मैं अपने आस-पास की ऐसी दुर्लभ प्रति-मूर्तियों से अब तक अछूता कैसे रह पाया था.. वर्ष २००३ में इंजीनियरिंग के बाद बिहार वापस अपने घर आने के बाद साहित्यिक अभिरुचियों की ऐसी जिज्ञासा रह रह कर मन में कौंधती चली जाती..। अंततः २०१२ मार्च के महिने में दो दिन बङी निश्चिंतता के साथ.. मुझे भारत की सिल्क सिटी या मिनी कलकत्ता कहे जाने वाले मेरे पुर्वजों के शहर भागलपुर में रहने को मिला। धन्यवाद.. दुरदर्शन में प्रसारित उस डॉक्युमेंट्री को जिसमें आज भी भागलपुर यूनिवर्सिटी के हिन्दी व अन्य भाषा विभागों में सैंकड़ों शोध-कार्य "देवदास चरित्र" व "शरतचंद्र कृतियों" पे किए जाने का उल्लेख हुआ था। फिर दिमाग में चल रहे इन्हीं संस्मरणों के साथ मैं सुबह-सुबह होटल के कमरे से बाहर निकल पङा.. फिर एक वृद्ध रिक्सेवाले के साथ भागलपुर के गंगा-घाट वाले इलाको की ओर रुख किया। ..वर्षों बाद खुद को ..शरतचंद्र साहित्य व देवदास चरीत्र के कुछ पुराने अभिलेखों व दस्तावेजों के सम्मुख पाकर रोमांचित हो उठा। शरतचंद्र का बचपन औऱ फिर किशोरावस्था भागलपुर की इन्हीं गलियों में बीता था.. वो यहाँ अपने मामा के घर पे ही रहते थे.. औऱ फिर देवदास चरीत्र उनके जीवन-यात्रा से ही जुङी कहानी तो है। जिसका उल्लेख विष्णु प्रभाकर की "आवारा मसीहा " वृतांत में बङा जीवंत मिलता है। सच में आज वर्षों बीते.. फिर भी भारतीय सिनेमाई बॉक्स अॉफिस देवदास रूपी खास "कल्चरर हेरिटेज" को जीवंत किए रहता है.. कुछ इस तरह की शायद ..."देवदास अपने देवमुख लिए यहीं आस-पास ही तो रहते हैं.. और हमें अनमित सौन्दर्य का दिव्य भान यहीं की गलियों की रसमंजुषाओं से करवाते रहते हैं.."।
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