..और गुरु द्रोण पुत्र अश्वत्थामा युगों तक भटकता रहा। एकलव्यों व बर्बरिकों के अंगूठे व शीश राजसंघों को समर्पित होते गए। सतयुगी क्षत्रिय कार्तवीर्य सहस्त्रार्जुन से ज्यादा द्वापरकालिन कृष्णार्जुन सुशोभित रहे। फिर पौराणिक संदर्भों में ऐसे कितने ही रुप व पात्र रहे, जिन्हें ज्ञान के एक नए संधिकालों के बाद भुला दिया गया या फिर श्रेष्ठ पूज्य परकता से दूर ही रखा गया। एक विष्णु अवतारी ने दुसरे विष्णु अवतारी का समूल नाश किया। कार्तवीर्य सहस्त्रार्जुन विष्णु अवतारी का विनाश भी तो एक विष्णु अवतारी परशुराम भगवान ने ही किया.. मानों सॉफ्टवेयर की लेटेस्ट वर्जन ओल्ड वर्जन पे हावी हो चली हो। हैहयवंशी चक्रवर्ती कार्तवीर्य को आज भी उनके राजगढ महिष्मति में भगवान सरीखे ही पूजा जाता है। फिर जिन शिवशक्तियों व ब्रह्मास्त्र युक्त सुसज्जित द्रोणपुत्र अश्वत्थामा हो, तो कुरुक्षेत्रिय व्यूह रचना में भगवान श्रीकृष्ण द्वारा छल क्यों? रणक्षेत्र में एक गुरु व गुरुपुत्र बाधक क्यों? फिर वैसे गुरु जिन्होंने अपने राजधर्म निर्वाह में एकलव्य जैसे भील धनुर्धर का मान भी दान स्वरूप लेने में गुरेज ना कि हो तो शिव भक्त व पांडव पौत्र बर्बरिक की कुल निष्ठा ने शीश दान देकर भी हरि भजन को जीवित रखा।
इन हरि भजनों को जीवित रखने के कृत पुराणों के भिन्न संस्करणों ने ही नहीं, बल्कि आज के जीवन खंडों में भी जारी है। मनु काल या मनु कल्प-ज्ञान स्मृतियों को लेकर आज के कालखंडों भी एक उत्सुकता बनी ही रहती है, तो फिर बदलते समावेशों में "मनुस्मृति" सांख्य-दर्शन भी "कामायनी" बनकर जयशंकर प्रसाद की काव्य रचनाओं में निढाल बह ही निकलती है। कल्प गर्भ विन्यास के मन्वंतरों में प्रथम मनु "स्वयंभू मनु" के काल के बाद तो सीधे वर्तमान में चल रहे मन्वंतर सातवें मनु "वैवश्वत मनु" का कालवर्णन ही मिल पाता है। संभवतः द्वितीय मनु से लेकर छठे मनु के काल-कल्प गंधर्विय व्यवस्थाओं के कारण ही आज के सनातनी संस्करणों में जगह नहीं बना पाते; वस्तुतः इन शक्तिपुंज आदिर्भावों को भी नजर अंदाज नहीं किया जा सकता। नवीन संस्करणों में ये बिल्कुल वैसा ही है जैसा वैष्णवी मतों पे शैव मतों का भारी पड़ना; मानों यक्षों ने आज भी अपनी जगह बचाऐ रखने में कामयाबी हासिल की तो गंधर्व लोक दुर जाता रहा।
फिर दुर जाते इन गंधर्व लोकों को महर्षि शुक्राचार्य व महर्षि और्व ने भी पाटने का कार्य किया तो सनातनी परंपराओं में बढते शैव मतों के बीच वैष्णवी परंपराओं को सृजित करने का कार्य भक्ति आंदोलन के घटकों ने बखूबी किया। पंद्रहवी शताब्दी में चैतन्य महाप्रभु ने राधा को कृष्ण के संग बिठा पुन: सम्मानित किया। वस्तुतः आज भी सनातनी परंपराओं में जगन्नाथपुरी में बहन सुभद्रा ही अपने भ्राता भगवान श्रीकृष्ण व बलराम संग पूज्य हैं। वैष्णवी परंपराओं के इस प्रादुर्भावों ने शैव मतों को भी दुर धकेला। उदाहरण स्वरुप शिव ज्योतिर्लिंगो में एक भीमाशंकर ज्योतिर्लिंग का मूल स्वरुप कामरुप भूभाग असम राज्य में होकर भी ये आज महाराष्ट्र राज्य में स्थापित व पूजित है। या यूं कहें कि आज के कालखंडों में भी गंधर्विय शक्तियाँ अपने पुनर्आगमण हेतु आतुर अपने अपडेटेड वैष्णवी वर्जन के साथ मौजूद है.. फिर देहरुप सौन्दर्य व गंधर्विय कामाग्नियों के निस्तारण हेतु सनातनी परिप्रेक्ष्यों के वर्तमान मन्वंतर में भगवान विष्णु भी वामन रूपधारण को ही बाध्य हैं। स्मृतियाँ लिए ये गंधर्विय शक्तियां आज फिर किन वर्णों या धर्मों में सुशुप्त हैं तो इसका सीधा संबंध तिब्बत व चीन में व्याप्त बौद्ध पीठों की मौजूदगी से है तो फिर जैन, जरथ्रुष्ट व ईसाई मतों व विचारों में भी ये बहुत कुछ संवर्धित है।
राजा दशरथ की तीन पत्नियों में कैकेयी का नाम श्रेष्ठ ही समझा जाऐ; अन्यथा महाज्ञानी रावण को भगवान श्रीराम के हाथों मोक्ष नहीं मिल पाता। ये एक शोध का ही विषय है या फिर कुछ गंधर्विय शक्तियों का मेल। सतयुग के बाद त्रेता में ये कलियुगी राग विद्वेषणा क्यों? राम ज्येष्ठ थे, तो चौदह वर्षों का वनवास। कुछ महत्वपूर्ण कड़ियाँ कैकेयी तो कुछ महाभारत कालिन धृतराष्ट्र व पत्नि गाँधारी तक मिलती दिखती हैं। रामायण व महाभारत के दोनों ही संदर्भों में वनवास दिखता है। फिर इन वनवासों के साथ दिखती हैं कुछ गंधर्विय जठर दृढता भी।
..continued
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