Sunday, 16 September 2018

संवेदनाओं के सफर में..

संवेदनाओं के सफर में..
 
  माथे पे खिंची मखमली सिलवटों व हाथों पे उभरती धमनियों की रंगरेजी कमानों से निकली नक्काशी.. उम्र के इस पड़ाव पे तो आँखों के साथ काँपते बढते कदम भी माथे का जोर कम कर जाते हैं। जीवन चक्र के अंतिम पन्ने एक एक कर जैसे ये बताने को काफी हैं कि कितने मुस्तैदी से इन्होंने शब्द श्रृंखलाओं को अपने अनुभवों में वर्षों कसे रखा। आज शाम आटो में बैठने के क्रम में एक ऐसे ही वृद्ध मन को पास पाया। उम्र अस्सी पार की होगी.. चेहरे पे वक्त की कारुण्यता.. पर जैसे लड़खड़ाते कदमों में आज भी कुछ मंजीलें तय कर लेने की जद्दोजहद। आटो की पीछे की चार सीटों पे तीन महिलाऐं अपनी रोजमर्रा की समानों को खरीद बैठी हुई। आराम के तौर पर उन भरी सीटों पे चौथी सीट को तलाशना आम न था.. और तो और जब बेपरवाह निगाहें एक जगह देने को भी राजी नहीं। समय देख मै ड्राईवर की बगल वाली सीट से उतर उस वृद्ध बाबा की हाथ पकड़ी और बैठी महिलाओं को समझाया कि सीटें तो चार जनों की है ना और उन वृद्ध हाथों को सहारा दे अंदर बैठने में उनकी मदद की। अंदर बैठी मान्य महिलाओं को तो एक पल साफ लगा होगा कि कहीं मै इनके साथ तो नहीं.. उन सभों के झल्लाऐ मिजाज से तो कुछ ऐसा ही लग रहा था। चलती आटो में बाबा ने एक जगह कुछ अचरज भरी नजरों से गाड़ी रोकने को कहा.. जैसे उनके गंतव्य स्थान को लेकर उनकी बूढी आँखें कुछ धोखा खा रही हों। फिर एक गली के पास इशारा कर वो उतर तो गए.. लेकिन पास जेब में रखे १०-२० के नोटों की पहचान में ही खुद उलझ कर रह गए.. जैसे मंद पड़ी आँखों ने बाजारु रौशनियों में एक बार फिर धोखा देना शुरू किया हो। मैने फिर पहल की और बाबा को कहा कि.. अब आप रहने दिजिऐ ५ रुपए मैं आटो वाले को दे दूंगा। अब मैं इत्मिनान सा था.. बूढे बाबा भी दूर जाते रहे.. अपनी अनुभवों को थोड़ा इजाफा किऐ अब मैं अपने गंतव्य को उतरने को था ही कि एक झल्लाया स्वर पीछे की सीटों से जो आया कि " बिना पूछे ऐसे लोगों को क्यों बिठा लेते हो.. खाम खा समय जायर करवा दिया।"

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