सुबह-सुबह ट्रेन जाकर रूकी महकवि संत तूलसीदास के रघुनाथपुर में.. पूरब की ओर से बक्सर का पहला स्टेशन। कहते है यहाँ तूलसीदास बनारस घाट से आकर महीनों रूका करते थे.. और फिर यहाँ इसके उत्तर दिशा में प्रसिद्ध बाबा बरमेश्वरनाथ शिव का प्राचीन सिद्धपीठ मंदिर भी है। कहते हैं उत्तर काठमांडू के बाबा पशुपतिनाथ.. पुरब देवघर के बाबा वैद्यनाथ व पश्चिम दिशा बनारस के बाबा काशी विश्वनाथ के त्रिकोण के मध्य अवस्थित ये एक अपरुपी ब्रह्मपीठ है। कुछ दिनों पहले मैं दोनो तीर्थ कर आया.. तूलसीस्थान के साथ बाबा बरमेश्वरनाथ को जल चढा आया। सच में यहाँ आकर जिन्दगी ठहर सी जाती है.. हर दिन कुछ ना कुछ नया दिखा ही जाती है। बङे शहरों में ऐसा क्यों नहीं लगता.. जो यहाँ सब अपने से लगते हैं.. यहाँ अब तो और भींगने को खादी पहन घूमता हूँ.. अच्छा लगता है जो इनके निकट सा लगता हूँ।
पश्चिम दिशा से एक पैसेंजर ट्रेन रघुनाथपुर आ रूकी.. ये क्या जो सभो के हाथों में छोटी बाल्टी.. जिसमें आधा पानी भरा और एक कपङा डूबोया.. लगभग सभों के साथ कुछ ऐसा ही..। जो पता चला.. उन पानी भरे बाल्टियों के कपड़ो में लिपटा पनीर व छेना जो रहता है.. ये लोग इस जगह अपने पनीर व छेनों को पास के मिठाई वाले दुकानदारों को बेच.. कुछ अपनी रोजमर्रा की समानों को खरीद वापसी वाली ट्रेन पकङ लेते हैं। ..फिर ज्ञात जो हुआ इस रघुनाथपुर में दूध फारना गौ-हत्या बराबर जो है ..बस ये प्रथा वर्षों से चली आ रही है.. क्यों विचित्र सी है ना ? ऐसे बहूतों प्रसंग मिल जाऐंगे.. छूने को.. बस अगर आपने इन विचित्र वनों में इत्मिनान से लौटने को साध रखा हो तो.. नहीं तो कौन जोखिम लेता है अब..। चलते फिरते कितने ही किस्से रिसते दिखेंगे.. मगर इतना भींग कौन लिखता है अब।
ट्रेन में ही एक जनाब मिले.. मेरे रूझानों को देख बिफर से पङे.. मानो वर्षो से कुछ छिपा रखा हो या इनके आवाजों को दबा दिया गया हो..। अपने लेखों के पेपर कटींग्स को निकाल दिखाया.. वन्य-जीव संरक्षण व क्षेत्र-सौन्दर्यीकरण जैसे कितने ही मसलों पे लिख रखा था इन्होंने.. न जाने कितनी बार दिल्ली बैठे मंत्रियों की दौड़ लगाई लेकिन वर्षों बीते नहीं हुई कोई सुनवाई..। आप ही कहें आज के दौर में इन प्रेमचंदों की वापसी संभव है क्या ? नहीं लगता हिन्दी साहित्य सम्राट प्रेमचंद का ईंगलीश दौर ही अच्छा था.. कम से कम मोबाईल और टेलीविजन बिना.. शब्द-साहित्य में कुछ सजोने.. कुछ खोने को तो मिलता था।
~ विप्र प्रयाग
www.vipraprayag.blogspot.in
पश्चिम दिशा से एक पैसेंजर ट्रेन रघुनाथपुर आ रूकी.. ये क्या जो सभो के हाथों में छोटी बाल्टी.. जिसमें आधा पानी भरा और एक कपङा डूबोया.. लगभग सभों के साथ कुछ ऐसा ही..। जो पता चला.. उन पानी भरे बाल्टियों के कपड़ो में लिपटा पनीर व छेना जो रहता है.. ये लोग इस जगह अपने पनीर व छेनों को पास के मिठाई वाले दुकानदारों को बेच.. कुछ अपनी रोजमर्रा की समानों को खरीद वापसी वाली ट्रेन पकङ लेते हैं। ..फिर ज्ञात जो हुआ इस रघुनाथपुर में दूध फारना गौ-हत्या बराबर जो है ..बस ये प्रथा वर्षों से चली आ रही है.. क्यों विचित्र सी है ना ? ऐसे बहूतों प्रसंग मिल जाऐंगे.. छूने को.. बस अगर आपने इन विचित्र वनों में इत्मिनान से लौटने को साध रखा हो तो.. नहीं तो कौन जोखिम लेता है अब..। चलते फिरते कितने ही किस्से रिसते दिखेंगे.. मगर इतना भींग कौन लिखता है अब।
ट्रेन में ही एक जनाब मिले.. मेरे रूझानों को देख बिफर से पङे.. मानो वर्षो से कुछ छिपा रखा हो या इनके आवाजों को दबा दिया गया हो..। अपने लेखों के पेपर कटींग्स को निकाल दिखाया.. वन्य-जीव संरक्षण व क्षेत्र-सौन्दर्यीकरण जैसे कितने ही मसलों पे लिख रखा था इन्होंने.. न जाने कितनी बार दिल्ली बैठे मंत्रियों की दौड़ लगाई लेकिन वर्षों बीते नहीं हुई कोई सुनवाई..। आप ही कहें आज के दौर में इन प्रेमचंदों की वापसी संभव है क्या ? नहीं लगता हिन्दी साहित्य सम्राट प्रेमचंद का ईंगलीश दौर ही अच्छा था.. कम से कम मोबाईल और टेलीविजन बिना.. शब्द-साहित्य में कुछ सजोने.. कुछ खोने को तो मिलता था।
~ विप्र प्रयाग
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