Monday, 8 October 2018

प्रेमचंद साहित्य की फिल्में व उद्देश्य...


   ''जिस साहित्य से हमारी सुरुचि न जागे, आध्यात्मिक और मानसिक तृप्ति न मिले, हम में शक्ति और गति न पैदा हो, हमारा सौंदर्य-प्रेम न जाग्रत हो - जो हम मेें सच्चा संकल्प व कठिनाइयों पर विजय पाने की सच्ची दृढ़ता न उत्पन्न करवा सके, वह हमारे लिए बेकार है, वह साहित्य कहलाने का अधिकारी नहीं।
                   - साहित्य का उद्देश्य : प्रेमचंद,

   साहित्य सम्राट मुंशी प्रेमचंद ने अपनी कहानियों के माध्यम से ही समाज सेवा का कार्य बखूबी ढंग से किया। अपने धप्पन वर्षों के जीवन में उन्होंने उपन्यास व कहानी लेखन के साथ कई समाचारपत्रों के संपादन का कार्य भी बड़ी कुशलता से किया। तात्कालिन "आलम आरा" फिल्म की भारी सफलता के बाद बोलती सिनेमा ने तो जैसे रुपहले पर्दे पे एक सिल्वर क्रांति का संचार ही कर दिया था। अब पौराणिक लीक से हट नई कहानियों व नए कथाकारों को मुम्बईयाँ फिल्मी सर्किट में जगह मिलने लगी थी। मुंबईया महफिलों में नए साहित्यकारों व कथाकारों के बढते प्रभावों के बावजूद भी मुंशी प्रेमचंद अपनी कहानी व उपन्यास लेखन के साथ जमीनी  उत्कट मिमांशाओं से कभी मुक्त होना नहीं चाहते थे। अंततोगत्वा वो दिन भी आया जब १जून १९३४ को भारत के महान कथाशिल्प मुंशी प्रेमचंद के कदम फिल्मी जगत में आ ही पड़े और उस समय मुंबई फिल्म नगरी के बड़े बैनर "अजंता सिनेस्टोन" को ८ हजार रुपया प्रतिवर्ष के अॉफर के साथ जॉय्न भी किया।

वह अंग्रेजों की गुलामी का दौर था। महात्मा गाँधी की धमक से देश भर में अंग्रेजी शासन व नीतियों के विरुद्ध नए नए आंदोलन तेज हो चले थे। इन्हीं आंदोलनों में एक वो दौर "स्वदेशी आंदोलन" का था। एक तरफ जहाँ देशभर में विदेशी कपड़ों का वहिष्कार हो रहा था तो दुसरी ओर देशी मिल मालिक अपनें मजदूरों को सही मुआवजा देने में कंजूसी बरते जा रहे थे। इस कारण देश भर के कितने ही मजदूर युनियन हड़ताल पे चले गए थे। मजदूरों में बढते इसी असंतोष की पृष्ठभूमि को लेकर मुंशी प्रेमचंद ने "मजदूर" नाम के फिल्म की कहानी लिखी।

 फिल्म बनकर तैयार तो हुई लेकिन उसी साल स्थापित हुई सेंसर बोर्ड ने इस फिल्म की संवेदनशीलता को देख इसे रद्द कर दिया। पुन: इसी मजदूरों की समस्याओं वाली पृष्ठभूमि लिए प्रेमचंद के उसी कहानी पे निर्माता मोहन भावनानी ने "मील मजदूर" नाम की फिल्म बनाई; जो बॉक्स अॉफिस पे सुपरहिट साबित हुई। खुद मुंशी प्रेमचंद ने इस फिल्म में मजदूर यूनियन के अध्यक्ष का किरदार निभाया था।

"मील मजदूर" से मिली सफलता के बाद प्रेमचंद को मुंबई के दुसरे बैनरों से भी अॉफर मिलने लगे थे। अगली कहानी उन्होंने "नव-जीवन" फिल्म के लिए लिखा, जो राजनीति से अलग बलिदान की भावना से प्रेरित थी। मानों प्रेमचंद के साहित्यिक स्केच वर्क अब फिल्मी कैन्वास पे बदस्तूर निखरते चले जा रहे थे।

इसी साल १९३४ में प्रेमचंद ने "सेवासदन" नाम की एक और फिल्मी कहानी लिखी थी, लेकिन महालक्ष्मी सिनेस्टोन बैनर तले फिल्म मेकिंग के समय इस कहानी के मूल स्वरूप को इतना तोड़ा मड़ोरा गया कि प्रेमचंद आक्रांत भाव लिए २५ मार्च १९३५ को वापस अपने शहर बनारस लौट आऐ.. और फिर मायानगरी से चोट खाऐ प्रेमचंद ८ अक्टूबर १९३५ को एक अन्यतम साहित्यिक लोक में सदा के लिए विलीन हो गए। साहित्यिक जगत से एक अपूरणीय क्षति के बाद भी उनकी कहानियों पे हिन्दी व अन्य प्रादेशिक भाषाओं में फिल्में लगातार बनती ही रही। वर्ष १९३८ में उनकी १९२८ में लिखी सुप्रसिद्ध उपन्यास "निर्मला" पे बॉम्बे टॉकिज ने एक सुपरहिट फिल्म बनायी।

वर्ष १९४१ में उनकी लिखी "औरत की फितरत" उर्दू कहानी पे सर्को प्रोडक्शन ने "स्वामी" फिल्म बनाई थी। १९४६ में "मील मजदूर" फिल्म के निर्माता मोहन भावनानी ने एक बार फिर प्रेमचंद की ही लिखी सुप्रसिद्ध उपन्यास "रंगभूमि" पे एक निर्विवाद सफल फिल्म बनाई। भारतीय स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद उस दौर के नामचीन फिल्म मेकर बिमल रॉय ने प्रेमचंद के उपन्यास पे ही बलराज साहनी व निरुपा राय अभिनीत "दो बीघा जमीन" फिल्म का एक सामाजिक चित्रण प्रस्तुत किया, जिसने बॉक्स अॉफिस पे भारी सफलता के साथ राष्ट्रीय व अन्तर्राष्ट्रीय पुरस्कारों की झड़ी लगा दी थी। दो बीघा जमीन की इसी अभिनीत जोड़ी के साथ कुछ वर्षों बाद एक और फिल्म "हीरा और मोती" बनी थी। जिसका निर्देशन कृष्ण चोपड़ा ने प्रेमचंद की लिखी "दो बैल" शीर्षक कहानी पे किया था।

प्रेमचंद साहित्य की फिल्मी परंपरा को आगे बढाते हुए वर्ष १९६३ में त्रिलोक जेटली के निर्देशन में फिल्म "गो-दान" बनी व वर्ष १९६६ में कृष्ण चोपड़ा ने "गबन" फिल्म का निर्माण आरंभ तो किया, लेकिन इस फिल्म को पुरा किया था ऋषिकेश मुखर्जी ने; जो बॉक्स अॉफिस पे असफल रही। फिर एक लंबे अर्से बाद वर्ष १९७८ में प्रेमचंद की रचनाओं पे उस समय बांग्ला सिनेमा के दो दिग्गज फिल्म मेकरों ने दिलचस्पी दिखाई। सत्यजीत रे ने "शतरंज के खिलाड़ी" तो मृणाल सेन ने "कफन" बनाया।
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निर्मला १९३८- देविका रानी, अशोक कुमार, मीरा व अन्य..

निर्मला, मुंशी प्रेमचन्द द्वारा रचित प्रसिद्ध हिन्दी उपन्यास है। इसका प्रकाशन सन १९२७ में हुआ था। सन १९२६ में दहेज प्रथा और अनमेल विवाह को आधार बना कर इस उपन्यास का लेखन प्रारम्भ हुआ। हालाँकि प्रेमचंद के निधन के बाद इसी प्रसिद्ध साहित्यिक शीर्षक से यह १९३८ में फिल्म तो बनी लेकिन फिल्मी कथानक में कुछ फेरबदल भी किये गए। इलाहाबाद  से प्रकाशित होने वाली महिलाओं की पत्रिका 'चाँद' में नवम्बर १९२५ से दिसम्बर १९२६ तक यह उपन्यास विभिन्न किस्तों में भी प्रकाशित हुई थी।

महिला-केन्द्रित साहित्य के इतिहास में इस उपन्यास का विशेष स्थान है। इस उपन्यास की कथा का केन्द्र और मुख्य पात्र 'निर्मला' नाम की १५ वर्षीय सुन्दर और सुशील लड़की है। निर्मला का विवाह एक अधेड़ उम्र के व्यक्ति से कर दिया जाता है। जिसके पूर्व पत्नी से तीन बेटे हैं। निर्मला का चरित्र निर्मल है, परन्तु फिर भी समाज में उसे अनादर एवं अवहेलना का शिकार होना पड़ता है। उसकी पति परायणता काम नहीं आती। उस पर सन्देह किया जाता है, उसे परिस्थितियाँ उसे दोषी बना देती है। इस प्रकार निर्मला विपरीत परिस्थितियों से जूझती हुई मृत्यु को प्राप्त करती है।

निर्मला में अनमेल विवाह और दहेज प्रथा की दुखान्त कहानी है। उपन्यास का लक्ष्य अनमेल-विवाह तथा दहेज़ प्रथा के बुरे प्रभाव को अंकित करता है। निर्मला के माध्यम से भारत की मध्यवर्गीय युवतियों की दयनीय हालत का चित्रण हुआ है। उपन्यास के अन्त में निर्मला की मृत्यृ इस कुत्सित सामाजिक प्रथा को मिटा डालने के लिए एक भारी चुनौती है। प्रेमचन्द ने भालचन्द और मोटेराम शास्त्री के प्रसंग द्वारा उपन्यास में हास्य की सृष्टि की है।

निर्मला के चारों ओर कथा-भवन का निर्माण करते हुए असम्बद्ध प्रसंगों का पूर्णतः बहिष्कार किया गया है। इससे यह उपन्यास सेवासदन से भी अधिक सुग्रंथित एवं सुसंगठित बन गया है। इसे प्रेमचन्द का प्रथम ‘यथार्थवादी’ तथा हिन्दी का प्रथम ‘मनोवैज्ञानिक उपन्यास’ कहा जा सकता है। निर्मला का एक वैशिष्ट्य यह भी है कि इसमें ‘प्रचारक प्रेमचन्द’ के लोप ने इसे ने केवल कलात्मक बना दिया है, बल्कि प्रेमचन्द के शिल्प का एक विकास-चिन्ह भी बन गया है।


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सेवासदन १९३४- नानूभाई वकील, शाहु मोदक, जुबैदा व अन्य..

“सेवासदन” उपन्यास का प्रकाशन सन् १९१७ में हुआ था । यह प्रेमचन्द ने इसे वर्ष १९१६ में उर्दू भाषा में “बाज़ार-ए-हुस्न” के नाम से लिखा था। एक वर्ष बाद हिन्दी में रूपांतरित कर “सेवासदन” नाम से प्रकाशित किया और फिर वर्ष १९३४ में बनी सेवासदन फिल्म की कथावस्तु इसी उपन्यास पे आधारित थी। यह उपन्यास प्रेमचन्द का पहला यथार्थवादी उपन्यास माना जाता है। “सेवासदन” के प्रकाशन के बाद प्रेमचन्द को उपन्यासकार की अच्छा ख्याति मिली है। अथवा “सेवासदन” के द्वारा उन्होंने हिन्दी में उपन्यासकार का हस्ताक्षर डाला है। प्रत्यक्ष रूप में देखें तो इसकी कथा वेश्या जीवन से संबंधित है। मगर उसके भीतर समाज सुधार की भावना भी परिलक्षित है । इसमें उन्होंने मध्य वर्ग के जीवन से संबंधित अनेक मामलों का अनुपम आविष्कार और उनका सुझाव भी दिया है।

“प्रेम” और “प्रतिज्ञा” में प्रेमचन्द ने नारियों के प्रति जिस स्नेहपूर्ण व्यवहार दिखाया है, उस स्नेह एवं उदारता “सेवासदन” में भी होता है। उन्होंने अपने पहले उपन्यासों में दहेज प्रथा, विधवा की दयनीय स्थिति एवं उन पर समाज का बुरा व्यवहार आदि विषयों की चर्चा की है। वही विषय “सेवासदन” में भी उभर कर आता है। कुछ लोग समझते थे कि “सेवासदन” की मूल समस्या वेश्यावृत्ति है। वास्तव में इसकी मुख्य समस्या वेश्यावृत्ति नहीं है। प्रेमचन्द ने सुमन की समस्या को व्यक्तिगत विषय न बनाकर सामाजिक विषय के रूप में बदल दिया है- यह है मूल समस्या। वे समझाते है कि सुमन सीधे वेश्यावृत्ति की ओर नहीं मुड़ती, चारों तरफ की सामाजिक परिस्थितियाँ उसे इस वृत्ति को स्वीकार करने में मज़बूर कर देती है।

पुलिस दारोगा कृष्णचन्द्र सज्जन एवं जनप्रिय अफसर है। अधिकांश पुलिस अधिकारी रिश्वत माँगकर आडंबरपूर्ण जीवन बिताते समय कृष्णचन्द्र रिश्वत नहीं लेते थे और दूसरों को रिश्वत लेने से रोकते भी थे। उनके वेतन से पत्नी गंगाजली, पहली बेटी सुमन तथा दूसरी बेटी शांता जीती है । सुमन सुंदर, सुशील और सुशिक्षित लड़की है। वह सबसे बढ़कर जीना चाहती थी। जब सुमन विवाह योग्य बन गयी तो दहेज की समस्य कृष्णचन्द्र को झकझोर कर देती। वे एक मुकदमे में फँसे महंत रामदास से तीन हज़ार रुपये रिश्वत माँगने का बाध्य हो जाता है। वे रंगे हाथों पकड़े जाते है और चार वर्ष का कैद मिल जाता है। परिणाम स्वरूप गंगाजली, सुमन और शांता के साथ बनारस में अपने भाई के घर पर अभय पाती है । सुमन का विवाह रुक जाता है। दहेज के बिना उनका विवाह गजाधर पांडे से संपन्न होता है। आयु में ही नहीं स्वभाव में भी पति और पत्नी में बड़ा अंतर था। इस वक्त सुमन की माँ मर जाती है । गजाधर ने सुमन को अच्छा खाना और कपड़ा नहीं देता है । पत्नी की सारी सुख-सुविधाओं से वंचित सुमन स्नेह के लिए तरसती है। दोनों के वैवाहिक जीवन का ताल-मेल टूट जाता है । एक दिन गजाधर ने निर्दयता के साथ सुमन को घर से निष्कासित कर देता है ।

पति से उपेक्षित सुमन वकील पद्मसिंह के घर पर जाकर अभय मांगती है । किंतु अभय नहीं मिलती है। गाँव की वेश्या भोली ने सुमन को अभय देती है। गजाधर साधु का जीवन ग्रहण करता है । सदनसिंह एक सुंदर एवं बलिष्ठ युवक है जो अपने गाँव से बनारस में आकर अपने चाचा पद्मसिंह के यहाँ रहकर पढ़ता है । उनका ध्यान सुमन पर पड़ता है। साल गुज़रते रहे। समाज सुधारक विट्ठलदास सुमन को भोली के यहाँ से छुडाने का प्रयत्न करता है। तर्क-वितर्क के पश्चात उसने वेश्यालय छोड़कर समाज सुधारकों के विधवा आश्रम पर रहने की निश्चय किया । इसी बीच चार साल का दंड पूरा कर सुमन के पिताजी कृष्णचन्द्र जेल छूट कर आता है। सदन से शांता का विवाह तय कर लेता, किंतु अपवाद के डर से सदन हट जाता है। आगे सदन और सुमन के संपर्क जारी होती है। अपनी बेटियों के असफल जीवन पर दुःखी होकर कृष्णचन्द्र घर छोड़ते है। रास्ते में वह एक साधु से मिल जाता जो सुमन के पति गजाधर थे । गजाधर गजानन्द नाम ले लिया था। पारिवारिक जीवन की विफलता के कारण वे पहले साधु बन चुके थे। कृष्णचन्द्र ने गजाधर के साथ रात काटने का निश्चय किया किंतु रात में चुपके उठकर पास की गंगा नदी में कूद कर आत्महत्या कर दी ।

गंगा के तट पर रहने वाला सदन मल्लाहों का नेता बन जाता है । उसने दो-चार नावें भी खरीद ली। सदन शांता को पत्नी के रूप में स्वीकार कर नदी तट की झोंपड़ी पर रहना शुरू किया । सुमन भी इस झोंपड़ी में रहती है। आगे दुःखी सुमन झोंपड़ी से निकलती है। रास्ते में एक साधु से मिला, उन्हें मालूम न था कि वह साधु गजाधर है। इस समय पद्मसिंह के सहायता से साधु एक आश्रम बनाकर निराश्रित युवतियों के संरक्षण करते थे। सुमन इस सेवासदन (आश्रम) से जुड़ कर सेवारत हो जाती है ।
“सेवासदन” के द्वारा प्रेमचन्द यह सवाल उठाता है कि नारी वेश्या होने की कारण क्या है। इसका समाधान भी उन्होंने दिया है। हमारे यहाँ की नारी की अधःपतन की मूल कारण हमारे समाज है। पत्नी के रूप में सुमन की जो स्थान है, वेश्या के रूप में सुमन को उससे बड़ी स्थान होती है। उनके पास समाज की उच्च वर्ग के लोग आते-जाते है। पत्नी के स्थान पर सुमन को मिलने से ज्यादा सुख और चयन वेश्या भोली को मिलती है ।

“सेवासदन” की मुख्य कथा गजाधर और सुमन से संबंधित है तो गौण कथा सदन सिंह और शांता से संबंधित कथा है। गजाधर का कथा का अंत साधु का जीवन वरण करने पर पड़ता है । सुमन सबसे अधिक ध्यान आकर्षित कथापात्र है। उनकी जीवन कथा की अंत सेवाश्रम (सेवासदन) में होती है।

“सेवासदन” में प्रेमचन्द दर्शातें है कि हमारी सामाजिक कुरीतियाँ स्त्रियों के जीवन को विवश करती है। इसकी मुख्य समस्या मध्य वर्गीय लोगों की आडंबर प्रियता से संबंधित है। प्रेमचन्द यह बताना चाहता है कि मनुष्य को जीने के लिए धन द्वारा प्राप्त सुख के समान मन द्वारा प्राप्त सुख भी चाहिए। मन एवं धन के संयोग से जीवन सुख-संपन्न हो जाता है।
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रंगभूमि १९४६: निगार सुल्ताना, के एन सिंह व अन्य..

रंगभूमि प्रेमचंद द्वारा लिखी गई एक अद्वितीय उपन्यास, जो सन् 1927 से 1928 ई. में लिखी गई थी। यह उपन्यास प्रेमचंद की सभी कृतियों में सर्वश्रेष्ठ है। इस उपन्यास के द्वारा मानवीय भावनाओं के उन पहलुओं को छुआ है, जिसकी तरफ इससे पहले किसी भी उपन्यासकार या कथाकार का ध्यान नहीं गया। प्रेमचंद ने एक अंधे को अपनी कहानी का नायक बनाकर पूरे भारतीय समाज में हलचल पैदा कर दी थी। हर बेबस और लाचार आदमी खुद में सूरदास को देखने लगा था। इस उपन्यास में एक अंधा बेबस आदमी सूरदास जो कि साधनों के अभाव को झेलता है, सिर्फ अपने आत्मविश्वास, अवज्ञा के दम पर पारम्परिक मर्यादाओं के लिए सारे जमाने से ईमानदारी के साथ अकेला लड़ता है। अंग्रेजी शासन के खिलाफ आवाज तो उठाता है, पर सिर्फ अपना कर्त्तव्य समझ कर। कभी हिंसा का सहारा नहीं लेता है। वो कहता है, जो जिसका काम है वो करे, जो मेरा काम है मैं करूंगा।

वाराणसी स्थित एक छोटे से गांव पांड़ेपुर में सूरदास अपने बाप-दादाओं की जमीन को गांव के पशुओं के लिए चारागाह के रूप में खाली छोड़ देता है। परंतु वहां के शासनाधिकारी सरकारी मुआवजा देकर वहां पर सिगरेट की पैफक्ट्री खोलना चाहते हैं। लेकिन सूरदास जमीन देना नहीं चाहता है। दोनों पक्ष से भयंकर वाद-विवाद होता है। सूरदास के प्रति गांववालों की असीम सहानुभूति होती है, जिस कारण सरकार को आसानी से जमीन नहीं मिल पाती है। सरकार अपने शासन के बलबूते सारा गांव खाली करवा लेती है, पर ये बूढ़ा, बेबस, लाचार अकेला लाठी टेकता अपनी कुटिया के सामने खड़ा रहता है और अंत में गोली का शिकार हो जाता है। सूरदास के मरने के बाद सारा गांव और आसपास के लोग संगठित हो जाते हैं।

इस उपन्यास में कर्म तथा अधिकार की प्रधानता पर जोर दिया गया है। स्त्राी की दुदर्शा को भी उजागर किया है। एक ओर जहां नौकरशाह अपने सत्ता के मद में चूर होकर गरीब जनता पर अत्याचार करते हैं. वहीं दूसरी ओर सत्य, निष्ठा और अहिंसा को समाज के एक दबे-कुचले व्यक्ति द्वारा मजबूती प्रदान की है। यह उपन्यास ‘रंगभूमि’ परतंत्रता के बेड़ियों में जकड़े हुए भारत की सामाजिक, राजनीतिक, धार्मिक और आर्थिक समस्याओं से परिपूर्ण है।


 इस उपन्यास के कुछ अंश :- सूरदास एक बहुत ही क्षीणकाय, दुर्बल और सरल व्यक्ति था। उसे दैव ने कदाचित् भीख माँगने ही के लिए बनाया था। वह नित्यप्रति लाठी टेकता हुआ पक्की सड़क पर आ बैठता और राहगीरों की जान की खैर मनाता। 'दाता! भगवान् तुम्हारा कल्यान करें-' यही उसकी टेक थी, और इसी को वह बार-बार दुहराता था। कदाचित् वह इसे लोगों की दया-प्रेरणा का मंत्र समझता था। पैदल चलनेवालों को वह अपनी जगह पर बैठे-बैठे दुआएँ देता था। लेकिन जब कोई इक्का आ निकलता, तो वह उसके पीछे दौड़ने लगता, और बग्घियों के साथ तो उसके पैरों में पर लग जाते थे। किंतु हवा-गाड़ियों को वह अपनी शुभेच्छाओं से परे समझता था। अनुभव ने उसे शिक्षा दी थी कि हवागाड़ियाँ किसी की बातें नहीं सुनतीं। प्रात:काल से संध्‍या तक उसका समय शुभ कामनाओं ही में कटता था। यहाँ तक कि माघ-पूस की बदली और वायु तथा जेठ-वैशाख की लू-लपट में भी उसे नागा न होता था।

सहसा एक फिटन आती हुई सुनाई दी। सूरदास लाठी टेककर उठ खड़ा हुआ। यही उसकी कमाई का समय था। इसी समय शहर के रईस और महाजन हवा खाने आते थे। फिटन ज्यों ही सामने आई, सूरदास उसके पीछे 'दाता! भगवान् तुम्हारा कल्यान करें' कहता हुआ दौड़ा।

सूरदास फिटन के पीछे दौड़ता चला आता था। इतनी दूर तक और इतने वेग से कोई मँजा हुआ खिलाड़ी भी न दौड़ सकता था। मिसेज सेवक ने नाक सिकोड़कर कहा-इस दुष्ट की चीख ने तो कान के परदे फाड़ डाले। क्या यह दौड़ता ही चला जाएगा?

इधर सूरदास के स्मारक के लिए चंदा जमा किया जा रहा था, उधर कुलियों के टोले में शिलान्यास की तैयारियाँ हो रही थीं। नगर के गण्यमान्य पुरुष निमंत्रित हुए थे। प्रांत के गवर्नर से शिला-स्थापना की प्रार्थना की गई थी। एक गार्डन पार्टी होनेवाली थी। गवर्नर महोदय को अभिनंदन-पत्र दिया जानेवाला था। मिसेज सेवक दिलोजान से तैयारियाँ कर रही थीं। बँगले की सफाई और सजावट हो रही थी। तोरण आदि बनाए जा रहे थे। ऍंगरेजी बैंड बुलाया गया था। मि. क्लार्क ने सरकारी कर्मचारियों को मिसेज सेवक की सहायता करने का हुक्म दे दिया था, और स्वयं चारों तरफ दौड़ते फिरते थे।

चाँदनी छिटकी हुई थी, और शुभ्र ज्योत्सना में सूरदास की मूर्ति एक हाथ से लाठी टेकती हुई और दूसरा हाथ किसी अदृश्य दाता के सामने फैलाए खड़ी थी-वही दुर्बल शरीर था, हँसलियाँ निकली हुई, कमर टेढ़ी, मुख पर दीनता और सरलता छाई हुई, साक्षात् सूरदास मालूम होता था। अंतर केवल इतना था कि वह चलता था, वह अचल थी; वह सबोल था, यह अबोल थी; और मूर्तिकार ने यहाँ वह वात्सल्य अंकित कर दिया था, जिसका मूल में पता न था। बस, ऐसा मालूम होता था, मानो कोई स्वर्ग-लोक का भिक्षुक देवताओं से संसार के कल्याण का वरदान माँग रहा है।
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दो बीघा ज़मीन 1953- बलराज साहनी, निरुपा राय व अन्य..

 निर्देशक बिमल रॉय द्वारा निर्देशित इस फिल्म में बलराज साहनी और निरुपा रॉय ने मुख्य भूमिका निभाई है। यह एक समाजवादी फ़िल्म है और भारत के समानांतर सिनेमा के प्रारंभ में महत्त्वपूर्ण फ़िल्मों में से एक है। इस फ़िल्म से संगीतकार सलिल चौधरी थ। 'दो बीघा ज़मीन' की कहानी मुंशी प्रेमचंद के उपन्यास पे आधारित है जिसे बाद में फिल्मी कथानुसार सलिल चौधरी ने लिखी थी। भारतीय किसानों की दुर्दशा पर केन्द्रित इस फ़िल्म को हिन्दी की महानतम फ़िल्मों में गिना जाता है। इटली के नव यथार्थवादी सिनेमा से प्रेरित दो बीघा ज़मीन एक ऐसे ग़रीब किसान की कहानी है जो शहर चला जाता है। शहर आकर वह रिक्शा खींचकर रुपये कमाता है ताकि वह रेहन पड़ी ज़मीन को छुड़ा सके। ग़रीब किसान और रिक्शा चालक की भूमिका में बलराज साहनी ने बेहतरीन अभिनय किया है। व्यावसायिक तौर पर 'दो बीघा ज़मीन' भले ही कुछ ख़ास सफल नहीं रही लेकिन इस फ़िल्म ने विमल दा की अंतर्राष्ट्रीय पहचान स्थापित कर दी। इस फ़िल्म के लिए उन्होंने कांस फ़िल्म महोत्सव और कार्लोवी वैरी फ़िल्म समारोह में पुरस्कार जीता। इस फ़िल्म ने हिन्दी सिनेमा में विमल राय के पैर जमा दिये। 'दो बीघा ज़मीन' के लिए बिमल राय को सर्वश्रेष्ठ निर्देशन का पहला फ़िल्म फ़ेयर अवार्ड दिया गया।



 फिल्म की कहानी में शम्भु किसान (बलराज साहनी), उसकी पत्नी पारो (निरुपा राय) व पुत्र कन्हैया (रतन कुमार) मुख्य पात्र है। फ़िल्म की कहानी में गाँव में भयानक अकाल पड़ने के बाद बारिश होती है जिससे सभी खुश हो जाते हैं। गाँव का ज़मींदार हरमन सिंह शहर के ठेकेदार से गाँव में ज़मीन बेचने का सौदा कर लेता है। वह शम्भु, (जो दो बीघा ज़मीन का मालिक है) से भी ज़मीन बेचने के लिए कहता है। हरमन सिंह को बहुत विश्वास था कि वह शम्भु की ज़मीन ख़रीद लेगा। शम्भु ने ज़मींदार से कई बार पैसा उधार लिया था जिसे वह चुका नहीं पाया था। हरमन सिंह ने शम्भु से उस ऋण के बदले में अपनी ज़मीन देने के लिए कहा। शम्भु ने उसे अपनी ज़मीन देने से मना कर दिया क्योंकि वह ज़मीन उसकी जीविका थी। हरमन सिंह दुखी हो गया। हरमन सिंह ने अगले ही दिन शम्भु से उधार लिया पैसा चुकाने के लिए कहा। शम्भु वापस आकर अपने पिता व बेटे की सहायता से ऋण की रकम 65 रुपये निकालता है। शम्भु अपने घर का सब कुछ बेचकर पैसों की व्यवस्था करता है और पैसे चुकाने ज़मींदार के पास जाता है। वहाँ शम्भु यह जानकर हैरान हो जाता है कि ऋण कि राशि 235 रुपये है। लेखाकर से हुई भूल को निपटाने के लिए शम्भु अदालत जाता है व लेखाकार से हुई भूल को बताता है। वहाँ शम्भु मुक़दमा हार जाता है। अदालत फैसला सुनाता है कि शम्भु तीन महीने के अन्दर अपना ऋण चुका दे अन्यथा उसकी ज़मीन की नीलामी कर दी जायेगी।

शम्भु पैसा वापस करने के लिए कलकत्ता जाता है वहाँ वह एक रिक्शा चालक बन जाता है तथा उसका बेटा कन्हैया एक मोची बन जाता है। तीन महीने बीत जाते हैं। ऋण चुकाने का दिन क़रीब आने पर शम्भु ज़्यादा पैसा कमाने के लिए बहुत तेजी से रिक्शा खींचता है। रिक्शा से पहिया निकल जाता है व शम्भु की दुर्घटना हो जाती है। अपने पिता की हालत को देखकर कन्हैया चोरी करना चालू कर देता है। जब शम्भु को कन्हैया के बारे में पता चलता है तो वह उसे बहुत बुरा-भला कहता है। इधर शम्भु की पत्नी को शम्भु और कन्हैया के बारे में सोचकर चिन्ता होती है। वह उन दोनों को ढूढ़ने के लिए शहर आ जाती है वहाँ उसका कार से दुर्घटना हो जाती है। शम्भु सारा जमा किया हुआ पैसा उसके इलाज में लगा देता है। गाँव में शम्भु की ज़मीन की नीलामी हो जाती है क्योंकि शम्भु पैसा चुकाने में असमर्थ हो जाता है। ज़मीन ज़मींदार हरमन सिंह के पास चली जाती है और वहाँ कारख़ाने का काम चालू हो जाता है। शम्भु और उसका परिवार गाँव में अपनी ज़मीन देखने आता है। वहाँ ज़मीन की जगह कारख़ाना देखकर बहुत दुखी हो जाता है तथा मुठ्ठी भर गंदगी कारख़ाने पर फैंकता है। वहाँ कारख़ाने के सुरक्षा कर्मी उसे बाहर निकाल देते हैं। फ़िल्म खत्म हो जाती है तथा शम्भु व उसका परिवार वहाँ से चला जाता है।
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हीरा मोती १९५९- बलराज साहनी, निरुपा राय व अन्य

हीरा मोती फिल्म मुंशी प्रेमचंद की प्रसिद्ध कहानी "दो बैल" पे आधारित है। कहानी ये है कि गाँव के एक किसान झूरी के पास दो बैल थे- हीरा और मोती। देखने में सुंदर, काम में चौकस, डील में ऊंचे। बहुत दिनों साथ रहते-रहते दोनों में भाईचारा हो गया था। दोनों आमने-सामने या आस-पास बैठे हुए एक-दूसरे से मूक भाषा में विचार-विनिमय किया करते थे। एक-दूसरे के मन की बात को कैसे समझा जाता है, हम कह नहीं सकते. अवश्य ही उनमें कोई ऐसी गुप्त शक्ति थी, जिससे जीवों में श्रेष्ठता का दावा करने वाला मनुष्य वंचित है। दोनों एक-दूसरे को चाटकर सूँघकर अपना प्रेम प्रकट करते, कभी-कभी दोनों सींग भी मिला लिया करते थे, विग्रह के नाते से नहीं, केवल विनोद के भाव से, आत्मीयता के भाव से, जैसे दोनों में घनिष्ठता होते ही धौल-धप्पा होने लगता है। इसके बिना दोस्ती कुछ फुसफसी, कुछ हल्की-सी रहती है, फिर ज्यादा विश्वास नहीं किया जा सकता। जिस वक्त ये दोनों बैल हल या गाड़ी में जोत दिए जाते और गरदन हिला-हिलाकर चलते, उस समय हर एक की चेष्टा होती कि ज्यादा-से-ज्यादा बोझ मेरी ही गर्दन पर रहे।

दिन-भर के बाद दोपहर या संध्या को दोनों खुलते तो एक-दूसरे को चाट-चूट कर अपनी थकान मिटा लिया करते, नांद में खली-भूसा पड़ जाने के बाद दोनों साथ उठते, साथ नांद में मुँह डालते और साथ ही बैठते थे।  दो बैलों अपने मालिक से बेहद प्यार करते थे। दोनों बैल स्वाभिमानी, बहादुर और परोपकारी हैं। उनका मालिक झुरी भी उन्हें बड़े स्नेह से रखता है। लेकिन एक बार दोनों बैलों को मालिक के ससुराल भेज दिया जाता है। नये ठिकाने पर उचित सम्मान न मिलने के कारण दोनों बैल वहाँ से भागकर अपने असली मालिक के पास आते हैं। उन्हें दोबारा नये ठिकाने पर भेज दिया जाता है। जब वे दोबारा भागने की कोशिश करते हैं तो कई मुसीबतों में फँस जाते हैं। आखिर में उन्हें किसी कसाई के हाथ नीलाम कर दिया जाता है। लेकिन दोनों बैल उस कसाई के चंगुल से छूटने में भी कामयाब हो जाते हैं और अंत में अपने असली मालिक के पास पहुँच जाते हैं। यह कहानी बड़ी ही रोचक है और सरल भाषा में लिखी गई है।


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 गो-दान १९६३- राजकुमार, कामिनी कौशल, शुभा खोटे, महमूद, मदन पुरी व अन्य।

 गो-दान मुंशी प्रेमचन्द के अंतिम और सबसे महत्वपूर्ण उपन्यास पे बनी १९६३ की फिल्म। गोदान को उनकी सर्वोत्तम कृति भी माना जाता है। इसका प्रकाशन १९३६ ई० में हिन्दी ग्रन्थ रत्नाकर कार्यालय, बम्बई द्वारा किया गया था। इसमें भारतीय ग्राम समाज एवं परिवेश का सजीव चित्रण है। गोदान ग्राम्य जीवन और कृषि संस्कृति का महाकाव्य है। इसमें प्रगतिवाद, गांधीवाद और मार्क्सवाद (साम्यवाद) का पूर्ण परिप्रेक्ष्य में चित्रण हुआ है।

गोदान हिंदी के उपन्यास-साहित्य के विकास का उज्वलतम प्रकाशस्तंभ है। गोदान के नायक और नायिका होरी और धनिया के परिवार के रूप में हम भारत की एक विशेष संस्कृति को सजीव और साकार पाते हैं, ऐसी संस्कृति जो अब समाप्त हो रही है या हो जाने को है, फिर भी जिसमें भारत की मिट्टी की सोंधी सुबास भरी है। प्रेमचंद ने इसे अमर बना दिया है।

   गोदान में मुंशी प्रेमचंद की कला अपने चरम उत्कर्ष पर पहुँची है। गोदान में भारतीय किसान का संपूर्ण जीवन - उसकी आकांक्षा और निराशा, उसकी धर्मभीरुता और भारतपरायणता के साथ स्वार्थपरता ओर बैठकबाजी, उसकी बेबसी और निरीहता- का जीता जागता चित्र उपस्थित किया गया है। उसकी गर्दन जिस पैर के नीचे दबी है उसे सहलाता, क्लेश और वेदना को झुठलाता, 'मरजाद' की झूठी भावना पर गर्व करता, ऋणग्रस्तता के अभिशाप में पिसता, तिल तिल शूलों भरे पथ पर आगे बढ़ता, भारतीय समाज का मेरुदंड यह किसान कितना शिथिल और जर्जर हो चुका है, यह गोदान में प्रत्यक्ष देखने को मिलता है। नगरों के कोलाहलमय चकाचौंध ने गाँवों की विभूति को कैसे ढँक लिया है, जमींदार, मिल मालिक, पत्रसंपादक, अध्यापक, पेशेवर वकील और डाक्टर, राजनीतिक नेता और राजकर्मचारी जोंक बने कैसे गाँव के इस निरीह किसान का शोषण कर रहे हैं और कैसे गाँव के ही महाजन और पुरोहित उनकी सहायता कर रहे हैं, गोदान में ये सभी तत्व नखदर्पण के समान प्रत्यक्ष हो गए हैं। गोदान, वास्तव में, २०वीं शताब्दी की तीसरी और चौथी दशाब्दियों के भारत का ऐसा सजीव चित्र है, जैसा हमें अन्यत्र मिलना दुर्लभ है।


गोदान में बहुत सी बातें कही गई हैं। जान पड़ता है प्रेमचंद ने अपने संपूर्ण जीवन के व्यंग और विनोद, कसक और वेदना, विद्रोह और वैराग्य, अनुभव और आदर्श् सभी को इसी एक उपन्यास में भर देना चाहा है। प्रेमचंद ने एक स्थान पर लिखा है - 'उपन्यास में आपकी कलम में जितनी शक्ति हो अपना जोर दिखाइए, राजनीति पर तर्क कीजिए, किसी महफिल के वर्णन में १०-२० पृष्ठ लिख डालिए (भाषा सरस होनी चाहिए), कोई दूषण नहीं।'

जिस समय प्रेमचन्द का जन्म हुआ वह युग सामाजिक-धार्मिक रुढ़िवाद से भरा हुआ था। इस रुढ़िवाद से स्वयं प्रेमचन्द भी प्रभावित हुए। जब अपने कथा-साहित्य का सफर शुरु किया अनेकों प्रकार के रुढ़िवाद से ग्रस्त समाज को यथाशक्ति कला के शस्त्र द्वारा मुक्त कराने का संकल्प लिया। अपनी कहानी के बालक के माध्यम से यह घोषणा करते हुए कहा कि "मैं निरर्थक रूढ़ियों और व्यर्थ के बन्धनों का दास नहीं हूँ।" प्रेमचन्द और शोषण का बहुत पुराना रिश्ता माना जा सकता है। क्योंकि बचपन से ही शोषण के शिकार रहे प्रेमचन्द इससे अच्छी तरह वाकिफ हो गए थे। समाज में सदा वर्गवाद व्याप्त रहा है। समाज में रहने वाले हर व्यक्ति को किसी न किसी वर्ग से जुड़ना ही होगा। प्रेमचन्द ने वर्गवाद के खिलाफ लिखने के लिए ही सरकारी पद से त्यागपत्र दे दिया। वह इससे सम्बन्धित बातों को उन्मुख होकर लिखना चाहते थे। उनके मुताबिक वर्तमान युग न तो धर्म का है और न ही मोक्ष का। अर्थ ही इसका प्राण बनता जा रहा है। आवश्यकता के अनुसार अर्थोपार्जन सबके लिए अनिवार्य होता जा रहा है। इसके बिना जिन्दा रहना सर्वथा असंभव है। वह कहते हैं कि समाज में जिन्दा रहने में जितनी कठिनाइयों का सामना लोग करेंगे उतना ही वहाँ गुनाह होगा। अगर समाज में लोग खुशहाल होंगे तो समाज में अच्छाई ज्यादा होगी और समाज में गुनाह नहीं के बराबर होगा। प्रेमचन्द ने शोषितवर्ग के लोगों को उठाने का हर संभव प्रयास किया। उन्होंने आवाज लगाई "ए लोगों जब तुम्हें संसार में रहना है तो जिन्दों की तरह रहो, मुर्दों की तरह जिन्दा रहने से क्या फायदा।" प्रेमचन्द ने अपनी कहानियों में शोषक-समाज के विभिन्न वर्गों की करतूतों व हथकण्डों का पर्दाफाश किया है।

'गोदान' में समान्तर रूप से चलने वाली दोनो कथाएं हैं - एक ग्राम्य कथा और दूसरी नागरी कथा, लेकिन इन दोनो कथाओं में परस्पर सम्बद्धता तथा सन्तुलन पाया जाता है। ये दोनो कथाएं इस उपन्यास की दुर्बलता नहीं वरन, सशक्त विशेषता है। यदि हमें तत्कालीन समय के भारत वर्ष को समझना है तो हमें निश्चित रूप से गोदान को पढना चाहिए इसमें देश-काल की परिस्थितियों का सटीक वर्णन किया गया है। कथा नायक होरी की वेदना पाठको के मन में गहरी संवेदना भर देती है। संयुक्त परिवार के विघटन की पीड़ा होरी को तोड़ देती है परन्तु गोदान की इच्छा उसे जीवित रखती है और वह यह इच्छा मन में लिए ही वह इस दुनिया से कूच कर जाता है। गोदान औपनिवेशिक शासन के अंतर्गत किसान का महाजनी व्यवस्था में चलने वाले निरंतर शोषण तथा उससे उत्पन्न संत्रास की कथा है। गोदान का नायक होरी एक किसान है जो किसान वर्ग के प्रतिनिधि के तौर पर मौजूद है। 'आजीवन दुर्धर्ष संघर्ष के बावजूद उसकी एक गाय की आकांक्षा पूर्ण नहीं हो पाती'। गोदान भारतीय कृषक जीवन के संत्रासमय संघर्ष की कहानी है।

'गोदान' होरी की कहानी है, उस होरी की जो जीवन भर मेहनत करता है, अनेक कष्ट सहता है, केवल इसलिए कि उसकी मर्यादा की रक्षा हो सके और इसीलिए वह दूसरों को प्रसन्न रखने का प्रयास भी करता है, किंतु उसे इसका फल नहीं मिलता और अंत में मजबूर होना पड़ता है, फिर भी अपनी मर्यादा नहीं बचा पाता। परिणामतः वह जप-तप के अपने जीवन को ही होम कर देता है। यह होरी की कहानी नहीं, उस काल के हर भारतीय किसान की आत्मकथा है। और इसके साथ जुड़ी है शहर की प्रासंगिक कहानी। 'गोदान' में उन्होंने ग्राम और शहर की दो कथाओं का इतना यथार्थ रूप और संतुलित मिश्रण प्रस्तुत किया है। दोनों की कथाओं का संगठन इतनी कुशलता से हुआ है कि उसमें प्रवाह आद्योपांत बना रहता है। प्रेमचंद की कलम की यही विशेषता है।

इस रचना में प्रेमचन्द का गांधीवाद से मोहभंग साफ-साफ दिखाई पड़ता है। प्रेमचन्द के पूर्व के उपन्यासों में जहॉ आदर्शवाद दिखाई पड़ता है, गोदान में आकर यथार्थवाद नग्न रूप में परिलक्षित होता है। कई समालोचकों ने इसे महाकाव्यात्मक उपन्यास का दर्जा भी दिया है।
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गबन १९६६- सुनिल दत्त, साधना व अन्य..

गबन प्रेमचंद द्वारा रचित उपन्यास है। ‘निर्मला’ के बाद ‘गबन’ प्रेमचंद का दूसरा यथार्थवादी उपन्यास है। कहना चाहिए कि यह उसके विकास की अगली कड़ी है। ग़बन का मूल विषय है - 'महिलाओं का पति के जीवन पर प्रभाव'। ग़बन प्रेमचन्द के एक विशेष चिन्ताकुल विषय से सम्बन्धित उपन्यास है। यह विषय है, गहनों के प्रति पत्नी के लगाव का पति के जीवन पर प्रभाव। गबन में टूटते मूल्यों के अंधेरे में भटकते मध्यवर्ग का वास्तविक चित्रण किया गया। इन्होंने समझौतापरस्त और महत्वाकांक्षा से पूर्ण मनोवृत्ति तथा पुलिस के चरित्र को बेबाकी से प्रस्तुत करते हुए कहानी को जीवंत बना दिया गया है।

इस उपन्यास में प्रेमचंद ने पहली नारी समस्या को व्यापक भारतीय परिप्रेक्ष्य में रखकर देखा है और उसे तत्कालीन भारतीय स्वाधीनता आंदोलन से जोड़कर देखा है। सामाजिक जीवन और कथा-साहित्य के लिए यह एक नई दिशा की ओर संकेत करता है। यह उपन्यास जीवन की असलियत की छानबीन अधिक गहराई से करता है, भ्रम को तोड़ता है। नए रास्ते तलाशने के लिए पाठक को नई प्रेरणा देता है।

‘गबन’ में प्रेमचन्द ने मध्यवित्त-वर्ग के यथार्थ जीवन और मनोवृत्तियों का चित्रण किया है। प्रेमचन्द ने पहली बार ‘गबन’ में इस वर्ग की समस्याओं को विस्तारपूर्वक प्रस्तुत किया है। इस वर्ग की वास्तविक आय कम है, पर अपनी झूठी शान रखने के लिये इस वर्ग के लोग अपनी हैसियत से बहुत अधिक खर्च करते हैं, और आय तथा व्यय के असन्तुलन को बेईमानी, रिश्वत, झूठ, हेरा-फेरी आदि उपायों से पूरा करना चाहते हैं। मुंशी दीनदयाल अपनी लड़की जालपा की शादी महाशय दयानाथ के पुत्र रमानाथ से करते हैं। दीनदयाल दिल खोल कर खर्च करते हैं, क्योंकि उनका वेतन चाहे केवल पाँच रुपये था, पर ‘ऊपर की आमदनी’ का कोई हिसाब नहीं था।



दूसरी ओर, रमानाथ सुन्दर सजीला जवान है। उसके पिता महाशय दयानाथ बड़े ईमानदार आदमी हैं। उन्होंने कभी एक पैसा भी रिश्वत का नहीं लिया। वह ऐसी पाप की कमाई से घृणा करते हैं। पर लड़का नयी रोशनी का फैशनेबल युवक है। वह अभी बेकार है, पर यार दोस्तों में बैठने-उठने के कारण उसकी खाने-उड़ाने की इच्छा प्रबल हो चुकी है। वह शादी में खूब खर्च करा देता है। दयानाथ भी उसकी तथा अपनी पत्नी की बातों में आकर हैसियत से बहुत बढ़-चढ़कर खर्च कर देते हैं। सर्राफे से उधार गहने आ जाते हैं। दिखाने के लिए और भी कई तरह का खर्च खूब बढ़-बढ़कर किया जाता है। यही खर्च उनके लिए समस्या बन जाता है।

रमानाथ अपनी पत्नी जालपा से घर की स्थिति छिपा कर रखता है। वह उलटा बहुत जीट उड़ाता है— बहुत धन है, जायदाद है, बैंकों में रुपया पड़ा है। वह अपनी पत्नी को खुश रखने के लिए उसकी फरमाइशें पूरा करना चाहता है। सर्राफे के तकाजे होने से उसे अपनी पत्नी के जेवर चुराने पड़ते हैं। स्वयं जेवर चुराकर बाप-बेटा उड़ाते यह हैं कि जेवर चोर चुरा ले गये। इस वर्ग के कृत्रिम जीवन की बहुत सुन्दर झाँकी प्रेमचन्द ने प्रस्तुत की है। इस उपन्यास की मुख्य समस्या नारी का आभूषण-प्रेम नहीं है, जैसा कि कुछ आलोचक कहा करते हैं। आभूषण-प्रेम तो गौण बात है। जालपा के मन में चन्द्रहार की लालसा बचपन से थी और इसमें संदेह नहीं कि उसके जेवर चले जाने पर वह निर्जीव-सी उदास रहने लगी थी और जब रमानाथ फिर सर्राफे से उसके लिये कंगन और हार उधार लाता है तभी वह प्रसन्न होती है। परन्तु इस सारी परिस्थिति के पीछे पति द्वारा वास्तविकता से दुराव है। यदि उसे मालूम हो जाता कि जेवर उधार में आये हैं और घर की वास्तविक स्थिति वह नहीं जो रमानाथ शेखी में बताया करता था, तो वह कभी जेवरों के लिए आग्रह न करती।

रमानाथ स्वयं अपने जाल में फँसता है। अपने जीवन को वह कितना आडम्बरपूर्ण और कृत्रिम बना लेता है। वह अपनी शान रखने के लिए फैशन करता है, अपनी पत्नी को फैशन में रखता है। अपनी पत्नी को अपना वेतन अधिक बताता है। रिश्वत खूब उड़ाता है। रतन के सामने अपनी झूठी शान जताता है। हेरा-फेरी से अपनी बात रखना चाहता है। रतन ने कंगन बनवाने के लिए जो रुपये दिये थे, उन्हें सर्राफे में देकर अपनी साख रखना चाहता है। रतन को झूठ बोल-बोलकर टालता जाता है। पर जब रतन की शंका बढ़ जाती है, वह कड़ा तकाजा करती है, तो वह चुंगी के रुपयों में से रतन को दे देता है और सरकारी गबन के भय से भाग जाता है।

प्रेमचन्द ने मध्यवर्ग के खोखले जीवन की सजीव झाँकी प्रकट की है। इस आडम्बरपूर्ण कृत्रिम और दिखावटी जीवन को निभाने के लिए इस वर्ग के लोगों को कितने स्वाँग रचने पड़ते हैं। किसी भी प्रकार का पाप-कर्म ये कर सकते हैं, बशर्ते कि वह छिपा रहे। चोरी, रिश्वतखोरी, झूठ, फरेब, हेरा-फेरी, गबन सब-कुछ सम्भव है। यद्यपि रमानाथ की समस्या व्यक्ति की समस्या है, पर यह समूचे मध्यवर्ग पर भी लागू होती है। प्रेमचन्द ने उपर्युक्त मुख्य समस्या के अतिरिक्त ब्रिटिश पुलिस-पद्धति के हथकण्डों का इस रचना में खूब पर्दाफाश किया है। पुलिस किस प्रकार झूठे गवाह बनाती है; निर्दोष दिनेश आदि को फँसाती है, गवाहों को प्रलोभन देकर, उनका नैतिक पतन करके अपने जाल में फँसाया जाता है। रिश्वत का बाजार गरम है। सत्याग्रहियों और देशभक्तों को कुचला जाता है। देवीदीन खटीक के जवान बेटे स्वदेशी आन्दोलन में पुलिस की लाठियों का शिकार हुए थे। प्रेमचन्दजी ने इस रचना में भी अनमेल विवाह का एक करुण परिणाम प्रस्तुत किया है। नवयुवती रतन एक सम्पन्न बूढ़े वकील की पत्नी है। यद्यपि वह धनी पति से सन्तुष्ट है, और उसकी अतृप्त लालसा खाने-खर्चने से दबी रहती है, पर प्रेमचन्द ने दो रूपों में उसकी करुण स्थिति में रंग भरा है। पहली स्थिति है उसके अभावग्रस्त मातृत्व का चीत्कार। दूसरी है वृद्ध और रोगी पति की शीघ्र मृत्यु और उसका परिणाम।

यहाँ प्रेमचन्द ने हिन्दू विधवा रतन की असहाय दशा दर्शाकर समाज को विचारने के लिए बाध्य कर दिया है। पति की मृत्यु के बाद उसके अधिकार छिन जाते हैं। उसका भतीजा ही छल-कपट से सारी सम्पत्ति हड़प कर जाता है और वह एकदम कंगाल हो जाती है। यह इस बेमेल वैवाहिक पद्धति का दुष्परिणाम एवं हमारे समाज में नारी की दयनीय दशा का करुणापूर्ण चित्र है।

‘गबन’ में भी प्रेमचन्द ने पूर्णतया यथार्थ से आरम्भ करके आदर्श में परिणति की है। अन्त तक पहुँचते-पहुँचते सब पात्र आदर्शवादी बन जाते हैं। रमानाथ अपनी पत्नी जालपा के प्रभाव से बदल जाता है। वह अपना बयान बदल देता है और निर्दोष अभियुक्तों को छुड़ा लेता है। वह पुलिस के प्रलोभन को ठुकरा देता है। यहाँ तक कि जोहरा वेश्या भी बदल जाती है। वह अपनी वेश्यावृत्ति छोड़कर सेवा और त्याग का जीवन बिताने लगती है। प्रेमचन्द ने रतन, जोहरा, रमानाथ, जालपा, देवीदीन आदि सब पात्रों को अन्त में सेवा और त्याग का आदर्श जीवन बिताते दिखाया है। ये सब अपना एक आदर्श संसार बसाते हैं, जहाँ छल कपट, असत्य, अन्याय आदि के स्थान पर सेवा, सत्य, अहिंसा और प्रेम का राज्य है। किन्तु ‘गबन’में यह आदर्श परिणति किसी प्रकार की अस्वाभाविकता या असंगति प्रतीत नहीं होती। वास्तव में प्रेमचन्द ही नगर के प्रपंचात्मक जीवन से ऊब कर अपने प्रिय ग्राम-जीवन के सरल, शांतिपूर्ण वातावरण में आते प्रतीत होते हैं।
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  शतरंज के खिलाड़ी १९७८- संजीव कुमार, सईद जाफरी, अमजद खान, फारुख शेख, शबाना आजमी, फरीदा जलाल व अन्य..

इस कहानी में प्रेमचंद ने वाजिद अली शाह के वक्त की लखनऊ को चित्रित किया है। भोग-विलास में डूबा हुआ यह शहर राजनीतिक-सामाजिक चेतना से शून्य है। पूरा समाज इस भोग-लिप्सा में शामिल है। इस कहानी के प्रमुख पात्र हैं मिरज़ा सज्जाद अली और मीर रौशनअली। दोनों वाजिदअली शाह के जागीरदार हैं। जीवन की बुनियादी ज़रूरतों के लिए उन्हें कोर्इ फिक्र नहीं है। दोनों गहरे मित्र हैं, और शतरंज खेलना उनका मुख्य काराबेार है। दोनों की बेगमें हैं, नौकर-चाकर हैं, समय से नाश्ता-खाना, पान-तम्बाकु आदि उपलब्ध होता रहता है।

एक दिन की घटना है-मिरज़ा सज्जादअली की बीवी बीमार हो जाती हैं। वह बार-बार नौकर को भेजती हैं कि मिरज़ा हकीम के यहाँ से कोर्इ दवा लायें, किन्तु मिरज़ा तो शतरंज में डूबे हुए हैं। हर घड़ी उन्हें लगता है कि बस अगली बाजी उनकी है। अंत में तंग आकर मिरज़ा की बेगम उन दोनों को खरी-खोटी सुनाती हैं। खेल का सारा ताम-झाम डयोढी के बाहर फेंक देती है। नतीजा यह निकलता है कि शतरंज की बाजी अब मिरज़ा के यहाँ से उठकर मीर के दरवाजे जा बैठती है। मीर साहब की बीवी शुरू में तो कुछ नहीं कहतीं लेकिन जब बात हद से आगे बढ़ने लगती है तब इन दोनों खिलाडि़यों को मात देने के लिए वह एक नायाब तरकीब निकालती है। जैसा कि हमेशा होता था, दोनों मित्र शतरंज की बाजियों में खोये हुए थे कि उसी वक्त बादशाही फौज का एक अफसर मीर साहब का नाम पूछता हुआ आ खड़ा होता है। उसे देखते ही मीर साहब के होश उड़ गये। वह शाही अप़फसर मीर साहब के नौकरों पर खूब रोब ग़ालिब करता है और मीर के न होने की बात सुनकर अगले दिन आने की बात करता है। इस प्रकार यह तमाशा खत्म होता है। दोनों मित्र चिंतित हैं, कि इसका क्या समाधान निकाला जाय।

     मीर और मिरज़ा भी छोटे खिलाड़ी नहीं थे। उन्होंने भी गज़ब की तोड़ निकाली। दोनों मित्रों ने एक बार पुन: स्थान-परिवर्तन करके ही शतरंज खेलने का अपना अगला नया पड़ाव बनाया। न होंगे, न मुलाकात होगी। इधर बेगम आज़ाद हुर्इ उधर मीर बेपरवाह। नया स्थान था शहर से दूर, गोमती के किनारे एक विरान मसिज़द। वहाँ लोगों का आना-जाना बिल्कुल नहीं था। साथ में ज़रूरी सामान, मसलन हुक्का, चिलम दरी आदि ले लिये। कुछ दिनों ऐसा ही चलता रहा। एक दिन अचानक मीर साहब ने देखा कि अंग्रेज़ी फौज गोमती के किनारे-किनारे चली आ रही है। उन्होंने मिरज़ा से हड़बड़ी में यह बात बतार्इ। मिरज़ा ने कहा तुम अपनी चाल बचाओ। अंग्रेज आ रहे हैं आने दो। मीर ने कहा साथ में तोपखाना भी है। मिरज़ा साहब ने कहा यह चकमा किसी और को देना। इस प्रकार पुन: दोनों खेल में गुम हो गए।

कुछ समय में नवाब वाजिद अली शाह कैद कर लिए गए। उसी रास्ते अंग्रेज़ी फौज विजयी-भाव से लौट रही थी। पूरा शहर बेशर्मी के साथ तमाशा देख रहा था कि अवध का इतना बड़ा नवाब चुपचाप सर झुकाए चला जा रहा था। सज्जाद और रौशन दोनोें इस नवाब के जागीरदार थे। नवाब की रक्षा में इन्हें अपनी जान की बाजी लगा देनी चाहिए। परंतु दुर्भाग्य कि जान की बाजी तो इन्होंने लगार्इ ज़रूर पर शतरंज की बाजी पर।



थोड़ी ही देर बाद खेल की बाजी में ये दोनों मित्र उलझ पड़े। बात खानदान और रर्इसी तक आ पहुँची। गाली-गलौज होने लगी। दोनों कटार और तलवार रखते थे। दोनों ने तलवारें निकालीं और एक दूसरे को दे मारीं। दोनों का अंत हो गया। काश! यह मौत नवाब वाजिदअली के पक्ष में और ब्रिटिश फौज के प्रतिपक्ष में हुर्इ होती! लेकिन ऐसा हुआ नहीं।
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कफन १९७८- बांग्ला फिल्म के नामचीन फिल्म मेकर मृणाल सेन ने प्रेमचंद की सुप्रसिद्ध उपन्यास "कफन" का तेलुगु रुपांतरण "ओका उरी कथा" शीर्षक फिल्म से किया था।

ये एक ऐसी कहानी है जो गरीब, पिछड़े वर्ग के जीवन जीने की खत्म हो चुकी इच्छा शक्ति और ज़मीदारो, पूंजीपतियो को आइना दिखाने का काम करती है। समाज में पिछड़ा वर्ग आज भी बेबसी की जिन्दगी जीने को लाचार है । कफ़न तीन पात्र घीसू, माधव और माधव की पत्नी बुधिया के माध्यम से सभी वर्ग समान वर्ग की बात कहने वालो को झुठलाती जान पड़ती है। बहुत से पिछड़ित वर्ग इस भेदभाव को अपनी दिनचर्या मान चुके है इसी पर जोरदार चोट करते हुए प्रेमचन्द ने ये कहानी बुनी।

माधव की पत्नी प्रसव वेदना से रात भर जुझती रही पर माधव को इस गम की ज्यादा फिक्र नहीं थी। फिक्र इस बात की थी कि घर में चुल्हा वेसे ही नही जलता तो होने वाली सन्तान को खिलाएंगे क्या। प्रसव-वेदना से लड़ाई करते हुए बुधिया सुबह तक इस निर्दय समाज को अलविदा कह देती पर माधव और घीसू के चेहरे पर शिकंज तक नहीं आती । क्योकिं वो समझ चुके इस समाज में ज्यादा जीकर दुखो के सिवा किसी से मित्रता नहीं होनी है।

प्रेमचंद साहित्य भारतीय भूमि से कभी ना मिटने वाला महाग्रन्थ है। हिन्दी भाषाओं के साथ साथ भिन्न प्रादेशिक व आंचलिक भाषाओं में बनी कितनी ही कृतियों के साथ आज की युवा पीढी प्रेमचंद नाम का तिलक लगाने में खुद को गौरवान्वित महसूस करती है.. फिर शायद आम जन-जीवन की भावना अभिव्यक्ति का प्रेमचंद से ज्यादा अनूठा स्वर कुछ और नहीं।


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सदगति १९८१- ओम पुरी, स्मिता पाटिल, मोहन अगाशे व अन्य..

सदगति मुंशी प्रेमचंद द्वारा लिखित कहानी पे वर्ष १९८१ में बनी हिन्दी फ़िल्म है। इसका निर्देशन सत्यजित रे ने किया था। ये फ़िल्म का निर्माण खासकर भारतीय टेलिविजन के लिए किया गया था।

इस फ़िल्म में दिखाया गया है की कैसे मानसिक रूप से गुलाम व्यक्ति महंतवाद से अपना शोषण होने देता है और शोषण सहते सहते मर जाता है। मानसिक गुलामी दुनियां की सभी गुलामियों में सबसे बुरी गुलामी है जो की मर जाने से भी बुरी है।

एक अछूत, दुखी अपनी बेटी के शादी की तारीख तय करने के लिए गाँव के पुजारी के पास जाता है। पुजारी इस शर्त पर सहमत होता है कि दुखी उसके लिए मुफ्त में काम करेगा। इसी शर्त पे एक दिन भूखे प्यासे वो लकड़ी का गट्ठर काटते काटते सदगति को प्राप्त कर लेता है। जड़वादी ग्रामीण पृष्ठभूमि पे फिल्मांकन अत्यंत मार्मिक भाव उकेरता है।
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बड़े भाई साहब (शॉर्ट फिल्म)

"बड़े भाई साहब" शीर्षक कहानी में लेखक प्रेमचंद ने अपने बड़े भाई के बारे में लिखा है।

"मेरे भाई साहब मुझसे पाँच साल बड़े थे, लेकिन केवल तीन दरजे आगे। उन्होंने भी उसी उम्र में पढ़ना शुरू किया था जब मैने शुरू किया था; लेकिन तालीम जैसे महत्व के मामले में वह जल्दबाजी से काम लेना पसंद न करते थे। इस भावना की बुनियाद खूब मज़बूत डालना चाहते थे जिस पर आलीशान महल बन सके। एक साल का काम दो साल में करते थे। कभी-कभी तीन साल भी लग जाते थे। बुनियाद ही पुख्ता न हो, तो मकान कैसे पायेदार बने!

मैं छोटा था, वह बड़े थे। मेरी उम्र नौ साल की थी, वह चौदह साल ‍के थे। उन्हें मेरी तंबीह और निगरानी का पूरा जन्मसिद्ध अधिकार था। और मेरी शालीनता इसी में थी कि उनके हुक्म को क़ानून समझूँ। वह स्वभाव से बड़े अध्ययनशील थे। हरदम किताब खोले बैठे रहते और शायद दिमाग को आराम देने के लिए कभी कॉपी पर, कभी किताब के हाशियों पर चिड़ियों, कुत्तों, बिल्लियों की तस्वीरें बनाया करते थे। कभी-कभी एक ही नाम या शब्द या वाक्य दस-बीस बार लिख डालते। कभी एक शेर को बार-बार सुंदर अक्षर में नकल करते। कभी ऐसी शब्द-रचना करते, जिसमें न कोई अर्थ होता, न कोई सामंजस्य! मसलन एक बार उनकी कॉपी पर मैने यह इबारत देखी- स्पेशल, अमीना, भाइयों-भाइयों, दर-असल, भाई-भाई, राधेश्याम, श्रीयुत राधेश्याम, एक घंटे तक- इसके बाद एक आदमी का चेहरा बना हुआ था। मैंने चेष्टा की‍ कि इस पहेली का कोई अर्थ निकालूँ; लेकिन असफल रहा और उनसे पूछने का साहस न हुआ।

वह नवीं जमात में थे, मैं पाँचवी में। उनकी रचनाओं को समझना मेरे लिए छोटा मुँह बड़ी बात थी। मेरा जी पढ़ने में बिलकुल न लगता था। एक घंटा भी किताब लेकर बैठना पहाड़ था। मौक़ा पाते ही हॉस्टल से निकलकर मैदान में आ जाता और कभी कंकरियाँ उछालता, कभी काग़ज़ की तितलियाँ उड़ाता, और कहीं कोई साथी ‍मिल गया तो पूछना ही क्या? कभी चारदीवारी पर चढ़कर नीचे कूद रहे हैं, कभी फाटक पर सवार, उसे आगे-पीछे चलाते हुए मोटरकार का आनंद उठा रहे हैं। लेकिन कमरे में आते ही भाई साहब का रौद्र रूप देखकर प्राण सूख जाते। उनका पहला सवाल होता- ‘कहाँ थे?‘ हमेशा यही सवाल, इसी ध्वनि में पूछा जाता था और इसका जवाब मेरे पास केवल मौन था। न जाने मुँह से यह बात क्यों न निकलती कि जरा बाहर खेल रहा था। मेरा मौन कह देता था कि मुझे अपना अपराध स्वीकार है और भाई साहब के लिए इसके सिवा और कोई इलाज न था कि स्नेह और रोष से मिले हुए शब्दों में मेरा सत्कार करें। ‘इस तरह अंग्रेज़ी पढ़ोगे, तो ज़िंदगी-भर पढ़ते रहोगे और एक हर्फ़ न आयेगा। अंग्रेज़ी पढ़ना कोई हँसी-खेल नहीं है कि जो चाहे पढ़ ले, नहीं, ऐरा-गैरा नत्थू-खैरा सभी अंग्रेज़ी के विद्वान् हो जाते। यहाँ रात-दिन आँखें फोड़नी पड़ती है और ख़ून जलाना पड़ता है, तब कहीं यह विधा आती है। और आती क्या है, हाँ, कहने को आ जाती है। बड़े-बड़े विद्वान् भी शुद्ध अंग्रेज़ी नहीं लिख सकते, बोलना तो दूर रहा। और मैं कहता हूँ, तुम कितने घोंघा हो कि मुझे देखकर भी सबक नहीं लेते। मैं कितनी मेहनत करता हूँ, तुम अपनी आँखों देखते हो, अगर नहीं देखते, जो यह तुम्हारी आँखों का कसूर है, तुम्हारी बुद्धि का कसूर है। इतने मेले-तमाशे होते है, मुझे तुमने कभी देखने जाते देखा है, रोज ही क्रिकेट और हॉकी मैच होते हैं। मैं पास नहीं फटकता। हमेशा पढ़ता रहता हूँ, उस पर भी एक-एक दरजे में दो-दो, तीन-तीन साल पड़ा रहता हूँ फिर तुम कैसे आशा करते हो कि तुम यों खेल-कुद में वक़्त, गँवाकर पास हो जाओगे? मुझे तो दो ही तीन साल लगते हैं, तुम उम्र-भर इसी दरजे में पड़े सड़ते रहोगे। अगर तुम्हें इस तरह उम्र गँवानी है, तो बेहतर है, घर चले जाओ और मजे से गुल्ली-डंडा खेलो। दादा की गाढ़ी कमाई के रुपये क्यों बरबाद करते हो?’



मैं यह लताड़ सुनकर आँसू बहाने लगता। जवाब ही क्या था। अपराध तो मैंने किया, लताड़ कौन सहे? भाई साहब उपदेश की कला में निपुण थे। ऐसी-ऐसी लगती बातें कहते, ऐसे-ऐसे सूक्ति-बाण चलाते कि मेरे जिगर के टुकड़े-टुकड़े हो जाते और हिम्मत छूट जाती। इस तरह जान तोड़कर मेहनत करने कि शक्ति मैं अपने में न पाता था और उस निराशा में जरा देर के लिए मैं सोचने लगता- क्यों न घर चला जाऊँ। जो काम मेरे बूते के बाहर है, उसमें हाथ डालकर क्यों अपनी ज़िंदगी ख़राब करूँ। मुझे अपना मूर्ख रहना मंजूर था; लेकिन उतनी मेहनत ! मुझे तो चक्कर आ जाता था। लेकिन घंटे-दो घंटे बाद निराशा के बादल फट जाते और मैं इरादा करता कि आगे से खूब जी लगाकर पढ़ूँगा। चटपट एक टाइम-टेबिल बना डालता। बिना पहले से नक्शा बनाये, बिना कोई स्कीम तैयार किये काम कैसे शुरू करूँ? टाइम-टेबिल में, खेल-कूद की मद बिलकुल उड़ जाती। प्रात:काल उठना, छ: बजे मुँह-हाथ धो, नाश्ता कर पढ़ने बैठ जाना। छ: से आठ तक अंग्रेज़ी, आठ से नौ तक हिसाब, नौ से साढ़े नौ तक इतिहास, ‍फिर भोजन और स्कूल। साढ़े तीन बजे स्कूल से वापस होकर आधा घंटा आराम, चार से पाँच तक भूगोल, पाँच से छ: तक ग्रामर, आधा घंटा होस्टल के सामने टहलना, साढ़े छ: से सात तक अंग्रेज़ी कम्पोज़ीशन, फिर भोजन करके आठ से नौ तक अनुवाद, नौ से दस तक हिंदी, दस से ग्यारह तक विविध विषय, फिर विश्राम। मगर टाइम-टेबिल बना लेना एक बात है, उस पर अमल करना दूसरी बात। पहले ही दिन से उसकी अवहेलना शुरू हो जाती।

मैदान की वह सुखद हरियाली, हवा के वह हल्के-हल्के झोंके, फुटबाल की उछल-कूद, कबड्डी के वह दाँव-घात, बॉलीबॉल की वह तेजी और फुरती मुझे अज्ञात और अनिवार्य रूप से खींच ले जाती और वहाँ जाते ही मैं सब कुछ भूल जाता। वह जानलेवा टाइम- टेबिल, वह आँखफोड़ पुस्तकें किसी की याद न रहती, और फिर भाई साहब को नसीहत और फजीहत का अवसर मिल जाता। मैं उनके साये से भागता, उनकी आँखों से दूर रहने कि चेष्टा करता। कमरे मे इस तरह दबे पाँव आता कि उन्हें खबर न हो। उनकी नजर मेरी ओर उठी और मेरे प्राण निकले। हमेशा सिर पर एक नंगी तलवार-सी लटकती मालूम होती। फिर भी जैसे मौत और विपत्ति के बीच में भी आदमी मोह और माया के बंधन में जकड़ा रहता है, मैं फटकार और घुडकियाँ खाकर भी खेल-कूद का तिरस्कार न कर सकता।

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