ये बात वर्ष २०१३ जनवरी की है। वर्ष २०१२ दिसंबर माह में बक्सर कॉलेज जॉय्न करने के बाद.. वहाँ आसपास की ग्रामीण नैसर्गिकताओं व प्राकृतिक संसाधनों ने मानों जैसे वर्षों से चल रहे एक आक्रांत मन को थोड़ा उपचार देने का काम करना प्रारंभ कर दिया था। मन वहाँ के असीमित लोक लुभावन वाले परिदृश्यों में ही जी भर कर जा घुलने को आतुर था। स्पष्टताऐं सृजित होती चली जा रही थी.. अपने शब्दों को एक निर्बाध शुद्धिकृत वर्णनों में छनता देख रहा था। साथ चल रहा क्लिक्स लेते कैमरे के जूमिंग लेंस उन नए चित्रों को जा मिल रहे थे.. जिन्हें शायद वर्षों से उकेर लिए जाने की एक तलाश सी थी.. आज के फिल्मांकन प्रसंगों में संभवतः ऐसे उद्धरणों को हम "वर्जिन लोकेशन" ही कहते हैं।
फिर जो भी हो.. उस कॉलेज के चेयरमैन के आभार व परस्पर समर्थनों से कॉलेज की ओर से प्रकाशित एक अर्धमासिक न्यूज बुलेटिन "संघतिया" में जीवन का पहला लेख प्रकाशित होते देख पाया। मानों एक सुखे पड़े अभिव्यक्त संसार को दवात की सुराही मिल गई हो। ये प्रकाशित लेख वी पी घोष के नाम से था.. प्रथम द्रष्टया मेरे चेयरमैन भी ये देख आश्चर्यचकित हुए कि मैने अपना नाम उस प्रकाशित लेख में सही सही क्यों नहीं दिया.. तो मैने ये कहते हुए जवाब दिया कि मेरे उस नाम को यहाँ कि पृष्ठभूमि ने अभी तक वो अधिकार नहीं दिऐ हैं जो मेरे स्वभाविक बल से है और फिर आज के मंजर में आपके अभिव्यक्तियों की आजादी कहाँ है.. हर कोई तो जैसे एक खामोशी की चादर ओढे गुमशुदा है ..इसलिए सर वी पी घोष ही ठीक है "विप्र प्रयाग घोष"।
..और फिर "विप्र प्रयाग" नाम का उस वक्त सहस ही दिख पड़ना ..ये आज भी अचंभित कर जाता है या फिर तो इस नाम को लिए मुझे जीवन के इस "विप्र वर्ण" में संभवतः एकबार तो उतरना ही था। यहाँ पहली बार इंटरव्यू को आते वक्त सोचा भी ना था कि यहाँ के जीवन का ये वृहत विस्तार मुझमें इस प्रकार प्रभावी हो जाऐगा.. मानों अनंत कालों की जठर अदृश्य शक्तियां ही थी जो तपस्या में लीन अपने हठ योगियों को थोड़ी पास बुलाने की जद्दोजहद में लगी हुई सी थी।
ग्रामीण व हरे भरे सनातन परिदृश्यों में खेतों के बीच पीपल व वट वृक्षों की छाया में ब्रह्म स्थलों का खिलखिलाता स्वरूप तो जैसे शीत मासों के गिरते ओसों में रची सनी गुदगुदाती सी। पटना दानापुर से पैसेंजर ट्रेनों से बनारस मुगलसराय रुट पे मेन स्टेशन आरा होकर जा पहुंचती कॉलेज के पास वाली वो एक छोटी से रेलवे स्टेशन "ट्रुलीगंज".. बस इस इंग्लिशिया नाम के सिवा दुर दुर तक कुछ भी इंग्लिश सा अब नहीं था वहाँ। फिर उस स्टेशन से दक्षिण की ओर जाती डुमराँव राज से पहले की वो पक्की सड़क.. और वहाँ से कॉलेज की ओर बढते इस क्रम में कभी पैदल का सफर तो कभी सवारी अॉटो जीप का मिल जाना।
राह से गुजरते शहरी आवरणों से कोसों दूर बसी एक मानवीय अवस्था रोड सटे इन कस्बों कुचों में दिख सी जाती। छप्पर व खपड़ैल वाले मिट्टी के घर.. बाहर जमें नादों के बगल बँधे गाय, बैलों व भैसों की कतारों में सजे पशुधन। पुआल के बोझों को माथे पे उठाए ले जाती ग्रामीण महिलाएँ तो रोजमर्रा के कामों में जूटे पुरुष वर्ग.. फिर तो बाहर ओसारे पे बैठे वृद्ध जनों को भी कंबल लपेटे देखता। ठूठ पड़ी उन आँखों पे लगे चश्में और उनके चौंधियाते दूर देखने की ललक परस्पर उनके अनुभवों को आज के बदलते परिदृश्य में जोड़े रखने में बड़े ही मुस्तैदी से अपना मोर्चा धान का कटोरा कहे जाने वाले इस पौराणिक प्रदेश में संभाले नजर आ ही जाते और.. मिलते इन सूक्ष्म अनुभूतियों को मैं अपने सूखे पड़े मस्तिष्क कोशिकाओं में रेगिस्तान के जहाज सा बखूबी सींचता चला जाता।
..अब मैं अचरजों को दूर किऐ स्थिर हो चला था ..भावुक प्रबलताओं के साथ एक मजबूत घेराबंदी की चादर बुनी जा रही थी। साँसे अनेकों विषमताओं से पड़े अपने मंजिल को पास देख पाने को
उन्मुक्त थी.. कि क्या इन जठर सुदूर हालातों में भी एक इंजीनियरिंग प्रतिष्ठान जन्म लेकर अपने वात्सल्य को जी सकता है.. और वो तो जीवित था उन वैज्ञानिक अनुक्रमों में। जीवन का एक श्रेष्ठतम प्रयास
शिक्षा के लिए.. महर्षि विश्वामित्र के क्षेत्र में। भारतीय उपमहाद्वीप के जिस पूरातन भूभाग ने सदियों से एक बर्बर व असभ्य प्रतिद्वंदों में खुद को अक्षुण्ण बनाए रखा और अपने योग शास्त्रों से ब्रह्मार्थ को बचा कर मानव सभ्यता को एक सटीक दिशा देने में अपनी उत्कृष्ट भूमिका निभायी तो इसी जमीन से निकले मनुस्वियों को अपना क्षेत्र तो सहस बुलाऐगा ही।
फिर यही कुछ था जो यहाँ के एक प्रबुद्ध क्षत्रिय वर्गीय वैज्ञानिक ने एक नए स्तंभ निर्माण में इंजीनियरिंग कॉलेज की आधारशिला रखने का काम किया.. कि यहाँ आसपास के ग्रामीण युवा स्नातक स्तर की एक उच्च व विशेष इंजीनियरिंग पाठ्यक्रमों को अपने ही परिक्षेत्र में पढकर गौरवान्वित महसूस कर सकें.. और फिर इस साकारात्मक प्रयास को प्रारंभिक सफलता भी मिली.. लेकिन आज के राजनीतिक व जातिवादी शैक्षणिक ग्रहणों से खुद को बचा पाना भी एक गंभीर चुनौती समान साथ चलती दिख भी रही थी और वो भी तब जब आप भौगोलिक रुप से एक राजवंशीय सामंती परंपराओं के सन्निकट ही खड़े हो।
..पास के ही महाराजा डुमराँव राजगढ के दक्षिण पूर्व का ये क्षेत्र ..आतुरता ऐसी की कॉलेज से नजदीक के ही एक गाँव में चल रहे नवनिर्मित मंदिर की प्राण प्रतिष्ठा में चल रहे भजन कीर्तन के शंखनाद की गूंज में मन बरबस उस दृश्याग्नि की ओर निकल जाने को कर गया था। अंधेरे वाले सुबह की उस धुंध में खेत खलिहानों से होकर गुजरते प्रातः कालिन किरणों से जगमगाते मंजर में एक समृद्ध समाज के मध्य खुद को पाना ही सबकुछ था। फिर गाँव के ही एक दो परिवारों के वृद्ध जनों से परमहंस योगानन्द की "अॉटोबायोग्राफी अॉफ योगी" पुस्तक का मिल पाना और उस पुस्तक के लेख माध्यमों से युक्तेश्वर गिरि, लाहिड़ी महाशय व महावतार बाबाजी के हिमालय की अदृश्य श्रेणियों में छिपे योग तत्व का सहर्ष ही मिल पाना.. सच मानें तो ये सबकुछ एक चमत्कार से कम ना था और फिर मेरे उस विकट संघर्षों में भी जैसे मुझे अनुशासन की दीक्षा योग में बाँधे रखने का एक सटीक विकल्प.. जैसे गीता प्रेस गोरखपुर से प्रकाशित मासिक पत्रिका कल्याण के देवी देवताओं के सजीले चित्रों के बीच खेलते मेरे बचपन के उस मुख प्राण को अमृत की बूंदे मिल सी गयी हो।
मैं अपने एक अजीब से बचपने को जीवन के इस सूदूर अंत पे जीने को अब भी अमादा था तो मेरे पुत्र के रुप में एक बचपन मेरा पटना में इंतज़ार भी करता रहता। इसी क्रम में सप्ताह के अंत में
वापस पटना भी आना होता.. सबकुछ बचपना ही था.. और बनते इस जीवन अध्यात्म की नई कड़ी भी विप्र प्रयाग के रुप में स्वतः ही शब्दांकित होती चली जाती। वर्षों बाद जैसे मैं अब लिखने लगा था.. आत्म-बोध से निकलती संतुष्टियाँ.. फिर इसे आप सेल्फ-रिऐलाईजेशन ही कह लें।
..कॉलेज के उस ग्राम्य परिसर व अन्यत्र दुर कस्बों से रोजाना की भांति बड़े मुस्तैदी से छात्र-छात्राओं को आता देखता। खेतों खलिहानों को लांघते इस दुरह अभियोजन में शालीनता सभ्य संस्कारों के साथ कूट कूट कर भरी हुई.. जैसे वैदिक संस्कारों की छाप आज भी यहाँ कुछ बची सी रह गई हो।
कॉलेज में आयोजित अनेकों कार्यक्रमों में भी प्रथम क्रम आसपास गाँवों के वृद्ध सज्जनों का ही होता। मानों सभामंडल की श्रेणियाँ आज भी सप्तर्षियों से सुसज्जित हो रखी हों। ग्रामीण परिवेश के
बीचोबीच इंजीनियरिंग निर्माण के इस अनूठे पहल ने जान ही फूँक रखी थी.. और फिर मैं भी अपने विशेष शोध क्रम में कैमरा लटकाऐ वहाँ पाऐ जाने वाले जीव-जंतुओं पक्षियों व
हरे भरे खेत खलिहानों के चित्रों को बटोर जाता.. ये सबकुछ एक चलंत चिड़िमारी से कम ना था। अपने रुझानों को पुख्ता किऐ आसपास के गाँवों को भी संध्या पहर में घूम आता.. कहीं गन्ने के रसों से बनते देशी मिठास के गुड़ चखने को मिल जाते तो कहीं मशीन से तैयार होते धान। अपने अपने अनुक्रमों में संलग्न एक जैविक तंत्र इन सुदूरों में भी खुद को एक उम्दा बाजार के लिए निरंतर तैयार करता ही रहता।
खेत खलिहानों व गाँवों के निरंतर भ्रमण में एक बार बक्सर के एक वरिष्ठ पत्रकार के साथ हम अपने कॉलेज चेयरमैन के पास ही के पैतृक गाँव के प्राईमरी स्कूल में थे। जिसका नाम था "संघतिया
प्राईमरी पाठशाला".. इस स्कूल में गाँव के ग्रामीण निर्धन बच्चे नि:शुल्क ही पढाई करते थे.. जिसकी देखरेख गाँव के ही रिटायर्ड वृद्ध जन करते तो इसके इस्टैबलिशमेंट व फाईनैंस की मॉनिटिरिंग मेरे कॉलेज के चेयरमैन के हाथों थी। सच में.. मेरे उस विजीट ने मन को काफी साहस देने का काम किया। मानों शैक्षणिक सार के एक वृहत विस्तृत व विराट स्वरूप को समझने बूझने की कोई सीमा ही नहीं रह गई हो। एक स्वरूप उच्च शिक्षाओं को ग्रहण कर मानवीय सेवाओं की ओर बढ जाती है तो नए कोपलों के सटीक संरक्षण की कोशिशें फिर से आतुर हो उठती हैं। मानव क्रम अपनी बौद्धिकता के साथ एक चेन प्रोसेस में आगे बढती दिखाई देने लगती है.. बगैर कौमा पूर्ण विराम के क्रमश: क्रमश: कतारबद्ध..
बक्सर के पूर्वी छोड़ पे खुले इस कॉलेज ने मानों समूचे क्षेत्र में एक नवीन संचार का काम किया था। कई सदियों से राजा महाराजाओं मुगलों सामंतों के हाथों जूझने के बाद भी जैसे भारतीय आजादी ने सही मायनों में इन इलाकों के बाशिंदों को एक खाली कटोरा पकड़ाने का ही काम किया था.. और फिर भी जीवटता ऐसी की ब्रह्म शक्तियों की चादर ओढे ये उन कटोरों को लिए ही चुपचाप बुद्ध की राह पकड़ लेने में ही मग्न थे।
फिर बौद्धिकता के रुप में जो कुछ भी प्राप्त था.. उनमें कृषि धन व पशुधन ही रोजमर्रा के साध्य थे तो ये फिर आज भी जीविका के आत्म केन्द्रित स्रोत बने ही हुए हैं। वर्षों बाद भी एक सही इंडस्ट्रियल मॉड्यूल.. चाहे वो एग्रो बेस्ड डेवलपमेंट के तर्ज पे क्यों ना हो.. लुप्त प्राय ही है। यहाँ के युवा एक साधारण सी टेक्निशियन के सर्टिफिकेट पे अपने घर बार को छोड़ आज भी नगर महानगर व खाड़ी देशों की ओर रोजगार की तलाश में विवशता वश
निकलते चले जाते हैं। राजाओं के समय के फैक्ट्रिओं के साथ अब तो पुराने मंदिरों में भी ताले जड़े दिख जाते हैं। काम की हताशा तो समझ में भी आती है लेकिन भक्ति भाव के इन मठों को भी आज किन शक्तियों का ग्रहण लग सा गया है.. जो जड़ से जुड़ी आस्था भी आज पलायित हो महज पास के काशी बनारस व प्रयागराज के घाटों की एक डुबकी से ही कुछ त्राण ले पाती हैं। जमीन से जुड़ी पशुधन संवर्धन के साथ बौद्धिक विस्तार के एक पहल को भी मैने यहाँ के कॉलेज में कुछ इस तरह देखा जो शायद दुनियां में एक अनोखा पहल हो। इंजीनियरिंग की चार साल की फीस महज पाँच गाय.. इन सचेष्ट प्रयासों से ही समझा जा सकता है कि यहाँ की मौलिक ऊर्जाओं के संवर्धन हेतु ये आज यहाँ क्यों आवश्यक है।
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फिर जो भी हो.. उस कॉलेज के चेयरमैन के आभार व परस्पर समर्थनों से कॉलेज की ओर से प्रकाशित एक अर्धमासिक न्यूज बुलेटिन "संघतिया" में जीवन का पहला लेख प्रकाशित होते देख पाया। मानों एक सुखे पड़े अभिव्यक्त संसार को दवात की सुराही मिल गई हो। ये प्रकाशित लेख वी पी घोष के नाम से था.. प्रथम द्रष्टया मेरे चेयरमैन भी ये देख आश्चर्यचकित हुए कि मैने अपना नाम उस प्रकाशित लेख में सही सही क्यों नहीं दिया.. तो मैने ये कहते हुए जवाब दिया कि मेरे उस नाम को यहाँ कि पृष्ठभूमि ने अभी तक वो अधिकार नहीं दिऐ हैं जो मेरे स्वभाविक बल से है और फिर आज के मंजर में आपके अभिव्यक्तियों की आजादी कहाँ है.. हर कोई तो जैसे एक खामोशी की चादर ओढे गुमशुदा है ..इसलिए सर वी पी घोष ही ठीक है "विप्र प्रयाग घोष"।
..और फिर "विप्र प्रयाग" नाम का उस वक्त सहस ही दिख पड़ना ..ये आज भी अचंभित कर जाता है या फिर तो इस नाम को लिए मुझे जीवन के इस "विप्र वर्ण" में संभवतः एकबार तो उतरना ही था। यहाँ पहली बार इंटरव्यू को आते वक्त सोचा भी ना था कि यहाँ के जीवन का ये वृहत विस्तार मुझमें इस प्रकार प्रभावी हो जाऐगा.. मानों अनंत कालों की जठर अदृश्य शक्तियां ही थी जो तपस्या में लीन अपने हठ योगियों को थोड़ी पास बुलाने की जद्दोजहद में लगी हुई सी थी।
ग्रामीण व हरे भरे सनातन परिदृश्यों में खेतों के बीच पीपल व वट वृक्षों की छाया में ब्रह्म स्थलों का खिलखिलाता स्वरूप तो जैसे शीत मासों के गिरते ओसों में रची सनी गुदगुदाती सी। पटना दानापुर से पैसेंजर ट्रेनों से बनारस मुगलसराय रुट पे मेन स्टेशन आरा होकर जा पहुंचती कॉलेज के पास वाली वो एक छोटी से रेलवे स्टेशन "ट्रुलीगंज".. बस इस इंग्लिशिया नाम के सिवा दुर दुर तक कुछ भी इंग्लिश सा अब नहीं था वहाँ। फिर उस स्टेशन से दक्षिण की ओर जाती डुमराँव राज से पहले की वो पक्की सड़क.. और वहाँ से कॉलेज की ओर बढते इस क्रम में कभी पैदल का सफर तो कभी सवारी अॉटो जीप का मिल जाना।
राह से गुजरते शहरी आवरणों से कोसों दूर बसी एक मानवीय अवस्था रोड सटे इन कस्बों कुचों में दिख सी जाती। छप्पर व खपड़ैल वाले मिट्टी के घर.. बाहर जमें नादों के बगल बँधे गाय, बैलों व भैसों की कतारों में सजे पशुधन। पुआल के बोझों को माथे पे उठाए ले जाती ग्रामीण महिलाएँ तो रोजमर्रा के कामों में जूटे पुरुष वर्ग.. फिर तो बाहर ओसारे पे बैठे वृद्ध जनों को भी कंबल लपेटे देखता। ठूठ पड़ी उन आँखों पे लगे चश्में और उनके चौंधियाते दूर देखने की ललक परस्पर उनके अनुभवों को आज के बदलते परिदृश्य में जोड़े रखने में बड़े ही मुस्तैदी से अपना मोर्चा धान का कटोरा कहे जाने वाले इस पौराणिक प्रदेश में संभाले नजर आ ही जाते और.. मिलते इन सूक्ष्म अनुभूतियों को मैं अपने सूखे पड़े मस्तिष्क कोशिकाओं में रेगिस्तान के जहाज सा बखूबी सींचता चला जाता।
..अब मैं अचरजों को दूर किऐ स्थिर हो चला था ..भावुक प्रबलताओं के साथ एक मजबूत घेराबंदी की चादर बुनी जा रही थी। साँसे अनेकों विषमताओं से पड़े अपने मंजिल को पास देख पाने को
उन्मुक्त थी.. कि क्या इन जठर सुदूर हालातों में भी एक इंजीनियरिंग प्रतिष्ठान जन्म लेकर अपने वात्सल्य को जी सकता है.. और वो तो जीवित था उन वैज्ञानिक अनुक्रमों में। जीवन का एक श्रेष्ठतम प्रयास
शिक्षा के लिए.. महर्षि विश्वामित्र के क्षेत्र में। भारतीय उपमहाद्वीप के जिस पूरातन भूभाग ने सदियों से एक बर्बर व असभ्य प्रतिद्वंदों में खुद को अक्षुण्ण बनाए रखा और अपने योग शास्त्रों से ब्रह्मार्थ को बचा कर मानव सभ्यता को एक सटीक दिशा देने में अपनी उत्कृष्ट भूमिका निभायी तो इसी जमीन से निकले मनुस्वियों को अपना क्षेत्र तो सहस बुलाऐगा ही।
फिर यही कुछ था जो यहाँ के एक प्रबुद्ध क्षत्रिय वर्गीय वैज्ञानिक ने एक नए स्तंभ निर्माण में इंजीनियरिंग कॉलेज की आधारशिला रखने का काम किया.. कि यहाँ आसपास के ग्रामीण युवा स्नातक स्तर की एक उच्च व विशेष इंजीनियरिंग पाठ्यक्रमों को अपने ही परिक्षेत्र में पढकर गौरवान्वित महसूस कर सकें.. और फिर इस साकारात्मक प्रयास को प्रारंभिक सफलता भी मिली.. लेकिन आज के राजनीतिक व जातिवादी शैक्षणिक ग्रहणों से खुद को बचा पाना भी एक गंभीर चुनौती समान साथ चलती दिख भी रही थी और वो भी तब जब आप भौगोलिक रुप से एक राजवंशीय सामंती परंपराओं के सन्निकट ही खड़े हो।
..पास के ही महाराजा डुमराँव राजगढ के दक्षिण पूर्व का ये क्षेत्र ..आतुरता ऐसी की कॉलेज से नजदीक के ही एक गाँव में चल रहे नवनिर्मित मंदिर की प्राण प्रतिष्ठा में चल रहे भजन कीर्तन के शंखनाद की गूंज में मन बरबस उस दृश्याग्नि की ओर निकल जाने को कर गया था। अंधेरे वाले सुबह की उस धुंध में खेत खलिहानों से होकर गुजरते प्रातः कालिन किरणों से जगमगाते मंजर में एक समृद्ध समाज के मध्य खुद को पाना ही सबकुछ था। फिर गाँव के ही एक दो परिवारों के वृद्ध जनों से परमहंस योगानन्द की "अॉटोबायोग्राफी अॉफ योगी" पुस्तक का मिल पाना और उस पुस्तक के लेख माध्यमों से युक्तेश्वर गिरि, लाहिड़ी महाशय व महावतार बाबाजी के हिमालय की अदृश्य श्रेणियों में छिपे योग तत्व का सहर्ष ही मिल पाना.. सच मानें तो ये सबकुछ एक चमत्कार से कम ना था और फिर मेरे उस विकट संघर्षों में भी जैसे मुझे अनुशासन की दीक्षा योग में बाँधे रखने का एक सटीक विकल्प.. जैसे गीता प्रेस गोरखपुर से प्रकाशित मासिक पत्रिका कल्याण के देवी देवताओं के सजीले चित्रों के बीच खेलते मेरे बचपन के उस मुख प्राण को अमृत की बूंदे मिल सी गयी हो।
मैं अपने एक अजीब से बचपने को जीवन के इस सूदूर अंत पे जीने को अब भी अमादा था तो मेरे पुत्र के रुप में एक बचपन मेरा पटना में इंतज़ार भी करता रहता। इसी क्रम में सप्ताह के अंत में
वापस पटना भी आना होता.. सबकुछ बचपना ही था.. और बनते इस जीवन अध्यात्म की नई कड़ी भी विप्र प्रयाग के रुप में स्वतः ही शब्दांकित होती चली जाती। वर्षों बाद जैसे मैं अब लिखने लगा था.. आत्म-बोध से निकलती संतुष्टियाँ.. फिर इसे आप सेल्फ-रिऐलाईजेशन ही कह लें।
..कॉलेज के उस ग्राम्य परिसर व अन्यत्र दुर कस्बों से रोजाना की भांति बड़े मुस्तैदी से छात्र-छात्राओं को आता देखता। खेतों खलिहानों को लांघते इस दुरह अभियोजन में शालीनता सभ्य संस्कारों के साथ कूट कूट कर भरी हुई.. जैसे वैदिक संस्कारों की छाप आज भी यहाँ कुछ बची सी रह गई हो।
कॉलेज में आयोजित अनेकों कार्यक्रमों में भी प्रथम क्रम आसपास गाँवों के वृद्ध सज्जनों का ही होता। मानों सभामंडल की श्रेणियाँ आज भी सप्तर्षियों से सुसज्जित हो रखी हों। ग्रामीण परिवेश के
बीचोबीच इंजीनियरिंग निर्माण के इस अनूठे पहल ने जान ही फूँक रखी थी.. और फिर मैं भी अपने विशेष शोध क्रम में कैमरा लटकाऐ वहाँ पाऐ जाने वाले जीव-जंतुओं पक्षियों व
हरे भरे खेत खलिहानों के चित्रों को बटोर जाता.. ये सबकुछ एक चलंत चिड़िमारी से कम ना था। अपने रुझानों को पुख्ता किऐ आसपास के गाँवों को भी संध्या पहर में घूम आता.. कहीं गन्ने के रसों से बनते देशी मिठास के गुड़ चखने को मिल जाते तो कहीं मशीन से तैयार होते धान। अपने अपने अनुक्रमों में संलग्न एक जैविक तंत्र इन सुदूरों में भी खुद को एक उम्दा बाजार के लिए निरंतर तैयार करता ही रहता।
खेत खलिहानों व गाँवों के निरंतर भ्रमण में एक बार बक्सर के एक वरिष्ठ पत्रकार के साथ हम अपने कॉलेज चेयरमैन के पास ही के पैतृक गाँव के प्राईमरी स्कूल में थे। जिसका नाम था "संघतिया
प्राईमरी पाठशाला".. इस स्कूल में गाँव के ग्रामीण निर्धन बच्चे नि:शुल्क ही पढाई करते थे.. जिसकी देखरेख गाँव के ही रिटायर्ड वृद्ध जन करते तो इसके इस्टैबलिशमेंट व फाईनैंस की मॉनिटिरिंग मेरे कॉलेज के चेयरमैन के हाथों थी। सच में.. मेरे उस विजीट ने मन को काफी साहस देने का काम किया। मानों शैक्षणिक सार के एक वृहत विस्तृत व विराट स्वरूप को समझने बूझने की कोई सीमा ही नहीं रह गई हो। एक स्वरूप उच्च शिक्षाओं को ग्रहण कर मानवीय सेवाओं की ओर बढ जाती है तो नए कोपलों के सटीक संरक्षण की कोशिशें फिर से आतुर हो उठती हैं। मानव क्रम अपनी बौद्धिकता के साथ एक चेन प्रोसेस में आगे बढती दिखाई देने लगती है.. बगैर कौमा पूर्ण विराम के क्रमश: क्रमश: कतारबद्ध..
बक्सर के पूर्वी छोड़ पे खुले इस कॉलेज ने मानों समूचे क्षेत्र में एक नवीन संचार का काम किया था। कई सदियों से राजा महाराजाओं मुगलों सामंतों के हाथों जूझने के बाद भी जैसे भारतीय आजादी ने सही मायनों में इन इलाकों के बाशिंदों को एक खाली कटोरा पकड़ाने का ही काम किया था.. और फिर भी जीवटता ऐसी की ब्रह्म शक्तियों की चादर ओढे ये उन कटोरों को लिए ही चुपचाप बुद्ध की राह पकड़ लेने में ही मग्न थे।
फिर बौद्धिकता के रुप में जो कुछ भी प्राप्त था.. उनमें कृषि धन व पशुधन ही रोजमर्रा के साध्य थे तो ये फिर आज भी जीविका के आत्म केन्द्रित स्रोत बने ही हुए हैं। वर्षों बाद भी एक सही इंडस्ट्रियल मॉड्यूल.. चाहे वो एग्रो बेस्ड डेवलपमेंट के तर्ज पे क्यों ना हो.. लुप्त प्राय ही है। यहाँ के युवा एक साधारण सी टेक्निशियन के सर्टिफिकेट पे अपने घर बार को छोड़ आज भी नगर महानगर व खाड़ी देशों की ओर रोजगार की तलाश में विवशता वश
निकलते चले जाते हैं। राजाओं के समय के फैक्ट्रिओं के साथ अब तो पुराने मंदिरों में भी ताले जड़े दिख जाते हैं। काम की हताशा तो समझ में भी आती है लेकिन भक्ति भाव के इन मठों को भी आज किन शक्तियों का ग्रहण लग सा गया है.. जो जड़ से जुड़ी आस्था भी आज पलायित हो महज पास के काशी बनारस व प्रयागराज के घाटों की एक डुबकी से ही कुछ त्राण ले पाती हैं। जमीन से जुड़ी पशुधन संवर्धन के साथ बौद्धिक विस्तार के एक पहल को भी मैने यहाँ के कॉलेज में कुछ इस तरह देखा जो शायद दुनियां में एक अनोखा पहल हो। इंजीनियरिंग की चार साल की फीस महज पाँच गाय.. इन सचेष्ट प्रयासों से ही समझा जा सकता है कि यहाँ की मौलिक ऊर्जाओं के संवर्धन हेतु ये आज यहाँ क्यों आवश्यक है।
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