Thursday, 13 September 2018

..हर दिन जलता हूँ अपने घर की दिवाल पे एक दीया बनके

मेरी एक कविता...
..हर दिन जलता हूँ अपने घर की दिवाल पे एक दीया बनके
..लेकिन आती है एक ही दिन दिवाली थोड़ा सज-संवर के
..हर दिन जलता हूँ अपने घर की दिवाल पे एक दीया बनके l
..थोड़ा जलता हूँ ..तो थोड़ा जल भी जाता हूँ जीया बनके
..थोड़ा पीता हूँ ..तो थोड़ा पिलाता भी हूँ पीया बनके
..हर दिन जलता हूँ अपने घर की दिवाल पे एक दीया बनके l
..रौशन बस मुझसे ही नहीं है जहां ..तुम ना देखो तो क्या जला क्या बुझा
..दीया हूँ औऱ देता रहूंगा ..जब भी समझोगे अपना चिराग-ऐ-आशियान
..सुबह हुई तो ये ना समझो कि बूझ गया ..अंधेरी रात के सफर को मानो पूरा बुझ गया
..एक कालिख सी पड़ी मिलेगी मेरे जिस्म में ..काली रात की रुख को जो खुद में पिरों लियाl
..फिर ना कहना मुझसे ऐ मेरे दोस्तों
..क्यों मै हर दिन जलता हूँ अपने घर की दिवाल पे एक दीया बनके
..क्यों थोड़ा जलता हूँ ..और थोड़ा जल भी जाता हूँ जीया बनके
..तो फिर भी ..क्यों आती है सिर्फ एक ही दिन ये दिवाली थोड़ा सज-संवर के।

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