्टार्ट हो गया है। भागलपुर का सुल्तानगंज यही वो जगह है.. जहाँ से शिव भक्तिभाव में डूबे कांवरिया अपने कांवरो में इसी जगह से गंगा-जल लिए देवघर की ओर प्रस्थान करते हैं। पूरा स्टेशन औरतों बच्चे-बूढ़े जवानो से भरा हुआ था। उस सुबह दिखे उस दृश्य से आज भी शक्ति मिलती नज़र आती है। फिर कुछ देर बाद.. पौ फटते ही मैं भागलपुर जंकशन आ पहुंचा। वहाँ से मुझे भागलपुर इंजिनियरिंग कॉलेज में प्रॅक्टिकल वायवा लेने के लिए जाना था। स्टेशन के बाहर निकलते ही रिक्शा लिया.. और उसे छोटी खंजरपुर चलने को कहा। भागलपुर ने समय समय पे हमेशा ही मुझे एक वैचारिक जीवन देने का काम किया है.. और अब तो यहाँ के पुराने गवर्नमेंट इंजिनियरिंग कॉलेज से एक प्रोफेशनल जुड़ाव भी हो गया है। चलती रिक्शा से मैने अपने कैमरे से सुबह सुबह भागलपुर की कुछ तस्वीरों को भी लिया.. कुछ हद तक फोटोग्राफी भी आपके एकांत भ्रमण का एक अच्छा साथी होता है। मेरी फोटोग्रॅफिक ललक को देख उस रिक्शेवाले ने भी थोड़ा बहूत गाइड का ही काम किया.. और भागलपुर में भारतीय सिनेमा के नामचिन एक्टर अशोक कुमार-किशोर कुमार का घर भी दिखाया था। फिर छोटी खंजरपुर के गंगा घाट के पास उस रिक्शे-वाले को छोड़ा। पैसे देते वक़्त मैने उसका नाम पूछा.. तो उसने अपना नाम "जग-नारायण.." बताया। मेरे जेहन में ये नाम जैसे कौंध सी गयी। धीरे धीरे मैं बगल के गंगा घाट की ओर बढ़ने लगा तो जैसे मेरे उन बढते कदमों में "जग-नारायण.." नाम की प्रतिछाया भी साथ हो चली हो.. जिसे मैने पिछले कुछ महीनो में पुनर्जीवित करने का काम किया था।
छोटी खंजरपुर घाट के उस दर्शन में अब पहले वाली बात न थी.. लेकिन पुरानी वो शिव मंदिर आज भी थी.. उस जगह पे। गंगा नदी की धार उस घाट पे कम थी.. लेकिन मेरे लिए तो उस घाट पे पहुँचना ही अद्वितीय था। मानो सृष्टि के रचयिता " जग-नारायण.." भी मेरे साथ हो चले हों। इस शब्द के साथ एक जूड़ाव इसलिए भी की शायद फिर कभी मैं वापस ना जा पाऊँ.. उस "जग-नारायण" के पास जिसे मैं अपनी बक्सर की यात्रा में छोड़ आया था.. लेकिन उस पुनर्जन्म में मैने दो जीवनो को जीवित होते देखा था।
"जग-नारायण" को जानने के लिए पहले भोजपुर और शाहाबाद के उस तस्वीर को भी देखना होगा.. जो अपने दिव्य इतिहास के होने के बावजूद भी आज आधी अधूरी ही है। पटना और वाराणसी के मध्य का ये प्रदेश.. कई मामलों में अपने सीमावर्ती प्रदेशों में हो रहे डेवेलपमेंट की तुलना में वर्षों पीछे है। इस पूरे प्रदेश की विवशता ये है की जो थोड़े काबिल थे.. वे अब बाहर चले गये। जो रह गये वो या तो अपनो के गुलाम या जड़ सामाजिक परिदृश्य के मानसिक उत्पीड़न में गुम हो गये। आज भी यहाँ के शेक्सपियर " भिखारी ठाकुर" की चर्चित "बिदेशिया" काफ़ी कुछ यहाँ के भावामंडल में अपने शाब्दिक चरितार्थ को बनाए दिख जाती है.. और फिर जो अपनी मिट्टी में रह गये.. उन्हें "जग-नारायण" के मार्मिक चित्रण में जाना ही पड़ता है।
http://en.wikipedia.org/wiki/Bhikhari_Thakur
वर्षों गहन अध्ययन में रहने के बाद भी मानो उसकी प्रतिभा को ग्रहण लग गया था। IAS/IPS परीक्षाओं के असफल परिणामों के बाद हुई घोर निराशा ने ही उसे अपने गाँव आने को मजबूर किया था। मन-मुताबिक लक्ष्य हासिल न कर पाना भी तो खुद को काल-कोठरी में फेंकने जैसा ही होता है। फिर तो और... जब सब कुछ होते हुए भी.. आप के बनाए अपने.. जब आपसे दूरी बढ़ा लें। वो दर दर भटकने लगा था। एक गाँव.. से दूसरे गाँव। किसी द्वार पे जा पहुँचे तो लोग उसके पूर्वजों और परिचितों के नाम पे तरश खा.. कुछ खाने को दे दें। ऐसा ही कुछ हुआ था उस दिन भी.. जब वो मेरे बक्सर वाले इंजीनियरिंग कॉलेज आया था। बातचीत के बाद उसे नाश्ता करने कॉलेज कैंटीन भेज दिया गया। तब तक मैं अपनी सुबह की क्लास लेकर लौट रहा ही था की.. बीच रास्ते में उसे जाते हुए भी देखा था। उसे देख कोई भी कह देता की अपने जमाने में वो कोई Athelete या Basket-ball player रहा होगा। फिर कॉलेज के ऑफीस चैंबर में मुझे बुलाया गया.. उसके बारे में मैं जान कर... थोड़ा सकते में था। जीवन के इस साक्षात्कार में इतना सुखापन.. अपनो का रूखापन। वो कॉलेज कुछ काम माँगने आया था.. वो काम कर ही खाना चाहता था.. और इसलिए भी की उसके बौद्धिकता की कुछ तो पुष्टि हो सके। वो आज भी खुद को सिद्ध करने को लालायित था.. लेकिन बीते कुछ सालों का विषपान अबतक उसकी मानसिकता को जकड़े हुआ था। बहूत सारी बातों को जान.. मैने अपने चेयरमैन से फौरन कहा कि.. " सर, इसे रखा जा सकता है.." फिर मुझे कहा गया ".. तो फिर आपको इसका मेंटर बनना होगा।"
अपने अध्यापन और विषय शोधों से अलग ये एक सचमुच दुर्लभ शोध था.. मेरे लिए। उसे उस संस्थान में चल रहे १०+२ क्लास में English और GK/GS पढ़ाने का जिम्मा सौपा गया। धीरे धीरे उसके अभावग्रस्त अवस्था में सुधार आने लगा। उसकी ओर मेरे रुझान के कारण वो मुझसे ही हमेशा बात करना चाहता। मैं उसे बड़े ध्यान से सुनता.. और हमेशा उसे प्रोत्साहित और अपनी चुटकिले बातों से खूश रखने की कोशिश करता। उम्र में वो मुझसे काफ़ी बड़ा था... लेकिन खूशी के छींटों में जैसे वो अपने बचपने को जी उठा था। देल्ही के अपने अनुभव में वो Times of India news paper के लिए लिखता भी था। रणजी क्रिकेट खिलाड़ियों के साथ भी उसने खेल रखा था.. रमण लांबा का नाम हमेशा लिया करता। एक बार मेरे मोबाइल के पुराने फिल्मी गानो और ग़ज़लों को सुन एक दम से झूम ही उठा। फिर उसने भी कुछ गाने गाऐ। कुछ ही दिनो में मैने काफ़ी बदलाव देखा.. उसके पर्सनॅलिटी में... डिप्रेशन के दौर से वो अब उबर रहा था। मेरे बक्सर के दिनो तक.. मुझसे जीतना हो पाया.. मैने उसे उसके खोए जीवन को पाने में.. अपना धर्म समझ.. कुछ सकारात्मक कर्मों को कर पाया। मेरे आने के दिन.. वो काफ़ी उदास सा था। जीवन तो आगे बढ़ने का ही नाम है। उसी दौरान मैने अखबारो में पढ़ा था.. की आरा बिहार के प्रख्यात गणितज्ञ वशिष्ट नारायण सिंह को वर्षों बाद भूपेंद्र नारायण यूनिवर्सिटी मधेपुरा में विज़िटिंग फॅकल्टी के रूप में सम्मानित किया गया है।
http://theranveer.blogspot.in/2013/04/a-great-mathematician-dr-vashishtha.html
.......गंगा नदी के मंझधार में खड़ी एक नाव को देख मैं ठिठक पड़ा... अपने "जग-नारायण" की यादों से उभर लगा..लगा मानो उस मंझधार का मांझी कुछ सुखद संदेश दे रहा हो...
"नदियाँ चले, चले रे धारा, चंदा चले, चले रे तारा...
तुझ को चलना होगा, तुझ को चलना होगा...
जीवन कही भी ठहरता नहीं हैं
आँधी से, तूफां से डरता नहीं हैं
तू ना चलेगा तो चले तेरी राहें...
मंज़िल को तरसेगी तेरी निगाहें....
तुझ को चलना होगा....
पार हुआ वो रहा जो सफ़र में....
जो भी रुका, घिर गया वो भंवर में
नाव तो क्या, बह जाये किनारा....
बड़ी ही तेज समय की हैं धारा...
तुझ को चलना होगा.."
Vinayak Ranjan
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www.vipraprayag2.blogspot.in
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