विरुद्ध..
माह के अंत में आयोजित हर मीटिंग में वो भड़क सा जाता। प्रोफेसरों के खाते अब शिक्षण तंत्र कहाँ था.. कुछ नियामकों पे या तो युनिवर्सिटी की घिसी घिसाई रूपरेखा या फिर इंस्टिट्यूट्सनल आला कमानों के रोज बदलते फरमान। अफसरशाही अब अपना आईना बदलते आफिसशाही में तब्दील। शिक्षा भी क्या कभी व्यापार बन सकता है.. कशीदे पढने वालों की चांदी थी.. नोट गिनते मुंशी की नींद आधी थी। नए ब्राडिंग हर रोज नए रोजगार टेंडर पे लाऐ जाते.. बच्चे भी हँसते खेलते खुद को भुलाते घर को जाते। क्लास रुम अब पेटिएम पे थी.. आओ तो ठीक.. ना आओ तो डिजीटल रशीद काट दी जाती । ईयर का ईस्टर.. सेमेस्टर ट्राईमेस्टर बन बैठा था.. सब्जेक्टी कनसेप्ट के बदले टर टर ज्यादा तो.. दिमागी जाम अब एग्जामों का प्यादा था.. जो पढने पढाने वाले क्लासरूम अब बस अपने नंबर से पहचाने जाते। क्लासेस कहाँ थी.. सब कुछ तो डिजि अॉन लाईन थी.. टिचींग की डेकलाईन थी। अब तो विरूद्ध ही विशुद्ध बनता जाता.. शिक्षक और शिक्षण परिदृश्यों का मुखातिब सिर्फ वैकल्पिक गैप फिलींग के दृश्यांतरों में क्रुद्ध अवरुद्ध कराहें भरता और वो भड़क सा जाता। #शिक्षक
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