Saturday, 14 June 2014

नीलगिरि..ऊटॅकमंडलम का दैविक दर्शन और रहस्यमयी छाता...

अपने रायसोनी इंजिनियरिंग कॉलेज नागपुर के कुछ सुहाने पलों में.. वर्ष २००१ जून की वो.. ऊटी यात्रा आज भी इस उमस भरे गर्मी के दिनों में कुछ पलों के लिए एक शीतल छाया दे जाती है। कॉलेज के अपने डिपार्टमेंट के दोस्तों के साथ नागपुर से हम चेन्नई होते हुए.. कोयंबटूर आ पहुँचे थे। फिर कोयंबटूर से एक मिनी बस रिज़र्व कर दो ढाई घंटे के सफर के बाद हम ऊटी की रमणीय मंत्र-मुग्ध कर देने वाली फ़िज़ाओं के बीच पहुँच सके थे। हमसभो में एक गजब का ही उत्साह उछालें खा रहा था.. और ये सबकुछ इसलिए भी कि कॉलेज के सारे दोस्तों दोस्तिनियों के साथ अपनी जगह से इतनी दूर ये हमारा पहला कॉलेज ट्रिप था। कोयंबटूर से दोपहर निकलते वक़्त ही भूख जोरों की लगी थी.. सो मैने आगे के लंबे सफ़र को देख कोयंबटूर रेलवे स्टेशन पे मिल रही.. फिश फ्राइ और राइस दोस्तों से छुपाकर पहले ही पैक करवा ली थी। कहतें हैं ना की.. "मन चंगा.. तो कठौती में गंगा.. और भूख भागे दरभंगा" तो सबसे पहले पेट पूजा का ख्याल भी तो बखूबी रखना ही पड़ता है। आज भी याद है.. कोयंबटूर से बस खुलने के बाद जैसे-जैसे हम नीलगिरि की ऊँचाइयों को बढ़ने लगे थे.. मेरे सारे दोस्तों को भूख भी बड़ी ज़ोर की लगने लगी थी.. और इन सभो के बीच बस की सबसे पीछे वाली सीट पे मैं अपने एक दोस्त सतीश अलासपुरकर के साथ.. फिश और राइस का आनंद ले रहे थे। ..फिर तो आज भी उस चलती बस में मिले उस फिश फ्राइ राईस के स्वाद का कोई जोड़ नहीं.. और फिर तब तो और.. जब भूख भी बड़ी ज़ोर की लगी हो। खाने पीने के मामले में एक बात तो तय है की.. फ़ुर्सत के सफ़र में.. लगने वाली भूख भी अपने चरम पे ही होती है.. तो जब जो चाहे उचित लगे अपने पास स्टोर करके रख लेने में ही बुद्धिमानी है। कहते हैं ना.. " जिंदगी का सफ़र.. है ये कैसा सफ़र... कोई समझा नही.. कोई जाना नही.." ...तो फिर कुछ समझने समझाने के लिए भी अग्रसोची तो बनना ही होगा। http://en.wikipedia.org/wiki/Ooty

नीलगिरि की यात्रा जारी थी... चलती बस की खिड़की से दिखती बाहर के विहंगम दृश्य.. तो सोच में आती बहूत सारी सवालें भी कि.. दक्षिण भारत में भी काफ़ी कुछ है देखने को.. और ख़ास कर पर्वतों और पहाड़ों के ऊपर बसे ऐसे लोकेशन्स। लगभग दो-तीन घंटे सफ़र के बाद हम ऊटी.. पुराना नाम उटकमंडलम सकुशल पहुँच पाए। जेहन में नीलगिरि की उन ख़तरनाक मोडों से होते बस के उस सफ़र के बाद हम खुद को थोड़ा खूश और राहत लेते देख पा रहे थे। फिर हमनें एक अच्छे होटेल की तलाश की.. और होटेल वुडलॅंड को खोज पाए। वहाँ पहुँच हम अपने सामानो को लिए.. अपने-अपने कमरों में जा गिरे। .. लेकिन हाँँ.. वो कमरे नहीं.. छोटे छोटे कॉटेज थे।
 
  पूरी ३६ घंटे वाली लंबी यात्रा की थकान के बाद हम सभो को उस सुहाने मौसम में जैसे कॉटेज पहुँचते ही नींद आने लगी।हम सब थक कर चूर थे और फिर बाहर बारिश की हल्की फुहारों ने भी मौसम को कुछ ज्यादा ही खूशमिज़ाज बना दिया था। कुछ देर आराम करने के बाद.. मैं जैसे ही बाहर निकला.. तो जैसे दिल ने कहा.. इतनी दूर आए हो सिर्फ कॉटेज में ही समय गुजारने! सचमुच अद्भुत सा था.. बाहर प्रकृति का वह नज़ारा.. चारोंं ओर पहाड़ों की ऊँची चोटियों से टकराते बादल.. और रह रह कर आती बारिश की फुहारों ने तो जैसे क्षण भर के लिए उस हरी भरी वादी को धरती का स्वर्ग ही बना दिया था। सचमुच एक दैविक विहंगम दृश्य ही था चारों ओर। बाहर के इन खुले नजारों को देख मैं तेजी से अपने कमरे की ओर गया.. और फिर चुपके से होटेल के बाहर खुली वादियों में निकल गया। बारिश की होती फुहारों की परवाह किए बगैर.. मैं तेज कदमों से नीचे वहाँ से दिखती दुकानो की तरफ बढ़ने लगा। सब कुछ ही नया सा था वहाँ.. फिर एक टेलिफोन बूथ से अपने घर बिहार फोन लगाकर.. घरवालों से बातें की। एक बगल की दुकान से वहीं की बनी लोकल कॅड्बेरी चॉकलेटों को भी खरीद खाया और वहाँ से पास के ही एक मार्केट एरिया की तरफ बढ गया। वहाँ पहुँच एक होटल में चिकन बिरयानी भी खाया। तब तक बाहर बारिश तेज हो चली थी.. और फिर मुझे अपने होटेल भी जल्दी ही पहुँचना था.. क्योंकि किसी को बिना बताऐ जो जा निकला था शहर की ओर। फिर ठीक उस होटल के बिल्कुल सामने एक एनटिक कलेक्सन वाली दुकान को देखा.. तब तो बाहर बारिश भी थोड़ी धीमी हो चली थी। खाने का बिल पेमेंट कर सामने वाली उस एनटिक कलेक्सन वाले दुकान को भी देखने जा पहुंचा। वहाँ देश और विदेशों की ढेर सारी एनटिक कलेक्सन्स की भरमार थी.. लेकिन तब तक तो मेरा दिल वहाँ लटके एक बेहद ही खूबसूरत छाते पे रम गया था। मन ही मन मैं खुद को थोड़ा टटोल भी रहा था.. की इसे खरीदूँ की नहीं। फिर वहाँ के बदलते मौसम को देख.. मैने जैसे मन बना ही लिया। थोड़ा मँहगा सा तो था वो छाता.. लेकिन था बड़ा ही प्यारा। फिर मैं उसे खरीद छतरी ताने बाहर आ निकला.. और हल्की बारिश की उन फुहारों में थोड़ा गुनगुनाता हुआ.. आगे अपने होटेल की ओर बढ़ने लगा। फिर जैसे ही मैं उस होटेल के मेन गेट पे पहुँचा.. तो तब तक बारिश भी जाती रही थी। फिर वहाँ उस वुडलैंड होटल के एक बहादुर गेट कीपर से थोड़ी उस जगह व उसके आस-पास की जगहों के बारे में पूछ ताछ किया। मुझे बिहार का जानकर वो गेट कीपर भी खूश हो गया क्योंकि वो भी दारज़ीलिंग का ही रहने वाला था। फिर उसने मेरे हाथों में उस छाते को देख झट से कहा.. " क्या साहब.. यहाँ भी छाता लिए ही घूमने आए हो क्या.. ?" मैं कुछ पल के लिए बिल्कुल ही ठिठक सा गया। उसकी कही बातों को हल्के में लेकर.. वापस अपने दोस्तों के पास अपने होटल वाले कॉटेज को आ पहुँचा। सारे दोस्त तब तक एक गहरी नींद लेकर जाग चुके थे। फिर हम सब साथ में चाय-कॉफी लेने के बाद उस होटेल से बाहर निकल पड़े। शाम को हमने बोन-फायर किया.. और दोस्तों के साथ खूब नाचे गाए। दूसरे दिन हमें ऊटी की खूबसूरत जगहों को देखने भी जाना था। मौसम के बदलते मिज़ाज को देखकर.. मैनें अपने बैग में छाते को भी रख लिया।


दूसरे दिन ऊटी भ्रमण को हम सब तैयार थे। दो तीन मिनी बस में हम ऊटी की साइट सीईंंग को निकल पड़े। इस क्रम में हम.. सबसे पहले दोदाबेटा पीक को देखने गये। दक्षिण भारत में मौजूद इस उँचे पर्वत शृंखला की उम्मीद तो मैने कभी नहीं की थी। सचमुच अद्वितीय ही था.. वहाँ से संपूर्ण प्रकृति का आकर्षण। फिर उस जगह को पहुंचते ही लगा.. कि जैसे कितनी सारी बॉलीवुड फिल्में बनी हो इस जगह पर। फिर हम वहाँ से नीलगिरि की चाय के बागानो को देखते हुए... ऊटी लेक आ पहुँचे। वहाँ हमने बोटिंग की.. फिर एक रेस्टरौंत में खाना खाकर हम.. शाम को वहाँ के बोटैनिकल गार्डेन आ पहुँचे। दिन भर बहुत ही मज़ा आया.. उस गार्डेन के हरे घाँसो को देख तो मैं वहीं लेट गया। दिन भर की थकान को थोड़ा कम करने। फिर वहाँ से निकल कर हम पास के मार्केट एरिया को  भी गये। मार्केट एरिया घूम ही रहे थे की तेज मूसलाधार बारिश अचानक से होने लगी.. तेजी से मैं अपने बैग में रखे छाते को निकालने की कोशिश की.. लेकिन ये क्या..  वो छाता तो बैग में था ही नहीं। फिर मैं तेज़ी से अपने मिनी बस की ओर भागा.. की कहीं बैग से निकल वो वहाँ सीट के नीचे तो नहीं गिर गया.. लेकिन वो वहाँ भी नहीं मिला। मन बड़ा ही अब मायूस सा हो गया था। मैं हल्के कदमों से बारीश में भींगते अपने दोस्तों की ओर उस मार्केट एरिया को बढ़ने लगा.. की तभी उस होटेल के गेटकीपर बहादुर की कही बात कौंध सी गयी.. " क्या साहब.. यहाँ भी छाता लिए ही घूमने आए हो क्या..?" मैं जैसे खुद पे ही हँस पड़ा और उस शाम ऊटी की होती उस मदमस्त बारिश में बिल्कुल ही डूब सा गया। फिर तो ये सबकुछ एक अद्भुत आनंद ही था.. एक जेनुइन नॉलेज.. कभी न खोने वाला।

 ऊँटी की सुहानी यादों को सजोए हम एक दिन Mysore रुकते हुए Bangalore आ पहुंचे.. और फिर एक दिन बाद हम सब नागपुर लौट आऐ। आज इतने दिन होने के बाद भी.. ऊटी के उस ट्रिप को नहीं भूला हूँ.. ना ही गुम हुए उस छाते को ही। जीवन में जैसे बहुत सारी ऐसी वजहों से आपका जुड़ाव भी तो उस छाते के समान ही है.. एक आवरण मिल जाए तो सुख ही सुख है.. नहीं तो अपना समझा हुआ एक दुख के समान। सच मानिए तो ऐसा कुछ भी नहीं है.. प्रकृति से मिली हर एक रसों को स्वछंदता से आपको लेना ही होगा.. नहीं तो भूल जायें उस रहस्यमयी छाते के समान।



- Vinayak Ranjan


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