Sunday, 16 September 2018

संवेदनाओं के सफर में..

संवेदनाओं के सफर में..
 
  माथे पे खिंची मखमली सिलवटों व हाथों पे उभरती धमनियों की रंगरेजी कमानों से निकली नक्काशी.. उम्र के इस पड़ाव पे तो आँखों के साथ काँपते बढते कदम भी माथे का जोर कम कर जाते हैं। जीवन चक्र के अंतिम पन्ने एक एक कर जैसे ये बताने को काफी हैं कि कितने मुस्तैदी से इन्होंने शब्द श्रृंखलाओं को अपने अनुभवों में वर्षों कसे रखा। आज शाम आटो में बैठने के क्रम में एक ऐसे ही वृद्ध मन को पास पाया। उम्र अस्सी पार की होगी.. चेहरे पे वक्त की कारुण्यता.. पर जैसे लड़खड़ाते कदमों में आज भी कुछ मंजीलें तय कर लेने की जद्दोजहद। आटो की पीछे की चार सीटों पे तीन महिलाऐं अपनी रोजमर्रा की समानों को खरीद बैठी हुई। आराम के तौर पर उन भरी सीटों पे चौथी सीट को तलाशना आम न था.. और तो और जब बेपरवाह निगाहें एक जगह देने को भी राजी नहीं। समय देख मै ड्राईवर की बगल वाली सीट से उतर उस वृद्ध बाबा की हाथ पकड़ी और बैठी महिलाओं को समझाया कि सीटें तो चार जनों की है ना और उन वृद्ध हाथों को सहारा दे अंदर बैठने में उनकी मदद की। अंदर बैठी मान्य महिलाओं को तो एक पल साफ लगा होगा कि कहीं मै इनके साथ तो नहीं.. उन सभों के झल्लाऐ मिजाज से तो कुछ ऐसा ही लग रहा था। चलती आटो में बाबा ने एक जगह कुछ अचरज भरी नजरों से गाड़ी रोकने को कहा.. जैसे उनके गंतव्य स्थान को लेकर उनकी बूढी आँखें कुछ धोखा खा रही हों। फिर एक गली के पास इशारा कर वो उतर तो गए.. लेकिन पास जेब में रखे १०-२० के नोटों की पहचान में ही खुद उलझ कर रह गए.. जैसे मंद पड़ी आँखों ने बाजारु रौशनियों में एक बार फिर धोखा देना शुरू किया हो। मैने फिर पहल की और बाबा को कहा कि.. अब आप रहने दिजिऐ ५ रुपए मैं आटो वाले को दे दूंगा। अब मैं इत्मिनान सा था.. बूढे बाबा भी दूर जाते रहे.. अपनी अनुभवों को थोड़ा इजाफा किऐ अब मैं अपने गंतव्य को उतरने को था ही कि एक झल्लाया स्वर पीछे की सीटों से जो आया कि " बिना पूछे ऐसे लोगों को क्यों बिठा लेते हो.. खाम खा समय जायर करवा दिया।"

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भागलपुर: अंगदेश से अंकोरवाट..

भागलपुर: अंगदेश से अंकोरवाट..

    मैं #भागलपुर बोल रहा हूं। आपका अपना शहर भागलपुर। गंगा मैया के दक्षिणी किनारे पर तकरीबन पिछले तीन हजार साल से मेरा अस्तित्व कायम है। लिहाजा आप यह कह सकते हैं कि आपका शहर दुनिया के सबसे पुराने शहरों में से एक है। एक ऐसा शहर जिसके जलवे समय-सागर के थपेड़ों से वक्त बेवक्त बेरौनक जरूर हुए पर मिटे नहीं। महलों की रंगीनियां, शासकों की शौर्यगाथाएं और विद्वानों का तेज हमेशा मेरे हिस्से में रहा, पर मेरी असली पहचान हमेशा एक व्यावसायिक और सांस्कृतिक केंद्र के रूप में रही।

वस्त्रों में सबसे अनुपम #रेशम के उत्पादन के लिये मेरा नाम चांदो सौदागर के जमाने से पूरी दुनिया में फैला है और उसी के साथ फैली है #विक्रमशिला विश्वविद्यालय की ख्याति, #कर्ण की दानवीरता की कहानियां, जदार्लू आम और कतरनी चावल की खुशबू, जैन तीर्थंकर वासुपूज्य की ख्याति, महर्षि मेहीं का अध्यात्म और ऐसी ही सैकड़ों चीजें। हजारों साल का बूढ़ा मैं भागलपुर आज अपनी कहानी लेकर आपके सामने हाजिर हूं।

पुण्य देश के राजा थे #भागदत्त, जिन्होंने मुझे अपना नाम दिया. पहले मुझे भागदत्तपुर पुकारा जाता था। बाद में लोगों के लाड-प्यार से बिगड़कर यह भागलपुर हो गया। पहले मेरा अस्तित्व एक उपनगर के रूप में था जो अंगदेश की राजधानी चंपा से सटा था। समय का फेर देखिये अब चंपा ही उपनगर बनकर चंपानगर हो गयी है और मैं भागलपुर ही नगर का मुख्यकेंद्र बन चुका हूं। चंपा का नाम अंग राज चंप के नाम पर उनके पिता ने रखा था, पहले उस नगरी का नाम मालिनी था। फूल से दो नामों वाले उस शहर की भी क्या रौनक थी। जहां राजा बलि के सबसे बड़े पुत्र अंग का राज्य चलता था, जिन्हें पृथ्वीपति की उपाधि मिली थी, उसी वंश में आगे चलकर चित्ररथ नामक न्यायप्रिय सम्राट हुए जिनके राज्य में लक्ष्मी और सरस्वती अपनी श्रेष्ठता का फैसला कराने पहुंची थीं।

राजा रोमपाद जो अयोध्या के राजा दशरथ के समकालीन थे और उनका एक नाम भी दशरथ ही था। अयोध्या नरेश दशरथ की पुत्री शांता रोमपाद के ही महल में उनकी दत्तक पुत्री के रूप में रहती थीं, जिनका विवाह श्रृंगी ऋषि के साथ हुआ और उसी श्रृंगी ऋषि द्वारा कराये गये अनुष्ठान से दशरथ को राम जैसे पुत्र मिले। राजा कर्ण की वीरता और दानशीलता की कहानी जगजाहिर है। वे इसी चंपा शहर में वास करते थे, उनका महल कर्णगढ़ कहलाता था। जहां आजकल पुलिस प्रशिक्षण अकादमी संचालित हो रही है। उनका विवाह भागदत्त की एक पुत्री से हुआ था, जबकि दूसरी पुत्री का विवाह उनके मित्र दुर्योधन से हुआ था।

फिर इस शहर पर जगतप्रसिद्ध चांदो सौदागर का राज हुआ,  जिसकी बहू बिहुला ने अपने तप से अपने मृत पति और पांच जेठों को फिर से जिलाने में सफलता प्राप्त की और मनसा पूजा की शुरुआत की। अविश्वसनीय सी लगने वाली ये तमाम कहानियां पुराण के पन्नों में दर्ज हैं और यह भी कि #कंबोडिया कभी भागलपुर का सांस्कृतिक उपनिवेश हुआ करता था और वहां का #अंकोरवाट मंदिर वस्तुत: अंगकोरवाट मंदिर है. हालांकि इस तथ्य से देश के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू भी सहमत नजर आते हैं और राष्ट्र कवि दिनकर ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक संस्कृति के चार अध्याय में भी इस तथ्य का उल्लेख किया है।

बहरहाल इसके बाद की ऐतिहासिक कथा भी कम गौरवशाली नहीं। खास तौर पर पाल राजाओं का जमाना, जब मेरे शहर के पड़ोस में एक गांव अंतीचक में एक अंतरराष्ट्रीय विश्वविद्यालय खुला, जिसे विक्रमशिला महाविहार का नाम दिया गया। उस तंत्र शिक्षण केंद्र में दुनिया भर से छात्र आते थे। इसी विश्वविद्यालय का कमाल था कि मेरे इलाके से आर्यभट्ट और अतिश दीपंकर जैसे विद्वान पैदा हुए। आर्यभट्ट की कीर्ति तो दुनिया जानती ही है पर सबौर वासी अतिश दीपंकर का योगदान भी कम नहीं है, जिन्होंने तिब्बत में बौद्ध धर्म का प्रचार-प्रसार किया और लामा संप्रदाय की शुरुआत की। बहरहाल काल के कपाल में चंपा, मालिनी, कर्णगढ़ तो समा ही गये और विक्रमशिला महाविहार भी जमींदोज हो गया और उसके साथ ही मिटने लगी यहां पैदा हुई तंत्र साधना व सिद्ध और नाथ संप्रदाय की परंपराएं। पहले अंग देश मगध का हिस्सा बना फिर बंगाल का. बंगाल से पाल और सेन वंश मिटे और तुर्क-अफगानों और मुगलों का शासन हुआ। फिर अंग देश से राज्य और राज्य से क्षेत्र बनकर रह गया। सम्राट मिटे, राजा आये और राजा मिटे तो शासक और फिर महज जमींदार। मगर इसके बावजूद इस क्षेत्र की महत्ता कभी कम नहीं हुई। यह उसी दौर की बात है जब शहर का केंद्र चंपानगर और नाथनगर से हटकर भागलपुर में मेरे आगोश में समाने लगा था।

पाल वंश के बाद सेन वंश के राजाओं ने बंगाल पर शासन करना शुरू किया, मगर उसका एक राजा लक्ष्मण सेन इतना कायर निकला कि वह मोहम्मद गोरी को आता देख गद्दी छोड़ भाग खड़ा हुआ। इस तरह बंग के अधीन अंग के इलाकों तुर्क-अफगानों और फिर मुगलों का आधिपत्य कायम हुआ। इसके बाद मेरे इलाकों में रोशन खयाल और कला प्रेमी मुसलमानों की आबादी ने ठिकाना बनाना शुरू किया। मेरे इन बाशिंदों ने पूरे शहर में जगह-जगह इमारतें, मसजिदें और मकबरे खड़े किये जो आज भी मेरी धरोहरों की श्रृंखला में चार चांद लगाते हैं. उनकी हुनरमंदी इमारतों के कंगूरों से उतर कर रेशम के डिजाइनों तक में जा पहुंची। इसकी जौहर का नमूना था कि लोग मुझे सिल्क सिटी या रेशम नगरी कह कर पुकारने लगे हैं। फिर शायरी के तरानों का क्या कहना कि बीड़ी बनाने वाला एक मजदूर कौस भी अपने शेरों से मीर और मोमिन को टक्कर देता रहा। वैसे तो मोहम्मद गोरी के आगमन से लेकर मीर कासिम के पतन तक इस शहर पर मुसलमानों की ही हुकूमत चली पर कई दौर ऐसे आये जब यह दिल्ली की सल्तनत से आजाद अस्तित्व बनाने में सफल रही। यही वजह है कि दिल्ली सल्तनत की राजनीतिक उठा पटक में मात खाने वाले कई शहजादे गुप्त रूप से भागलपुर में अपना ठिकाना बनाकर रहने लगे। शहर के लोग कई गुमनाम मकबरों के बारे में बताते हैं कि फलां मुहम्मद शाह का मकबरा है तो फलां अहमद शाह का। इसके अलावा कई पीर-फकीरों ने भी मुझे अपना आशियाना बनाये. इनमें से कइयों के मजार आज भी कायम हैं।

कई लोगों का यह भी मानना है कि मेरा नाम भागलपुर इसलिये पड़ा क्योंकि यहां दूसरे इलाकों से भागकर आये लोगों ने अपना ठिकाना बनाया है। यह भाग कर आये लोगों की नगरी है इसलिये भागलपुर है। पता नहीं भागदत्त वाली कथा सही है या यह, मगर इस बात में सच्चाई जरूर है कि मेरे शहर के आगोश में कई दूर दराज के वाशिंदों ने पनाह ली है। चाहे वह सरयूपारी ब्राह्मण हों या बंग भाषी या दरभंगा-मधुबनी के मैथिल या राजस्थान से पहुंचे माड़वाड़ी समुदाय के लोग। पता नहीं मेरी आबोहवा में क्या आकर्षण था कि इन सारे लोगों ने रहने के लिये मुझे ही चुना। मगर मेरे मिजाज को तय करने में इन लोगों का बड़ा योगदान है, खास तौर पर बंग भाषियों का जिन्होंने इस शहर के लोगों को कविता-कहानी लिखने और जात्रा-नाटक करने का चस्का लगाया। मेरे शहर में बसे मुहल्ले आदमपुर की गलियों में मशहूर कथाकार को #देवदास उपन्यास की कथा मिली तो टील्हा कोठी के एकांत में #गीतांजलि की कड़ियों ने आकार लिया। यह उन्हीं लोगों की रोशन खयाली का नतीजा था कि इस शहर की एक बेटी कादंबिनी गांगुली को ग्रेजुएट होने वाली देश की पहली महिला बनने का सौभाग्य हासिल हुआ और अशोक कुमार और किशोर कुमार जैसे जमींदार खानदान के नवासे फिल्मी दुनिया के सतरंगी परदे पर अपनी हुकूमत कायम करने में कामयाब रहे। प्रीतीश नंदी ने साहित्य और मनोरंजन की दुनिया को एक नई पहचान दी।

इसी आजाद ख्याली का नतीजा था कि यह शहर अंग्रेजी हुकूमत की खिलाफत में भी अगुआ साबित हुआ। पहाड़िया विद्रोही तिलकामांझी ने जब विद्रोह की लौ सुलगाई थी तब दुनिया अंग्रेजी जुल्म की हकीकत का आंकलन भी नहीं कर पाये थे। गांधी जी के सत्याग्रह के मौके पर शहर में आंदोलनकारियों का हुजूम उमड़ता था। 1934 में जब मुंगेर में भीषण भूकंप आया और जबरदस्त तबाही मची तो इन्हीं सेनानियों ने बाना बदला और रिलीफ के काम में जुट गये। भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान कई जगह प्रदर्शन हुए और प्रदर्शनकारियों ने अंग्रेजी फौज की गोलियों का सामना बहादुरी के साथ किया। देश आजाद हुआ तो नेहरूजी प्रधानमंत्री बने. इसके बाद वे जब पहली बार भागलपुर आये तो लोगों ने सैंडिस कंपाउंड में चांदी कुर्सी उन्हें बैठने के लिये दी। मगर उस जननायक ने चांदी की कुर्सी यह कहते हुए फेंक दी कि जनता जमीन पर और नेता सिंहासन पर यह नहीं चलेगा।

आजादी की लड़ाई में इस शहर ने जितनी कुर्बानियां दीं आजादी के बाद उसका हासिल हमारे हिस्से में बहुत कम आया। शहर धीरे-धीरे ढहता रहा और लोगों में निराशा बढ़ती रही। उस निराशा का विस्फोट तब हुआ जब जेपी ने संपूर्ण क्रांति का नारा दिया। एक बार फिर मैं व्यवस्था की तानाशाही के खिलाफ लड़ने वालों का केंद्र बन गया। भागलपुर जेल में ही उस दौरान इमरजेंसी की खिलाफत करने वाले बंदियों को रखा गया था और जेल की चाहरदीवारी के अंदर से विरोध के स्वर फूटते रहे। कुछ ही सालों बाद शहर में ऐसी वारदातें हुईं जो आज भी मेरे चरित्र पर बदनुमा दाग बनकर कायम है। अपराध नियंत्रण में नाकामयाब होकर पुलिस कर्मियों ने 33 युवकों की आंखों में तेजाब डाल दिया। खुद फैसला करने की इस पुलिसिया मनोवृत्ति ने एक गलत काम के कारण पूरी दुनिया में मुझे चर्चा का केंद्र बना दिया। दस साल बाद फिर पुलिसिया करतूत के कारण शहर की फिजा बिगड़ी और हजारों लोग सांप्रदायिक हिंसा की बलि चढ़ गये। पहली घटना ने तो शहर के चरित्र का हनन किया था दूसरी ने शहर की आबोहवा में जहर घोल दिया। इस कारोबारी शहर के कारोबारी रिश्ते तक गड़बड़ाने लगे। खैर यह बुनकर-व्यवसायी का ही रिश्ता था कि शहर के अमन-चैन को पटरी पर आ गया।

खैर उसके बाद से शहर का अमन-चैन बरकरार है। लोग जात-धर्म के बदले कारोबार की बातें करते हैं। सन 2001 में विक्रमशिला सेतु बना तो उत्तर बिहार के कई जिले भागलपुर के संपर्क में आ गये। इसके बाद यहां के कारोबार ने तो जैसे उड़ान पकड़ लिया। डल चादर के लिये मशहूर यह शहर तो पहले डल स्वभाव का था अब महानगरों की तेज रफ्तार जिंदगी से कदम मिलाने की कोशिश कर रहा है। धड़ाधड़ अपार्टमेंट बन रहे हैं, शोरूम खुल रहे हैं। लक्ज़री कारों से शहर की सड़कें अटी रहती हैं. लड़के-लड़कियां बाहों में बाहें डाले ऐसे घूमते हैं जैसे कि हम दिल्ली-कोलकाता आ गये हों। रेस्तरां की सीटें फुल रहती हैं, बच्चे फटाफटा अंग्रेजी बोलते हैं और जवान होते-होते किसी कंपनी के बड़े अधिकारी बन जाते हैं। इसके बावजूद शहर के शोर में अंगिका की खनक कायम है। बिहुला विषहरी के बोल अब भी गूंजते हैं, गंगा घाटों पर अब भी स्नानार्थियों का मेला लगता है। कतरनी की खुशबू और जरदालू आम की गमक अब भी सैलानियों को मेरे पास खींच लाती है। मैं आज भी आपका ही शहर हूं, वही भागलपुर।

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विवशता..

विवशता...

ऐ दिल ऐ नादान
चल आ तुझे आज
दुनियाँ दिखा दूं..

बगैर रोटी के
खाली थाली
एक चम्मच दिखा दूं..
चल आ तुझे एक
नई दुनियाँ दिखा दूं..

सजे बाजार में
बिकतें हैं सबकुछ
सिमटे कोने में
एक रुपसी दिखा दूं..

यहाँ झाँकता है
हर एक मंजर
लिए हाथ अपने
खिलौना ऐ खंजर
नहीं वक्त इतना
देखे खुद का बवंडर

ऐ दिल ऐ नादान
कुछ और दिखा दूं..
भूखे जमीनों पे
समंदर दिखा दूं..

मचता है शोर इतना
वो कमजोर जितना
नहीं जानता है कि
भागे कहाँ से
निकल के अपने
आईने से
है कैद जितना
है कद का जितना
एक ओझल धुंआ सा..

बस इतना ही अपना
सूरज चंदा है जितना
पहाड़ी के पीछे।

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पुनर्जन्म..

पुनर्जन्म..

फिर मैं भी कुछ..
यूँ ही चलते चलते...
दूर निकलता जाता हूँ

हिमखंडों का पिघल कर
नदियों की मीठी धार लिए..
 खारे स्वर-सागर में उतरा जाता हूँ

 कैलाश.. जन-सेवक
 नगर-सेवक बन...
बरबस स्वरूप बदलता जाता है

फिर वो भी क्या..
अपने अखंड को जी पाता..
वो भी तो बस बहता जाता है

कैलाश..
आस्था ये कैसी..
बस उसे ही नृप घोषित किए जाता हूँ
आधार-स्तंभ को स्थिर किए..
जीवन राग सुनाता हूँ

नृप-दोषों में बँटा देश..
फिर भी नित नये नृप बनाता हूँ

नृप हूँ..
नृप चाह लिए..
नृप-नाद में बसता जाता हूँ..

स्पर्धा..
प्रति-स्पर्धा का दौर यहाँ पर..
हर कोई तो बह चलता है..
तेज़ वेग वायु संग अपने..
खारे समुद्र जो उतरता है

मैं ठहरा हिम-शक्त लिए..
स्थीर आधार जो जीता हूँ..
फिर भी धँसना है..
मौन मुझे..
हिमखण्डो का वो तेज लिए..
हिमखण्डो का वो तेज लिए।

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Friday, 14 September 2018

एक नायाब बरसाती टेस्ट.. रेनकोट..

देवदास के बाद भागलपुर से निकलती एक नायाब बरसाती टेस्ट.. रेनकोट।
..कहीं मैं एक फिल्म समीक्षक तो नहीं ..लेकिन हाँ.. भारतीय परिदृश्यों में घुले कुछ ऐसे कथामृतों को भरसक जीने की कोशिश जरुर करता हूँ। ऐसी ही अनूठे कोशिशों से बनी एक फिल्म रेनकोट भी थी.. जिसे वर्षों पहले देख चूका हूँ.. और फिर बरसात आते मुझ जैसे मनुवादी को एक बार कुरेद जरुर जाती है ..और खासकर इसलिए भी कि ये भागलपुर की कथानक पृष्ठभूमि लिए कलकत्ते की खामोश सी बंद एक चहारदिवारी में जा बसती है। मैं भी बस इसका ही इंतज़ार करता.. बाहर बरसाती मौसम झमाझम.. और हाथ में गरमागरम प्याज की कचरी.. उत्कृष्ट अभिनय मनभावन निर्देशन.. सच झूठ की लुकाछिपी और दुर जाता प्रेम। #Raincoat



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पूर्णियाँ का युरोपियन कनेक्शन और फोर्ब्स साहब की पुरानी फोर्ड बस..


पूर्णियाँ का युरोपियन कनेक्शन और फोर्ब्स साहब की पुरानी फोर्ड बस..
#पुणियाँ के युरोपियन ज़मीन्दारों और वाशिंदों में दो नाम प्रमुख हैं- एलेक्ज़ेन्डर जाॅन फोर्ब्स और पामर। रानी इन्द्रावती की ज़मीन्दारी की पतनावस्था में, पामर ने श्रीपुर, कुमारीपुर, कटिहार और फ़तेहपुर सिंघिया का लगभग 25 प्रतिशत अंश खरीदा था। पामर की एकमात्र बेटी, मिसेज डाउनिंग, उसकी उत्तराधिकारिणी हुई। मिसेज डाउनिंग के दो वारिस हुए - उसका बेटा सी. वाइ. डाउनिंग और बेटी मिसेज़ हेज़। कटिहार के निकट ‘मनशाही कोठी’ में इनका मुख्यालय था। आज हेज़ साहब का भव्य आवास, पुणियाँ काॅलेज के मुख्य भवन के रूप में पहचाना जाता है।
1859 ई0 में मुर्शिदाबाद के महाजन बाबू प्रताप सिंह से सुल्तानपुर परगना खरीद कर एलेक्ज़ेन्डर जाॅन फोर्ब्स ज़मीन्दार बना और उसी के नाम पर सुल्तानपुर परगने में फोर्ब्सगंज (फारबीसगंज) नामक शहर बसाया गया। एलेक्ज़ेन्डर जाॅन फोर्ब्स के बाद उसका बेटा आर्थर फोर्ब्स सुल्तानपुर परगने का ज़मीन्दार हुआ लेकिन कलकत्ते में अधिक रहने की वजह से वह अपनी ज़मीन्दारी के प्रति लापरवाह था। उसके मैनेजरों के अत्याचार ने आम जनता में आर्थर की छवि खराब कर दी थी। 1938 ई में आर्थर फोर्ब्स की मृत्यु हुई। आज फोर्ब्स साहब के आवासीय स्थान में पूर्णियाँ गर्ल्स हाई स्कूल का भवन खड़ा है। मेरा इस जगह से काफी पुराना नाता है.. एक तो मेरी माँ ने इसी स्कूल से अपनी हाई स्कूलिंग की और फिर इसी स्कूल में पढाया और यहीं से रिटायर्ड भी हुई। बचपन में इसी प्रांगण को लांघ कर हम अपने डॉन बोस्को वाले स्कूल भी जाते थे जो कभी विलियम टेरी का आवास था और गर्ल्स स्कूल वाला हिस्सा फोर्ब्स साहब का था। नील की खेती के समय स्कूल के इस परिसर में नील का स्टॉक रखा जाता था और गरीब किसानों पे ढाये कितने ही जुल्मों सितम यहाँ जमींदोज हैं।
पुणियाँ में नील की खेती सबसे पहले जाॅन केली ने शुरु की। बाद में कई यूरोपियनों ने यहाँ जोर शोर से नील की खेती की। इनमें शिलिंगफ़ोर्ड-वंश सबसे अग्रणी था जिन्होंने नीलगंज, महेन्द्रपुर, भवबाड़ा इत्यादि छःस्थानों में नील की फ़ैक्ट्रियाँ {नीलहा कोठी} स्थापित की। ‘जो’ और ‘जाॅर्ज’ शिलिंगफ़ोर्ड प्रख्यात शिकारी हुये। ‘जो’ शिलिंगफ़ोर्ड के हाथों मारा गया एक विशाल गेंडा कलकत्ते के संग्रहालय में आज भी मौजूद है। पुणियाँ में इस परिवार का भव्य आवास ‘मरंगा हाउस’ के नाम से विख्यात था। इस वंश के ए0 जे0 शिलिंगफ़ोर्ड के वारिस टेरी विलियम्स के आवास में वर्तमान डाॅन बाॅस्को स्कूल प्रांगण है। इस के अलावा चाल्र्स शिलिंगफ़ोर्ड और अमेलिया मारिया शिलिंगफ़ोर्ड का नाम प्रमुख रूप से जाना जाता है। #Purnea #AlexanderJohnForbes #Ford Bus

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आध्यात्मिक योग श्रृंखलाओं की छाँव में..

आध्यात्मिक योग श्रृंखलाओं की छाँव में..
२०१२-१३ में बक्सर इंजीनियरिंग कॉलेज के वन प्रांगण में रहकर ही भारतीय अध्यात्म की एक विशिष्ट कंदराओं में भ्रमण का अवसर मिल पाया। जहाँ पुरातन सभ्य समाजों के क्षत्रिय जड़ पुरुषों के निर्देशन पे अभिनीत होने की संतुष्टि मिली तो फिर मेरे ज्ञान व शोधपूर्ण अभ्युदय को भी जीवन आधार मिलता चला गया। बांग्ला पृष्ठभूमि से जुड़े इन महान आत्माओं को भारतीय दर्शन के अनेकानेक रुपों में विचरते देख पाया। सर्वप्रथम इन समादेष्टाओं से मेरा साक्षात्कार परमहंस योगानन्द की पुस्तक "आटोबायोग्राफी आफ योगी" के माध्यम से ही सृजित हो पाया। फिर पटना प्रवास में एक भूमिहार वर्गीय वृद्ध सज्जन की पुष्टि वृतांतों में भी इन्हीं महात्माओं की एक सुसज्जित श्रृंखला स्थापित मिली तो कल फिर पूर्णियाँ आवास पे एक वैश्य वर्गीय अधिवक्ता को भी दृश्य सहित इन्हीं योगपूरुषों की वकालत करते देख पाया। इन भावों व इन संस्मरणों से जुड़ी गुत्थियों में खुद को पिरोते देख पाना एक आश्चर्य से कम नहीं.. फिर कहीं मैं इस श्रृंखला का एक नया ध्वज वाहक तो नहीं। 🚩🚩🚩
#भारतीय #अध्यात्म व #योग..
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अश्‍वघोष : निष्‍ठा के साथ बदल दीं धर्म की परिभाषाएं..

अश्‍वघोष : निष्‍ठा के साथ बदल दीं धर्म की परिभाषाएं..
वह धर्म के शीर्ष तक पहुंचा, फिर खरीद कर दास बनाया गया। लेकिन उसने अपनी श्रेष्‍ठता प्रमाणित करते हुए सत्‍ता के शीर्ष पद को सम्‍भाला। अपने ही मालिक का महामंत्री बन गया। इतना ही नहीं, उसने बाकायदा अपने ही राजा को दीक्षित किया और धर्म के प्रचार-प्रसार का वह अभियान शुरू करा दिया जो इसके पहले इतिहास में कहीं नहीं दिखायी देता है। उसने चीन से लेकर पर्शिया तक सत्‍ता और धर्म के झण्‍डे गाड़े। भारतीय ज्ञान और उसके सिद्धांतों का पूरी दुनिया में लोहा मनवा दिया। इतना ही नहीं, अपने धर्म की इतनी बड़ी संसद का आयोजन करा दिया कि लोगों ने दांतों तले ऊंगलियां दबा लीं।
उसने व्‍यापार के तब के प्रमुखतम मार्ग पर धर्म-पुरूष की विशालकाय प्रतिमाएं स्‍थापित करवा दीं ताकि उधर से गुजरने वाले काफिलों के माध्‍यम से प्रचार-प्रसार किसी युद्ध की तरह संचालित किया जा सके। यही वजह है कि आज भारत में बौद्ध धर्म भले ही सिमट कर रह गया हो, लेकिन पूरब के अनेक देशों में यह लगभग राष्‍ट्रीय धर्म के तौर पर पूजित है।
करीब दो हजार साल पहले हुई इस बेमिसाल घटना पर बात शुरू करनी हो तो हमें बामियान की ओर रूख करना होगा। वजह यह कि अभी करीब दस बरस पहले अफगानिस्‍तान के हिंदू-कुश पर्वत से सटा यह पहाड़ी इलाका सदियों तक ओझल रहने के बाद अचानक ही दुनिया भर में दया का पात्र बन गया जो पहले भारतीय संस्‍कृति से अभिन्‍न रूप से जुड़े गांधार क्षेत्र का हिस्‍सा रहा था। क्रूर और अमानवीय तालिबानी गिरोहों ने सम्‍यता पर कलंक लगाते हुए करीब दो सदी पहले यहां की एक पहाड़ी को खोदकर बनायी गयी भगवान बुद्ध की विशालकाय प्रतिमाओं को तोपों और डाइनामाइट से उड़ा दिया था। हालांकि इसके बावजूद वहां से वे बुद्ध का समूल नाश नहीं कर सके और प्रतिमा के टूटे टुकड़े को जोड़कर उसे फिर से बनाने की रणनीतियां चल रही हैं। जर्मनी के म्यूनिख़ विश्वविद्यालय के प्रोफ़ेसर एरविन एम्मर्लिंग इस काम में लगे हैं। गौरतलब है कि चार साल पहले यहां बुद्ध की एक 35 फीट की एक प्रतिमा खोजी गयी है जो सोई हुई अवस्‍था में है लेकिन अब तक वह दुनिया से ओझल ही रही। यानी बामियान में बुद्ध का वैभव फिर लौटने ही वाला है।
लेकिन इन सबकी शुरुआत का श्रेय जिसे जाता है उसका नाम बौद्ध गाथाओं में अब कम ही लिया जाता है। नाम है अश्‍वघोष। कुषाणनरेश कनिष्‍क ने छह करोड़ रुपयों में भगवान बुद्ध के भिषापात्र और पा‍टलिपुत्र के महाअमात्‍य और महास्‍थविर अश्‍वघोष को मुआवजे के तौर पर तब हासिल किया था जब उसने भर्तृहरिवंश के मगध शासकों को हराया और अपने साथ पेशावर ले गया। क्षमामूर्ति अश्‍वघोष ने तनिक भी प्रतिवाद नहीं किया और बंदी की तरह उसके साथ चले गये। इतना ही नहीं, वे इसे अपनी निजी पराजय मानने के बजाय धर्म के उत्‍थान में जुटे रहे। उन्‍होंने क्रूर और आततायी हूण और कुषाणों को सभ्‍य बनाने की हरचंद सफल कोशिशें कीं। अयोध्‍या के ब्राह्मण खानदान में जन्‍मे और बौद्ध धर्म के महानतम विद्धान अश्‍वघोष के जन्‍म पर इतिहास ने खूब धूल फेंकी। लेकिन इतना तय है कि उनकी माता का नाम सुर्णाक्षी था।
उन्‍होंने बौद्धसमाज को एक अनोखी दिशा दी। पहला बौद्ध कवि होने का भी सम्‍मान उनके खाते में है। कनिष्‍क उनकी विद्धता का सम्‍मान करता था। उसने उन्‍हें अपना राजगुरू और महामंत्री तक बना दिया। अश्‍वघोष ने ही उसे बौद्धधर्म में दीक्षित किया और उसे ज्ञान-सेवक बना डाला। साथ ही सौंदरनंद और बुद्धचरित नामक दो अमर व महान काव्‍यग्रंथ लिख दिये। कई नाटक, उपनिषद और सूत्रालंकार जैसे ग्रंथों की भी रचना की। दुनिया भर से सैकड़ों बौद्धविद्वानों को बुलाकर इतिहास की चौथी बौद्धसंगीति भी करायी। महावादी दर्शन के प्रणेता कहे जाने वाले अश्‍वघोष की अध्‍यक्षता में सम्‍पन्‍न इस बौद्ध महासम्‍मेलन में बौद्ध त्रिपिटकों पर जो परिभाषाएं और टीकाएं लिखीं गयीं, उनका सानी बाद के इतिहास में कहीं नहीं रहा। पहाड़ काट कर बामियान में बुद्ध की विशाल प्रतिमाएं बनाने का काम भी शुरू कराया, जो गांधार-कला का अप्रतिम उदाहरण बनीं। यानी कनिष्‍क का डंका पूरी दुनिया में बज उठा। हालांकि बाद में कनिष्‍क पराजित हो गया और अश्‍वघोष के साथ भगवान बुद्ध का भिक्षापात्र भी वापस मगध आ गया
अश्‍वघोष ने बौद्धों को कविता से जोड़कर उन्‍हें और भी ज्‍यादा मानवीय बनाया। बेहिसाब ग्रंथों को रचा। लेकिन उनके चार ग्रंथ ही अब मौजूद हैं। जिनमें बुद्धचरित, सौंदरनंद, गंडीस्‍तोत्रगाथा और शारिकपुत्रप्रकरण हैं। लेकिन हैरत की बात है कि बुद्धचरित का चीनी और तिब्‍बती भाषा में तो अनुवाद तो पूरे 28 खंडों में मौजूद है, लेकिन जिस मूल संस्‍कृत में इसकी रचना हुई, उसके केवल 10 खंड ही उपलब्‍ध हैं। 

अश्‍वघोष ने सौंदरनंद में सिद्धार्थ के बेहद कामी प्रवृत्ति वाले भाई को बौद्धसंघ में दीक्षित करने का आकर्षक वर्णन किया है। अश्‍वघोष की लोकप्रियता का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि उनकी रचनाओं का चीनी अनुवाद पांचवीं शताब्‍दी में हुआ। जाहिर है कि तब तक ये रचनाएं भारतीय जनमानस में खूब रचबस चुकी रही होंगीं।

पहली सदी के संस्कृत भाषा के प्रथम सम्रग्य अश्वघोष का चौथी सदी के महाकवि कालिदास पर जबर्दस्‍त प्रभाव दीखता है। कुमार संभव और रघुवंश में कालिदास ने शिवपार्वती को देखने के लिए कैलास की युवतियों के उत्‍सुक हुजूम और अज-इंदुमती को देखने विदर्भ की ललनाओं के मनोभावों को जिस तरह व्‍यक्‍त किया है, अश्‍वघोष ने सिद्धार्थ को देखने उमड़ी कपिलवस्‍तु की युवतियों के आवेग को भी उसी भाव में समेटा था। उनके लेखन में अपरिमित काव्‍यक्षमता है, लेकिन इसका उपयोग उन्‍होंने केवल अपने धर्म के प्रति लोगों में रागात्‍मक लगाव के लिए ही किया। यह उनमें संगीत के प्रति जुड़ाव का प्रतीक भी है, जो तब बौद्धदर्शन से सर्वथा प्रतिकूल भी था। खास बात यह है कि अश्‍वघोष गौतम बुद्ध के प्रति अगाध श्रद्धा रखते हैं, मगर दूसरे धर्मों व आस्‍थाओं के प्रति पर्याप्‍त सम्‍मान भी उनमें है। कनिष्‍क के सिक्‍कों पर महादेव और शिव-नंदी की आकृतियां उकेरे जाने में इसके प्रमाण की कोई आवश्‍यकता नहीं। कनिष्‍क की कैद में भी अश्‍वघोष ने बौद्ध दर्शन का प्राणप्रण से प्रचार किया और उसकी पराजय के बाद मगध की राजधानी लौटने पर भी वे बौद्धदर्शन पर ही काम करते रहे। किसी तरह का अवसाद शेष नहीं रहा। पा‍टलिपुत्र में उन्‍होंने अगले 49 वर्षों तक अपनी तपस्‍या को जारी रखा और सन 150 ईस्‍वी में बौद्धत्‍व में विलीन हो गये।

स्वामी विवेकानंद.. मेरे जीवन स्तंभ..

स्वामी विवेकानंद.. मेरे जीवन स्तंभ..। 

जीवन वृत्तियाँ स्वरूप लेने लगी थी..। बचपन के दिनों में.. हम सब छुट्टियों में कुछ दिनों के लिए ननिहाल चले जाते..। पूर्णियाँ के बगल में कटिहार जिले का एक गाँव बिजैली..। कटिहार से तो अक्सर हम बैलगाङी.. टप्पर गाङी में ही लगभग २०-२२ किमी का रास्ता तय करते..। कभी माँ के चेहरे की खुशी को देखता.. तो कभी दुर तक फैले ग्राम्य-जीवन की हरी और मुस्कुराती चादर..। बंगाल से सटे इस भू-भाग में लौटते ही कुछ दिव्य ज्ञात होने लगता..। धुलों से भरे पथरीले रास्ते.. और जगह-जगह दिखते.. मंदिर और मचान्..। ..कंधों में हलों को उठाए ..अपने खेतों की ओर जाते बैलों की जोङी लिए किसान दिख जाते.. तो कुछ गेरुए कपङों में हाथों में सतरंगी की तान लिए साधु-सन्यासी भी दिख जाते.. तो ढोल लेकर थिरकते बाउल नर्तकों की टोली भी..। मिल जाते रोड के दोनों ओर सूखते पटुओं का प्राकृतिक सुहानापन.. व गाय-बैलों के गले लगी बंधी घंटियों के टन्-टन् की आध्यात्मिक धुन..। गाँव पहुंचते ही.. चहल-पहल चालु। कभी ये टोली तो कभी वो टोली.. कभी बंसभिट्टी के पीछे वाली पोखरी..। दोनों हाथों से मुरकी खाते मौसी माँ के बङे दरवाजे पे आते.. दुर्गा-स्थान से सटा.. एक पुराना डाक-घर.. अंग्रेजों के समय का.. बिल्कुल ही खाकीमय..। एक पुराने व काफी बङे टेबुल पे रखे.. डाकघर के रजिस्टर, पोस्ट-कार्ड, इनलैंड व बङे-बङे मोहर वाले स्टाम्प.. तो कमरे का एक कोना किरासन तेल से जलने वाले लैंप, लालटेन व पेट्रोमैक्स का..। डाकघर के ठीक बीचो-बीच एक सीध में.. तीन बङी सी तस्वीर..। आज इतने दिन बाद भी जैसे.. वो सब जेहन में कौंध ही जाता है..। शायद इन्हीं दर्शनों से ही दुर-सुदूरों में.. आज भी ईश्वर विराजमान हैं.. अध्यात्म जीवित है.. निष्ठा समर्पित है। महायोगी परमहंस, स्वामी विवेकानंद व माँ शारदा.. का वो विहंगम स्वरुप मानो सदा के लिए.. जीवन-अंगित हो गया.. एक दिव्य-स्तंभ की तरह..।

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विरुद्ध..



विरुद्ध..
माह के अंत में आयोजित हर मीटिंग में वो भड़क सा जाता। प्रोफेसरों के खाते अब शिक्षण तंत्र कहाँ था.. कुछ नियामकों पे या तो युनिवर्सिटी की घिसी घिसाई रूपरेखा या फिर इंस्टिट्यूट्सनल आला कमानों के रोज बदलते फरमान। अफसरशाही अब अपना आईना बदलते आफिसशाही में तब्दील। शिक्षा भी क्या कभी व्यापार बन सकता है.. कशीदे पढने वालों की चांदी थी.. नोट गिनते मुंशी की नींद आधी थी। नए ब्राडिंग हर रोज नए रोजगार टेंडर पे लाऐ जाते.. बच्चे भी हँसते खेलते खुद को भुलाते घर को जाते। क्लास रुम अब पेटिएम पे थी.. आओ तो ठीक.. ना आओ तो डिजीटल रशीद काट दी जाती । ईयर का ईस्टर.. सेमेस्टर ट्राईमेस्टर बन बैठा था.. सब्जेक्टी कनसेप्ट के बदले टर टर ज्यादा तो.. दिमागी जाम अब एग्जामों का प्यादा था.. जो पढने पढाने वाले क्लासरूम अब बस अपने नंबर से पहचाने जाते। क्लासेस कहाँ थी.. सब कुछ तो डिजि अॉन लाईन थी.. टिचींग की डेकलाईन थी। अब तो विरूद्ध ही विशुद्ध बनता जाता.. शिक्षक और शिक्षण परिदृश्यों का मुखातिब सिर्फ वैकल्पिक गैप फिलींग के दृश्यांतरों में क्रुद्ध अवरुद्ध कराहें भरता और वो भड़क सा जाता। #शिक्षक 
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एक कैद कवि का उपहार..

एक कैद कवि का उपहार..
बहुत पुरानी बात है। बंगाल के नवद्वीप के राजा नवल सेन थे। नवल सेन बड़े ही कुशल प्रशासकों में एक थे और प्रशासकिय कार्यों के साथ साहित्य व संगीत प्रेमी थे। देश के विभिन्न हिस्सों के कलाकारों, कवियों व साहित्य कारों की सिर्फ़ यही एक मंशा हुआ करती कि जीवन में कम से कम एक बार राजा नवल सेन के दरबार में उनके कलाओं के प्रदर्शन का अवसर मिल पाऐ।
राजा नवल सेन की पुत्री थी इकलौती उज्जवला.. जिनका विवाह उन्होंने बगल विष्णुपुर देश के राजकुमार उत्त्मेंद्र से संपन्न करवायी.. ये जानते हुए भी कि उस देश में विद्रोह कभी भी संभव है.. और बेटी दामाद को गंभीर परिणाम भुगतने पर सकते हैं। विवाह के बाद सौगात के तौर पे साजो सामान के साथ.. अपने दरबार के एक युवा कवि गायक कुशलवीर्य को भी सौगात के तौर पे साथ भेजा गया। समय बीते विष्णुपुर में सबकुछ सही चल रहा था। राजकुमारी उज्जवला खुशी खुशी अपने ससुराल देश में रह रही.. नई जिंदगी को हँसते खेलते देख रही थी। राजा उत्त्मेंद्र भी शासन की बागडोर बड़ी मुस्तैदी से संभाले हुए थे और साथ गए कवि कुशलवीर्य भी दुसरे दरबारियों के आँखों की किरकिरी बने बड़ी ठाठ बाट में राजसी सुख भोग रहे थे.. आखिर वो सौगाती जो थे।
कुछ महिनों बाद एक दिन विष्णुपुर में एक बड़े महोत्सव का आयोजन किया गया। देश विदेश के राजा महाराजाओं के साथ कवियों गायकों साहित्यकारों को बुलाया गया। फिर रात्रि भोज उपरांत कवियों साहित्यकारों की प्रस्तुति आयोजित की गई। सभी प्रतियोगियों ने अपने अपने विधाओं को सफलतापूर्वक प्रस्तुत किया और फिर अंत में बारी सौगाती कुशलवीर्य की थी। सबकी नजरें उस पे टिकी थी.. आखिर वो राजा उत्त्मेंद्र के खाशमखाश जो थे। फिर कवि कुशलवीर्य अपनी जगह से उठे और आँखे बंद किऐ कविता पाठ करने लगे.. उनके स्वर से कुत्ते की रोने की आवाज तो कभी भौंकने की आवाज आने लगी। ये कुछ लंबा चलता देख.. अन्य देश के राजा अपनी तौहीन समझ सभा से गुस्साते निकलने लगे.. तो राजदरबारी नजरें छुपाते ठहाके भरने लगे। इन आपत्तियों को देख राजा उत्तमेंद्र ने कुशलवीर्य को बंदी बनाने का आदेश दे दिया.. आऐ सभी मेहमानों से माफी माँगी और सभा को विसर्जित किया। राजकुमारी उज्ज्वला भी इस वाक्ऐ से हैरान थी.. राजा के अपमान को भी समझ पाती तो अपने पिता द्वारा साथ भेजे गए कुशलवीर्य की कुशलता की कामना करती। फिर कुछ दिनों बाद रानी उज्ज्वला का राजा को समझाने मनाने के बाद कुशलवीर्य को बंदी से बरी तो किया गया लेकीन राजमहल में रहने की इजाजत से मना कर दिया गया।
राजा नवल सेन ने भी अपने देश में उसके प्रवेश को रोक दिया। अब कुशलवीर्य बेहताशा हालातों में विष्णुपुर के चौक चौराहों पे नजर आता। अंधेरी रातों में किसी के भीख दान पे अपना गुजारा करता.. कुछ लोग उससे मिलने भी आते.. कुछ उसकी सुनते कुछ अपनी सुनाते.. साथ लेते भी जाते।
फिर एक दिन रानी उज्ज्वला की भव्य सवारी सुबह सुबह चौक पास से गुजरी। गजगामिनी उज्ज्वला कुशलवीर्य को दीनहीन कातर सा सोया देख ठिठक सी पड़ी। सवारी से उतर कुशलवीर्य के पास जा पहुंची.. वो अपने लंबे मटमैले से बढे बालों दाढियों में गुम सा हो गया था.. फटे कपड़ों में उसने जमीन से नजर जो मिलायी तो उज्ज्वला को देख हँस पड़ा.. फिर एक बेरंग से लिपटे मटमैले कपड़े को रानी उज्ज्वला की ओर बढाया और कहा कि ये अपने पिता को दे देना। रानी मना न कर सकी.. और उस लिपटे कपड़े के साथ राजमहल आने पे जो उस कपड़े में लिखा मिला.. शीर्षक था.. "एक विद्रोह जो टल गया.."।

एक अटल महाकाव्य का मौन आभार...

एक अटल महाकाव्य का मौन आभार...
एक विशाल जन सैलाब की स्वीकारोक्ति अनूभुत को मैं मचल उठा था.. घर पे सख्त मनाहीं के बावजूद अपनी रैंजर साईकिल लिए पूर्णियाँ के रंगभूमि मैदान की ओर निकल गया। संभवतः ये बात करीब स्कूली दिनों से निकल पूर्णियाँ कॉलेज के दिनों की होगी। उस दिन पूर्णियाँ की सड़कें खचाखच भरी सी हुई थी। घर से करीब दो तीन मिनटों में ही थाना चौक आ पहुंचा था। लेकीन रैली में आई बड़ी बड़ी गाड़ियों.. पुलिसिया नाकेबंदी व जनाक्रोश ने अब जैसे आगे बढने की जद्दोजहद पे ब्रेक लगाना स्टार्ट कर दिया था.. कि तभी लाउड स्पिकर से निकलती एक सुसंस्कृत आवाज की दृश्यवीणा में थम सा गया। चौक से आगे बढ रंगभूमि मैदान की ओर जाने वाली सड़क के दोनों ओर ठहरे विशाल पेड़ों की ओट में रुक सा गया और उस ध्वनि स्पष्टता के संबोधन के मध्य मिलते क्रमशः क्रमश मौन विरामों की भाषाई भाव-उद्बोधनो में खोता चला गया। क्या किसी राजनेता के भाव भी एक कवित्व स्वरुप मिलेंगे.. घर लौटते वक्त बरबस ऐसे विश्मयों से खुद को घिरा पाया। ये बोल अटल बिहारी वाजपेयी के थे.. मानों उनके संबोधनों में रिस रिस कर निकलते शब्द.. पिकासो के ब्रश स्ट्रोकों से ठहर रंग निकलें हों और फिर एक वृहत जनसैलाबी कैन्वास पे सटीक स्केच उकेरने में वक्त तो लगता है.. क्षण क्षण एक मौन विराम की तरह। अटल जी एक विशेष शैली के प्रणेता थे.. हिन्दी भाषाई सबलता के एक शिखरपुरुष.. एक मेरुदण्ड।



मेरे आत्म-अनुकरणों में भी.. चाहे वो नाट्य रूपांतरण हों या क्लास रुम टिचींग.. उनके कवित्त या भाषण विद्वता की विशेष शैली के ज्ञानपूर्ण आभार से खुद को अछूता नहीं पाता हूँ.. क्षण भर ठिठक पड़ता हूँ ये जानकर की शब्द रंग रोगन के इन भावों में मैं वाजपेयी शैली का नया वर्जन तो नहीं।
दिवंगत राजनेता प्रधानमंत्री कवि जनशक्तिपुंज भारत-रत्न हृदय-सम्राट मनुवादी अटल बिहारी वाजपेयी जी को अश्रुपूरित श्रद्धांजलि 🗿🗿
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"..फिर मैं भी कुछ
यूँ ही चलते चलते...
दूर निकलता जाता हूँ..
हिमखंडों का पिघल कर..
नदियों की मीठी धार लिए..
खारे स्वर-सागर में उतरा जाता हूँ।
कैलाश.. जन-सेवक
नगर-सेवक बन...
बरबस स्वरूप बदलता जाता है..
फिर वो भी क्या..
अपने अखंड को जी पाता...
वो भी तो बस बहता जाता है।
कैलाश.. आस्था ये कैसी..
बस उसे ही नृप घोषित किए जाता हूँ..
आधार-स्तंभ को स्थिर किए..
जीवन राग सुनाता हूँ।
नृप-दोषों में बँटा देश..
फिर भी नित नये नृप बनाता हूँ..
नृप हूँ.. नृप चाह लिए..
नृप-नाद में बसता जाता हूँ..।
स्पर्धा...
प्रति-स्पर्धा का दौर यहाँ पर..
हर कोई तो बह चलता है..
तेज़ वेग वायु संग अपने..
खारे समुद्र जो उतरता है।
मैं ठहरा हिम-शक्त लिए...
स्थीर आधार जो जीता हूँ..
फिर भी धँसना है.. मौन मुझे..
हिमखण्डो का वो तेज लिए...
हिमखण्डो का वो तेज लिए...। "
- विप्र प्रयाग
भारत वर्ष ने आज एक जीवंत महाकाव्य सपूत खोया है.. अटल बिहारी वाजपेयी अमर रहें.. 
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..आओ एक फिल्म बनाऐं

...आओ एक फिल्म बनाऐं ..कहीं दूर नहीँ ..यहीं कुछ पास में ..अपने गाँव से थोङी दूर ..उस आम बगीचे के पीछे पुरानी तालाब के पास। ..कितनी शांति है यहाँ ..पेङ के एक शाख पे बैठ ..रंग-बिरंगे चिङीयों की चहचहाहट कितनी प्यारी लगती है ..एक आवाज चुप क्या होती ..दुसरी चालू हो जाती। गिलहरियों के दौङ को देखो.. एक के पीछे एक कितनी सारी गिलहरियाँ..। जी करता है इन्हें छू लूं.. गोद में भर लूं। ..मगर पास आकर भी ये भाग जाती हैं ..शायद थोङा डर जाती हैं। तालाब के हरे पानी में खिले कमल पे इतराते भौंरे.. औऱ नीचे मछलियों का तरनताल साफ दिखता है। हाँ.. और वो मृगों का झुंड जो हर रोज यहाँ पानी पीने जो आतें हैं.. उनके पीछे कुछ नन्हे शावकों की उछल-कूद..। तालाब से सटे उस पूराने शिव मंदिर की घंटियां भी रह रहकर बज उठती.. दृश्य-परिवर्तन को थोड़ा फ्रेमिंग करती.. पुजारी जी के शंख भी बज उठते.. क्यों न इस पवित्र-पावन को थोङा कैद कर लूं .. सावन की तीसरी सोमवारी एक फिल्म ही बना लूं।  ऊँ नम: शिवाय्.. 

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स्वतंत्र मन के प्राचीर से..!!!

स्वतंत्र मन के प्राचीर से..!!! 

इन राजनीतिक घोषणाओं से मन अब ऊब चूका था। ठगे जाने के विष से आखीर निजात जो पाना था.. जवान, किसान व विज्ञान का द्वंद अपने ही ग्रह में मानो जय एलियंस की हुंकार भर रहा था। ..शायद इस बार न सही अगले बार तो जरुर कुछ न कुछ होके रहेगा। गाँव बदलेगा.. शहर बदलेगा.. देश बदलेगा.. सबकुछ बदल जाएगा.. मंगल बदल जाएगा.. शनि बदल जाएगा.. मगर भालू नाच व बंदर नाच वही रहेगा। कॉलेज वाले रेलवे प्लेटफॉर्म पे उतरते ही.. एक बूढे बाबा एक हाथ में तिरंगा तो दुसरे हाथ रेडियो लिए हँसे जा रहे थे। मानो उन्होंने ने एक बार फिर नए जमाने का बंदर नाच देख रखा हो..। कहते..रहने.. पढने और लिखने वाले तो निकल लिए.. अब बिजली देकर क्या करोगे.. गाँव बैठ बस टीवी देखे के काम आवेगी.. जो कछु बचा औऱ चली जाएगी। राजा-रजवाङो का राज भला था.. नजदीक तो थे सारे.. अब तो बस दिखते ये दूधिया टिमटिमाते तारे.. आज दिखे कल टूट जाऐंगे.. फिर कहीं किसी नुक्कड़ में नजर आऐंगे.. गले लटकी तमगे-पदवियों को बेच खाऐंगे.. थोङे नाचेंगे.. कुछ नचाऐंगे। फिर कुछ नए मदारी.. नए जमाने के जो बन जाऐंगे..। ये गाँव के उस वृद्ध का एक स्वतंत्र मन था..।

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..एक और अगस्त क्रान्ति !!!

..एक और अगस्त क्रान्ति.. मगर थोङा होमवर्क तो कर लें। 

इंटरनेट युग में घर बैठे उङान वे भर लेते हैं.. चलंत सभा की.. भाषण दिया.. और अपने-अपने फेसबुक पेज पे लिए फोटुओं को चिपका दिया.. वाह नेताजी.. वाह-वाह बहुत बढियां.. ये देखौ कित्ते लाईक मिले.. देश-बिदेशो के लाईक.. अरे वाह.. कमेंट की तो प्रिंट निकालो.. फाईलिंग करो डेट के साथ.. एन्ड्रोएड पे ब्लुटूथ से भेजो..। नेताजी फिट.. ईण्डिया हिट..। "हजूर परणाम्.. जी गणेशी.. उ फरीदुआ आएल रहे मचान से.. मोबैले अपनै के फोटो दिखैले रहा.. हजूर एक ठो बात कहें.. राजधानी से आईबे घङी एगो नैका टॉर्च लेबे आइएगा न.. राते गाँव में बङ दिक्कत होई.. बरसाते साँप-बिच्छू ढेर निकलल हजूर.." "अच्छा अच्छा मुनीरवा से पचास गो ले लेना.. आरो हटिया से एगो चायनीज टॉर्च खरीद लेना.. समझे.." "जी.. हजूर.."। अब जाने ना ई ट्वीट ईण्डिया मूवमेंट बा.. क्वीट ईण्डिया मूवमेंट.. मेक इन ईण्डिया.. डीजीटल ईण्डिया से का होई.. जब एगो गाँव खातिर किफायत टॉर्च त देश मा ना बनील.. औरो उ दिवाली के भगजूगनी आरो बच्चा सब के खिलौना.. होली के पिचकारी सब ते चायनीजे मिलल.. त ईण्डिया मा का बनी..। सच में दोस्तों.. एक इंजीनियरींग प्रोजेक्ट पे काम करते वक्त पता चला.. इसमें लगने वाला सेंसर चाईना से ही मँगाना होगा.. ईण्डिया में कहीं भी नहीं मिला..।

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आत्मीय संबोधन की अमृत..

हैप्पी फ्रेंडसिप डे पे निकलती आत्मीय संबोधन की अमृत..।

 और ये संबोधन एक विश्वास है.. एक अनमित जीवन जिसके आसपास एक सुखद उन्मुक्त सांसे चलने सी लगती है। सारे विकारों से मुक्त अलंकार ही अलंकार..। राजश्री प्रोडक्शन की दोस्ती फिल्म सहसा याद आ जाती है। बचपन के दिनों में देखी ब्लैक एंड व्हाइट फिल्म.. हर एक गानों में जादुई तान दोस्ती का। आज के दौर के नए पीढ़ी के युवा भले ही ऐसे सजीव चित्रों से परे हों लेकिन आज भी ऐसे जीवन जीवित जरुर हैं। मैं देख नहीं सकता गा तो सकता हूँ.. मैं बैसाखी के साथ ही सही राह तो बता सकता हूँ.. दोस्त आसपास ना सही दोस्ती के गीत गूनगुना तो सकता हूँ.. जी तो सकता हूँ। दोस्ती के ऐसे प्यार शायद कभी मरते नहीं.. जिंदा रहते हैं ताउम्र.. मेरी दोस्ती मेरा प्यार बनकर। #Dosti

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