मन की किताब से तुम मेरा नाम ही मिटा देना..
जैसे उन सारे शब्द संगीतों ने मेरे आस-पास ही अपना डेरा डाल दिया हो। फिर अपने पूर्णियाँ कटिहार भागलपुर से सटे परिदृश्य भू-भागों ने तो जैसे इसे पुनर्जीवित व सहेजे रखने का भरसक प्रयास भी किया.. और मैं एक जीवन साक्ष्य की तरह एक नए पात्र को निभाता चलता गया। कटिहार के अपने नानी घर बिजैली जाने के क्रम में, वो टप्पर वाले बैलगाड़ी तो कभी तांगा गाड़ी का कभी पथरिले तो कभी धुल मिट्टी व कादो किचड़ वाले रास्ते से होते हुए अपने पास आते नानी गाँव को देखने की उत्सुकता कुछ कम न थी। बंगाल से सटे इस बांग्ला भाषाई परिक्षेत्रों में एक पारिस्कृत संस्कारों का वास था, जो महानगरों के दंशकोषों से खुद को बचाऐ रखने की अपने गर्भीय जद्दोजहद में रची सनी मूर्धन्य मदमाती सी निश्छल.. और फिर "डोली में बिठाई के कहार" वाला धुन। शायद ग्राम्य भाव से निकलते इन्हीं धुनों को संजोने कभी "पाथेर पांचाली" के लेखक विभूति भूषण बंदोपाध्याय तो कभी "ढोढाय चरितमानस" के लेखक सतीनाथ भादुड़ी इन जीवन मर्मों की ओर रुख लिया करते। इन भावों में पालकी में बैठी अपने पिया घर को जाती बालिका वधु की प्यारी से एक झलक मिल जाती तो.. पालकी अपने कंधों पे उठाये सामंती शासनों के अधीन पसीने से तरबतर कहारों के संसर्ग भी जीवन साध्य को कुछ ढोते तो कुछ जीते चले जाते.. और फिर पीछे छुटती दिखती अपने सपनें को संजोऐ ग्राम्य अमृता एक बंदिनी भी।
हाँ.. फिर बंदिनी से याद आया.. कथा शिल्प बिमल रॉय का अमर प्रेम भी। अपनी फिल्म बंदिनी के कुछ अमर चित्रों को भी तो उन्होंने इसी परिदृश्यों में गुथा था। कटिहार से सटे मनिहारी गंगा घाट पे स्टीम इंजन वाली ट्रेन की बॉगी से उतर घाट से सटे नदी वाले स्टीमर की ओर भागती कर्तव्य परायण बंदिनी। ब्लैक एंड व्हाइट कैन्वास पे अपने रंगीन यौवन को निढाल कर अपने परिणीत के गले जा लिपटती है.. और एक परिणीता बन जाती है। इन जीवंत आत्मोत्सर्गों को महान संगीतकार एस. डी. बर्मन साहब के बनाए धुनों औऱ कुछ गाए गीतों ने जैसा फ्रेम किया.. तो फिर इस लाईफ टाईम फ्रेमिंग से निजात पाना मुश्किल ही है। इनके गीतों का ताना-बाना बिल्कुल मेरे जगह की गंगा, कोशी व महानंदा नदियों के धारों के आस-पास ही बसी-बसाई सी लगती है.. जैसे इस परिदृश्यों से इनका कोई जन्म जन्मांतर का संबंध हो। सचिन देव बर्मन की अमर आवाज में बंदिनी फिल्म का ये गाना - "ओ रे माँझी... मेरे साजन हैं उस पार..." फिर.. "मन की किताब से तुम.. मेरा नाम ही मिटा देना.." कभी मिटाए नहीं जा सकते ...."।
सचिन देव बर्मन को अगर भारतीय सिनेमैटिक संगीत का एक दुर्लभ महापात्र कहें तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी...
#sdburman #sachindevburman
मन की किताब से तू, मेरा नाम ही मिटा देना
गुन तो न था कोई भी, अवगुन मेरे भुला देना
मुझे आज की बिदा का मर के भी रहता इंतज़ार
मेरे साजन हैं उस पार, मैं मन मार, हूँ इस पार
ओ मेरे माझी, अबकी बार, ले चल पार, ले चल पार
~
मत खेल जल जाएगी, कहती है आग मेरे मन की
मैं बंदिनी पिया की चिर संगिनी हूँ साजन की
मेरा खींचती है आँचल मन मीत तेरी हर पुकार
मेरे साजन हैं उस पार..
~
फ़िल्म: बंदिनी / Bandini (1963)
गायक: एस. डी. बर्मन
संगीतकार: एस. डी. बर्मन
गीतकार: शैलेंद्र
अदाकार: अशोक कुमार, नूतन
#MereSajanHainUssPar #Shailendra #AshokKumar #Nutan #Dharmendra #Bandini #bollywood #Manihari #Katihar
जैसे उन सारे शब्द संगीतों ने मेरे आस-पास ही अपना डेरा डाल दिया हो। फिर अपने पूर्णियाँ कटिहार भागलपुर से सटे परिदृश्य भू-भागों ने तो जैसे इसे पुनर्जीवित व सहेजे रखने का भरसक प्रयास भी किया.. और मैं एक जीवन साक्ष्य की तरह एक नए पात्र को निभाता चलता गया। कटिहार के अपने नानी घर बिजैली जाने के क्रम में, वो टप्पर वाले बैलगाड़ी तो कभी तांगा गाड़ी का कभी पथरिले तो कभी धुल मिट्टी व कादो किचड़ वाले रास्ते से होते हुए अपने पास आते नानी गाँव को देखने की उत्सुकता कुछ कम न थी। बंगाल से सटे इस बांग्ला भाषाई परिक्षेत्रों में एक पारिस्कृत संस्कारों का वास था, जो महानगरों के दंशकोषों से खुद को बचाऐ रखने की अपने गर्भीय जद्दोजहद में रची सनी मूर्धन्य मदमाती सी निश्छल.. और फिर "डोली में बिठाई के कहार" वाला धुन। शायद ग्राम्य भाव से निकलते इन्हीं धुनों को संजोने कभी "पाथेर पांचाली" के लेखक विभूति भूषण बंदोपाध्याय तो कभी "ढोढाय चरितमानस" के लेखक सतीनाथ भादुड़ी इन जीवन मर्मों की ओर रुख लिया करते। इन भावों में पालकी में बैठी अपने पिया घर को जाती बालिका वधु की प्यारी से एक झलक मिल जाती तो.. पालकी अपने कंधों पे उठाये सामंती शासनों के अधीन पसीने से तरबतर कहारों के संसर्ग भी जीवन साध्य को कुछ ढोते तो कुछ जीते चले जाते.. और फिर पीछे छुटती दिखती अपने सपनें को संजोऐ ग्राम्य अमृता एक बंदिनी भी।
हाँ.. फिर बंदिनी से याद आया.. कथा शिल्प बिमल रॉय का अमर प्रेम भी। अपनी फिल्म बंदिनी के कुछ अमर चित्रों को भी तो उन्होंने इसी परिदृश्यों में गुथा था। कटिहार से सटे मनिहारी गंगा घाट पे स्टीम इंजन वाली ट्रेन की बॉगी से उतर घाट से सटे नदी वाले स्टीमर की ओर भागती कर्तव्य परायण बंदिनी। ब्लैक एंड व्हाइट कैन्वास पे अपने रंगीन यौवन को निढाल कर अपने परिणीत के गले जा लिपटती है.. और एक परिणीता बन जाती है। इन जीवंत आत्मोत्सर्गों को महान संगीतकार एस. डी. बर्मन साहब के बनाए धुनों औऱ कुछ गाए गीतों ने जैसा फ्रेम किया.. तो फिर इस लाईफ टाईम फ्रेमिंग से निजात पाना मुश्किल ही है। इनके गीतों का ताना-बाना बिल्कुल मेरे जगह की गंगा, कोशी व महानंदा नदियों के धारों के आस-पास ही बसी-बसाई सी लगती है.. जैसे इस परिदृश्यों से इनका कोई जन्म जन्मांतर का संबंध हो। सचिन देव बर्मन की अमर आवाज में बंदिनी फिल्म का ये गाना - "ओ रे माँझी... मेरे साजन हैं उस पार..." फिर.. "मन की किताब से तुम.. मेरा नाम ही मिटा देना.." कभी मिटाए नहीं जा सकते ...."।
सचिन देव बर्मन को अगर भारतीय सिनेमैटिक संगीत का एक दुर्लभ महापात्र कहें तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी...
#sdburman #sachindevburman
मन की किताब से तू, मेरा नाम ही मिटा देना
गुन तो न था कोई भी, अवगुन मेरे भुला देना
मुझे आज की बिदा का मर के भी रहता इंतज़ार
मेरे साजन हैं उस पार, मैं मन मार, हूँ इस पार
ओ मेरे माझी, अबकी बार, ले चल पार, ले चल पार
~
मत खेल जल जाएगी, कहती है आग मेरे मन की
मैं बंदिनी पिया की चिर संगिनी हूँ साजन की
मेरा खींचती है आँचल मन मीत तेरी हर पुकार
मेरे साजन हैं उस पार..
~
फ़िल्म: बंदिनी / Bandini (1963)
गायक: एस. डी. बर्मन
संगीतकार: एस. डी. बर्मन
गीतकार: शैलेंद्र
अदाकार: अशोक कुमार, नूतन
#MereSajanHainUssPar #Shailendra #AshokKumar #Nutan #Dharmendra #Bandini #bollywood #Manihari #Katihar
Chitraheen hote hue bhi lekh sachitra hai bilkul👍
ReplyDeleteJi.. Dhanyawad 🙏🙏
Deleteवाह!
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