Thursday, 13 September 2018

गुंजा रे ँं...चंदन.. चंदन.. चंदन..

गुंजा रे ँं...चंदन.. चंदन.. चंदन..

 आज वर्षों बाद भी ये बोल.. मेरी मिट्टी के सौंधेपन को लिए कानों को छू ही जाती है.. और मैं शहरनुमा बदले माहौल में.. एक बार फिर.. खुद को जमींदोज कर ..झूठ का नकाब ओढ आगे बढता चला जाता हुँ। अब ना तो गाँव की उन वादियों से कोई गूंज ही आती दिखती है.. न तो चंदन ही अपनी खुशबू बिखेरे नदी किनारे खङा नजर आता है। ..वक्त के साये ने कितना कुछ बदल कर रख दिया। ..फिर हम जा भी किधर को रहे हैं। ...भावनाऐं बदल रहीं है ..हम बदल रहे हैं या ..कुछ औऱ हमें बदलने की साजीश में लगा है। उन्हें वो क्यों नही मिल पा रहा.. जहाँ जीवन है ..अल्हङपन है ..सादगी है। ..आज के बदले माहौल में मानो सब-कुछ ही बदल गया ..भोजपुर बिहार से होकर गुजरते वक्त सुनाई पङे कुछ फूहर भोजपुरी गानो ने तो मेरे पैर ही जकङ लिए। ..फिर याद आने लगे कुछ ऐसे लुभावने दृश्य औऱ मीठे स्वर भी ..जिन्हें आज के बाजारू औऱ विषाक्त माहौल के बीच.. अपने विचार-मंथन के कलेक्शन में रखने का जोखिम भी उठा लूं तो... अमृत-वर्षा से कुछ कम ना होगा।



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विनायक रंजन  www.vipraprayag.blogspot.in

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