हमेशा की तरह कैसेट सेल्फ के सामने टकटकी लगाऐ कैसेटों के कवरों को देखता रहता। फिर उन कैसेटों में हमेशा की तरह तीसरी मंजिल और एन ईवनिंग इन पेरिस फिल्म की कैसेट पैनासोनिक टेप रिकार्डर पे चलाया करता। १९८० दशक में लगभग सभी घरों पे ये म्युजिकल कॉर्नर कुछ कॉमन ही था। कहीं कम कैसेटे तो कहीं ज्यादा लेकिन इन कैसेटों का एक भरा पूरा कुनबा मौजूद तो लगभग सभी घरों में रहता था। फिर भला कौन हो जो उस वक्त की इन कैसेटों की इंजीनियरिंग से ना निकला हो.. और वो भी तब जब इन कैसेटों के रील टेप रिकॉर्डर के उस काले रबड़ वाले एक छोटे से पहिये में उलझ पड़ते हों। एक एक कर सारी बातें आज भी जेहन में ताजा हैं। फिर कुछ ऐसी ही फेहरिस्तों में वैसे कितने ही कैसेट्स टूटे उलछे रीलों में लिपटे सेल्फ का एक कोना पकड़े रहते जिनकी फिक्र करने वाला कोई नहीं होता। एक दिन ऐसा भी आया जब महीन चौमुखी ढांचे वाली छोटी सी स्क्रियु ड्राईवर से उन टूटे रील वाले कैसेटों के मरम्मत की बारी आयी। एक एक कर मैने लगभग सभी फिल्मी गानों व डायलॉग वाली कैसेटों की टूटी रीलों को सुलझा कर जोड़ तो दिया लेकिन कुछ टूटे रील वाले कैसेटों को यूं ही छोड़ दिया। ये छोड़े हुए कैसेट.. गजल संगीत के शहंशाह मेंहदी हसन के थे और फिर बचपन के दिनों में इनकी गजलों के उर्दू बोल और इन बोलों के मायने भला किस बच्चे के दिमागी पल्ले पड़े। हाँ कभी इनके कुछ नए एल्बम्स को पिताजी दोपहर को आराम के वक्त सुना करते। मेरी समझ में इनके सुर ताल बिल्कुल अजीब से थे.. और अन्य गानों के मुकाबले कुछ ज्यादा ही रुके हुए से जो ज्यादा समय लगाते। तब के समय की गजल गायकी में गुलाम अली, जगजीत व चित्रा सिंह, चंदन दास व तलत अजीज के गजलें कुछ समझ में आ भी जाती थी लेकिन मेंहदी हसन की शक्ल के साथ इनके शब्दों के व्याकरण अन्य कैसेट कवरों पे छाऐ बॉलीवुड स्टार्स व सिंगर्स के मुकाबले बड़े टेढे से लगते। हाँ एक "शोला था जल बुझा हूँ" पिताजी का पसंदीदा गजल जो आज भी याद है।
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