Thursday, 13 September 2018

मुझमें कैद एक चित्रकार..

मुझमें कैद एक चित्रकार.. 

एक समृद्ध संपन्न भावों में ही एक चित्रकार जन्म लेता है शायद। हर रोज संध्या की तुलसी आरती के बाद करतल नाद घड़ी घंट ध्वनियों को पुर्ण विराम देता शंखनाद.. फिर गुग्गल धूमन कपूर केसर चंदन यज्ञोपवित व धूप तत्वों से निकले दुधिया आभूतियों को कैसे संचित रख सकूं मैं। नदियों नालों में तैरते वो लंगर वाले बड़े से नावों का समूह.. जिन्हें अक्सर भागलपुर जाने आने के क्रम में देखता तो गाँव के चारों ओर छायी हरियाली और सूरज की पहली किरण के साथ दुर के जैस्सोर पर्वत के पीछे से उड़ उड़ आते चहचहाते पक्षियों का समूह.. हल कंधों पे लिए अपने बैलों की जोड़ी के साथ का वो किसान.. तो गाँव के पटुओं मचानों व मिट्टी के साथ पशुधन की वो देहपट सी खुशबूओं का अमरत्व कैसे उकेर सकूं मैं। ज्ञानों की गर्भशाला से रामायण, भागवत व महाभारत के निकलते रोज के नए संस्करण.. फिर बोल सुनाते उन वृद्ध-वृतांतों का अब फिर कैसे लिपट देह सकूं मैं। हो उत्तिर्ण भवसार गया मैं.. उन उन्मुक्त जीव-गाथा का एक सफल चित्रकार साकार सा बन सकूं मैं।

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