Friday, 9 January 2015

एलियंस की खूशफ़हमी से ज़्यादा...

भारतीय गणतंत्र दिवस 2013 के शुभ-अवसर पे दिए गये अपने संतोषप्रद भाषण के बाद.. ज्यों पलटा तो मेरी नज़रें ठंड में ठिठुरते बगल के गाँव के उन नन्हें बच्चों पे जा टिकी.. जो उस दिन हमारे इंजिनियरिंग कॉलेज में आए थे। वे बड़े ही कौतुहुल भाव से टक-टकी लगाए बस उस नज़ारे को देखे ही जा रहे थे। उनके लिए सब-कुछ विचित्र ही था। दिवस के महत्व से ज़्यादा शायद खुद के प्रत्यक्ष प्रमाणों में कुछ खोए हुए से..। कॉलेज में उस दिन के समारोह में हम सब उनके लिए विचित्र थे तो उनकी भावुकता मेरे लिए.. मानो मुझे एक अजीबोगरीब ग्रह की ओर खींचे चली जा रही है। फिर समारोह समापन के उपरांत सभो को गरमागरम जलेबीयाँ दी गई.. और वे बड़े ही वृहत-भाव में फूले नहीं समा रहे थे। उन सभो के संस्थान परिसर से जाने के बाद... जैसी मेरी व्याकुलता भी उन सभी बच्चों के संग हो चली थी। वो हमारे ही जैसे  भारत माता के ही बच्चे थे.. हमारी आने वाली कल की धरोहर..। मन ही मन मैं अपने संस्थान के चेयरमॅन को धन्यवाद दे रहा था.. की अच्छा हुआ जो उन्होने मुझे एक दिन पूर्व पटना जाने से रोक दिया.. नहीं तो मैं उस क्षण को दोबारा नहीं जी पाता। फिर दिन के भोजन के बाद मैं अपने कमरे में आया और थोड़े विश्राम के मन से पलंग पे लेट सा गया..। कुछ ही पलों में लगा जैसे वे बच्चे मुझे निमंत्रण दे गये हों। उनकी स्थिति देख मैं गहन चिंतन में डूब सा गया था। उस दिन की ठंडी में भी कम कपड़ों से ठिठुरते उनके उत्साहित भाव ने ही मुझे झकझोड़ सा दिया था। फिर तो जैसे एक नये सफ़र को निकलना ही था। झट मैने अपने बॅग से अपना कॅमरा निकाला.. अपने एक लेक्चरर कलिग को साथ लिया और पास के ही गाँव को निकल पड़ा। शुक्र था की वो लेक्चरर भी मेरा छात्र रहा था.. इसलिए बेमौके मेरे निर्देशों पे भी उसे ज़रा भी अचरज नहीं हुआ.. और हम उस दोपहर को कुछ लुभावने फोटोग्राफी करते हुए आगे चले जा रहे थे। रास्ते में मिले कुछ नील-गायों के दृश्यों को कॅमरे में समेटे आगे बढ़े ही थे की.. कुछ बच्चे गाँव के बगल वाली एक सपाट मैदान पे क्रिकेट खेलते नज़र आ गये।
हम जैसे जैसे उनकी ओर बढ़ते जा रहे थे.. उन सभो का ध्यान भी हमारी ओर ही आकृष्ट हुआ जा रहा था। फिर मैदान की बाउंड्री पे ही हम जा बैठे की कहीं हमें देख उनके खेल में कुछ खलल ना पड़ जाए। फिर मैं बाउंड्री से ही "कंट्री-साइड क्रिकेट थीम " की कुछ रोचक तस्वीरें अपने कॅमरे से निकालता रहा। धीरे-धीरे कुछ बच्चे भी हमारी ओर आने लगे.. ये छोटे नन्हे बच्चे वही थे.. जो आज हमारे कॉलेज को आए थे। वो हमें देख मुस्कुरा रहे थे.. एक बच्चे ने भोजपुरी में कहा.. " ई ता कॅलिज के पोफेसर लागा तानी"। और फिर पास आकर मुझे और मेरी फोटोग्राफी को देखने लगे। मैं भी उन्हें अपनी ली गयी कुछ फोटोस को उस डिजिटल कॅमरे से दिखाने लगा। फिर तो धीरे-धीरे अच्छी ख़ासी भीड़ सी जमा हो गयी हमारे आस-पास। ढलती शाम और मॅच की समाप्ति के बाद सारे मैदान के लड़के हमारे आस-पास ही थे। बहूत दिनो बाद उस विश्मय भावुकता का एक विह्वल कर देने सा दृश्य उभरकर मेरे सामने था। उनके और हम-सभो के भिन्न कद-काठीयों में बस एक समानता थी.. वो था एक प्यारा सा मन.. जो उस जीवन को भी साकार था। उन सभो के हंसते हुए चेहरों से निकलते भावों की रूप-रेखा अन्यतम सी थी। फिर मैने सभो से पूछा- " आप लोगो को पता है.. की आप जिस प्रदेश में रहते हो वो क्यों प्रसिद्ध है ?" उनके भाव शून्य से थे। फिर एक लड़के ने कहा -" हाँ, बक्सर का युद्ध हुआ था यहाँ..।" फिर मैने कहा-" भगवान राम-लक्ष्मण को जानते हो..? रामायण की कहानियाँ पढ़ी है। ये वही जगह जगह है जहाँ राम-लक्ष्मण महर्षि विश्वामित्र के आश्रम में पढ़ाई करते थे.. और ये सदियों से बड़ा ही अलौकिक प्रदेश रहा है। "... इतना कहते  ही मैने सभो में एक दिव्य-अंकुरण को देखा। फिर उनके पढ़ाई-लिखाई से जुड़ी बातों का कुछ ज़िक्र किया। इतने में एक लड़के ने पूछा.. "ई कॉलेज में ITI के पढ़ाई होता है क्या? हमरा दुगो चाचा यही पढ़ाई कर के दुबई में नौकरी कर र्रहे हैं।" ...और बात भी सही है.. इस भू-भाग के सैंकड़ों लोग अर्थाभाव में  ITI जैसी प्राथमिक  तकनीकी शिक्षा को हासिल कर बहूत कम उम्र में मोटी रकम कमाई के लिए खाड़ी देशों का रुख़ कर लेते हैं..और स्नातक स्तर की वैचारिकता और शिक्षण का बोध नहीं कर पाते। फिर मैने उन्हें इंजिनियरिंग के विषय और महत्व के बारे में बताया। इतने में देखा गाँव के कुछ युवक हाथों में मोबाइल लिए.. भोजपुरी गानो की धुन के साथ हमारी ओर घूरते चले आ रहे हैं। इतने में वहाँ जमा बच्चे उनके मोबाइल की धुन की ओर चल परे... और फिर मैं भी वहाँ से अपने कॉलेज की ओर निकल पड़ा।

शायद वो पहला मौका थे जब हम कॉलेज से अगल-बगल की हरी वादियों में पहली बार निकले थे। उस बार याद है.. मकर-संक्रांति के बाद मैं दो-तीन हफ्ते बाद ही पटना को आया था। ..लेकिन गाँव के बच्चों के साथ बिताए कुछ पलों ने मुझे बाहर की प्रकृति के साथ खोल कर रख दिया था। मानसिक क्लेश को कुछ कम होता भी देख पा रहा था.. और हो भी क्यों ना.. जब जीवन में आपकी अभिव्यक्ति को कम ही मौके मिलते हों.. उसके अंतरिम दर्पण में समाने को। फिर हम उस दिन की तरह हर रोज़ कॉलेज के चारो ओर किसी न किसी दिशा में निकल पड़ते.. और खोज लाते जीवन की उस समृद्ध संजीवनी को जो आज भी हमारे जैविक-विन्यास को सहेजे हुएँ हैं। उसी दौरान एक दिन शाम के वक़्त कानो में भक्ति-रस में गूंजते कुछ बोल सुनने को मिले। कॉलेज के चारो ओर छायी हरियाली से वो आवाज़ कुछ रिस-रिस का कानो में समा जाती.. और मैं खुद में मग्न हो जाता। फिर पता चला दूर गाँव में एक नये मंदिर में देवी-देवताओं की मूर्तियों की प्राण-प्रतिष्ठा स्थापन कार्य चल रहा है। ये सुनने के बाद मैं मन ही मन वहाँ जाने को आतुर हो उठा था। जैसे उस दृश्य-वींणा में मुझे खो जाना सा था। लेकिन सुबह होते ही कॉलेज की दिन-चर्या में मन थोड़ा बँट सा जाता और फिर शाम होते होते वो भाव भी थोड़े मद्धिम से हो जाते। मैं अंदर ही अंदर रुक सा गया था। फिर एक दिन अगली सुबह...

करीब सुबह के साढ़े तीन बज रहे होंगे.. मगर चारो ओर छायी घने कोहरे के अंधेरे में वो रात ही थी। पल भर के लिए नींद टूटी ही होगी की वो  मंदिर से आती ढोल मंज़ीरों की आवाज़ कानो में समा सी गयी। आँखें बंद किए उस ठंडी रात में फिर से सो जाने की कोशिश की.. पर सो ना पाया। शायद उस ओर जाने की बेचैनी बढ़ती ही जा रही थी.. लेकिन उस रात के अंधेरे में वहाँ जा पाना भी दूभर ही था। फिर करीब चार बजे मैने कॉलेज के लाइब्रेरियन श्री पाठक जी को फोन लगा अपनी इच्छा बताई और उन्हें साथ चलने को राज़ी कर लिया। आधे घंटे बाद हम उस आती आवाज़ के सीध में थे... सीध इतना की मेन रोड होते हुए भी हम उस कोहरे भरी रात में सन्नाटे को चीरते हुए खेते-खेत एक शॉर्ट-कट रास्ते पे थे। गर्म कपड़ों के साथ माथे में वूलेन टोपी, वर्षों पहले मेरे दादाजी की दी हुई लाल-ईमली चादर लपेटे और एक हाथ में चाइनीस टॉर्च और पुलिसिया हंटर लिए मैं उस सफ़र में अति-उन्मादित था। उस वीरान खेतो, बगीचो और छोटे जंगलों को पारकर हम धीरे-धीरे आगे बढ़ते ही जा रहे थे की... दूर से आग की लपते उठती नज़र आई.. पास आया तो देखा उस घने अंधेरे में कोहरे की चादर ओढ़े..   कुछ लोग बगीचे के बगल आग ताप रहे हैं। वो पहरा दे रहे थे.. अपने फसलों की..। पास आने पे उन्होने टॉर्च दिखाया और हमें रास्ता भी..। मगर वे आख़िर किस नव-ग्रह की  रक्षा में लगे थे.. पूरी रात उस वियावान जंगलों और खेतों के बीच..। और मैं भी अपने अनुभवों को टॉर्च दिखाता उन मेडों पे सजगता के साथ आगे बढ़ रहा था। आख़िर २० मिनिट पैदल चलने के बाद हम गाँव में प्रवेश कर ही गये.. आगे बढ़ने पे गाँव की कुछ महिलाओं व बच्चों को उस पगडंडी के दोनो ओर बैठा पाया। पाठक जी के निर्देश पे मैं अपनी सीध में नाक दबाए चला जा रहा था और दोनो ओर बैठी महिलायें अपनी नज़र बचाती जा रहीं थी। फिर गाँव के मध्य आके हम थोड़े पासचिं की ओर मंदिर की ओर चलने लगे। गाँव की कुछ महिलाओं को अपने परिवार के साथ माथे पे कलश लेकर भक्ति-भाव में डूब लोक-गीतों के साथ उसी रास्ते मंदिर की ओर जाते देखा और फिर हम उनका अनुसरण करने लगे..।

पौ फटते ही उषा-काल में हम उस नव-निर्मित मंदिर के सम्मुख थे। फिर थोड़ी देर मंदिर के परिसर को भ्रमण कर हम दुबारा गाँव की ओर ही रुख़ कर लिए। गाँव का नाम अरियांव था। मंदिर आते वक़्त ही मैने ये निश्चित कर लिया था की थोड़ी देर ही सही कुछ पल इस गाँव में ज़रूर बिताऊँगा। गाँव के पुराने मकानो में भी तो एक भव्य स्थापत्य नज़र आता है.. और वास्तव में इसी स्थापत्य ने ही भारत की भीतरी नीव को बचाए रखा भी है। पाठक जी के जान-पहचान वाले कुछ लोगो से मिलकर हम उस गाँव की एक लाइब्ररी जा पहुँचे। इस लाइब्ररी का नाम भी "विद्या-दान" ही था, जिसकी स्थापना वर्षों पहले मेरे कॉलेज के चेयरमॅन ने की थी। हमें आदर-पूर्वक बिठाया गया.. सुबह-सुबह चाय की चुस्की के साथ उस लाइब्ररी के संग्रह को देख मैं विस्मित था। अध्यात्म और इतिहास के किताबों के साथ बांग्ला, हिन्दी और रसीयन साहित्य की किताबों को देख मैं अचरज में था.. और ख़ास कर इसलिए भी की वो मुझे उस गाँव में मिली थी। इन किताबो की मौजूदगी ही उस गाँव की प्राचीन भव्यता के पुख़्ता सबूत थे.. और वहीं मुझे पहली बार परमहंस योगानंद की "ऑटोबाइयोग्रफी ऑफ योगी " मिली थी। फिर उस गाँव से निकलते समय दिखे सुंदर नाक्काशी की हुई तीन-मजिली लकड़ी का घर..। कुछ पलों के लिए लगा इस स्थापत्य में कश्मीर के भाव दिख रहे हों..। लेकिन उचित रख-रखाव के कारण वो भी दम तोड़ रही थी। लौटते वक़्त बस मैं यही सोच रहा था की अगर मैं इस ओर रुख़ नहीं करता तो शायद इस नवग्रह की आभाओं से कोसों दूर ही रहता..।

 अभी अभी फिल्म "पीके" देखने को मिली। किसी नये ग्रह से आए एक एलीयन को भारतीय सरजमीन पे एक शोध-स्वरूप के रूप में। फिल्म ने कारोबार भी बहूत किया।उत्कृष्ट अभिनय और संवाद अदायगी भी कुशल निर्देशन के साथ बेहतरीन थी। मनोरंजन जी भर कर मिला। लेकिन क्या भारतीय उम्मीदों का बस ऐसे मनोरंजक फिल्मों से ही मरहम होता रहेगा। आप एक पात्र के माध्यम से दो देशों की भावनाओ को जोड़ने का तो प्रयत्न बड़ी मुस्तैदी से करते नज़र आते हैं लेकिन देश की छाती कहे जाने वाले प्रदेशों के खोखलेपन की पीड़ा को नहीं देख पाते। भोजपुर जैसे कितने ही प्राचीन भू-भागों में आज भी लोग बस मनोरंजन की पट्टी लगाते ही नज़र आते हैं। ज़रूरत है.. आपकी संवेदन श्रोतों का.. जो एक एलीयन बनके ही सही.. ज़मीनी हक़ीकतों से रूबरू तो हों।

Vinayak Ranjan



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