इधर कुछ दिन हुए.. शाम के वक्त पटना के दरभंगा हाउस वाले गंगा-घाट पे था। १९९५.. जब मैं पहली बार इस घाट पे आया था.. घाट आते वक्त दिखता दरभंगा हाउस का एक पुराना माँ काली का मंदिर..। काफी शूकुन भरी जगह है ये.. शहरी हलचल से दूर। घाटों पे कुछ देर ही सही.. लेकिन इन्हीं कुछ पलों में होता है आत्म-शुद्धिकरण भी..। दुर-दुर तक फैले गंगा के छोर.. मानो आपने संसार से थोङा किनारा ले लिया है..। गोधुली बेला में दिखते अपने घरों को लौटते पक्षियों का विशाल समूह और नावों में बैठकर जाते उस पार से आए ग्रामीण जन भी..। सच में..मोटर लगी इन नावों को देख मैं ठिठक पङा.. मानो इन लहरों पे तैरता सौन्दर्य कुछ बदल सा गया हो। सच में अब नदियों में वो बङी-बङी पतवार लगे नाव कम ही दिखते हैँ.. जिन्हें मैं अक्सर भागलपुर के घाटों में देखा करता था। ..सच में कितना कुछ बदल गया ..इस जल्द पहुँचने की चाह में। ..बढते अॉटो व टैक्सीयों के जंजालों ने तो बैलगाङी.. तांगेवालों को भी नहीं बख्शा.. फिर तो.. कलकत्ता महानगर में चलने वाली ट्राम और हाथ रिक्सागाङी भी याद आने लगे..।
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