Tuesday, 4 November 2014

गुरुत्वाकर्षण में ब्रम्‍ह का दिख जाना...

   कुछ दिनो पहले की ही बात है.. समाचार पत्र के माध्यम से जान पड़ा की हिन्दी साहित्य के प्रख्यात साहित्यकार श्री गोविंद मिश्र जी को उनकी कृति " धूल पौधों पे" के लिए के. के. बिड़ला फाउंडेशन द्वारा "सरस्वती सम्मान २०१४" से नवाजा गया है। करीब २० वर्षों के एक लंंबे अंतराल के बाद ये सम्मान पाने वाले.. वे प्रख्यात हरिवंश राय बच्चन के बाद दूसरे शख़्श् हैं। इस समाचार को पढ़ने के बाद ही.. एक पल के लिए मुझे लगा..  मानो मैं उनके निकट ही हूँ। सहसा सेल्फ़ पे रखे "वागर्थ" मासिक पत्रिकाओं के पुराने अंकों को टटोलने लगा। फिर एक अंक में प्रकाशित उनकी रचना "जीवन को पूरा नही पकड़ा जा सकता.." दिखाई दी। इसे मैंं कुछ माह पूर्व ही पढा था। मन ही मन आनंदित हो उठा.. ये जान कर की मेरा आभास तो सही ही था.. वो मेरे निकट ही थे। फिर देखा उनके नाम व उनकी लिस्टेड कृतियों के साथ उनका वर्तमान पता और मोबाइल नंबर भी नीचे अंकित है। फिर क्या था.. मैं तो अब उनके काफ़ी निकट ही था..।

एक लंबी साँस लेने के बाद मैने उस दिए मोबाइल नंबर पे फोन किया.. और फिर चार-पाँच रिंगो के बाद ही वृद्धावस्था की एक मीठी सी आवाज़ कानो में समा सी गयी। मैने उन्हें सर्व-प्रथम सरस्वती सम्मान के लिए बधाई दी और फिर अपना परिचय भी दिया.. वे गोविंद मिश्र ही थे। फिर हमारी बात- चित करीब १०-१२ मिनिट की रही होगी.. और फोन रखते ही एक अजीब सी शांति-छाया से खुद को घिरा देखा। जैसे लगा बातों-बातों में मेरे मंन की बातों की पुष्टि होती चली गयी.. और फिर लगा जैसे हम सब एक-दूसरे के कितने करीब पिरोए हुए हैं.. और हमें पता भी नहीं चलता। ये ब्रम्ह-दर्शन नहीं तो और क्या है!! हम जिस दृश्य-वीणा की गूँज को जग से सुनना चाहते हैं.. वो तो हमारे पास ही है। फिर तो मुझे इसी गुरुत्व में बैठना है.. और फिर हम जन्मोपरांत जिस भी गुरुत्व केंद्र की कक्षा में गये थोड़े उसी के अधीन हो गये.. ब्रम्‍ह की चाह में थोड़े ब्रम्हर्थि तो थोड़े ब्रम्‍हास्त्र हो गये। "सर्व-धर्म सम्भाव" वृहत आवरण के भीतरी चरम पे "सर्व-मान्य सम्भाव" के ब्रम्‍ह से भी तो स्वंय ही सिद्धि लेनी होती है।

साहित्य से थोड़ी बहूत अभिरुचि तो सभो को बचपन से ही रहती है.. चाहे हमारी भाषाएँ जो भी हो.. हम चाहे किसी भी धर्म या भौगोलिक भू-भागों से आतें हों। फिर या तो जीवन की अनेकानेक राहों में हम निकल भी पड़े हो.. लेकिन किसी भी विधा में हमसब अपने-अपने साहित्य की वृष्टि-छाया में खुद को भिंगोते ही रहते हैं.. चाहे वो हमारा आंशिक प्रतिरूप ही क्यों ना हो। ३१ अक्टोबर २०१४ को एक और खबर आई.. मश्हुर लेखक "रॉबिन शॉ पुष्प" के निधन को लेकर। मैं इस नाम से पहली बार मुखातिब हो रहा था। लेकिन जब हिन्दुस्तान दैनिक के स्मृति-शेष पन्ने में उनकी साहित्यिक जीवन-यात्रा से अभिभूत हुआ तो लगा मानो...  "ब्रम्‍ह-विस्तार" का रूप अदृश्य ही होता है क्या..? मेरे जैसे कितने ही पाठक होंगे जिन्होने शायद इस नाम को पहली बार सुना और देखा हो। लेकिन इन साहित्यकारों के नाम उस नभ-सभा में नहीं छाते जिस तरह अन्य सभाओं में छा जाने की एक होड़ सी मची है.. चाहे वो हमारी गरिमामय संसद की लोक या राज्य-सभा जैसी सभायें ही क्यों ना हो। काश कि इन साहित्यकारो व कलाकारों से सजी एक "कला-साहित्य सभा" ही बन पाती। उँचे कदो के बैनरों में आज के हमारे इन साहित्य सभा-सदों का भी चित्र उकेरा हुआ होता। कुछ प्रेरण शक्ति में इज़ाफा होता.. वैचारिक बेरोज़गारी घटती.. कुछ बोझ घटता.. कुछ आपका.. कुछ हमारा। 
http://www.khaskhabar.com/picture-news/news-prominant-writer-robin-shaw-pushp-no-more-1-27545.html

रॉबिन शॉ पुष्प के निधन पे फादर कामिल बुलके की एक प्रतिक्रिया जो पढ़ने को मिली.. " रॉबिन शॉ उन गिने-चुने ईसाइयों में हैं, जिन्होने हिन्दी साहित्य के संसार में भरपूर नाम कमाया। नि:संदेह श्री पुष्प आज हिन्दी के एक प्रतिष्ठित कलाकार हैं- नुकीले अनुभव, खंडों के कुशल शब्द-शिल्पी, संवेदनाओं की जटिल ग्रंथियों के अनूठे कथाकार।"


क्या कभी संवेदनाओं के चरम को गुरुत्वाकर्षण के दो-धुरियों पे चलते देखा है..? आज भी वह स्मरण सहसा ही याद दिला जाती है.. उस सफ़र की..। बात कुछ दिनो पहले की ही है.. मगर उसकी सरज़मीनी जुड़ी रुदन वर्षों पुरानी..। हमेशा की तरह बक्सर के इंजिनियरिंग कॉलेज से शाम को लौटते वक़्त टूडीगंज स्टेशन पे अपने व्याख्याता मंडली के साथ बक्सर से पटना की ओर जाने वाली ट्रेन का इंतेज़ार कर रहा था। ठंड के दिनो में शाम भी जल्द ही हो जाती है। शाम के करीब साढ़े पांच बजे होंगे.. लाउड स्पीकर पे आवाज़ आई की ट्रेन डुमराव स्टेशन पे आ गयी है। फिर कुछ देर के बाद ट्रेन आई। मगर ये क्या..??  ट्रेन पूरी की पूरी खचाखच भरी हुई। ट्रेन के अंदर जाने की बात तो दूर.. दरवाजे पे भी पांंव रखना मुश्किल था। एक ख्याल आया की इस ट्रेन को छोड़ दूँ.. लेकिन फिर दूसरी ट्रेन तीन घंटे बाद ही थी। ये सोच मैं तेज़ी से प्लेट-फॉर्म पे आगे की ओर बढ़ने लगा.. की कहीं कोई गुंजाइश बने ट्रेन पेे चढ़ने की..। ताज्जुब हो रहा था.. की पिछले दो साल के अनुभव में इतनी भीड़ मैने पॅसेंजर ट्रेन में कभी नहीं देखी थी..। तभी आगे की एक बॉगी से एक वृद्ध महिला को ब्मुश्किल उतरते देखा.. फिर तेज़ी से आगे बढ़ उनकी लाठी को हाथों में लिया और अपने बाजू का सहारा दे.. उन्हें उतरने में थोड़ी मदद की..। उनके ठीक पीछे एक महिला भी उस खचाखच भरे ट्रेन से उतरने की जद्दोजहद में लगी हुई..। गोद में एक बिलखता बच्चा और साथ एक छोटी सी बच्ची भी। शायद वो उस वृद्ध महिला की रिश्ते में थी। मैने फिर उस छोटे से बच्चे को गोद में लिया और उन्हें भी उतरने में थोडी मदद दे पाया। ट्रेन भी अब प्लेट-फॉर्म छोड़ चूकी थी.. मैने थोडी हिम्मत दिखाई और झटके से गेट के हॅंडल को पकड़ अंदर की ओर जाने की कोशिश की.. की तभी मेरे एक लेक्चरर मित्र ने भी पीछे से जोड़ का दबाव बनाया.. और हम दोनो चलती ट्रेन में खुद को सुरक्षित पाए।

अंदर की भीड़ इतनी की जो जहाँ थे.. वहीं खड़े रह थे। मगर ये क्या..?? इक्का दुक्का पुरुषों को छोड़ महिलाओं और बच्चों की संख्या ही ज़्यादा थी। ग्रामीण पृष्ठभूमि के इस सफ़र में.. भोजपुरी लोक-गीतों से सज़ा ये कैसा भाव्य था..। मैं सबकुछ बड़े ही अचरज से बस देखे जा रहा था। बीच-बीच में छोटे स्टेशन और हॉल्ट पे उतरने चढ़ने के क्रम में महिलाओं की तू-तू मैं मैं भी.. "मछली बाज़ार" के दृश्य जैसा ही कुछ दिखा जा रही थी। उम्रदराज महिलाओं का एक बड़ा तबका जिन्हें जगह नहीं मिली.. वो ट्रेन के फर्श पे ही बैठ कर अपने रस-मंजूषा में लीन थी। कुछ वृद्ध महिलायें तो थकान के कारण वहाँ चलती ट्रेन के फर्श पे लेटने से भी गुरेज़ नहीं कर रही थी। घुरमुराए बालों, मटमैले कपड़ों और अलसाए मन को लिए ये किस उन्माद को लिए लौट रही हैं? दिव्य-शक्तियों को समेटे पूरा का पूरा दृश्य दुर्गा-काली शक्ति-वाहिनी के विहंगम स्वरूप से से कम ना था..। मेरे मन में भी सकारात्मकता के साथ कई प्रश्नो का प्रज्वलन अपने चरम पे तो था ही.. लेकिन जैसे मेरे इस अनुभव ने ना जाने कितने ही जवाबों के स्वरूप को भी अंजाने में देख लिया हो। लेकिन फिर भी मुझसे रहा नही गया.. और मैंने थोड़ी हिम्मत दिखाई और पास खड़ी एक महिला से पूछ ही बैठा.... की आप सब कहाँ से लौट रहीं हैं? फिर जो जवाब मिला वो वाकई हैरान कर देने वाला था.. इसलिए नही की उस कृत में धर्म और अध्यात्म का सार था.. बल्कि इसलिए की इतने कष्ट को उठा ये किस सिद्ध-सृजन में तल्लिंन हैं। " बेटा, लिट्टी-चोखा मेला खातिर गेल रही..।" इतना कह वो मुस्कुराने लगी थी.. और मैं अचरज में था। आख़िर इतनी विषम परिस्थितियों में भी ये कैसा गुरुत्व का आकर्षण था। वृद्ध-अधेड़ महिलाओं और बच्चों को छोड़ कोई भी नहीं था साथ उनके इस सफ़र में.. फिर उस भीड़ से निकला एक लोक-गीत जो अब तक मेरे कानों में गूँज रहा है..

"बेटा ना पूछे.. बाबू ना पूछे.. ना पूछे पिरितया हमार हो.."। ब्रम्‍हांड की इतनी पुरातन सभ्यता का ये कैसा रुदन था? आज भी इन अभिसप्त रुदालियो का कैसा क्रंदन है.. जिनके मर्म की स्पष्टताओं को भेदने वाला कूदाली शायद ही चल सके.. फिर राम की मैली गंगा.. मैली ही सही..।

इसी तरह के एक सफ़र में.. ट्रेन में एक रोज़ बक्सर ग्रामीण अंचल के  एक जुझारू व्यक्तित्व का भी साक्षात्कार मिला। बातों बातों में ही मेरी कुछ बातें उन्हें भी रोचक लगी.. और उन्होने मुझसे हिंदी कंप्यूटर टाइपिंग से रिलेटेड कुछ मदद भी माँगी। बक्सर स्टेशन पे उन्होने खादी के थैले से निकाल अपने भूभागीय डेवलपमेंट व सौन्दर्यीकरण से संबंधित अनेकानेक लेखों का जखीरा मुझे दिखाया। सब के सब.. कुछ यूँ कहें उस धरती की आवाज़ ही थी.. और बीते वर्षो के मेरे लेखों में भी ये बहुत कुछ परिलक्षित हो ही जाता है। वो वर्षों से अपनी इस आवाज़ को दिल्ली बैठे आला-कमान तक पहुँचाते रहे हैं.. और हस्र ये कि..  दिल्ली दूर जाते-जाते.. यहाँ के गुरुत्व स्वर ही गुम हो जाते हैं.. तो रुदन तो सुनने को मिलेगा ही.. एक ब्रम्‍ह के विज्ञान से कुछ कम तो नहीं..।


Vinayak Ranjan

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Sunday, 28 September 2014

" बीते कल को भी थोड़ी... श्रधांजलि... !!! "

जब मानव अपने जीवन के संघर्ष को लिए सफलता के शिखर को छूने का प्रयत्न करता है, तो हमेशा उसकी आत्मशक्ति ही उसे आगे बढ़ने की प्रेरणा देने का काम करती है... और वह सहसा अपने सफ़र की ओर बढ़ता चला जाता है| सफ़र.. बिल्कुल ही अंजाना सफ़र... जिसने ना जाने कितने दिन और रातों को देखा | दिन में वो जितनी जीवटता से एक नये आयामो के उत्सर्जन को तलाशता, तो रातें उन भावों को अपने आगोश में समेत सी लेती.. की कल फिर तुम्हें एक नये संकल्प लिए आगे की ओर बढ़ना है | फिर इन स्पस्ट संकल्प-साधनाओं का खुद में अवतरित होना भी तो एक चमत्कार ही है.. जब वो सभो के हितो को भी नज़रअंदाज़ ना करे| इन्ही संकल्प-साधनाओं ने अशोक और अजातशत्रु को सम्राट भी बनवाया था, लेकिन वहाँ भी तो साभों के हित कुचले गये थे, और फिर बुद्ध शरण को जाना पड़ा था और त्याग को ही अपनाना पड़ा था| आज भी इन भावों में बचपन में सिखाए गये मूल मंत्रों की ही ख़ूसबू आती है, जब दादी बड़े प्यार से कहती की तुम बड़े हो ना, तुम्हें तो त्याग करना ही होगा और यही सुख का साधन भी| बचपन में सिखाए गये रामायण और महाभारत के तत्वों में भी तो त्याग और संघर्ष की ही गाथा रचाई और बसाई गयी| और फिर जिन्होने ने इन मंत्रों को पिया और जीया... सच्चे पात्र तो वो ही बने और वो हो समरसता के वाहक भी बने | आज भी हमारे भारत के सभी समुदायों में ऐसे कितने उदाहरण मिलते हैं... जहाँ अपनी निजी सफलता को छोड़ लोगों ने अपने गावों कस्बों में जाकर विकाश के नये विकल्पों के मार्ग बने| जब आप अपनी प्रतिभा से न्यू-यॉर्क में और आपके प्रिय-मित्र मंडली कस्बे की चौक में हो तो अंतर के इस दंश का विष भी आपको ही कम करना होता है, और ये भी खुद में एक विशेष प्रतिभा का परिलक्षण ही तो है, जिसे हम आज के वैज्ञानिक  भाषा में आर्टिफिशियल इंटेलिजेन्स कह लें | ईश्वर को धन्यवाद की आज हम ग्लोब-लाइज़ेशन की कसौटी में जी रहें हैं, नहीं तो इन सामंती मारकों का विष और भी ज़्यादा तीक्ष्ण होता| इसमें अतिशयोक्ति का भाव कतई नहीं, की इन्ही भावों के कारण आज भी जिस विकाश के रफ़्तार से हम आगे बढ़ रहें है, हमारा सामना भी इन वादों से कुछ ज़्यादा ही हो रहा है, मानो आज भी सुर-असुर अमृत मंथन में लिप्त हों| और इस कड़ी में हम इस भाव मंथन साहित्य के सारथि बने रहें और अपने बीते कल को भी थोड़ी श्रधांजलि अर्पित करते रहें... !!!

विप्र प्रयाग घोष


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Tuesday, 23 September 2014

" दुर्गाशक्ति, दशहरा, दशानन... इति विश्‍वरूपम...!!! "

मौसम ने फिर दश्तक दे दी है| नयी शक्ति लिए माँ जग को जगा रही है| हम अंधेरे में ही जागने की कोशिश कर रहे है| पौ फटने के पहले फूलों को बटोर रहे हैं, की माँ के चरणो में इसे अर्पित तो करूँ, जीवन के भ्रम को थोड़ा तो दूर करूँ...| ऐसा ही है माँ दुर्गा की शक्ति और दुर्गा पूजा का पावन पर्व| हम सभो के लिए कुछ खाश| साल भर के जोश को मानो यहाँ पुनर्जन्म मिल जाती हो| फिर आज भी साथ अगर अपना बचपना हो तो फिर कहना ही क्या...!!! बचपन के रोमांच को फिर हम दोबारा तो जी नहीं सकते, लेकिन समय समय इसे उकेर तो सकते ही हैं| दुर्गा पूजा की हलचल तो महीने पहले से ही दिख जाती है|जो घर पे हैं तो घर के साफ सफाई का ख्याल, जो घर से दूर हैं उनके अपने घर जाने की हौसला आफजाई का ख्याल भी तो बराबर रखना पड़ता है| माँ दुर्गा की शक्ति है ही ऐसी, आप खुद में रह ही नहीं पाते| आज भी महालया के आते ही याद आता है, पिताजी का रेडियो को ठीक सुबह ४ बजे ही महालया पाठ के लिए ऑन कर देना|


फिर तरह तरह के फूल जिनमें हर-शृंगार, अर्हूल और भी ना जाने कितने फूलों को तोड़ पौ फटते ही दोस्तों के साथ घर को वापस आना| फिर दोस्तों के साथ मधुबनी पूर्णियाँ के ठाकुर बारी में बन रहे माँ दुर्गा की प्रतिमा को देखने जाना| सुबह सुबह ही माँ का पूजा घर को सजाना, पुरोहित जी का दुर्गा पाठ के लिए आना, फिर सामूहिक पुष्पांजलि के साथ शंख और घंटों को बजाना... वास्तव में यही तो है दुर्गा शक्ति का आहवान करना और इनके समीप जाना| फिर ज्यों ही सप्तमी, अष्टमी, नवमी के जागरण को हम देखते हैं, दुर्गा शक्ति स्वरूप दशहरा उत्सव में परिणत हो उठती है| फिर नये नये वस्त्रों में मेले की ओर निकलना| पूजा पंडालों में माँ दुर्गा के विहंगम स्वरूपों का योग होना, वहाँ मिले प्रसादो का भोग, फिर मेले में कुछ खरीद-दारी कर घर को वापस आते हैं| खिलौने, मिठाई और तरह तरह के व्यापार भी होते हैं|  देखते ही देखते ये उत्सव एक महोत्सव का रूप ले लेती है|



फिर इस महोत्सव में सभी संप्रदायों के लोग एक साथ... क्या बूढ़े क्या जवान और क्या बच्चे... अपने नये स्वरूप.. विश्वरूप को धारण कर दशानन " रावण" वध के द्वंश का भी तो आनंद लेते हैं| बुराई पे अच्छाई की जीत का भास कर अपने अपने घर को लौटते हैं.... और फिर उस महोत्सव के विश्वरूपम की छाया को लेकर ही अपने विश्व-कर्म की ओर निकल पड़ते हैं...

|| इति दशहरा... इति विश्व-रूपम...||

विप्र प्रयाग 

Thursday, 24 July 2014

विद्यादान एक्सप्रेस: बक्सर का तीसरा युद्ध और सिद्धाश्रम की सुध..!!!

    कुछ दिन हुए बिहार बक्सर जिले के बक्सर पटना रुट के टूडीगंज रेलवे स्टेशन पे खड़ा था। दोपहर के लगभग ढाई बज रहे होंगे.. की तभी रेलवे अनाउन्समेंट आई की पटना से बक्सर की ओर जाने वाली ट्रेन २ घंटे लेट चल रही है। मालूम हो कि.. ये ट्रेन कोई मेल या एक्सप्रेस नहीं.. ये तो एक पैसेंजर ट्रेन है.. और फिर इस छोटे से स्टेशन पे कोई एक्सप्रेस या सुपरफास्ट ट्रेनें रुकती ही नहीं.. और जो रुकती भी है तो उनका टाइम-टेबल से कोई लेना देना नहीं। तो बस.. यहीं से स्टार्ट होता है.. आज के बक्सर का तीसरा युद्ध।


बक्सर का पहला युद्ध २३ अक्टूबर १७६४ को ब्रिटिश ईस्ट-इंडिया कंपनी और बंगाल, अवध व मुगल सल्तनत की संयुक्त सेना के बीच हुआ था.. और लगभग इसी युद्ध ने.. ब्रिटिश हुक्मरानों को हिन्दुस्तानी सरज़मी पे अपने पाव पसारने का एक मजबूत आधार-स्तंभ भी दिया था।




 फिर शुरू होती है बक्सर की दूसरी लड़ाई.. भारत के आज़ादी के बाद.. अपने खुद के संवर्धन के लिए। लेकिन आज तक एक उचित मापदंड पे इस पौराणिक भू-भाग का कोई नया मसीहा अवतरित नहीं हो पाया। पटना और बनारस के मध्य शाहाबाद और भोजपुर की जनता और संसाधन बस अपना मुँह ताकते ही नज़र आते हैं। इस भूभाग को धान का कटोरा कहे जाने पे भी.. यहाँ की ग्रामीण जनता में असंतोष सहस ही दिख पड़ता है। 


  ..और हाँ ..जो थोड़ा बहुत संतोष दिखता भी है ..वो है उन पौराणिक और धार्मिक आस्थाओं के कारण ..जो आज भी यहाँ जीवंत हैं। पौराणिक काल से ही इस क्षेत्र को सिद्धाश्रम कहा जाता रहा है। कहतें हैं चौरासी अट्ठासी हज़ार ऋषि-मुनियों की ये तपोभूमि रही है.. और आज भी यहाँ की प्राकृतिक ऋचाओं में उस सिद्ध-द्रव्यों को देखा जा सकता है।

 राम-लक्ष्मण के गुरु विश्वामित्र की ये धरा रही.. तो महर्षि गौतम और दुरवासा की भी ये सिद्धपीठ रही। फिर तो शुभ-शक्तियों के साथ अशुभ-शक्तियाँ भी ताड़िका, मारीच, सुबाहु के रूप में इस हरितिम नैमिषारण्य में विराजने को सदैैैैव आतुर रहे। जहाँँ भगवान राम ने अपने गुरु सेवा में गंगा नदी की दिशा ही मोड़ दी थी, जो आज भी राम-रेखा घाट के रूप में स्थित है तो अहिल्या उद्धार की जगह अहिरौली के साथ... बक्सर युद्ध की कतकौली भी भारत के भाग्य की गाथा आज भी गाती नज़र आती है।

पटना और बनारस जैसे महानगरों के मध्य का ये भूभाग शायद आज भी उन भीष्म-शक्तियों की उपस्थिति से ही या तो अपने अतीत के सौंदर्य को बटोर पा रहा है.. या आज के डेवेलपमेंट प्रोग्राम में वर्षों पिछड़ता चला जा रहा है। कुछ दिन हुए मेरे छात्रों ने बक्सर युद्ध की उस जगह को चलती ट्रेन से दिखाया था। अब तो उस जगह एक बड़े स्कूल का निर्माण कार्य भी चल रहा है। फिर दिखे उस इलाक़े की हरी-वादियों में विचर रहे... हिरणो और मृगों का विहंगम झुंड..। मैं घोर .आश्चर्य में था। उन मृगों में कुछ कृष्ण-श्याम मृग भी थे। ये बस इस सिद्ध-पीठ की मानवीय आस्था ही है.. जो आज भी ये अपना जीवन बचाए रखने में कायम हैं। बरबस एक ख्याल आया की भारत सरकार इस क्षेत्र को जैविक उद्दान के रूप में विकसित क्यों नहीं करती है.. कम से कम इसी बहाने लोगों को इस ओर आने की रोचकता तो बनी रहेगी और इसके साथ न जाने कितने डेवेलपमेंट प्रोग्रामों को अमलीजामा पहनाया जा सकेगा।

    सावन के इस महीने में आरा और बक्सर के बीच रघुनाथपूर के उत्तर अवस्थित ब्रम्हपुर के अपरूपी सिद्ध बाबा बरमेश्वर नाथ शिव मंदिर का दिव्य दर्शन भी हो पाया। कहा जाता है.. बनारस के काशी विश्वनाथ और देवघर के वैद्यनाथ धाम के मध्य का ये एक अलौकिक सिद्ध-पीठ है। फिर जो मंदिर के उस प्रांगण में पाया वो वर्ष २००४ के IIT Guwahati के QIP (Quality Improvement Programme)  के दौरान देखे गये.. कामरूप कामाख्या मंदिर के प्रांगण से कम न था। संतुष्टि थी के बहूत दिनो बाद खुद के साक्षात को वृहत होते देख पाया। यहाँ आने का सुख जो भी मिला हो... लेकिन यहाँ से जाने की जैसे कोई समय-सारिणी पट्ट ही गायब कर दी गई हो.. मानों इस सिद्ध-क्षेत्र का प्रभाव प्रबल हो चला हो।


टूडीगंज स्टेशन के यात्री विश्रामालय के दीवार पे खुदी रेलवे समय-सारिणी इसकी गवाह है।एक तो समय सारिणी १० साल पुरानी और पूर्व की ओर जाने का पट्ट दीवार से उखड़ा हुआ। पटना-बनारस रूट पे आज भी इंडियन रेलवे ही आवागमन का सर्वोत्तम साधन है।लेकिन अस्वस्थ दिशा-निर्देशों की वजह से विकास की गति धीमी है। स्कूल-कॉलेज में पढ़ने वाले नव-पाठकों को अगर समय पे ट्रेनो की सुविधा मिल जाए तो बिहार के बच्चों को अन्य राज्यों का मार्ग न पकड़ना परे। मेरे दस वर्षों के अध्यापन अनुभव में बिहार में इंजिनियरिंग कॉलेज की संख्या में गुणात्मक वृद्धि हुई है तो वहीं स्टूडेंट के अड्मिशन इनपुट अपेक्षाकृत घटे हैं। जिसका सीधा संबंध हमारी लचर राजकीय व्यवस्थाओं और छात्रानुरूप माहौलों से है। फिर वे क्यों करें आपकी राजकीय इंजिनियरिंग अलाइयेन्स की कद्र। फिर तो अब गाँवों और कस्बों को बाँधने की बारी है.. नगर वाले तो महानगर देखते हैं। अब कृपया पॅसेंजर के साथ सूपरफास्ट ट्रेनो को भी इन विद्या-स्थलों पे ज़रूर रोकें... तो ऐसे ग्रामीण वनस्थलियों में पड़ने वाले विद्यालयों को ऐसे बहुमूल्य दान भी चंदन रूपी विद्यादान एक्सप्रेस बनते नज़र आयेंगे।

 सुबह ७ बजे के करीब आरा स्टेशन पे फरकका एक्सप्रेस का इंतजार कर ही रहा था की.. लाउड-स्पीकर पे शहनाई वादन के साथ घोषणा हुई की प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी ने अगस्त के द्वितीय हफ्ते को संस्कृत सप्ताह मनाने की विधिवत घोषणा की.. और फिर संस्कृत के मंत्र मानो सामूहिक उपचार में संलग्न हो उठे हो.. और मेरा अगला पड़ाव भी ब्रम्हपुर शिव-धाम ही था.. जिसकी राह रघुनाथपुर स्थित संत-महाकवि तुलसीदास के तुलसी-स्थान के सम्मुख ही गुजरती है। कहते हैं तुलसीदास जी भारतीय आध्यात्म की नगरी काशी-वाराणसी-बनारस को छोड़ अगर पूर्व की ओर रुख़ करते तो अक्सर उनका दूसरा निवास बक्सर का रघुनाथपुर ही होता और उन्ही के दिव्य स्मरण को लिए इस जगह का नाम उस समय के प्रसिद्ध और महादानी राजा रघुनाथ सिंह के नाम पर... संत तुलसीदास ने ही इस जगह का नामकरण रघुनाथपुर कर दिया। नहीं तो पहले दो गाँव "बेला" और "पत्र" के कारण इस जगह का नाम "बेलापत्र" ही था।  कुछ दिन हुए फ़ेसबुक पे बक्सर डुमराव के मेरे एक छात्र ने महान शहनाई वादक भारत रत्न बिस्मिल्ला ख़ान के पुण्य तिथि २१ अगस्त पे कुछ अपडेट दिया... जान पड़ा ख़ान साहब का जन्म २१ मार्च १९१३ को बक्सर के डुमराव राज में हुआ था। उनके वालिद महाराजा भोजपुर-डुमराव दरबार के खानदानी शहनाई वादक थे। ६ वर्ष की उम्र में ही उन्हें बनारस उनके चाचा अली बख़्श विलायतू के पास भेज दिया गया जो बनारसी घराने के विख्यात शहनाई वादक होने के साथ-साथ उनकी आध्यात्मिक घनिष्टता काशी विश्वनाथ मंदिर से काफ़ी थी। आरा स्टेशन पे सुनी गयी शहनाई की धुन बरबस कानो में गूँज रही थी..."गूँज उठी शहनाई " की तरह..।

...और बरबस ऐसी ही माधुर्य गूँज लिए हर कोई आज भी यहाँ के आध्यात्मिक व ग्रामीण दर्शनो से जुड़ने की कोशिश में लगा रहता है। मुझको भी अब इस परिदृश्य में आए लगभग दो साल होने को आए। महानगरों की भागा-दौरी से अलग हरियाली की चादर ओढ़े इन वादियों में ही शिक्षण अधिक भाता है। प्रकृति की गोद में बैठ अपनी ऊर्जा को अपने वश में पाता हूँ। जीवन के शोध-रूपी युद्ध से परे इसकी सटीक समीक्षा ही एक पवित्र सुध के समान है। तो फिर अब क्या बचा है... इसे देने को..? मन में ये ख्याल बार-बार आता है। फिर से नये नये महानगर बसाने के कयास लगाए जा रहे हैं। बुलेट ट्रेनो की दौड़ भी लगने वाली है। फिर भी क्या इन प्रयत्नो से हम भारत की आत्मा को जगा सकतें हैं..? हाँ, अब बहूत सारी सरकारी योजनाओं के तहत ग्रामीण क्षेत्रों में सड़कों के पक्कीकरण का काम तेज़ी से हुआ है। लेकिन उन सड़कों में खुश-मिज़ाज आवाजाही का ज़रिया  आज भी नहीं बना। आज भी रोजमर्रा के कामो से आने जाने वालों लोगो और विशेषतः स्कूली छात्रों को छोटे-छोटे प्राइवेट  टेंपो या मिनी बस का ही सहारा लेना पड़ता है। तो फिर क्यों ना ग्रामीण क्षेत्रों के ऐसे भू-भागों को कलकत्ता में चलने वाली ट्राम-रेलों के नेटवर्क से जोड़ दिया जाए.. आम-जनो में नये उत्साह के लिए। ट्रामों के उस प्रकृति-पूर्ण सफ़र से शायद कुछ कवित्त व लेखन भावों को भी बल मिल पाए।सड़कों की मजबूती के साथ विद्दुति-करण योजनाओं के नये प्रारूपों को भी पटल पे लाया जा सकेगा। धान का कटोरा कहे जाने वाले इस भू-भाग में सौर-उर्जा के अलावा धान-भूसी उर्जा के उत्सर्जन और संवर्धन को भी विशेष बल मिल पाएगा..। यहाँ तक की ट्राम पटरियों पे बड़ी आसानी से छोटे बग्घी-नुमा गाड़ियों को भी यहाँ पाए जाने वाले उन्नत नस्ल के घोड़ों और बैलों से चलाया जा सकेगा। पशु-संवर्धन की नीतियों के तहत बड़ी आसानी से दुग्ध विक्रेताओं को भी बड़ी आसानी से बाज़ार के नज़दीक सुलभता के साथ लाया जा सकेगा। कम से कम बनारस से सटे भू-भागों पे तो ऐसे एक्सपेरिमेंट किए ही जा सकते हैं.. फिर तो ऐसे प्रयासों की गूँज भी शहनाई और बाँसुरी से कुछ कम नहीं।




 "आपन देशो त अमेरिका-चीन.. अउर जापान बने के बानी.."  इति विद्यादान एक्सप्रेसम... 


http://en.wikipedia.org/wiki/Brahmapur,_Bihar
http://en.wikipedia.org/wiki/Tulsidas
http://en.wikipedia.org/wiki/Bismillah_Khan

Vipra Prayag Ghosh

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Saturday, 12 July 2014

झाल-मूरी इंडिया....

दिनभर की दैनिक प्रक्रियाओं और थकान के बाद.. मिजाजी तबीयत को भी दुरुस्त रखना ज़रूरी होता है.. तो अपने तबीयत के  इस सूखेपन को हरा करने निकल पड़ा | बड़े शहरों की गूँज और उँचे-उँचे अपार्टमेंटो के आगे तो दम ही घूट जाए| फिर इस शाम जाऊं तो जाऊँ.. कहाँ.. |  ..तो अचानक याद आया वो पुरानी झाल-मूरी की दुकान..| झाल-मूरी के साथ-साथ यहाँ.. रोजमर्रा की वो सारी चीज़ें मिलती हैं.. जो कभी हमारे घर पे बना करती थी.. लेकिन अब तो वो सेटेलाइट शान के खिलाफ है.. तो फिर पहले वाली "मदर-इंडिया" के जमाने की बात भी नहीं रही..| अब तो हर वो चीज़ रेडी-मेड ही आपके बाजार में उपलब्ध है.. लेकिन घर वाली वो बात कहाँ...| जी हाँ.. अब खाने वाली वो "बरी"  और "तिल-बरी" कितनो के घरोंं पे बनती होगी... या फिर चूल्‍हे पे चढी मिट्टी बर्तन के गर्म बालू पे कौन मेहनत कर चावल, चना और मकई को भूंजने बैठता होगा..| तो समझ लीजिये यहाँ सब कुछ मिलता है..   चना-जौ की सत्तू से लेकर चूड़ा मूरी और तिल के लाई तक.. फिर कह सकते हैं ना इसे भी आप... अपने गॉव के स्वाद का अध्यात्म..| जी हाँ.. बेशक आप बने ही इन स्वादों से हैं.. और आपकी भारतीयता आज भी आपके स्वादों के कारण ही बची हुई है| पटना का वो दुकान वाला बड़े फक्र से कहता.. "हमर दुकान के समान त अमिरका-जापान के दूरी तय करत है.. बबुआ.."|  ...लेकिन मेरे दिल को जो भाता वो है उस दुकान की झाल-मूरी..| झाल-मूरी  हम सभो के स्वाद की ऐसी पसंद..जो शायद ही भारत के किसी छोर पे ना पाई जाती हो| हाँ, देश के अलग-अलग जगहों पे बनाई गयी तरीकों में कुछ भिन्नता पाई जाती हो.. मगर है तो वह इंडिया की नंबर वन "झाल-मूरी" ही..|

अगर आपके सफ़र के दौरान ये सामने दिख जाए तो जेब के सिक्के आपके मिज़ाज बनाने को मचल   ही निकलते हैं| भारतीय मिज़ाज को भाती सस्ती और सुलभ स्टार्ट-टर.. थोड़ा मटर तो थोड़ा टमाटर भी.. कटे प्याज.. कटे नारियल और तीखी मिर्च के साथ..और थोड़ा दाल-मोट भी..मूरी के साथ| इसे आप मुरही तो मुढी भी कहते हैं.. कहीं कहीं इसे मूर-मूरे भी कहा जाता है.. तभी आप बाज़ार के तीखे और दिल खूश कर देने वाले "कूर-कुरे" के भी मुरीद बन जाते हैं.. तो फिर हल्दीराम भुजिया और मिक्शरों के भी| घर पे बनाई आलू फ्राइ और चिप्स.. बड़े रेस्तरॉं और होटेलों की मेनूओं में फिंगर फ्राय और  ब्रांडेड चिप्स बनी ज़्यादा शोभती हैं.. और आपके सुलभ बजट की अठन्नी की आलू..१० से १०० के नोट निकाल ले जाती है| ..क्यों है ना ये इंडिया की रियल मशालेदार और चटपटी झाल-मूरी..|

विगत कुछ वर्षों में रोजाना ट्रेन के सफ़र में.. कुछ खाश स्टेशनो पे  लुभाते टाइम-पास भी मिलते दिख जाते हैं.. तो इन्हे बेचने वाले सेल्समन की व्यग्र-उत्कट इच्छाशक्ति भी..| कितना जोखिम लिए.. ये हर-दिन आपके मिज़ाज को बनाए रखने में तत्पर नज़र आते हैं.. और आपकी यात्रा आपकी मन मुताबिक  मिले सुखद सफ़र की अनुभूतियों में खो जाती है| पटना बिहटा के आगे आरा से आगे बढ़ने पर... चना-ज़ोर गरम बाबू.. मैं लाया मजेदार वाला वो मनोज कुमार की क्रांति फिल्म का गाना सहसा याद आने लगता है तो शत्रुघ्न सिन्हा के साथ हेमा मालिनी भी..| जी हाँ.. यहाँ का चना-ज़ोर गरम.. हैं वाकई में काफ़ी गरम.. नहीं पड़ने देता आपके मिज़ाज को नरम..| आख़िर है भी तो ये बाबू कुंवर सिंह की धरती ना..| ये बस इस जगह की भारतीय चने का ज़ोर ही है की आज भी यहाँ के अविकसित इलाक़ों में रहने वाली सभ्यता.. दिन के दो वक़्त में एक वक़्त.. गॉव के लहजे में इसे बकत की कहलें.. घर पे बनाई उन्ही चावल चूड़ा चना के  भुज्जे से ही थोड़ा सरसों का तेल, प्याज और मिर्च के साथ बड़े मज़े से अपने अध्यात्म में रमते नज़र आते हैं| एक बार बक्सर के अपने अनुभव में.. वहाँ के इंजिनियरिंग संस्थान के चेयरमॅन के सौजन्य से लोकल गन्ने से बने "गुड़" और "शुद्ध घी" के सम्मिश्रण का भी स्वाद मिला.. फिर तो जैसे आपके स्वाद की भी रिसर्च होती दिखने ही लगी| जहाँ गॉव घरों में रोजाना की मिठाइयाँ नहीं आती तो लोग इन्ही पुराने तरीक़ो के दुर्लभ स्वादों से खुद को जोड़े रखते हैं.. क्यों है ना असली झाल-मूरी इंडिया..|

कंप्यूटर साइन्स एंड इंजिनियरिंग निहित Algorithmic Computation मोड्यूलों के विषयवार अध्यापन और शोधों में Travelling Salesman problem टॉपिक की टेक्निकल वर्णनो को भी सर्व-प्रथम दैनिक जीवन में मिलने वाले इन्ही चलंत सेल्समन रूपी "सन ऑफ इंडिया" के उदाहरणो से ही छात्रों को रूबरू करवाना होता हैं.. तो फिर ऐसे चरित्रों से झाँकता दिखता है.. भारत के महान शिक्षाविद साहित्यिक रबींद्रनाथ टागॉर का "काबुलीवाला" भी...
http://en.wikipedia.org/wiki/Travelling_salesman_problem
http://www.angelfire.com/ny4/rubel/kabuliwala.html

काबुलीवाला, एक ऐसा जीवन चरित्र..जो अपने देश अफ़ग़ानिस्तान से काजू-किशमीस बेचता.. काबुल से कलकत्ता आता है.. फिर एक छोटी सी बच्ची में अपनी छोटी सी बेटी के बालपन को ढूँढने लगता है.. फिर विषम परिस्थितियों में मिले विश्वासघात के कॉप और अपने सम्मान के बचाव में दस वर्षों के कठोर कारावास को चला जाता है.. तो फिर वर्षों बाद मधुर यादों को सजोकर अपने घर..काबुल को लौटता है..| इन संस्मरणो में जहाँ एक साहित्यिक भाव आज भी जागता नज़र आता है तो.... ऐसे ही कुछ बचपन के यादों से हर कोई जीवन प्रयंत पिरोया हुआ भी रहता है..| मेरे बचपन के दिनो का वो हर सुबह को आनेवाला "पॉव-रोटीवाला" जिसके  ग्रामीण बांग्ला गीतों को हम हर दिन सुना करते.. तो भरी दुपहरी में "ए..रसगुल्लई.." की आवाज़ लगाता वो बूढ़ा रसगुल्लावाला भी तो आज भी याद आतें हैं.. तो हर शाम को चना-चूर लेकर आता "मुगलई टोपी" पहने.. वो झाम-लाल भी..| ऐसे स्मरण आज भी आपके झाल-मूरी इंडिया के सुखद माइल-स्टोन बने ही नज़र आते हैं.. जिनके जात और धर्म से हमें दूर-दूर तक कोई लेना देना नही था| बस वो आते और कुछ ही पलों में  खूशियाँ बिखेर गुम हो जाते..|

नागपुर के अपने विद्यार्थी जीवन में कलकत्ता से नागपुर जाने के दौरान.. एक स्टेशन आता  था.. झारसुगड़ा, ओड़ीसा का एक इंडस्ट्रियल सिटी..| ये स्टेशन पौ फटते ही सुबह-सुबह आता.. और मेरा सर सहला जगाने का काम करते.. दो छोटे-छोटे मासूम से बच्चे..| पता नहीं मेरी इन यात्राओं में... ये कैसे मुझे पहचान से गये थे.. जबकि मैं हर ६ महीने बाद ही ट्रेन की यात्रा कर पाता था| फिर पता चला बर्थ के नीचे रखे कतरनी चावल की बोरी देख ही वो मुझे जगाते.. जो मेरी लंबी यात्रा की एक Grand-Father testing नीतियों के तहत ही.. हर बार मुझे नागपुर ले जाने के लिए दे दिया जाता था| ... पर ट्रेन की यात्रा में मिलने वाले उन बच्चों का मैं कायल हो गया था.. दोनो भाई बहन थे.. उम्र महज ७-८ साल रही होगी दोनो की..| दोनो सुबह-सुबह वहाँ के जंगली सूखे बेरों को लिए चढ़ते..फिर ट्रेन की साफ-सफाई करते.. लोगों को कला-बाजियाँ दिखाते.. नये-नये गाना सुनाते.. अपने बेरों को बेचते.. और फिर २-३ घंटे बाद यात्रियों से पैसे कमाकर किसी स्टेशन पे उतर जाते..| उनके भावों से मैं हैरान हो जाता था.. इतनी कम उम्र में उनकी निडरता देखते ही बनती थी.. फिर ऐसा ही बहूत कुछ "Slumdog Millionaire" मूवी में भी देखने को मिली थी..| घर से बाहर निकलते ही.. आपको झाल-मूरी इंडिया के कीचड़ में खिले इन फूलों का दर्शन अनायास ही हो जाता होगा.. तो फिर ज़रूरत है इन सस्ते बजट वाले जीवन- अंशों को भी एक मँहगे भाव से देखने की...|





झाल-मूरी इंडिया... Continued...


Vipra Prayag 

Saturday, 5 July 2014

सफ़र का नया साथी....वागर्थ

   उम्र के साथ आपकी प्रवृतियों के भी रूप बदलने से लगते हैं.. हमेशा की तरह.. इस बार पूर्णियाँ आर एन साव चौक वाले बुक स्टॉल के सामने था.. फिर तो बचपन से ही कुछ ना कुछ पढ़ने व गढने की आदतें आपका पीछा भी बड़ी आसानी से नहीं छोड़ा करतीं। बचपन के दिनो में चाचा चौधरी, पिंकी, रमण की कॉमिक्स से लेकर मनोज पॉकेट बुक्स की राम-रहीम, क्रूक-बॉन्ड.. कभी मधु-मुस्कान लोट-पोट.. तो कभी चंपक-नंदन.. अमर चित्रकथाओं का दुर्लभ संसार..फिर इंद्रजाल कॉमिक्स का मॅनड्रेक और वेताल वन का फॅनटम.. और नागराज के कारनामे..। और फिर स्कूली दिनों से निकल कॉलेजिया उम्र १९९२ से स्पोर्ट-स्टार मॅगजिन का अनवरत संग्रह-कोष.. आपके मनोरूपी सफ़र के साथी तो बनते ही हैं.. और फिर भी जैसे पढ़ने की ललक ख़त्म होती नहीं दिखती। ..पर जीवन के इस मोड़ पे एक नये साथी ने अपनी ओर ध्यान आकृष्ट करने का काम जो किया.. वो भारतीय भाषा परिषद से प्रकाशित "वागर्थ" मासिक पत्रिका रही.. अपने समकालीन कथा साहित्य और प्रेमचंद का भारत विशेषांक के साथ..।

..वागर्थ के इस अंक के अंतिम पेज पे छपी कुछ पंक्तियों का ज़िक्र करना ज़रूरी है। ये शब्द ब्रिटिश प्ले-राइटर, नॉवेलिस्ट सॉमर्सेट मोंम के हैं.. "जब मैं भारत छोड़ रहा था, तो लोगों ने मुझसे पूछा की भारत में मुझसे सबसे अधिक किस बात ने प्रभावित किया, लेकिन मुझे प्रभावित करने वाली चीज़ों में न ताजमहल था, न बनारस के घाट। न मदुरै के मंदिर और न त्रावणकोट के पहाड़। ऐसा नहीं की मैं इन सबसे प्रभावित नहीं हुआ था, लेकिन जिसका सबसे अधिक प्रभाव पड़ा था, वह था- भारत का किसान, दुबला-पतला। जिसके पास अपना तन ढँकने के लिए एक मोटी धोती के अलावा कुछ नहीं था। जो सुबह से शाम तक चटकती धूप में धरती को जोतता है, दोपहर में पसीने से नहाता है और शाम को डूबते हुए सूरज की किरणो की तरह परिश्रम से थककर सो जाता है। और ऐसा वह आज से नहीं; बल्कि उस समय से कर रहा है जबकि आर्यों ने इस धरती पे कदम रखा था। सिर्फ़ एक आशा उसके मन में काम करती है की वह इसी परिश्रम के बल पर अपने को जिंदा रखने की एक छोटी सी ज़रूरत, पेट भरने की, पूरी करता रह सकता है। "
http://en.wikipedia.org/wiki/W._Somerset_Maugham

वागर्थ के इस अंक में हिन्दी साहित्य के नये-पुराने धुरंधर महारथियों के लेखों-कहानियों के बाद सॉमर्सेट मॉम की भाव्य उपस्थिति.. इस बात का संकेत है.. की साहित्यिक-अभिव्यक्ति आपके भौगोलिक या औपनिवेशिक आवरणो से परे ही है।आज के शहरीकरण और पूंजीवादी व्यवस्था के बीच से झाँकती भारत की ये तस्‍वीर.. क्या बस उस जमाने की है.. या आज के अंक में इसकी मौजूदगी.. आज भी इसके जीवंत अंशों का अहसास करवा रही है। इसे आज़ादी के बाद से चले आ रहे.. मिलते आघातों का दर्द कहें.. या बनते विश्वासघाती तंत्रों के मंथन का विषय..। कहीं ऐसा तो नहीं की इन ज़मीनी शक्तियों की अवहेलना के कारण ही.. भीतरघाती विनाशलीलाओं का विषपान भी रह रह कर भारतीय समाज को करना पर रहा है।

सॉमर्सेट मॉम के ये शाब्दिक विचार आज भी ब्रिटिश कालीन निर्मित उन भव्य भवनो और संसाधन सदृश ही हैं.. जिन्हें आज के परिप्रेक्ष्य में अगर समय रहते संरक्षित कर लिया जाए.. तो आज के भारतीय डेवेलपमेंट मॉडेल को उचित मानको पे खड़ा उतारा जा सकता है.. चाहे वो खेतो में पसीने बहाता एक परिश्रमी किसान के पुनर्जागरण के लिए ही क्यों ना हो। चीन देश के किसान और उनकी कृषि पद्धति अपने देश से दूर अफ्रिकन देशों में जाकर नये आयामों को पुनर्जीवित और पुनर्गठित कर रही है तो हमारे किसानो के समस्याओं की पुनरावृति भी नियमतः संभव नहीं है। ..पीछे से कुछ पन्नो को उलट आगे बढ़ा.. तो.. हरिशंकर परसाई की " भारत को चाहिए जादूगर और साधु" लेख पढ़ने को मिली। खुद को इन महान आत्माओं की कृतियों से अंगीकृत करते हुए जो कुछ पढ़ने को मिला-

"..अंत में इस निर्णय पे पहुँचा की अन्न नहीं 'आनंद' ही ब्रम्‍ह है। ...पर भरे पेट और खाली पेट का आनंद क्या एक-सा है? नहीं है, तो ब्रम्‍ह एक नहीं अनेक हुए। यह शास्त्रोक्त भी है-'एको ब्रम्‍ह बहुस्याम'। ब्रम्‍ह एक है, पर वह कई हो जाता है। एक ब्रम्‍ह ठाठ से रहता है, दूसरा राशन की दुकान में लाइन से खड़ा रहता है, तीसरा रेलवे के पुल के नीचे सोता है। ...सब ब्रम्‍ह ही ब्रम्‍ह है। ..शक्कर में पानी डालकर, जो उसे वज़नदार बनाकर बेचता है,  वह भी ब्रम्‍ह है और जो उसे मजबूरी में खरीदता है, वह भी ब्रम्‍ह है। ..ब्रम्‍ह, ब्रम्‍ह को धोखा दे रहा है। ...साधु का यही कर्म है कि मनुष्य को ब्रम्‍ह की तरफ के जाय और पैसे इकट्ठे करे; क्योंकि 'ब्रम्‍ह सत्यं जगन्मिथ्या'। ..२६ जनवरी (१९७२) आते-आते मैं यही सोच रहा हूँ कि, 'हटाओ ग़रीबी' के नारे को, हटाओ महँगाई को, हटाओ बेकारी को, हटाओ भूखमरी को, क्या हुआ? ..बस, दो तरह के लोग बहुतायत से पैदा करें- जादूगर और साधु। ..ये इस देश की जनता को कई शताब्दी तक प्रसन्न रखेंगे और ईश्वर के पास पहुँचा देंगे। ..भारत-भाग्य विधाता। हममें वह क्षमता दे कि हम तरह-तरह के जादूगर और साधु इस देश में लगातार बढ़ते जाएँ। ..हमें इससे क्या मतलब कि 'तर्क की धारा सूखे मरुस्थल की रेत में न छिपे' (रवीन्द्रनाथ) वह तो छिप गई। इसलिए जन-गण-मन अधिनायक! बस हमें जादूगर और पेशेवर साधु चाहिए। तभी तुम्हारा यह सपना सच होगा कि हे परमपिता, उस स्वर्ग में मेरा यह देश जाग्रत हो। (जिसमें जादूगर और साधु जनता को खुश रखें)। ... यह हो रहा है, परमपिता की कृपा से! "

हरिशंकर परसाई की इस लेख के कुछ अंशो को पढ़ मैं रुक सा गया था। ..जादूगर और साधु के इस भाव ने मुझे दोबारा बक्सर के खेतों और खलिहानो में जो दौड़ा दिया था।अपने बक्सर इंजिनियरिंग कॉलेज के कार्यकाल के दौरान.. हर दिन के शाम के वक़्त मैं हाथ में कॅमरा लिए..आसपास के खेतों और खलिहानो में चला जाता था। फिर कभी उन खेतों में लगे गन्नो को तोड़ मीठे रसों का रसास्वादन.. तो कभी जगह जगह बने ब्रम्‍ह-स्थलों का दिव्य-अवलोकन। कॉलेज के चारों ओर बसे बसाए गाँवो से निकलती कच्ची पगडंडिया जो मेन-रोड पे आ मिलती। ..और फिर इन्ही पगडंडीयों से निकलती ग्रामीण वेश-भूषा से सुसज्जित मानवीय आभायें। शादी-ब्याह में पाई जाने वाली पुराने जमाने की पालकी को मैने आज भी इन गावों में विरजते देखा था.. तो कभी जंगली खरगोशों की एक के पीछे एक की लंबी कतार.. तो कभी टांय-टांय करते तोतों और खलिहानो में कदमताल करते भेंडो का विहंगम समूह..। ग्रामीण और वन्य-संसाधनो की इसी खूबसूरती ने ही मुझे यहाँ खींचा था। आज भी याद है.. जब मैं पहली बार यहाँ इंटरव्यू के लिए बुलाया गया था तो.. खेतों में चरते नील-गायों के समूह को देख लगा मानो.. मैं किसी फोरेस्ट रेंज में तो नहीं आ गया। ..फिर एक पुराने नाले के बगल से निकलता भयावह कर देने वाला.. विशालकाय गोह..भी दिखा था.. इन्हें आज के डिफिनेशन में लिटिल डाइनॉसॉर ही कहलें..। मैं आश्चर्य में था..कि "धान का कटोरा" कहे जाने वाले इस भूभाग में आज भी इन जीवों की जादुई उपस्थिति मौजूद है।

 
..तो कुछ दिन यहाँ बिताने पर यहाँ के ग़रीब किसानो का साधुई दर्द भी दिख ही गया। नील-गायों की बढ़ती संख्या ने इनके खेत खलिहानो में नज़र सी लगा दी है.. बहूत कुछ मारीच-सुबाहु दानवों की तरह..। पूछने पे पता चला की विगत कुछ वर्षों पहले इन्हें कहीं से ट्रक गाड़ियों पे लादकर यहाँ छोड़ा गया था.. जिनका दृश्य आज त्रहिमाम कर देने जैसा है.. अच्छी-ख़ासी फसल चट कर जाते हैं। इन्हें ये भगा भी नहीं सकते.. ना तो मार ही सकते हैं.. अब तो ये आस्था से जो जुड़ गई है. एक बार मैने बड़े प्रोफेशनल अंदाज में कहा था..-"गाय है तो दूध तो देती ही होगी.." जवाब मिला.."पकड़ में आए तब ना.." .."नहीं तो बांग्लादेशे भेजवा दो.. चमरिए कुछ काम में आ जाए.."। ...फिर तो ऐसी बातों से आप बस खुद को ही थोड़ा बहला सकते हैं। यहाँ के नीलगायों की समस्या अब राजनीतिक रूप भी लेने लगी है। समाचार पत्र से जो जानने को मिला था कि पिछले साल औरंगाबाद के गावों में हैदराबाद के नवाब को बुलाया गया था.. कुछ उत्पाती नीलगायों को मारने के लिए.. आख़िर जादूगरी का लाइसेन्स हर किसी को कहाँ मिलता यहाँ..।  हर बनती सरकार देश की बाहरी सीमाओं की रक्षा को प्रतिबद्ध नज़र आती है.. रक्षा सौदों के मद्देनजर..पर आत्मीय सुरक्षा और वो भी जब बात ग़रीब किसानो के हित में हो तो... सारी प्रतिबद्धतायें साधुई रुख़ लेने सी लगती हैं। आज भी हम बड़ी बड़ी तकनीकी संस्थाओं में पढ़ाई जाने वाली लेटेस्ट टेक्नालजी की बात करते हैं... लेकिन इन आंतरिक समस्याओं के प्रति सरकारी जादूगरी नही चल पाती। GIS and Remote Sensing Forest application के ज़रिए हम ऐसी कितनी ही समस्याओं का निदान कर सकते हैं.. लेकिन हमें हमारे आंतरिक मामलों को साधुई रूप दे..हवाई-यानो की जादूगरी जो सिद्ध करनी है... आगे भगवान मालिक..।
http://remote-sensing-biodiversity.org/zsl-symposium

....फिर वागर्थ के इन पन्नो में अपने फणीश्वरनाथ रेणु की "नैना जोगिन" पढ़ने को मिली..और संतुष्टि भी.. कि साहित्यिक शब्द-कोषों से रची इन रचनाओं में.. पक्षीय गल्पो के साथ-साथ विपक्षीय गल्पो का भी अपना संसार है..। सत्कार है..तो तिरस्कार भी.. सब कुछ परम पावन उपकार ही है, साहित्यिक विधा में। अमृतलाल नागर की "प्रायश्चित" के कुछ शुरुआती अंश कुछ इस तरह-- " जीवन वाटिका का वसंत, विचारों का अंधड़, भूलों का पर्वत और ठोकरों का समूह है यौवन। इसी अवस्था में मनुष्य त्यागी, सदाचारी, देश-भक्त एवं समाज-भक्त भी बनते हैं, तथा अपने खून के जोश में वह काम कर दिखाते हैं, जिससे कि उनका नाम संसार के इतिहास में स्वर्ण-अक्षरों में लिख दिया जाता है, तथा इसी आयु में मनुष्य विलासी, लोलूपी और व्यभिचारी भी बन जाता है, अंत में पछताता है, प्रायश्चित करता है, परंतु प्रत्यंचा से निकला हुआ बाण फिर वापस नहीं लौटता, खोई हुई सच्ची शांति फिर कहीं नहीं मिलती।"

पुराने लेखकों में जहाँ भगवती चरण वर्मा की "मुगलों ने सल्तनत बख्स दी", भुवनेश्वर की "आज़ादी:एक पत्र" और गोविंद मिश्र  की "जीवन को पूरा नहीं पकड़ा जा सकता.." पढ़ने को मिला तो वहीं नये लेखकों के कलम से दूधनाथ सिंह की "किसी लेखक का जीवन सुखमय नहीं है", स्‍वयं प्रकाश की "कथाकार में पसीने की नहीं, आंसूओं की कमी है", आंनद हरषुल की "जीवन को छूना कम, विषय को छूना ज़्यादा हुआ है", कैलाश बनवासी की "आज कथा से गाँव गायब है" और वंदना राग की " आदिवासियों पर कम लिखा गया है"... रोचक लगी।

बस वागर्थ की रोचकता मेरे जीवन में बरकरार रहे...।



Tuesday, 24 June 2014

"राजा रवि वर्मा की चित्रलीला.. रामलीला.."

हाल के दिनो में ही प्रदर्शित संजय लीला भंसाली की फिल्म " गोलियों की रास-लीला... राम-लीला" देख रहा था.. की फिल्म के दृश्यों में बड़ी खूबसूरती से फ़िल्माई गयी कुछ बॅक-ग्राउंड पैंटिंग्स पे नज़लें ठहर सी गयी...| अरे ये तो राजा रवि वर्मा की पेंटिंग्स हैं.. मन ही मन मैं चहक पड़ा। फिर तो अगले कुछ दृश्यों से लेकर लगभग समूचे फिल्म में ही.. उनकी पेंटिंग्स छाई रही..| मेरा मन मानो फिल्म की विषय-वस्तु को छोड़ बीते दिनो की उन अमूल्य कृतियों को देखने में ही लगा रहा| ...कुछ पलों के लिए लगा आख़िर क्यों आज भी इन कला-कृतियों की कद्र बनी हुई है... फिल्म मेकिंग के स्तरहीन संवाद और मंचन में इनकी मौजूदगी.. किस सूत्र-धार का काम कर रही है..| इसका सटीक  जवाब बस यही है की आज भी हमारे वेद और पुराणो में संग्रहित पौराणिकता अपने दिव्य ढाल लिए हमें संरक्षित कर रही है|


करीब आज से तीन-चार साल पहले फ़ेसबुक पे एक रिटाइर्ड फ़ौज़ी ने मेरी कलात्मक रुझानो को देख... राजा रवि वर्मा के नाम की फ़ेसबुक पेज बनाने का रिक्वेस्ट भेजा था..| ये नाम मेरे लिए अपरिचित सा था.. सो मैं नाम को गूगल पे सर्च किया.. तो दंग रह गया.. की अब तक मैं भारत के महानतम चित्रकार के नाम से परे था..| लेकिन फिर उनकी बनाई रामायण और महाभारत की कुछ दुर्लभ चित्रों की अनुभूतियों का स्पर्श तो मैं बचपन से ही करता रहा हूँ... गीता प्रेस गोरखपुर से निकली कल्याण मासिक पत्रिका के सौजन्य से..|  प्रख्यात फिल्मकार और टीवी सीरियल के जरिए देश में एक क्रांति लाने वाले रामानंद सागर ने जब ‘रामायण’ सीरियल बनाया था तो उस समय तक लोगों ने हिंदू देवी-देवताओं का जीवंत और वास्तविक रूप पहले कभी नहीं देखा था.... तब इस सीरियल ने लोगों पर काफी प्रभाव छोड़ा था।  इतिहास में कुछ इसी तरह का माहौल उस दौर में  भी देखने को मिला था जब विश्वविख्यात चित्रकार राजा रवि वर्मा ने भारतीय साहित्य और संस्कृति के पात्रों का चित्रण किया था। चित्रकार राजा रवि वर्मा पहले भारतीय चित्रकार थे, जिन्होंने पश्चिमी शैली के रंग-रोगन-सामग्रियों और तकनीक का प्रयोग भारतीय विषय वस्तुओं पर किया। उनकी चित्रकारी ने हिंदू देवी-देवताओं की ऐसी अद्भुत छवियां पेश करनी शुरू की, जैसी पहले कभी नहीं की गई थीं|  http://en.wikipedia.org/wiki/Raja_Ravi_Varma

भारत के मिथकीय चरित्रों पर कृतियां बनाने वाले राजा रवि वर्मा का जन्म 29 अप्रैल, 1848 को केरल के एक छोटे से गांव किलिमन्नूर में हुआ. उनके पिता एक बहुत ही बड़े विद्धान थे जबकि उनकी माता एक लेखिका थीं. पांच वर्ष की छोटी सी आयु में ही उन्होंने अपने घर की दीवारों को दैनिक जीवन की घटनाओं से चित्रित करना प्रारंभ कर दिया था. उनके चाचा कलाकार राजा राज वर्मा ने उनकी प्रतिभा को पहचाना और कला की प्रारंभिक शिक्षा दी। चौदह वर्ष की आयु में वे उन्हें तिरुवनंतपुरम ले गये जहां राजमहल में उनकी तैल चित्रण की शिक्षा हुई। वर्मा ने चित्रकला की शुरुआती कला चित्रकार रामा स्वामी नायडू से सीखी. यहीं वह तंजौर शैली से मुखातिब हुए. इसके बाद उन्हें ब्रिटिश चित्रकार थियोडोर जेनसन से सीखने का मौका मिला. यहीं से उनके सामने पश्चिम की आधुनिक चित्रकला की एक नयी दुनिया के दरवाजे खुल गए. वर्मा को असली पहचान सन 1873 में ‘मल्लप्पू चुटिया नायर स्त्री’ नामक चित्र से मिली. आस्ट्रिया के वियना में सम्पन्न हुई चित्र प्रदर्शनी में यह चित्र पुरस्कृत हुआ. वर्मा की पेंटिंग को विश्व कोलंबियन प्रदर्शनी में भेजा गया जो 1893 में शिकागो में आयोजित किया गया. वहां उन्हें अपने चित्रकारी के लिए दो गोल्ड मेडल भी मिले.

भारतीय इतिहास में राजा रवि वर्मा का नाम ऐसे चित्रकार के रूप में लिया जाता है जिन्होंने पश्चिमी शैली का प्रयोग कर भारत के मिथकीय चरित्रों में अपनी कल्पना के सुंदर रंग भरे. शुरुआत में उनकी कलाकृतियों को लोगों ने स्वीकार नहीं किया लेकिन बाद में कई लोग उनकी चित्रकारी शैली से काफी प्रभावित हुए. उन्होंने अपनी चित्रकारी में सरस्वती, दुर्गा, नल-दमयंती तथा दुष्यंत-शकुंतला जैसे पौराणिक चरित्रों पर आधारित देवी-देवताओं के चित्र खूबसूरती से उकेरे. उनकी चित्रकारी शैली को अगर देखें तो यह बिलकुल ही यथार्थ चित्रण से हटकर है. उन्होंने अपनी कला को बेहद ही सीमित दायरे में रखा। कला के इस महान आचार्य ने अक्टूबर 1906 में दुनिया से अलविदा कह दिया. भारतीय चित्रकला में उनके योगदान को देखते हुए केरल सरकार ने उनकी याद में राजा रवि वर्मा पुरस्कार शुरू किया जो प्रति वर्ष कला एवं संस्कृति के क्षेत्र की किसी होनहार शख्सियत को दिया जाता है। राजा रवि वर्मा की बनाई पेंटिंग्स में जो सबसे प्रसिद्ध पैंटिंग रही.. वह थी  " Lady in  the  Moon - Light .. " http://ravivarma.org/

मेरे बचपन के दिनो में मुझे भी चित्रकारी में गहरी रूचि थी.. जो सिलसिला दसवीं बोर्ड की परीक्षा तक बदस्तूर रहा| अपने इस शौक के कारण कई बार पिताजी से डाँट भी खानी पड़ती..| चित्रकला से जुड़े इस प्रसंग में एक रोचक घटना भी याद आती है| उस वक़्त मैं सातवीं में पढ़ता था..| उस वक़्त मुझे कॉमिक्स पढ़ना और स्टिकर कलेक्षन का जबरदस्त जुनून था| एक बार एक मिकी माउस के स्टिकर को देख... एक बड़ा सा पोस्टर बना दिया था| फिर कुछ दिनो बाद पूर्णिया के कला-भवन में आयोजित चित्रकला प्रदर्शिनी में मुझे पुरस्कार भी मिला था| लेकिन जिस बात को लेकर चित्रकला की ओर मेरी रुझान को जो प्रथम आघात मिला था.. वो था.. जिस वक़्त मेरी बनाई पोस्टर पे मुझे सम्मानित किया जा रहा था.. उसी समय उस आर्ट-गॅलरी से उस पोस्टर की चोरी भी हो गयी थी..| सम्मान पाके जब मैं आर्ट-गॅलरी की ओर गया तब वहाँ देखा की मेरी पोस्टर और कुछ अन्य चित्रकृतियाँ भी गायब थी..| मैं सदमे में था.. रोना भी आया.. फिर मायूस हो बस अपने प्राइज़ सर्टिफिकेट और मेडल लिए घर को लौटा| ....फिर दो-तीन वर्ष.. मेट्रीक के बाद सरस्वती पूजा के चंदा कलेक्षन के लिए.. महल्ले के ही अपने मित्र के घर गया तो देखा.. मेरी वो पोस्टर उसके घर की दीवारों पे चिपकी हुई है..| मैं वर्षों बाद अपनी उस कला-कृति को निहार रहा था..| फिर मैं बिना कुछ कहे.. उसके घर से निकल गया..|

आपकी सभ्यताओं पे हमले होते ही रहेंगे.. और शायद तभी हम आज के समाज में कलाकारों का घोर अभाव देख रहें हैं| मानवीय संवेदनाओं का प्रसफूटन रुक सा गया है... अपनी नैसर्गिक कला और प्रतिभाओं को दिखाने वाले  मैदान ही नज़र नहीं आते..  तो.. ओजस्वी मदन कहाँ मिलेंगे... तो शायद "गोलियों को रासलीला.. रामलीला" की जगह "राजा रवि वर्मा की चित्रलीला.. रामलीला.." ही दिखने को मिल जाती..|


Vipra Prayag 



Saturday, 21 June 2014

तुझको चलना होगा... एक चलंत कथा...!!!


.........."ये कौन सा स्टेशन है भाई?" " सुल्तानगंज.." कहीं से आवाज़ आयी। ट्रेन अपने रुकने वक़्त की एक झटके को लिए.. स्टेशन पे आ खड़ी थी। और फिर बाहर प्लेटफॉर्म से आती आवाज़े। चायवालों की चेय..चेय..करती भारतीय ट्रेन-यात्रा क़ी एक नॉस्टॅल्जिक फीलिंग। खिड़की से मैने भी अब कुछ झाँक कर देखने की कोशिश की.. मगर ये क्या..! पूरा का पूरा स्टेशन मानो गेरुवा रंग से नहाया हुआ। अचानक याद आया सावन महीना तो कल से ही स्टार्ट हो गया है। भागलपुर का सुल्तानगंज यही वो जगह है.. जहाँ से शिव भक्तिभाव में डूबे कांवरिया अपने कांवरो में इसी जगह से गंगा-जल लिए देवघर की ओर प्रस्थान करते हैं। पूरा स्टेशन औरतों बच्चे-बूढ़े जवानो से भरा हुआ था। उस सुबह दिखे उस दृश्य से आज भी शक्ति मिलती नज़र आती है। फिर कुछ देर बाद.. पौ फटते ही मैं भागलपुर जंकशन आ पहुंचा। वहाँ से मुझे  भागलपुर इंजिनियरिंग कॉलेज में प्रॅक्टिकल वायवा लेने के लिए जाना था। स्टेशन के बाहर निकलते ही रिक्शा लिया.. और उसे छोटी खंजरपुर चलने को कहा। भागलपुर ने समय समय पे हमेशा ही मुझे एक वैचारिक जीवन देने का काम किया है.. और अब तो यहाँ के पुराने गवर्नमेंट इंजिनियरिंग कॉलेज से एक प्रोफेशनल जुड़ाव भी हो गया है। चलती रिक्शा से मैने अपने कैमरे से सुबह सुबह भागलपुर की कुछ तस्वीरों को भी लिया.. कुछ हद तक फोटोग्राफी भी आपके एकांत भ्रमण का एक अच्छा साथी होता है। मेरी फोटोग्रॅफिक ललक को देख उस रिक्शेवाले ने भी थोड़ा बहूत गाइड का ही काम किया.. और भागलपुर में भारतीय सिनेमा के नामचिन एक्टर अशोक कुमार-किशोर कुमार का घर भी दिखाया था। फिर छोटी खंजरपुर के गंगा घाट के पास उस रिक्शे-वाले को छोड़ा। पैसे देते वक़्त मैने उसका नाम पूछा.. तो उसने अपना नाम "जग-नारायण.." बताया। मेरे जेहन में ये नाम जैसे कौंध सी गयी। धीरे धीरे मैं बगल के गंगा घाट की ओर बढ़ने लगा तो जैसे मेरे उन बढते कदमों में "जग-नारायण.." नाम की प्रतिछाया भी साथ हो चली हो.. जिसे मैने पिछले कुछ महीनो में पुनर्जीवित करने का काम किया था।

छोटी खंजरपुर घाट के उस दर्शन में अब पहले वाली बात न थी.. लेकिन पुरानी वो शिव मंदिर आज भी थी.. उस जगह पे। गंगा नदी की धार उस घाट पे कम थी.. लेकिन मेरे लिए तो उस घाट पे पहुँचना ही अद्वितीय था। मानो सृष्टि के रचयिता " जग-नारायण.." भी मेरे साथ हो चले हों। इस शब्द के साथ एक जूड़ाव इसलिए भी की शायद फिर कभी मैं वापस ना जा पाऊँ.. उस "जग-नारायण" के पास जिसे मैं अपनी बक्सर की यात्रा में छोड़ आया था.. लेकिन उस पुनर्जन्म में मैने दो जीवनो को जीवित होते देखा था।

"जग-नारायण" को जानने के लिए पहले भोजपुर और शाहाबाद के उस तस्वीर को भी देखना होगा.. जो अपने दिव्य इतिहास के होने के बावजूद भी आज आधी अधूरी ही है। पटना और वाराणसी के मध्य का ये प्रदेश.. कई मामलों में अपने सीमावर्ती प्रदेशों में हो रहे डेवेलपमेंट की तुलना में वर्षों पीछे है। इस पूरे प्रदेश की विवशता ये है की जो थोड़े काबिल थे.. वे अब बाहर चले गये। जो रह गये वो या तो अपनो के गुलाम या जड़ सामाजिक परिदृश्य के मानसिक उत्पीड़न में गुम हो गये। आज भी यहाँ के शेक्सपियर " भिखारी ठाकुर" की चर्चित "बिदेशिया" काफ़ी कुछ यहाँ के भावामंडल में अपने शाब्दिक चरितार्थ को बनाए दिख जाती है.. और फिर जो अपनी मिट्टी में रह गये.. उन्हें "जग-नारायण" के मार्मिक चित्रण में जाना ही पड़ता है।
http://en.wikipedia.org/wiki/Bhikhari_Thakur


वर्षों गहन अध्ययन में रहने के बाद भी मानो उसकी प्रतिभा को ग्रहण लग गया था। IAS/IPS परीक्षाओं के असफल परिणामों के बाद हुई घोर निराशा ने ही उसे अपने गाँव आने को मजबूर किया था। मन-मुताबिक लक्ष्य हासिल न कर पाना भी तो खुद को काल-कोठरी में फेंकने जैसा ही होता है। फिर तो और... जब सब कुछ होते हुए भी.. आप के बनाए अपने.. जब आपसे दूरी बढ़ा लें। वो दर दर भटकने लगा था। एक गाँव.. से दूसरे गाँव। किसी द्वार पे जा पहुँचे तो लोग उसके पूर्वजों और परिचितों के नाम पे तरश खा.. कुछ खाने को दे दें। ऐसा ही कुछ हुआ था उस दिन भी.. जब वो मेरे बक्सर वाले इंजीनियरिंग कॉलेज आया था। बातचीत के बाद उसे नाश्ता करने कॉलेज कैंटीन भेज दिया गया। तब तक मैं अपनी सुबह की क्लास लेकर लौट रहा ही था की.. बीच रास्ते में उसे जाते हुए भी देखा था। उसे देख कोई भी कह देता की अपने जमाने में वो कोई Athelete या Basket-ball player रहा होगा। फिर  कॉलेज के ऑफीस चैंबर में मुझे बुलाया गया.. उसके बारे में मैं जान कर... थोड़ा सकते में था। जीवन के इस साक्षात्कार में इतना सुखापन.. अपनो का रूखापन। वो कॉलेज कुछ काम माँगने आया था.. वो काम कर ही खाना चाहता था.. और इसलिए भी की उसके बौद्धिकता की कुछ तो पुष्टि हो सके। वो आज भी खुद  को सिद्ध करने को लालायित था.. लेकिन बीते कुछ सालों का विषपान अबतक  उसकी मानसिकता को जकड़े हुआ था। बहूत सारी बातों को जान.. मैने अपने चेयरमैन से फौरन कहा कि.. " सर, इसे रखा जा सकता है.." फिर मुझे कहा गया ".. तो फिर आपको इसका मेंटर बनना होगा।"

अपने अध्यापन और विषय शोधों से अलग ये एक सचमुच दुर्लभ शोध था.. मेरे लिए। उसे उस संस्थान में चल रहे १०+२ क्लास में English और GK/GS पढ़ाने का जिम्मा सौपा गया। धीरे धीरे उसके अभावग्रस्त अवस्था में सुधार आने लगा। उसकी ओर मेरे रुझान के कारण वो मुझसे ही हमेशा बात करना चाहता। मैं उसे बड़े ध्यान से सुनता.. और हमेशा उसे प्रोत्साहित और अपनी चुटकिले बातों से खूश रखने की कोशिश करता। उम्र में वो मुझसे काफ़ी बड़ा था... लेकिन खूशी के छींटों में जैसे वो अपने बचपने को जी उठा था। देल्ही के अपने अनुभव में वो Times of India news paper के लिए लिखता भी था। रणजी क्रिकेट खिलाड़ियों के साथ भी उसने खेल रखा था.. रमण लांबा का नाम हमेशा लिया करता। एक बार मेरे मोबाइल के पुराने फिल्मी गानो और ग़ज़लों को सुन एक दम से झूम ही उठा। फिर उसने भी कुछ गाने गाऐ। कुछ ही दिनो में मैने काफ़ी बदलाव देखा.. उसके पर्सनॅलिटी में... डिप्रेशन के दौर से वो अब उबर रहा था। मेरे बक्सर के दिनो तक.. मुझसे जीतना हो पाया.. मैने उसे उसके खोए जीवन को पाने में.. अपना धर्म समझ.. कुछ सकारात्मक कर्मों को कर पाया। मेरे आने के दिन.. वो काफ़ी उदास सा था। जीवन तो आगे बढ़ने का ही नाम है। उसी दौरान मैने अखबारो में पढ़ा था.. की आरा बिहार के प्रख्यात गणितज्ञ वशिष्ट नारायण सिंह को वर्षों बाद भूपेंद्र नारायण यूनिवर्सिटी मधेपुरा में विज़िटिंग फॅकल्टी के रूप में सम्मानित किया गया है।
http://theranveer.blogspot.in/2013/04/a-great-mathematician-dr-vashishtha.html

.......गंगा नदी के मंझधार में खड़ी एक नाव को देख मैं ठिठक पड़ा... अपने "जग-नारायण" की यादों से उभर लगा..लगा मानो उस मंझधार का मांझी कुछ सुखद संदेश दे रहा हो...




"नदियाँ चले, चले रे धारा, चंदा चले, चले रे तारा...
तुझ को चलना होगा, तुझ को चलना होगा...

जीवन कही भी ठहरता नहीं हैं
आँधी से, तूफां से डरता नहीं हैं
तू ना चलेगा तो चले तेरी राहें...
मंज़िल को तरसेगी तेरी निगाहें....
तुझ को चलना होगा....

पार हुआ वो रहा जो सफ़र में....
जो भी रुका, घिर गया वो भंवर में
नाव तो क्या, बह जाये किनारा....
बड़ी ही तेज समय की हैं धारा...
तुझ को चलना होगा.."


Vinayak Ranjan

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Wednesday, 18 June 2014

ये दुनियाँ अगर मिल भी जाये तो क्या हैं...

"ये महलों, ये तख्तों, ये ताजों की दुनियाँ..
ये इंसान के दुश्मन समाजों की दुनियाँ..
ये दौलत के भूखे रवाजों की दुनियाँ..
ये दुनियाँ अगर मिल भी जाये तो क्या हैं..।

हर एक जिस्म घायल, हर एक रूह प्यासी..
निगाहो में उलझन, दिलों में उदासी..
ये दुनियाँ हैं या आलम-ए-बदहवासी..
ये दुनियाँ अगर मिल भी जाये तो क्या हैं..।

जहाँ एक खिलौना हैं, इंसान की हस्ती..
ये बस्ती हैं मुर्दा परस्तों की बस्ती..
यहाँ पर तो जीवन से मौत सस्ती..
ये दुनियाँ अगर मिल भी जाये तो क्या हैं..।

जवानी भटकती हैं बदकार बन कर..
जवां जिस्म सजते हैं बाजार बनकर..
यहाँ प्यार होता हैं व्योपार बनकर..
ये दुनियाँ अगर मिल भी जाये तो क्या हैं..।

ये दुनियाँ जहाँ आदमी कुछ नहीं है..
वफ़ा कुछ नहीं, दोस्ती कुछ नहीं हैं..
यहाँ प्यार की कद्र ही कुछ नहीं है..
ये दुनियाँ अगर मिल भी जाये तो क्या हैं..।

जला दो इसे, फूँक डालो ये दुनियाँ..
मेरे सामने से हटा लो ये दुनियाँ..
तुम्हारी हैं तुम ही संभालो ये दुनियाँ..
ये दुनियाँ अगर मिल भी जाये तो क्या हैं...।"


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इस गीत के बोल.. भारतीय सिनेमा के महान फिल्म-मेकर गुरुदत्त की १९५७ की बनी फिल्म "प्यासा" के  है... आध्यात्मिक सूफिज़म को केंद्रित इस गीत को मैने सर्व-प्रथम १९८४-८५ में दूर-दर्शन में प्रसारित किए गये.. गुरुदत्त साहब की चुनिंदा फिल्में "कागज के फूल", "मिस्टर एंड मिसेज़ ५५", "साहब बीबी और गुलाम" को "प्यासा" के साथ देखा था..| उनकी फ़िल्मो में संवाद का आकर्षण और वस्तु-स्थिति की भव्यता देखते ही बनते थे| उस जमाने की कॉमेरसीयल फ़िल्मो को भी आर्ट फ़िल्मो के कॅन्वस पे सजोने में उन्हें महारत हासिल थी| पिछले साल २०१३ स्वतंत्रता दिवस के मौके पे.. पटना के इंदिरा गाँधी प्लानेटोरीयम में गुरुदत्त की प्यासा फिल्म का निःशुल्क प्रसारण किया गया| आज की युवा पीढ़ी में भारतीय सामाजिक संवेदनशीलता के प्रति पुनर्गठन को ऐसे प्रयास सराहनीय हैं, ताकि उन्हें आज की भ्रष्ट कॉंमेरसीयल सिनेमा के कोप से बचाया जा सके|

वर्षों बाद गुरुदत्त के जीवन पे.. उनके सहकर्मी रहे अबरार अल्वी के माध्यम से एक अच्छी किताब पढ़ने को मिली.. Ten Years with GURU DUTT: Abrar Alvi's Journey... must read..

Vipra Prayag


Tuesday, 17 June 2014

हिच-हाइकिंग के अध्यात्मिक सफ़र में...



करीब साल भर पहले अपने बक्सर कार्यानुभव के दौरान प्रभात खबर समाचार पत्र के माध्यम से स्वामी विवेकानंद व राधानाथ स्वामी की जीवनियों पे आधारित संस्मरणों का विराट उल्लेख पढ़ने को मिला था। १९वीं सदी के मध्यान में जहाँ संपूर्ण विश्व ने स्वामी विवेकानंद की आध्यात्मिक चेतना यात्रा को देखा और सुना.. वहीं २०वीं सदी के मध्यान से लेकर अब तक राधानाथ स्वामी की परम भारतीय आध्यात्मिक तृष्णा ने उन्हें अमेरिका जैसे उन्नत देश से बाहर.. भारत में आकर ही संतुष्टि का बोध करवाया। जीवन की इन दोनो  ही यात्राओं में जो एक समानता दिखती है.. वो है एक संपूर्ण ज्ञान प्राप्ति को निरंतर क्रियाशील रहना। ऐसा ही कुछ गौतम बुद्ध से लेकर आज के महान तपस्वीयों ने भी किया। फिर जीवन की वो क्रियाशीलता भी कैसी.. जहाँ भटकाव ना हो। जीवन के इन वैचारिक संघर्षों और उत्पीड़न में तो बस एक दृढ़ इच्छा-शक्ति ही खुद अपना नेतृत्व करती नज़र आएगी.. और फिर इस अनोखे यात्रा को आप कई मुकम्मल मुकामों पे पहुँचते भी देखेंगे.. अपने अपने जीवन की " हिच-हाइकिंग" Hitchhiking के साथ.. या इसे " भिक्षाटन" ही कह लें। आज के इस भौतिकतावादी युग में "हिच-हाइकिंग" जैसा इंग्लीश शब्द ही आपके आध्यात्मिक खोज को नया version देता नज़र आऐगा। नहीं तो " भिक्षाटन" जैसे शब्द मानवीय "नर-नारायण" से ज़्यादा "दरिद्र-नारायण" रूप को ही परिलक्षित करते हैंं।
http://en.wikipedia.org/wiki/Hitchhiking

वर्षों पहले अपने चर्च वाले स्कूल के बगल वाले ऊँचे-ऊँचे सेमल पेड़ों पे लदे लाल-लाल फूल.. और फिर इन फूल-फलों से हवाओं में झड़ते.. एक-एक हल्के सफेद रूई समान कण... स्वचंद हवाओं में तैरते... बचपन में हम सब इसे पकरने की पुरजोर कोशिश भी किया करते.. तो हवा के झोंको में ये फिर पकड़ से कोसो दूर  निकल जाते... प्रकृति के इस अनोखे हिच-हाइकिंग को भी आप क्या कहेंगे..! जहाँ उन कणो के एक संपुष्ट वृहत भंडार के कोमल भावों को आधार बना कर हम जीवन प्रयंत.. स्वप्न निंद्रा में खोए रहतें हैं.. वहीं इसके एक एक कणो का स्वच्छंद विचरन इसके स्वरूप को उस विराट सेमल पेड़ की आभा से कोसों दूर लेता चला जाता है... एक ब्रम्‍ह-पुष्टि के लिए..।

सदियों वर्ष पहले कुछ साधु सन्यासियों फकिरों का दल.. अपनी जमात में विश्व-भ्रमण को निकला था.. दिन भर की भरी दुपहरी में जब सभो को प्यास लगी तो पास ही एक नीले रंग लिए एक दिव्य सरोवर दिखाई दी। उस अद्भुत सरोवर को देख.. सभो ने अपने कमर में लटकी मिट्टी के छोटे घड़े को ले उस सरोवर के पास गये। जी भर कर पानी पिया.. और फिर अपने अपने घड़ो में पानी भर अपने आगे की यात्रा को बढ़ते ही की... उस सरोवर का यक्ष निकल पड़ा.. और साधुओं से कहा.." इस सरोवर के जल का मूल्य कौन देगा..?" ये सुन सारे साधु सन्यासी अवाक थे.. की इस सरोवर में पानी की कोई कमी नहीं..फिर भी.. इस यक्ष को अपने मूल्यों की पड़ी है। फिर एक साधु ने कहा.." महाराज आपके सरोवर के जल की कीमत तो हमारे जीवन से जुड़ गयी है.. क्यों की अब तो इस सरोवर का जल..हमारे शरीरों में प्रवेश कर गया है.." ..ये सुन यक्ष ने कहा.. " फिर ये जो उन घड़ो में हैं.. उसका क्या..?" .. साधु ने जवाब दिया.." किंचित ये जल इन घड़ो  में हैं.. हम इन घड़ो से पानी दुबारा सरोवर में डाल भी दें तो आपका मूल्य आपको दे नहीं सकते.. आपकी मूल्य तो तभी दे पाएँगे.. जब प्राण-आहुति दी जाएगी...".. ऐसा कह सभो ने एक एक कर अपने जल से भरे घड़ो  को सरोवर में प्रवाह कर दिया। ये देख यक्ष ने कहा.." जल का मूल्य माँगा था.. घड़े क्यों दिए..।" साधु ने कहा.. "राजन.. इन घड़ो के अनेकों सूक्ष्म छिद्रों ने वर्षों से जिन जल-कणो को सिंचित रखा है.. वही आपका माँगा हुआ मूल्य है.. और फिर हमने जो जल ग्रहण किया है..तो हम सभो को मोक्ष भी यहीं लेना होगा.. ये हमारा इस मान-सरोवर के प्रति अर्पित.. जीवन-मूल्य है..।"



इन आध्यात्मिक संस्मरणो में जहाँ हिच-हाइकिंग की यात्रा नज़र आती है.. तो.. त्याग की अभिव्यक्ति भी..। हिच-हाइकिंग को बस जीवन के कुछ संस्मरणो से जोड़ देखना ही प्रयाप्त नहीं.. बल्कि आपके हर एक कर्मों में आपके परिवार, समाज, राज्य, देश की भागीदारी भी समाहृत है। आपके जीवन के हर एक मोडों पे किसी ना किसी रूप में मिले साथ और विश्वास भी.. इसे शक्ति देने का ही काम करती है। मेरे जीवन के अनुभवों में.. जिन अमूल्य अनुभवों से मेरा मन सृजित हुआ.. उनमें सर्व-प्रथम मेरे दादा-दादी के प्रकृतिपूर्ण उद्दात भाव से किए हुए कर्म, त्याग, लोकहित और धर्म के प्रति अटूट आस्था ही मेरे हिच-हाइकर बने नज़र आते हैं... जिन भावों के साथ मैने एक सामाजिक परिवार को बनते देखा। ..फिर तो स्कूली और कॉलेज दिनो के साथी भी.. जो आपके भावों को देखते और सराहते दिख जाते हैं।

नागपुर के अपने इंजिनियरिंग छात्र जीवन में.. अपने हॉस्टल के बगल में खड़े हो आनेवाली कॉलेज बस का इंतज़ार करना.. और अनायास रूप से किसी अंजान व्यक्ति से लिफ्ट या साथ मिल जाना भी तो हिच-हाइकिंग ही था।


..देखिए ना ये सबकुछ जीवन के ऐसे संस्मरण हैं कि आपको आपके प्रोफेशनल निर्माण के साथ साथ कितने ही सुनहरे स्तंभो के निर्माण होते दिख जाएँगे। फिर इस हिच-हाइकिंग को बल देने में उस प्रबुद्ध समाज और संस्कृति के योगदान को भी महसूस किया जा सकता है.. जो महाराष्ट्र जैसे अंजान जगह पे बिहार से गये एक भयमुक्त भाव को मिला था। ..फिर तो जैसेे इन्ही भयमुक्तत भावों को बल मिलने से ही आपकी क्रियात्मक प्रबुद्धता को भी बल मिलता है.. और आप पहचाने जाते हैं। वैश्विक सभ्यता, प्रबुद्धता या जातीय संघर्ष में इन भावों को तोड़ा मरोड़ा भी जाता रहा है.. तो फिर आपके अनुष््ठान में बूँद-बूँद मिलते समर्थन भी अनायास ही दिख जाते हैं। अपने इंजिनियरिंग कॉलेज के शिक्षण अनुभवों में पूर्णिया से किशनगंज रोजाना आते जाते वक़्त.. तो फिर किशनगंज पहुँच उस नये इंजिनियरिंग कॉलेज तक के सफ़र में.. मुझे कभी मोटर-साइकल वाले से सहयोग मिला.. तो कभी ट्रक-वाले से तो कभी किसी ठेलावाले से। ऐसे अनुभवों की गरिमा और मिलने वाले सहयोग भी तो धर्म और वर्ण से परे ही नजर आते हैं। बक्सर अनुभव में दानापुर रेलवे स्टेशन से लेकर उस गाँव वाले इंजिनियरिंग कॉलेज तक पहुँचने की प्रक्रिया भी तो असाधारण ही थी। याद है.. उस कॉलेज को जाय्न करने वाले दिन की यात्रा वृतांत को सुन कॉलेज के चेयरमॅन ने सहसा ही कह डाला था.. की जिन अनुभवों को लेकर यहाँ आने वालों के पैर पहले ही जकड़ जाते हैं.. उन अनुभवो को आपने अपने पहले यात्रा में ही जी लिया.. क्योंकि कॉलेज पहुँचने का वो एक उल्टा और दूभर रास्ता था.. और इन्ही उल्टे रास्तों पे जाकर ही आध्यात्म दिखता है.. और मेरी वो यात्रा भी वहाँ के सिद्ध ब्रम्‍हपूर शिव मंदिर के बगल होकर ही गुज़री थी।

इस यात्रा वृतांत में एक बार दानापुर स्टेशन पे ही मिले भोजपुर के ही एक रिटाइर्ड इंजिनियर श्री एस.बी. दूबे साहब, जो मेरे नागपुर के दिनो के यूनिवर्सिटी डीन श्री हेमंत ओंकार ठाकरे से पूर्व-परिचित थे.. उन्होने ज़मीन से जुड़ी मेरी वैचारिकता और रुदन को सून सहसा ही कह डाला.. की.. "आप भी.. इस सूखेपन को ही पाटने आयें हैं..फिर यहाँ मूल्य क्या मिलेगा..?" ... फिर मेरी समझ में बक्सर भी तो महर्षि विश्वामित्र का पुरातन व्याघ्रसर ही था। मेरे प्रयासो और हिच-हाइकिंग यात्रा का एक नया पड़ाव.. मेरा "मान-सरोवर"। फिर.. उनसे जो मैं कह पाया..की.. "सर.. कुछ सरोवरों को स्वच्छ कर आया हूँ.. काश ये पुण्य-कर्म जीवन-प्रयंत जारी ही रहे।"


-Vinayak Ranjan

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Saturday, 14 June 2014

नीलगिरि..ऊटॅकमंडलम का दैविक दर्शन और रहस्यमयी छाता...

अपने रायसोनी इंजिनियरिंग कॉलेज नागपुर के कुछ सुहाने पलों में.. वर्ष २००१ जून की वो.. ऊटी यात्रा आज भी इस उमस भरे गर्मी के दिनों में कुछ पलों के लिए एक शीतल छाया दे जाती है। कॉलेज के अपने डिपार्टमेंट के दोस्तों के साथ नागपुर से हम चेन्नई होते हुए.. कोयंबटूर आ पहुँचे थे। फिर कोयंबटूर से एक मिनी बस रिज़र्व कर दो ढाई घंटे के सफर के बाद हम ऊटी की रमणीय मंत्र-मुग्ध कर देने वाली फ़िज़ाओं के बीच पहुँच सके थे। हमसभो में एक गजब का ही उत्साह उछालें खा रहा था.. और ये सबकुछ इसलिए भी कि कॉलेज के सारे दोस्तों दोस्तिनियों के साथ अपनी जगह से इतनी दूर ये हमारा पहला कॉलेज ट्रिप था। कोयंबटूर से दोपहर निकलते वक़्त ही भूख जोरों की लगी थी.. सो मैने आगे के लंबे सफ़र को देख कोयंबटूर रेलवे स्टेशन पे मिल रही.. फिश फ्राइ और राइस दोस्तों से छुपाकर पहले ही पैक करवा ली थी। कहतें हैं ना की.. "मन चंगा.. तो कठौती में गंगा.. और भूख भागे दरभंगा" तो सबसे पहले पेट पूजा का ख्याल भी तो बखूबी रखना ही पड़ता है। आज भी याद है.. कोयंबटूर से बस खुलने के बाद जैसे-जैसे हम नीलगिरि की ऊँचाइयों को बढ़ने लगे थे.. मेरे सारे दोस्तों को भूख भी बड़ी ज़ोर की लगने लगी थी.. और इन सभो के बीच बस की सबसे पीछे वाली सीट पे मैं अपने एक दोस्त सतीश अलासपुरकर के साथ.. फिश और राइस का आनंद ले रहे थे। ..फिर तो आज भी उस चलती बस में मिले उस फिश फ्राइ राईस के स्वाद का कोई जोड़ नहीं.. और फिर तब तो और.. जब भूख भी बड़ी ज़ोर की लगी हो। खाने पीने के मामले में एक बात तो तय है की.. फ़ुर्सत के सफ़र में.. लगने वाली भूख भी अपने चरम पे ही होती है.. तो जब जो चाहे उचित लगे अपने पास स्टोर करके रख लेने में ही बुद्धिमानी है। कहते हैं ना.. " जिंदगी का सफ़र.. है ये कैसा सफ़र... कोई समझा नही.. कोई जाना नही.." ...तो फिर कुछ समझने समझाने के लिए भी अग्रसोची तो बनना ही होगा। http://en.wikipedia.org/wiki/Ooty

नीलगिरि की यात्रा जारी थी... चलती बस की खिड़की से दिखती बाहर के विहंगम दृश्य.. तो सोच में आती बहूत सारी सवालें भी कि.. दक्षिण भारत में भी काफ़ी कुछ है देखने को.. और ख़ास कर पर्वतों और पहाड़ों के ऊपर बसे ऐसे लोकेशन्स। लगभग दो-तीन घंटे सफ़र के बाद हम ऊटी.. पुराना नाम उटकमंडलम सकुशल पहुँच पाए। जेहन में नीलगिरि की उन ख़तरनाक मोडों से होते बस के उस सफ़र के बाद हम खुद को थोड़ा खूश और राहत लेते देख पा रहे थे। फिर हमनें एक अच्छे होटेल की तलाश की.. और होटेल वुडलॅंड को खोज पाए। वहाँ पहुँच हम अपने सामानो को लिए.. अपने-अपने कमरों में जा गिरे। .. लेकिन हाँँ.. वो कमरे नहीं.. छोटे छोटे कॉटेज थे।
 
  पूरी ३६ घंटे वाली लंबी यात्रा की थकान के बाद हम सभो को उस सुहाने मौसम में जैसे कॉटेज पहुँचते ही नींद आने लगी।हम सब थक कर चूर थे और फिर बाहर बारिश की हल्की फुहारों ने भी मौसम को कुछ ज्यादा ही खूशमिज़ाज बना दिया था। कुछ देर आराम करने के बाद.. मैं जैसे ही बाहर निकला.. तो जैसे दिल ने कहा.. इतनी दूर आए हो सिर्फ कॉटेज में ही समय गुजारने! सचमुच अद्भुत सा था.. बाहर प्रकृति का वह नज़ारा.. चारोंं ओर पहाड़ों की ऊँची चोटियों से टकराते बादल.. और रह रह कर आती बारिश की फुहारों ने तो जैसे क्षण भर के लिए उस हरी भरी वादी को धरती का स्वर्ग ही बना दिया था। सचमुच एक दैविक विहंगम दृश्य ही था चारों ओर। बाहर के इन खुले नजारों को देख मैं तेजी से अपने कमरे की ओर गया.. और फिर चुपके से होटेल के बाहर खुली वादियों में निकल गया। बारिश की होती फुहारों की परवाह किए बगैर.. मैं तेज कदमों से नीचे वहाँ से दिखती दुकानो की तरफ बढ़ने लगा। सब कुछ ही नया सा था वहाँ.. फिर एक टेलिफोन बूथ से अपने घर बिहार फोन लगाकर.. घरवालों से बातें की। एक बगल की दुकान से वहीं की बनी लोकल कॅड्बेरी चॉकलेटों को भी खरीद खाया और वहाँ से पास के ही एक मार्केट एरिया की तरफ बढ गया। वहाँ पहुँच एक होटल में चिकन बिरयानी भी खाया। तब तक बाहर बारिश तेज हो चली थी.. और फिर मुझे अपने होटेल भी जल्दी ही पहुँचना था.. क्योंकि किसी को बिना बताऐ जो जा निकला था शहर की ओर। फिर ठीक उस होटल के बिल्कुल सामने एक एनटिक कलेक्सन वाली दुकान को देखा.. तब तो बाहर बारिश भी थोड़ी धीमी हो चली थी। खाने का बिल पेमेंट कर सामने वाली उस एनटिक कलेक्सन वाले दुकान को भी देखने जा पहुंचा। वहाँ देश और विदेशों की ढेर सारी एनटिक कलेक्सन्स की भरमार थी.. लेकिन तब तक तो मेरा दिल वहाँ लटके एक बेहद ही खूबसूरत छाते पे रम गया था। मन ही मन मैं खुद को थोड़ा टटोल भी रहा था.. की इसे खरीदूँ की नहीं। फिर वहाँ के बदलते मौसम को देख.. मैने जैसे मन बना ही लिया। थोड़ा मँहगा सा तो था वो छाता.. लेकिन था बड़ा ही प्यारा। फिर मैं उसे खरीद छतरी ताने बाहर आ निकला.. और हल्की बारिश की उन फुहारों में थोड़ा गुनगुनाता हुआ.. आगे अपने होटेल की ओर बढ़ने लगा। फिर जैसे ही मैं उस होटेल के मेन गेट पे पहुँचा.. तो तब तक बारिश भी जाती रही थी। फिर वहाँ उस वुडलैंड होटल के एक बहादुर गेट कीपर से थोड़ी उस जगह व उसके आस-पास की जगहों के बारे में पूछ ताछ किया। मुझे बिहार का जानकर वो गेट कीपर भी खूश हो गया क्योंकि वो भी दारज़ीलिंग का ही रहने वाला था। फिर उसने मेरे हाथों में उस छाते को देख झट से कहा.. " क्या साहब.. यहाँ भी छाता लिए ही घूमने आए हो क्या.. ?" मैं कुछ पल के लिए बिल्कुल ही ठिठक सा गया। उसकी कही बातों को हल्के में लेकर.. वापस अपने दोस्तों के पास अपने होटल वाले कॉटेज को आ पहुँचा। सारे दोस्त तब तक एक गहरी नींद लेकर जाग चुके थे। फिर हम सब साथ में चाय-कॉफी लेने के बाद उस होटेल से बाहर निकल पड़े। शाम को हमने बोन-फायर किया.. और दोस्तों के साथ खूब नाचे गाए। दूसरे दिन हमें ऊटी की खूबसूरत जगहों को देखने भी जाना था। मौसम के बदलते मिज़ाज को देखकर.. मैनें अपने बैग में छाते को भी रख लिया।


दूसरे दिन ऊटी भ्रमण को हम सब तैयार थे। दो तीन मिनी बस में हम ऊटी की साइट सीईंंग को निकल पड़े। इस क्रम में हम.. सबसे पहले दोदाबेटा पीक को देखने गये। दक्षिण भारत में मौजूद इस उँचे पर्वत शृंखला की उम्मीद तो मैने कभी नहीं की थी। सचमुच अद्वितीय ही था.. वहाँ से संपूर्ण प्रकृति का आकर्षण। फिर उस जगह को पहुंचते ही लगा.. कि जैसे कितनी सारी बॉलीवुड फिल्में बनी हो इस जगह पर। फिर हम वहाँ से नीलगिरि की चाय के बागानो को देखते हुए... ऊटी लेक आ पहुँचे। वहाँ हमने बोटिंग की.. फिर एक रेस्टरौंत में खाना खाकर हम.. शाम को वहाँ के बोटैनिकल गार्डेन आ पहुँचे। दिन भर बहुत ही मज़ा आया.. उस गार्डेन के हरे घाँसो को देख तो मैं वहीं लेट गया। दिन भर की थकान को थोड़ा कम करने। फिर वहाँ से निकल कर हम पास के मार्केट एरिया को  भी गये। मार्केट एरिया घूम ही रहे थे की तेज मूसलाधार बारिश अचानक से होने लगी.. तेजी से मैं अपने बैग में रखे छाते को निकालने की कोशिश की.. लेकिन ये क्या..  वो छाता तो बैग में था ही नहीं। फिर मैं तेज़ी से अपने मिनी बस की ओर भागा.. की कहीं बैग से निकल वो वहाँ सीट के नीचे तो नहीं गिर गया.. लेकिन वो वहाँ भी नहीं मिला। मन बड़ा ही अब मायूस सा हो गया था। मैं हल्के कदमों से बारीश में भींगते अपने दोस्तों की ओर उस मार्केट एरिया को बढ़ने लगा.. की तभी उस होटेल के गेटकीपर बहादुर की कही बात कौंध सी गयी.. " क्या साहब.. यहाँ भी छाता लिए ही घूमने आए हो क्या..?" मैं जैसे खुद पे ही हँस पड़ा और उस शाम ऊटी की होती उस मदमस्त बारिश में बिल्कुल ही डूब सा गया। फिर तो ये सबकुछ एक अद्भुत आनंद ही था.. एक जेनुइन नॉलेज.. कभी न खोने वाला।

 ऊँटी की सुहानी यादों को सजोए हम एक दिन Mysore रुकते हुए Bangalore आ पहुंचे.. और फिर एक दिन बाद हम सब नागपुर लौट आऐ। आज इतने दिन होने के बाद भी.. ऊटी के उस ट्रिप को नहीं भूला हूँ.. ना ही गुम हुए उस छाते को ही। जीवन में जैसे बहुत सारी ऐसी वजहों से आपका जुड़ाव भी तो उस छाते के समान ही है.. एक आवरण मिल जाए तो सुख ही सुख है.. नहीं तो अपना समझा हुआ एक दुख के समान। सच मानिए तो ऐसा कुछ भी नहीं है.. प्रकृति से मिली हर एक रसों को स्वछंदता से आपको लेना ही होगा.. नहीं तो भूल जायें उस रहस्यमयी छाते के समान।



- Vinayak Ranjan


Friday, 13 June 2014

अमूल्य धरोहरों की प्राण-प्रतिष्ठा...


कुछ दिन हुए टाइम्स जॉब्स डॉट कॉम पे मेरे रेज़्यूमे को देख देल्ही से एक कॉल आया... बातचीत से पता चला यह कॉल राजस्थान के एक कॉलेज में असिस्टेंट प्रोफेसर पद के लिए था| उस कॉल में मुझसे उस जॉब के लिए सहमति माँगी गयी..फिर मेरे मनोनुकूल वेतन संबंधी बातों पे भी बातें हुई| फिर कुछ दिन बाद उस कॉलेज के प्रिन्सिपल से भी मेरी बातें हुई| ये क्रम कुछ दिन और चला.. फिर एक दिन उस कॉलेज की वेबसाइट को मैने देखा.. तो दंग रह गया| मुझे विश्वास ही नहीं हो रहा था की.. इतने दिन पुराने कॉलेज को आज भी सही मार्ग-दर्शनो और शोधित निर्णयों से  से जीवित रखने की कोशिश की जा रही है..| उस कॉलेज के पहले चेयरमॅन राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी थे.. तो दूसरे चेयरमॅन पंडित मदन मोहन मालवीय थे.. और ये कॉलेज १९२० में पोदार एजुकेशनल ट्रस्ट द्वारा राजस्थान के नवलगढ़ में स्थापित की गयी थी.. और आज भी अपने सटीक  प्रयत्नो से आगे बढ़ रहा है..| लेकिन इस द्रस्टव्य से जो चकित करने वाली बात थी.. की आज भी वो कॉलेज.. चाहे वो महात्मा गाँधी के रूप में हो..या पंडित मदन मोहन मालवीय के रूप में... उन अमूल्य धरोहरो को बचाकर और उनकी प्राण-प्रतिष्ठा में आज भी जुटा हुआ है| ये शोध का भी विषय है की... उस पराधीन भारत में शिक्षा प्रयासों की कोई सीमा राजनीतिक अथवा राजकीय प्रणालियों से बँधी नहीं होती होंगी.. और आज भी ऐसे विचार हमें शिक्षा-प्रसार और इसके स्वस्थ क्रम को आगे बढ़ाने में बल देता ही नज़र आएगा| फिर उस कॉलेज के अकॅडेमिक प्रोग्राम वाले लिंक में अपने कंप्यूटर प्रोफेशन से जुड़ी शोध संबंधी प्रयासों को भी बड़ी सजगता से जोड़ कर रखा पाया| कंप्यूटर सब्जेक्ट्स में इसके विज्ञान और अविष्कारों को प्राथमिकता देते हुए.. अन्य आधारभूत विषयों के साथ टेक्निकल राइटिंग स्किल्स आदि विधाओं पे भी जोड़ दिया गया है.. जो एक सकारात्मक रुख़ है| आज की पीढ़ी को नये ज्ञान के साथ साथ पुराने ध्रुव केंद्रों से भी जोड़े रखना भी सही दिशा में लिया गया कदम है| http://www.podarcollege.in/bca.html

आज भी अगर हम कुछ अमूल्य धरोहरो को सहेज कर रखने की बात करें तो... हमारे हिन्दुस्तान में कितने ही राजा रजवाड़ों के किलों को भारत सरकार ने अपने अधिग्रहण में ले रखा है.. और एक सटीक कार्य-योजनाओ के तहत उनके रख रखाव पे विशेष ध्यान भी दिया जा रहा है| मैने भी अब तक जिन किलों को देखा है.. उनमे देल्ही का लाल किला, आगरा और फतेहपुर सीकरी का किला, बुरहानपूर मध्यप्रदेश का असीरगढ़ किला और हैदराबाद का गोलगुंडा किला.. और तो और अपने बक्सर कार्यानुभव में बगल के डुमराव महाराज के किले को भी देख पाया| डुमराव किले में उस रात के अंधेरे में जो दिखा था.. वो था.  शहर से लगा उस किले का बाहरी  परिसर और मुख्य द्वार.. कुछ जीर्ण-शीर्ण सा दिखा| उस किले से निकलते ही ठीक सामने वाली मार्केट के चौराहे पे एक पुरानी मिठाईवाली  दुकान से निकलती तेज और चकाचौंध रोशनी... मानो अपने अंदाज में कह रही हो... "कहाँ गंगू तेलि.. और कहाँ राजा भोज.." कुछ कुछ कबीर की उल्टी वाणी की तरह...| सच में उस रात.. डुमराव किले से वापस आकर भी उस पुरातन अवशेषों की छाया.. मन में बैठी हुई सी  थी| फिर उस भावावेषों से भी.. जिस चादर को ओढ़े वो मानो पुराने अतित पे रो रही हो| वो भोजपुर की दिव्य धरती थी... जहाँ की भोजपुरी संस्कृति आज देश विदेशों में अपनी अच्छी पैठ रखने में कायम तो है... लेकिन अपनो जड़ों से जड़ आधार ही गायब दिखता है..| १९७०-८० के कुछ एक भोजपुरी  फिल्मों और भोजपुर के शेक्सपियर "भिखारी ठाकुर" की अन्यतम कृति "बिदेशिया" को छोड़.... आज की भोजपुरी फिल्मों और गानो ने तो मानवीय संवेद नाओं की तिलांजलि ही दे दि  है..| इस मामले में.. मैथिली भाषाई अंचलों ने आज भी सांस्कृतिक चमक और मधुरताओं को सहेजे रखा है| ..तो अपने भागलपुर मुंगेर की अंगीका भी दम तोड़ती ही नज़र आती है| इन अमूल्य धरोहरो के प्राण प्रतिष्ठाओं को भी पुनर्जीवित करना अनिवार्य है.. तभी आज के विकास-पोषक के रूप में हम खुद को भी जाने जा सकेंगे|
http://en.wikipedia.org/wiki/Bhikhari_Thakur

२००९ में अपने पूर्णिया सिटी के राजा पृथ्विचंद लाल के किले के कुछ पुरातन अवशेषों को भी देखने का मौका लगा| एक खंडहर सी वीरान मंदिर के शिल्प-वास्तु कला को देख आप आज भी उसके भव्यता का अनुमान लगा सकते है| वो मंदिर प्रसिद्ध त्रिपुर-सुंदरी देवी की थी.. लेकिन मंदिर से देवी की मूर्ति नदारद... | उस पूजा के फर्शों पे दुर्गा पूजा मेले में बिकने वाले नमकीन के आंटे गूथे और तले जा रहे थे...| कुछ आगे बढ़ देखा तो पुराने तालाब के बगल के दो सटे मंदिर... जिनमे एक पुराना  शिव मंदिर था|  मंदिर के शिवलिंग से बँधी एक गाय.. उस जीर्ण मंदिर के अंदर बैठी थी| इन दृश्यों से ही ये स्पष्ट होता है की... राजा रजवाड़ों के अंत के साथ ही.. सामाजिक चेतना भी इन शक्ति-पिठों के प्रति कितनी उदासीन सी हो गयी..| आज ज़रूरत है तो उस ओर भी मुखर होने की... चाहे वो मंदिर हो या मस्जिद.. चर्च हो या गुरु द्वारे.. या पुराने भक्ति-शक्तिमठ  या शिक्षा केंद्र ही क्यों ना हो... इनके जीर्णोद्धार को आज के हमारे प्रबुद्ध समाज-शास्त्रियों को  कृत संकल्पित होना ही होगा... अपनी जड़ों और मूल्यों के प्रति आपकी  कार्मिक व वैचारिक  भागीदारी ही... अपनी अमूल्य धरोहरों की सच्ची प्राण-प्रतिष्ठा है...|



विप्र प्रयाग घोष

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