Tuesday, 17 June 2014

हिच-हाइकिंग के अध्यात्मिक सफ़र में...



करीब साल भर पहले अपने बक्सर कार्यानुभव के दौरान प्रभात खबर समाचार पत्र के माध्यम से स्वामी विवेकानंद व राधानाथ स्वामी की जीवनियों पे आधारित संस्मरणों का विराट उल्लेख पढ़ने को मिला था। १९वीं सदी के मध्यान में जहाँ संपूर्ण विश्व ने स्वामी विवेकानंद की आध्यात्मिक चेतना यात्रा को देखा और सुना.. वहीं २०वीं सदी के मध्यान से लेकर अब तक राधानाथ स्वामी की परम भारतीय आध्यात्मिक तृष्णा ने उन्हें अमेरिका जैसे उन्नत देश से बाहर.. भारत में आकर ही संतुष्टि का बोध करवाया। जीवन की इन दोनो  ही यात्राओं में जो एक समानता दिखती है.. वो है एक संपूर्ण ज्ञान प्राप्ति को निरंतर क्रियाशील रहना। ऐसा ही कुछ गौतम बुद्ध से लेकर आज के महान तपस्वीयों ने भी किया। फिर जीवन की वो क्रियाशीलता भी कैसी.. जहाँ भटकाव ना हो। जीवन के इन वैचारिक संघर्षों और उत्पीड़न में तो बस एक दृढ़ इच्छा-शक्ति ही खुद अपना नेतृत्व करती नज़र आएगी.. और फिर इस अनोखे यात्रा को आप कई मुकम्मल मुकामों पे पहुँचते भी देखेंगे.. अपने अपने जीवन की " हिच-हाइकिंग" Hitchhiking के साथ.. या इसे " भिक्षाटन" ही कह लें। आज के इस भौतिकतावादी युग में "हिच-हाइकिंग" जैसा इंग्लीश शब्द ही आपके आध्यात्मिक खोज को नया version देता नज़र आऐगा। नहीं तो " भिक्षाटन" जैसे शब्द मानवीय "नर-नारायण" से ज़्यादा "दरिद्र-नारायण" रूप को ही परिलक्षित करते हैंं।
http://en.wikipedia.org/wiki/Hitchhiking

वर्षों पहले अपने चर्च वाले स्कूल के बगल वाले ऊँचे-ऊँचे सेमल पेड़ों पे लदे लाल-लाल फूल.. और फिर इन फूल-फलों से हवाओं में झड़ते.. एक-एक हल्के सफेद रूई समान कण... स्वचंद हवाओं में तैरते... बचपन में हम सब इसे पकरने की पुरजोर कोशिश भी किया करते.. तो हवा के झोंको में ये फिर पकड़ से कोसो दूर  निकल जाते... प्रकृति के इस अनोखे हिच-हाइकिंग को भी आप क्या कहेंगे..! जहाँ उन कणो के एक संपुष्ट वृहत भंडार के कोमल भावों को आधार बना कर हम जीवन प्रयंत.. स्वप्न निंद्रा में खोए रहतें हैं.. वहीं इसके एक एक कणो का स्वच्छंद विचरन इसके स्वरूप को उस विराट सेमल पेड़ की आभा से कोसों दूर लेता चला जाता है... एक ब्रम्‍ह-पुष्टि के लिए..।

सदियों वर्ष पहले कुछ साधु सन्यासियों फकिरों का दल.. अपनी जमात में विश्व-भ्रमण को निकला था.. दिन भर की भरी दुपहरी में जब सभो को प्यास लगी तो पास ही एक नीले रंग लिए एक दिव्य सरोवर दिखाई दी। उस अद्भुत सरोवर को देख.. सभो ने अपने कमर में लटकी मिट्टी के छोटे घड़े को ले उस सरोवर के पास गये। जी भर कर पानी पिया.. और फिर अपने अपने घड़ो में पानी भर अपने आगे की यात्रा को बढ़ते ही की... उस सरोवर का यक्ष निकल पड़ा.. और साधुओं से कहा.." इस सरोवर के जल का मूल्य कौन देगा..?" ये सुन सारे साधु सन्यासी अवाक थे.. की इस सरोवर में पानी की कोई कमी नहीं..फिर भी.. इस यक्ष को अपने मूल्यों की पड़ी है। फिर एक साधु ने कहा.." महाराज आपके सरोवर के जल की कीमत तो हमारे जीवन से जुड़ गयी है.. क्यों की अब तो इस सरोवर का जल..हमारे शरीरों में प्रवेश कर गया है.." ..ये सुन यक्ष ने कहा.. " फिर ये जो उन घड़ो में हैं.. उसका क्या..?" .. साधु ने जवाब दिया.." किंचित ये जल इन घड़ो  में हैं.. हम इन घड़ो से पानी दुबारा सरोवर में डाल भी दें तो आपका मूल्य आपको दे नहीं सकते.. आपकी मूल्य तो तभी दे पाएँगे.. जब प्राण-आहुति दी जाएगी...".. ऐसा कह सभो ने एक एक कर अपने जल से भरे घड़ो  को सरोवर में प्रवाह कर दिया। ये देख यक्ष ने कहा.." जल का मूल्य माँगा था.. घड़े क्यों दिए..।" साधु ने कहा.. "राजन.. इन घड़ो के अनेकों सूक्ष्म छिद्रों ने वर्षों से जिन जल-कणो को सिंचित रखा है.. वही आपका माँगा हुआ मूल्य है.. और फिर हमने जो जल ग्रहण किया है..तो हम सभो को मोक्ष भी यहीं लेना होगा.. ये हमारा इस मान-सरोवर के प्रति अर्पित.. जीवन-मूल्य है..।"



इन आध्यात्मिक संस्मरणो में जहाँ हिच-हाइकिंग की यात्रा नज़र आती है.. तो.. त्याग की अभिव्यक्ति भी..। हिच-हाइकिंग को बस जीवन के कुछ संस्मरणो से जोड़ देखना ही प्रयाप्त नहीं.. बल्कि आपके हर एक कर्मों में आपके परिवार, समाज, राज्य, देश की भागीदारी भी समाहृत है। आपके जीवन के हर एक मोडों पे किसी ना किसी रूप में मिले साथ और विश्वास भी.. इसे शक्ति देने का ही काम करती है। मेरे जीवन के अनुभवों में.. जिन अमूल्य अनुभवों से मेरा मन सृजित हुआ.. उनमें सर्व-प्रथम मेरे दादा-दादी के प्रकृतिपूर्ण उद्दात भाव से किए हुए कर्म, त्याग, लोकहित और धर्म के प्रति अटूट आस्था ही मेरे हिच-हाइकर बने नज़र आते हैं... जिन भावों के साथ मैने एक सामाजिक परिवार को बनते देखा। ..फिर तो स्कूली और कॉलेज दिनो के साथी भी.. जो आपके भावों को देखते और सराहते दिख जाते हैं।

नागपुर के अपने इंजिनियरिंग छात्र जीवन में.. अपने हॉस्टल के बगल में खड़े हो आनेवाली कॉलेज बस का इंतज़ार करना.. और अनायास रूप से किसी अंजान व्यक्ति से लिफ्ट या साथ मिल जाना भी तो हिच-हाइकिंग ही था।


..देखिए ना ये सबकुछ जीवन के ऐसे संस्मरण हैं कि आपको आपके प्रोफेशनल निर्माण के साथ साथ कितने ही सुनहरे स्तंभो के निर्माण होते दिख जाएँगे। फिर इस हिच-हाइकिंग को बल देने में उस प्रबुद्ध समाज और संस्कृति के योगदान को भी महसूस किया जा सकता है.. जो महाराष्ट्र जैसे अंजान जगह पे बिहार से गये एक भयमुक्त भाव को मिला था। ..फिर तो जैसेे इन्ही भयमुक्तत भावों को बल मिलने से ही आपकी क्रियात्मक प्रबुद्धता को भी बल मिलता है.. और आप पहचाने जाते हैं। वैश्विक सभ्यता, प्रबुद्धता या जातीय संघर्ष में इन भावों को तोड़ा मरोड़ा भी जाता रहा है.. तो फिर आपके अनुष््ठान में बूँद-बूँद मिलते समर्थन भी अनायास ही दिख जाते हैं। अपने इंजिनियरिंग कॉलेज के शिक्षण अनुभवों में पूर्णिया से किशनगंज रोजाना आते जाते वक़्त.. तो फिर किशनगंज पहुँच उस नये इंजिनियरिंग कॉलेज तक के सफ़र में.. मुझे कभी मोटर-साइकल वाले से सहयोग मिला.. तो कभी ट्रक-वाले से तो कभी किसी ठेलावाले से। ऐसे अनुभवों की गरिमा और मिलने वाले सहयोग भी तो धर्म और वर्ण से परे ही नजर आते हैं। बक्सर अनुभव में दानापुर रेलवे स्टेशन से लेकर उस गाँव वाले इंजिनियरिंग कॉलेज तक पहुँचने की प्रक्रिया भी तो असाधारण ही थी। याद है.. उस कॉलेज को जाय्न करने वाले दिन की यात्रा वृतांत को सुन कॉलेज के चेयरमॅन ने सहसा ही कह डाला था.. की जिन अनुभवों को लेकर यहाँ आने वालों के पैर पहले ही जकड़ जाते हैं.. उन अनुभवो को आपने अपने पहले यात्रा में ही जी लिया.. क्योंकि कॉलेज पहुँचने का वो एक उल्टा और दूभर रास्ता था.. और इन्ही उल्टे रास्तों पे जाकर ही आध्यात्म दिखता है.. और मेरी वो यात्रा भी वहाँ के सिद्ध ब्रम्‍हपूर शिव मंदिर के बगल होकर ही गुज़री थी।

इस यात्रा वृतांत में एक बार दानापुर स्टेशन पे ही मिले भोजपुर के ही एक रिटाइर्ड इंजिनियर श्री एस.बी. दूबे साहब, जो मेरे नागपुर के दिनो के यूनिवर्सिटी डीन श्री हेमंत ओंकार ठाकरे से पूर्व-परिचित थे.. उन्होने ज़मीन से जुड़ी मेरी वैचारिकता और रुदन को सून सहसा ही कह डाला.. की.. "आप भी.. इस सूखेपन को ही पाटने आयें हैं..फिर यहाँ मूल्य क्या मिलेगा..?" ... फिर मेरी समझ में बक्सर भी तो महर्षि विश्वामित्र का पुरातन व्याघ्रसर ही था। मेरे प्रयासो और हिच-हाइकिंग यात्रा का एक नया पड़ाव.. मेरा "मान-सरोवर"। फिर.. उनसे जो मैं कह पाया..की.. "सर.. कुछ सरोवरों को स्वच्छ कर आया हूँ.. काश ये पुण्य-कर्म जीवन-प्रयंत जारी ही रहे।"


-Vinayak Ranjan

www.vipraprayag1.blogspot.in
www.vipraprayag2.blogspot.in



No comments:

Post a Comment