Friday, 14 September 2018

स्वामी विवेकानंद.. मेरे जीवन स्तंभ..

स्वामी विवेकानंद.. मेरे जीवन स्तंभ..। 

जीवन वृत्तियाँ स्वरूप लेने लगी थी..। बचपन के दिनों में.. हम सब छुट्टियों में कुछ दिनों के लिए ननिहाल चले जाते..। पूर्णियाँ के बगल में कटिहार जिले का एक गाँव बिजैली..। कटिहार से तो अक्सर हम बैलगाङी.. टप्पर गाङी में ही लगभग २०-२२ किमी का रास्ता तय करते..। कभी माँ के चेहरे की खुशी को देखता.. तो कभी दुर तक फैले ग्राम्य-जीवन की हरी और मुस्कुराती चादर..। बंगाल से सटे इस भू-भाग में लौटते ही कुछ दिव्य ज्ञात होने लगता..। धुलों से भरे पथरीले रास्ते.. और जगह-जगह दिखते.. मंदिर और मचान्..। ..कंधों में हलों को उठाए ..अपने खेतों की ओर जाते बैलों की जोङी लिए किसान दिख जाते.. तो कुछ गेरुए कपङों में हाथों में सतरंगी की तान लिए साधु-सन्यासी भी दिख जाते.. तो ढोल लेकर थिरकते बाउल नर्तकों की टोली भी..। मिल जाते रोड के दोनों ओर सूखते पटुओं का प्राकृतिक सुहानापन.. व गाय-बैलों के गले लगी बंधी घंटियों के टन्-टन् की आध्यात्मिक धुन..। गाँव पहुंचते ही.. चहल-पहल चालु। कभी ये टोली तो कभी वो टोली.. कभी बंसभिट्टी के पीछे वाली पोखरी..। दोनों हाथों से मुरकी खाते मौसी माँ के बङे दरवाजे पे आते.. दुर्गा-स्थान से सटा.. एक पुराना डाक-घर.. अंग्रेजों के समय का.. बिल्कुल ही खाकीमय..। एक पुराने व काफी बङे टेबुल पे रखे.. डाकघर के रजिस्टर, पोस्ट-कार्ड, इनलैंड व बङे-बङे मोहर वाले स्टाम्प.. तो कमरे का एक कोना किरासन तेल से जलने वाले लैंप, लालटेन व पेट्रोमैक्स का..। डाकघर के ठीक बीचो-बीच एक सीध में.. तीन बङी सी तस्वीर..। आज इतने दिन बाद भी जैसे.. वो सब जेहन में कौंध ही जाता है..। शायद इन्हीं दर्शनों से ही दुर-सुदूरों में.. आज भी ईश्वर विराजमान हैं.. अध्यात्म जीवित है.. निष्ठा समर्पित है। महायोगी परमहंस, स्वामी विवेकानंद व माँ शारदा.. का वो विहंगम स्वरुप मानो सदा के लिए.. जीवन-अंगित हो गया.. एक दिव्य-स्तंभ की तरह..।

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