१९५६ की राज कपूर अभिनीत फिल्म जागते रहो, तत्कालीन स्वतंत्र भारतीय सामाजिक अर्थव्यवस्था की जड़े खंगालती एक व्यंग्यात्मक फिल्म है। इसने स्वतंत्रता प्राप्ति के उपरांत हमारे भारतीय समाज के सामने एक चेतावनी प्रस्तुत की थी जो समाज को पूरी तरह भ्रष्ट होने से बचा सके। यह एक हताशा से भरे समाज में मौजूद मासूमियत व इन्नोसेंस को बचाये रखने का एक सटीक प्रयास भी था। सामाजिक रुप से फिल्म का उद्देश्य केवल इसी बात की सफलता पे केन्द्रित थी क्योंकि पिछली सदी के पचास के दशक से अब तक पिछले साठ सत्तर सालों में भ्रष्टाचार का ग्राफ बेतहाशा बढ़ चूका है।
जागते रहो फिल्म कथानक सामाजिक व्यंग्य की नदी पर हास्य की लहरें बहाती हुयी आती है और भ्रष्टाचार की जम चुकी चट्टानों को परत दर परत खुरचने और रेत बनाने का काम करती जाती हैं। जागते रहो सिर्फ वही नहीं है जो साफ साफ परदे पर दिख जा रही थी बल्कि यह एक रुपक की भाषा में भी काम करती है। शायद बिल्कुल ऐसा न होता हो पर फेंटेसी के स्तर पर विचरती हुई प्रकृति को लेकर यह घनघोर यथार्थवादी स्वभाव की फिल्म के रुप में सामने आती है।
भ्रष्टाचार से ग्रसित भारत के एक बड़े शहर में खड़ी वह इमारत, जहाँ गाँँव से आया भूखा प्यासा एक गरीब अनाम आदमी राजू (राज कपूर) पुलिस के डर से एक इमारत में घुस जाता है और उस ऊँची इमारत में रहने वाले लोगों के काले कारनामों को देख लेता है। यह सफेदपोशों के शान से रहने की इमारत है। यहाँ अवैध शराब बनाने वाले रहते हैं, यहाँ नकली नोटों को छापने वाले सेठ रहते हैं, यहाँ काला बाजारिये भी रहते हैं और नकली दवाइयाँ बनाने वाले भी। अनाम घुसपैठिया राजू न चाहते हुये भी इस इमारत में भिन्न भिन्न लोगों की कारगुजारियों का गवाह बनता जाता है।
लोगों की दूसरों के जीवन में बिना मतलब दखल देने जैसी सामान्य बुराई पर भी फिल्म खूब फोकस करती है।
कम ही फिल्में इस तरह से लोगों के समूह को आइना दिखा पाती हैं जैसे जागते रहो दिखाती है। एक ऐसे युवा भी हैं जिन्हे भीड़ का नेता बनने का शौक है। गैर कानूनी काम करने वाले धर्मात्मा और सफेदपोश बने रहते हैं क्योंकि उन्हे कानूनी व्यवस्था पकड़ नहीं पायी और सामाजिक व्यवस्था उन्हे उनके धन के कारण सम्मान देती आ रही है।
राज कपूर ने न सिर्फ इस अनूठी फिल्म में काम किया बल्कि इसे अपने बैनर आर के बैनर तले निर्मित भी किया और निर्देशन की भूमिका सौंपी शम्भू और अमित मित्रा को। फिल्म शुरुआत के कुछ देर बाद ही इसे याद रख पाना मुश्किल हो जाता है कि परदे पर राज कपूर कहीं मौजूद भी हैं। मुश्किल से तीन चार संवाद पाने वाली यह भूमिका उनके अभिनय के लिहाज से ज्यादा उनके परदे पर उपस्थित रहने की वजह से अविस्मरणीय कही जाएगी। कुछ दृश्य़ों में लगता है कि वे नाटकीय हो रहे हैं पर जैसे जैसे फिल्म आगे बढ़ती है राज कपूर खो जाते हैं और मुसीबत का मारा वह अनाम गरीब चरित्र परदे पर हावी हो जाता है जिसके सामने परेशानियाँ आती रहती हैं और जो अंजाने में ही उस इमारत में रह रहे लोगों और अपराधियों के भेद खोलता चला जाता है।
यह ऐसी फिल्म है जिसमें फिल्म का अंत आने पर ही राज कपूर के अभिनय प्रदर्शन की कड़ियाँ जुड़ पाती हैं। जहाँ दर्द बयाँ करने का क्षण आता है वहाँ राज कपूर केवल आँखों से ही संदेश संप्रेषित कर देते हैं। जागो मोहन प्यारे जागो गीत में वे भावनाओं की अभिव्यक्ति में ही अपने अंतर्मन को जी रहे हैं।
मनोविज्ञान के स्तर पर आसान नहीं है इस चरित्र को निभाना। कभी प्रेमचंद ने अपनी किसी कृति में लिखा था– "भय की चरम सीमा ही साहस/(दुस्साहस) है" और जागते रहो में इस कथन को साक्षात रुप से घटते हुये देखा भी जा सकता है। लोगों से बचते बचाते, भागते दौड़ते राज कपूर थक जाते हैं, पहले वे एक सेठ के गुण्डों के हाथ पड़ जाने से डर के मारे वे सब काम करने को तैयार हो जाते हैं जो सेठ उन्हे कहता है। सेठ को अपनी खाल बचाने के लिये और दुनिया के सामने खुद को सफेद्पोश बनाये रखने के लिये एक मुर्गा चाहिये जो उन्हे इमारत में एक अनाम घुसपैठिये चोर के रुप में कुख्यात हो चुके राज कपूर में दिखायी दे जाता है। वे अपने सारे काले धंधों की कालिख इस व्यक्त्ति पर पोत कर खुद को पाक दामन सिद्ध कर सकते हैं। वे नकली नोट बनाने वाले फर्मे और बहुत सारे नकली नोट राज कपूर के शरीर के साथ बाँधकर उन्हे खिड़की से बाहर जाकर पाइप के सहारे नीचे जाने के लिये विवश कर देते हैं। भीड़ राज कपूर को देख लेती है और उन पर पत्थरों की बरसात हो जाती है। डर कर राज कपूर छत पर चढ़ जाते हैं जहाँ भीड़ उन्हे घेर लेती है, सेठ के आदेशानुसार उनके गुण्डे भी राज कपूर को मारने के लिये पहुँच जाते हैं क्योंकि राज कपूर का जिंदा रहना उन लोगों के जीवन के लिये खतरनाक साबित होगा।
भीड़ से घिरे अकेले निहत्थे खड़े राज कपूर के चारों तरफ मौत खड़ी है। एक अनाम चोर और अपराधी के रुप में मरना इस देहाती को मंजूर नहीं है और उनमें कहीं से आकर साहस का संचार हो जाता है वे पास पड़ी लाठी उठा कर भीड़ को ललकारते हैं। राज कपूर का मोनोलॉग फिल्म की रीढ़ की हडडी है। वे बताते हैं भीड़ को कि पानी की तलाश में उन्हे इस इमारत में आना पड़ा और उन्होने यहाँ रहने वाले सफेदपोशों के काले कारनामे देखे। वे एक किसान के बेटे हैं जो काम की तलाश में शहर आये हैं न कि कोई चोर। उनके संवाद देश को रसातल में गिरने से बचाने के लिये एक चेतावनी हैं पर भीड़ ने किसकी सुनी है? वहाँ से भी उन्हे भागना पड़ता है।
रोचक बात यह है कि फिल्म की शुरुआत में ही प्यासे राज कपूरको एक पुलिस वाले की वजह से डरकर उस इमारत में दाखिल होना पड़ता है पर वहाँ लोग उन्हे चोर समझ बैठते हैं और भाग-दौड़ में वे मौका आने पर भी पानी नहीं पी पाते। नरगिसको एक विशेष भूमिका में रखा गया है। वे अंतिम दृश्य में प्यासे राज कपूर को पानी पिलाती हैं।
हालाँकि जागो मोहन प्यारे जागो गीत के साथ साथ फिल्म खत्म हो जाती है और इस गीत के साथ साथ एक आशावाद फैलाने का प्रयास फिल्म करती है। परंतु पचास साल से लम्बे अरसे बाद पुनरावलोकन करने और विश्लेषण करने पर एक निराशावाद घर कर लेता है।
तब भीड़ से भागते राज कपूर को एक बच्चे के घर में घुसना पड़ता है और वह भी पहले अजनबी को चोर ही समझता है पर राज कपूर उस बच्चे के सामने टूट जाते हैं और रोकर कहते हैं कि वे चोर नहीं हैं। मासूम बच्चा उन पर विश्वास करता है। जब सब तरफ भ्रष्टाचार का अंधेरा फैल जाये तो नयी पीढ़ी के बच्चों के नये अस्तित्व से और उनकी शुद्ध उपस्थिति से ही कुछ आशा बंध सकती है। रोशनी तो उसी तरफ से आ सकती है।
रुपक के रुप में इस कड़ी को जोड़ें तो इस बच्चे का जन्म तब का माना जा सकता है जब भारत में संविधान लागू हुआ या इसका जन्म हुआ। उस साल जन्मी पीढ़ी का प्रतिनिधि बच्चा सन 1956 में उस कृषक के बेटे राज कपूर से मासूमियत से कहता है,” डरते हो… पर क्यों,… तुमने तो कुछ नहीं किया“? मासूमियत भरा विश्वास टूटे राज कपूर में बल का संचार करता है।
ऐसे निराशाजनक माहौल में फैज़ का कलाम याद आता है-
"ये दाग दाग उजाला, ये शब-गजीदा शहर..
वो इंतजार था जिसका, ये वो शहर तो नहीं,
ये वो शहर तो नहीं जिसकी आरजू लेकर..
चले थे यार के मिल जायेगी कहीं न कहीं,
फलक के दश्त में तारों की आखिरी मंजिल..
कहीं तो होगा शब-ए-सुस्त मौज का साहिल..
कहीं तो जाके रुकेगा सफीना-ए-ग़म-ए-दिल.."
लेकिन यह संभावना तो थी ही कि सन पचास में जन्मी उस पीढ़ी के कुछ लोग अपनी ईमानदारी सदा के लिए बचा कर रख पाऐंगे। देश में, समाज में अगर भ्रष्टाचार एक हद दर्जे को पार कर लेगी तब भी कहीं धीमी ही सही पर ईमान की लौ तो जलती ही रहेगी, नहीं तो ईमानदारी शब्द आज भी एक गाली बन कर ही रह गया होता।
(इंटरनेट गूगल के माध्यम प्राप्त विश्लेषण)
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वर्ष २००३ के एक मिडिया मैनेजमेंट एग्जाम के इंटरव्यू के दौरान बैंडिट क्वीन फेम्ड सुप्रसिद्ध फिल्म प्रोड्यूसर श्री बॉबी सिंह बेदी के माध्यम से ही सतिनाथ भादुड़ी जी का नाम दुसरी बार सुना था मैने, और इसलिए भी.. कि मैं पूर्णियाँ बिहार से था.. और फिर शायद उनकी हमारे इस क्षेत्र से जुड़ी जानकारियाँँ काफी पुख्ता थीं। फिर ये हमारे पूर्णियाँ के सतीनाथ ही थे जिनके प्रेरणा व मार्गदर्शन से ही तब के रिपोर्टाज किंग फनिश्वरनाथ रेणु के कलम और प्रखर हो चले थे। २००४ में पूर्णियाँ के एक प्राईवेट इंजीनियरिंग कॉलेज को जॉय्न करने के बाद तो जैसे मैं इन साहित्य सम्राटों के आरामगाह में ही आ बैठा था। २००५ में एक बार अपने एक दोस्त की बराती जाने के क्रम में, मैं अपने स्कूली मित्रों के साथ अररिया के गिद्धवास होते हुए गाँव व खेतों के बीचोबीच होकर जाने वाली एक दुभर रास्ते से पहली बार फनिश्वरनाथ रेणु जी के मूल गाँव औराही हिंगना जा पहुंचा था। फिर अध्यापन के साथ यदा कदा मिलते कुछ साहित्यिक रुझानों व अवसरों से दिल बहला रहता। जानने पहचानने की इसी उत्सुकता लिए एक बार दुर्गा पूजा के दिनों में अपने पुर्णियाँ शहर के भट्टा दुर्गा बाड़ी जाने के क्रम में रास्ते पे बाँयी ओर चौराहे से लगी एक शिलापट्ट दिखाई दी.. लिखा था "सतीनाथ भादुड़ी पथ"..।
दुर्गा बाड़ी से वापस घर लौटने के बाद.. ये सोच कि कुछ सफलता हाथ लगी हो.. मगर जैसे इस आवरण के भीतर मेरा प्रवेश अभी बाकी था.. सतीनाथ नाम के सिवा मेरे पास कुछ भी न था.. और इसलिये भी की ये शब्द मैने पहली बार कलकत्ता युनिवर्सिटी में पढ रहे अपने बचपन के मित्र से पहली बार सुना था तो दुसरी बार दिल्ली कुतुब सेंटर में एक सम्मानित फिल्म मेकर बॉबी सिंह बेदी से। करीब एक दो हफ्ते बाद रविवार के दिन सुबह करीब ८-९ बजे फुर्सत के साथ मैं पुर्णियाँ भट्टा बाजार को निकला। संडे के दिन भट्टा बाजार के मछली मार्केट का दृश्य कुछ और ही अनोखा मिलता है। तरह तरह की मछलियों का जखीरा पसरा रहता है। छोटी बड़ी.. आन्ध्रा या लोकल.. खास बात ये कि मछलियों के स्वाद पे रिसर्च के अगर आप शौकीन हैं तो ये मछली खरीददारी की एक महफूज जगह है। फिर स्मृतियों में बाँग्ला कल्चर के स्वाद को बैलेंस करती ये जगह भद्र-मानुषों के लिए एक माईलस्टोन से कुछ कम नहीं। रोजाना की भांति एक विशुद्ध प्रक्रिया.. हाथ में थैला लिए.. मछली के भाव को आजमाने वे निकल ही पड़ते और फिर लौटते कुछ हरी साग-सब्जियों की खरीददारी भी। इन उपसर्गों को लिए मैनें भी यहाँ की लोकल नदियों व तालाबों से लायी गई कुछ छोटी मछलियों की खरीददारी की। घर लौटने के क्रम में रहा ना गया और भट्टा दुर्गाबाड़ी के पीछे अपने रिटायर्ड जज मामा जी श्री अनादि गोपाल दत्ता से मिलने चला गया। भट्टा दुर्गाबाड़ी के इस छोर पे मानों साहित्य व कलात्मकता का मुझे एक संगम मिल सा जाता है। मामा जी से बातों बातों में जो एक निचोड़ मिलता दिखा.. वो ये कि राज कपूर की "जागते रहो" फिल्म का आधार सतिनाथ भादुड़ी की "जागरी" ही थी। भले ही जागरी कथानक व फिल्म स्टोरी लाईन में अंतर रहा हो.. परंतु मूल स्वर एंटी करप्शन बैक-ग्राउंड ही था, जिसका क्रेडिट लेने से सतीनाथ ने साफ मना कर दिया था। उनके अनुसार लेखन व फिल्म मेकिंग ये दो अलग अलग सी विधाऐं हैं। सतीनाथ व जागरी से जुड़ी इन अंतर्मनों को लिए मैं वहाँ से चल तो पड़ा था, लेकिन रह रह कर कुछ सवाल मन में उठते चले जा रहे थे। एक ऐसा बोध जहाँ वर्णित शब्द श्रृखलाऐं ही अप्रतिम हो.. अंत हो। फिर अपने काल खंडों में हम कितने ही नए पात्रों व मंथनों से इसकी रुप सज्जा कर लें.. लेकिन लिखे शब्दों के अमरत्व को कभी दुबारा जी नहीं सकते। अपने नए शोधों व जानकारियों में मिले तथ्यों में सतिनाथ के जीवन के बारे में कुछ लेख इंटरनेट के माध्यम तो समय समय पे मेरे जज मामा व उनके छोटे भाई साहित्य प्रेमी श्री अनंत गोपाल दत्ता से प्राप्त होता चला गया।
अपने साहित्यिक अलंकारों में सतीनाथ भादुड़ी को "चित्रगुप्त" नाम से नवाजा गया था। इनका जन्म २७ सितंबर १९०६ को हमारे पूर्णियाँ बिहार में हुआ था। इनके पिता इंदुभूषण भादुड़ी पेशे से एक वकील थे, जिनका पैतृक स्थान पश्चिम बंगाल के नादिया जिले के कृष्णा नगर तहसील में था। याद रहे कि ये ब्रिटिश हुकूमत का वो दौर था जब आज के दौर का बिहार, झारखण्ड व उड़िसा.. पश्चिम बंगाल के साथ मिलकर बंगाल युनाईटेड प्रोविंस के नाम से जाना जाता था। इस युनाईटेड प्रोविंस की सीमाऐं आज के बांग्ला देश की कुछ हिस्सों को लेकर पश्चिम में वाराणसी तक जा मिलती थी तो उत्तर में पर्वतीय छोड़ दार्जिलिंग व असम के कुछ हिस्सों को लेकर दक्षिण में उत्कल उड़िसा तक जाती थी। फिर इस ब्रिटिश हुकूमत के कालखण्ड में वकालत का पेशा एक अति सम्मानित पेशा था, जो भारतीय जन मानस की मुखरता का एक सटीक साध्य भी था। अपने बचपन की पढाई पूर्णियाँ में करने के बाद सतीनाथ ने पोस्ट ग्रैजुएशन इकोनॉमिक्स एम ए की डिग्री पटना युनिवर्सिटी से प्राप्त की और पुनः अपने पिता के रास्तों पे चल कर कानून की पढाई भी पटना में रहकर ही पूरी की थी। वर्ष १९३१ में लॉ की डिग्री लेने के बाद १९३२ से लेकर १९३९ तक पटना हाईकोर्ट में ही वकालत की प्रैक्टिस करते रहे।
भीरु स्वभाव के साथ अध्यात्म और साहित्यिक बैकग्राउण्ड में बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय, रविन्द्रनाथ टैगोर व शरतचंद्र चट्टोपाध्याय की छाया तो भला देशभाव में ये आनन्द मठी भी कब तक रुका रह सकता था। बस क्या था, एक स्थिर मन लिए प्रोफेशनल वकालती चोला उतार फेंका और कूद पड़े आजादी के अग्निपथ में। अपने आंदोलन में उन्होंने सर्वप्रथम काँग्रेस को जाय्न किया और फिर अपने गृह नगर पूर्णियाँ काँग्रेस इकाई के डिस्ट्रिक्ट सेक्रेटरी भी बनाऐ गए। अपने तेज संबोधनों व जोशिले रुख के कारण देश छोड़ो आंदोलन में एक सक्रिय भागीदारी के कारण सतिनाथ भादुड़ी दो बार जेल भी गए। पहली बार वर्ष १९४०-४१ तो दुसरी बार वर्ष १९४२-४५.. दोनों ही बार इन्हें भागलपुर सेन्ट्रल जेल में रखा गया। कहते हैं १९४२ भागलपुर जेल में ही पहली बार फनिश्वर नाथ रेणु भी इनके संपर्क में आऐ। उस समय सतिनाथ जेल में ही रहकर अपनी लेखन प्रतिभा को तराश रहे थे और अपनी प्रथम साहित्यिक रचना "जागरी" को लिखना भी उन्होंने यहीं आरम्भ किया। फिर अपनी साहित्यिक अभिरुचियों की साझेदारी भी पास आऐ फनिश्वर नाथ से किया करते और फिर इन्हीं मेल जोल में उन्होंने फनिश्वर नाथ को अपने रिपोर्ताजों से निकल उपन्यास लेखन के तेज को दिशा प्रदान की। जानने वाले प्रथमत: सतीनाथ भादुड़ी को ही फनिश्वरनाथ रेणु का साहित्यिक अभिष्ट मानते हैं।
१९४२ का वो दौर जब समूचा भारत महात्मा गाँधी के नेतृत्व में अंग्रेजों के विरुद्ध भारत छोड़ो आंदोलन में संघर्षरत था। भारत की आजादी के दिवाने उन अनेकों क्रांतिकारियों व देश भक्तों में सतीनाथ भी एक थे, जिन्हें गिरफ्तार कर भागलपुर की जेल में रखा गया था। भागलपुर जेल की उन्हीं चहारदीवारियों के बीच भारत को आजादी के एक नए परचम थामें देखने की कशमकश तो साथ ही एक दुर्गम्य विवशताओं का मंजर भी साथ हो चला था। सतीनाथ भादुड़ी की जागरी उसी विवशताओं से नए भारत की प्रतिमुर्ति थी। जहाँ गरीबी और बढते असंतोष के बीच भ्रष्टाचार और अन्याय का बोलबाला था। सामंती प्रथाओं व साथ में अंग्रेजी सल्तनत की जी हूजुरी में भारत का एक धनाढ्य तबका तो फल फूल रहा था लेकिन इस फल फूलते दृश्यांतर में पीछे छूटता एक निर्बल व शोषित वर्ग तो बस मुँह ताकता ही नजर आता। वर्ष १९४५ में जेल से निकलने के बाद सतीनाथ भादुड़ी की बांग्ला भाषा में लिखी जागरी का प्रकाशन वर्ष १९४६ में कलकत्ता से संभव हो पाया था। भारतीय स्वतंत्रता की पूर्व संध्या व बढते जन असंतोष के बीच दंगों का दंश झेलता पूरा बंगाल परिक्षेत्र। इन सभों के मध्य ही सही "जागरी" के उत्कृष्ट लेखन ने हताशा से भरे आमजनों में ढांढस बनाऐ रखने व सही दिशानिर्देशों को देने में एक सक्षम योगदान दिया था।
१९४७ में स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात इन्होंने १९४८ में कॉन्ग्रेस पार्टी को त्याग कर सोशलिस्ट पार्टी से जुड़ गए और सामाजिक कर्तव्यों से प्रेरित होकर पूर्ण रुप से साहित्य धर्मिता का ही चुनाव किया। १९४८ में गणनायक, १९४९ में चित्रगुप्तेर फाईल व ढोढाय चरीतमानस के प्रथम संस्करणों ने इन्हें अवसादों से घिरे आजाद भारत में बाँग्ला साहित्य का नया मसीहा बना दिया। बांग्ला साहित्य के प्रति इनके उत्कृष्ट योगदान के कारण वर्ष १९५० में गुरु रविंद्र नाथ टैगोर के मरणोपरांत इन्हें प्रथम रविन्द्र नाथ साहित्य पुरस्कार से नवाजा गया। अपने युरोप व पेरिस यात्राओं की कथाओं का अनुमोदन इन्होंने अपनी यात्रा-वृतांत १९५१ में प्रकाशित "सत्यी भ्रमण कहिनी" के द्वारा किया। इसके पश्चात १९५१ में ही इन्होंने ढोढाय चरितमानस के द्वितीय खंड, १९५४ में अचिन रागिनी व परिचिता, १९५७ में संगकट, १९६४ की आलोक दृष्टि के साथ अनेकों रचनाओं व लेखों का प्रकाशन कलकत्ता व पूर्णियाँ के मध्य रहकर ही किया और अंततोगत्वा ३० मार्च १९६५ को चिर निद्रा में हमेशा के लिए विलीन हो गए। सतीनाथ की अप्रतिम कृतियों में जागरी ने जहाँ आजाद भारत में व्याप्त भ्रष्टाचार व बंगाल विभाजन के दंशों को बखूबी चित्रित किया तो वहीं उनके ढोढाय चरितमानस में कोशी अंचल के सामाजिक जीवन का चित्रण साफ झलकता है। इनकी अन्य मुख्य रचनाओं में दिग्भ्रांत, रथेर तले, कृष्ण कली, पंक तालिका आदि प्रमुख हैं तो कर दातार संघ जिन्दाबाद कहानी में हास्य के माध्यम से मानवीय विकृतियों को भी उजागर किया है जो झूठ और बेईमानी से उपजती है।
इंटरनेट व आमजनों द्वारा प्राप्त जानकारियों में भले ही ये अपनी साहित्यिक निधियों के शिखर पर विराजमान रहे हों.. लेकिन इनका मन हमेशा कलकत्ता से निकल कटिहार पूर्णियाँ के रास्तों में संघर्षरत एक दरिद्रनारायण पात्र को ही ढूंढता नजर आया और फिर इनके पूर्वकालीन व समकालीन कहे जाने वाले अनेक साहित्यिक विभूतियों में स्थापित विभूति भूषण बंदोपाध्याय, बनफूल, केदारनाथ बंदोपाध्याय, फनिश्वरनाथ रेणु आदि को भी गंगा-कोशी व महानंदा नदियों की गोद में बसा का ये सांस्कृतिक प्रक्षेत्र खुब रास आया था। फनिश्वरनाथ रेणु की सुप्रसिद्ध कृति मैला आँचल भी स्वतंत्रता आंदोलन के काल की ही कृति मानी जाती है। बांग्ला भाषी साहित्यकारों के साथ कटिहार अररिया फारबीसगंज से लेकर सहरसा कोशी अंचल तक फैले तत्कालीन पूर्णियाँ प्रमंडल के अभिन्न हिन्दी भाषी साहित्यकारों में फनिश्वर नाथ रेणु के साथ लक्ष्मीनारायण सुधांशु, जनार्दन झा द्विज, वफा मलिकपुरी, अनूपलाल मंडल आदि साहित्यकार आज भी शीर्षस्थ बने हुए हैं।
(पूर्णियाँ आकाशवाणी केन्द्र से प्राप्त पेंटिंग)
पूर्णियाँ भट्टा दुर्गाबाड़ी स्थित इंदुभूषण पब्लिक लाइब्रेरी की स्थापना स्वयं सतीनाथ भादुड़ी ने ही सन् १९३८ में की थी। सामाजिक प्रयासों से आज भी ये लाइब्रेरी अनेकानेक हिन्दी व बांग्ला साहित्य की दुर्लभ पुस्तकों को बड़ी ही तल्लीनता से सहेजे हुए है। पूर्णियाँ गांगुली पारा भट्टा दुर्गाबाड़ी स्थित उनके निज निवास वाले मार्ग का नामकरण भी सतीनाथ भादुड़ी पथ से ही सुशोभित है। वर्तमान में उनके पैतृक निवास के मालिक व ईन्कम टैक्स लॉयर श्री डोकानियाँ सतीनाथ भादुड़ी से जुड़ी अनेक जीवन वृत्त साक्ष्यों का उल्लेख बड़े हर्ष से करते हैं। अपने कम उम्र में ही सतीनाथ ने साहित्यिक प्रेरण की वरमाला इस तरह पहनी की जीवन प्रयंत एक वैवाहिक वरमाला कोसों दुर ही खड़ी रही। श्री डोकानियाँ अपनी बातो में कुछ मर्मस्पर्शी पत्राचार लेखों का जिक्र बड़ी दिलचस्पी से करते हैं.. जिसमें सतीनाथ के परिजनों द्वारा सतीनाथ के विवाह संबंधी समाधानों का सहर्ष प्रयास दिखता है। उस जमाने में उनके इस निवास से महज कुछ ही फासले से ततमा टोली की बस्ती दिखती थी, जिसका जिक्र उन्होंने बखूबी अपने "ढोढाय चरितमानस" में किया भी है। जानकारों के अनुसार वे केवल तन से कलकत्ता के अधीन थे जबकि उनका मन हमेशा पूर्णियाँ के परिदृश्यों में ही विचरण करता रहता। वे जब भी कलकत्ते से पूर्णियाँ को आते तो हमेशा की तरह अपने दैनिक उपयोग की सामग्रियों व पहनावे वाले वस्त्रों की खरीददारी पूर्णियाँ भट्टा बाजार से ही किया करते थे.. तो फिर पूर्णियाँ के इस जाग्रत स्तंभ सपूत को बदलते कालखंड में इतनी आसानी से कैसे भुलाया जा सकता है।
सतीनाथ भादुड़ी की विश्व प्रसिद्ध "जागरी" का बांग्ला भाषा से अंग्रेजी भाषा में रुपांतरण "द विजील" के रुप में सुप्रसिद्ध लेखिका सुश्री लीला रे द्वारा किया गया है, जिसे यूनेस्कों ने भारतीय साहित्य की अनमोल निधि के रुप में कुछ चुनिंदा कृतियों के साथ संरक्षित कर हम सभी भारतवासियों का मान बढाने का एक सक्षम कार्य किया तो है ..लेकिन जैसे सतीनाथ भादुड़ी का नाम अपने ही कर्मस्थल पूर्णियाँ बिहार में साहित्यिक प्रतिस्पर्धा का शिकार हो गया। बात वर्ष २००९ में पूर्णियाँ स्थित कलाभवन में दैनिक जागरण समाचारपत्र के सौजन्य से आयोजित हास्य कवि सम्मेलन की है। देश भर से आऐ नामी गिरामी हास्य कवियों का जमावड़ा लगा था और फिर कार्यक्रम के आरंभिक संबोधनों में पूर्णियाँ व सीमांचल क्षेत्र से जुड़े लेखकों, कवियों व साहित्यकारों का नाम एक एक कर पढा जाने लगा। मंच से पूर्णियाँ के सभी कवियों लेखकों व साहित्यकारों के नामों में एक नाम जो नहीं लिया गया वो नाम सतीनाथ भादुड़ी का था.. मैने झट से एक कागज के टुकड़े पे अपने साहित्यिक चित्रगुप्त सतीनाथ भादुड़ी का नाम लिखकर आगे मंच की ओर बढाया और फिर कार्यक्रम के बीच में उनका नाम भी सुन पाया।
जागते रहो.. और जग को जगाते रहो..!!!
Vinayak Ranjan
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