
कालसर्प योग और कलाली का आत्मीय आलिंगन।
..महेसर ..जेठ की भरी दुपहरी में गाँव से बाहर नहर किनारे बसे डोमटोली की ओर लम्बी डेग मारे एक अजीब से हताशे में भागा चला जा रहा था ...माथे पे लाल गमछी धोती पहने देह में बस जनेऊ का लेस..। पुरखों की एक पुरानी चाँदी लगे संदुक को बमुश्कील.. चंद पैसों के खातीर अभी-अभी ठेगन बनिया के पास गिरवी रख छोङा है। अभागे को काल-सर्प ने डंस रखा है.. जाएगा कहाँ.. वहीं जा बैठेगा झाङ लगे..कलाली में। ..बचपन से ही इस शब्द ने अपनी काया हमारे जीवन-शैली में यों पिरोया है कि चलते चलाते कहीं अगर दिख जाए तो मन उस मदमस्त छाये को छूने मचल ही पङता है। कालेज से निकल डुमराव जाने के क्रम में राजा सोनार की पुरानी हवेली के सामने रोड से सटे कलाली में ताडीबाजो की लगी जमघट को देख मैं कुछ पलों के लिए रुक सा गया.. मानो इस भरी दुपहरी में इस ताडी-तीर्थ के भी दर्शन कर ही लुं।
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