Friday, 14 September 2018

अश्‍वघोष : निष्‍ठा के साथ बदल दीं धर्म की परिभाषाएं..

अश्‍वघोष : निष्‍ठा के साथ बदल दीं धर्म की परिभाषाएं..
वह धर्म के शीर्ष तक पहुंचा, फिर खरीद कर दास बनाया गया। लेकिन उसने अपनी श्रेष्‍ठता प्रमाणित करते हुए सत्‍ता के शीर्ष पद को सम्‍भाला। अपने ही मालिक का महामंत्री बन गया। इतना ही नहीं, उसने बाकायदा अपने ही राजा को दीक्षित किया और धर्म के प्रचार-प्रसार का वह अभियान शुरू करा दिया जो इसके पहले इतिहास में कहीं नहीं दिखायी देता है। उसने चीन से लेकर पर्शिया तक सत्‍ता और धर्म के झण्‍डे गाड़े। भारतीय ज्ञान और उसके सिद्धांतों का पूरी दुनिया में लोहा मनवा दिया। इतना ही नहीं, अपने धर्म की इतनी बड़ी संसद का आयोजन करा दिया कि लोगों ने दांतों तले ऊंगलियां दबा लीं।
उसने व्‍यापार के तब के प्रमुखतम मार्ग पर धर्म-पुरूष की विशालकाय प्रतिमाएं स्‍थापित करवा दीं ताकि उधर से गुजरने वाले काफिलों के माध्‍यम से प्रचार-प्रसार किसी युद्ध की तरह संचालित किया जा सके। यही वजह है कि आज भारत में बौद्ध धर्म भले ही सिमट कर रह गया हो, लेकिन पूरब के अनेक देशों में यह लगभग राष्‍ट्रीय धर्म के तौर पर पूजित है।
करीब दो हजार साल पहले हुई इस बेमिसाल घटना पर बात शुरू करनी हो तो हमें बामियान की ओर रूख करना होगा। वजह यह कि अभी करीब दस बरस पहले अफगानिस्‍तान के हिंदू-कुश पर्वत से सटा यह पहाड़ी इलाका सदियों तक ओझल रहने के बाद अचानक ही दुनिया भर में दया का पात्र बन गया जो पहले भारतीय संस्‍कृति से अभिन्‍न रूप से जुड़े गांधार क्षेत्र का हिस्‍सा रहा था। क्रूर और अमानवीय तालिबानी गिरोहों ने सम्‍यता पर कलंक लगाते हुए करीब दो सदी पहले यहां की एक पहाड़ी को खोदकर बनायी गयी भगवान बुद्ध की विशालकाय प्रतिमाओं को तोपों और डाइनामाइट से उड़ा दिया था। हालांकि इसके बावजूद वहां से वे बुद्ध का समूल नाश नहीं कर सके और प्रतिमा के टूटे टुकड़े को जोड़कर उसे फिर से बनाने की रणनीतियां चल रही हैं। जर्मनी के म्यूनिख़ विश्वविद्यालय के प्रोफ़ेसर एरविन एम्मर्लिंग इस काम में लगे हैं। गौरतलब है कि चार साल पहले यहां बुद्ध की एक 35 फीट की एक प्रतिमा खोजी गयी है जो सोई हुई अवस्‍था में है लेकिन अब तक वह दुनिया से ओझल ही रही। यानी बामियान में बुद्ध का वैभव फिर लौटने ही वाला है।
लेकिन इन सबकी शुरुआत का श्रेय जिसे जाता है उसका नाम बौद्ध गाथाओं में अब कम ही लिया जाता है। नाम है अश्‍वघोष। कुषाणनरेश कनिष्‍क ने छह करोड़ रुपयों में भगवान बुद्ध के भिषापात्र और पा‍टलिपुत्र के महाअमात्‍य और महास्‍थविर अश्‍वघोष को मुआवजे के तौर पर तब हासिल किया था जब उसने भर्तृहरिवंश के मगध शासकों को हराया और अपने साथ पेशावर ले गया। क्षमामूर्ति अश्‍वघोष ने तनिक भी प्रतिवाद नहीं किया और बंदी की तरह उसके साथ चले गये। इतना ही नहीं, वे इसे अपनी निजी पराजय मानने के बजाय धर्म के उत्‍थान में जुटे रहे। उन्‍होंने क्रूर और आततायी हूण और कुषाणों को सभ्‍य बनाने की हरचंद सफल कोशिशें कीं। अयोध्‍या के ब्राह्मण खानदान में जन्‍मे और बौद्ध धर्म के महानतम विद्धान अश्‍वघोष के जन्‍म पर इतिहास ने खूब धूल फेंकी। लेकिन इतना तय है कि उनकी माता का नाम सुर्णाक्षी था।
उन्‍होंने बौद्धसमाज को एक अनोखी दिशा दी। पहला बौद्ध कवि होने का भी सम्‍मान उनके खाते में है। कनिष्‍क उनकी विद्धता का सम्‍मान करता था। उसने उन्‍हें अपना राजगुरू और महामंत्री तक बना दिया। अश्‍वघोष ने ही उसे बौद्धधर्म में दीक्षित किया और उसे ज्ञान-सेवक बना डाला। साथ ही सौंदरनंद और बुद्धचरित नामक दो अमर व महान काव्‍यग्रंथ लिख दिये। कई नाटक, उपनिषद और सूत्रालंकार जैसे ग्रंथों की भी रचना की। दुनिया भर से सैकड़ों बौद्धविद्वानों को बुलाकर इतिहास की चौथी बौद्धसंगीति भी करायी। महावादी दर्शन के प्रणेता कहे जाने वाले अश्‍वघोष की अध्‍यक्षता में सम्‍पन्‍न इस बौद्ध महासम्‍मेलन में बौद्ध त्रिपिटकों पर जो परिभाषाएं और टीकाएं लिखीं गयीं, उनका सानी बाद के इतिहास में कहीं नहीं रहा। पहाड़ काट कर बामियान में बुद्ध की विशाल प्रतिमाएं बनाने का काम भी शुरू कराया, जो गांधार-कला का अप्रतिम उदाहरण बनीं। यानी कनिष्‍क का डंका पूरी दुनिया में बज उठा। हालांकि बाद में कनिष्‍क पराजित हो गया और अश्‍वघोष के साथ भगवान बुद्ध का भिक्षापात्र भी वापस मगध आ गया
अश्‍वघोष ने बौद्धों को कविता से जोड़कर उन्‍हें और भी ज्‍यादा मानवीय बनाया। बेहिसाब ग्रंथों को रचा। लेकिन उनके चार ग्रंथ ही अब मौजूद हैं। जिनमें बुद्धचरित, सौंदरनंद, गंडीस्‍तोत्रगाथा और शारिकपुत्रप्रकरण हैं। लेकिन हैरत की बात है कि बुद्धचरित का चीनी और तिब्‍बती भाषा में तो अनुवाद तो पूरे 28 खंडों में मौजूद है, लेकिन जिस मूल संस्‍कृत में इसकी रचना हुई, उसके केवल 10 खंड ही उपलब्‍ध हैं। 

अश्‍वघोष ने सौंदरनंद में सिद्धार्थ के बेहद कामी प्रवृत्ति वाले भाई को बौद्धसंघ में दीक्षित करने का आकर्षक वर्णन किया है। अश्‍वघोष की लोकप्रियता का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि उनकी रचनाओं का चीनी अनुवाद पांचवीं शताब्‍दी में हुआ। जाहिर है कि तब तक ये रचनाएं भारतीय जनमानस में खूब रचबस चुकी रही होंगीं।

पहली सदी के संस्कृत भाषा के प्रथम सम्रग्य अश्वघोष का चौथी सदी के महाकवि कालिदास पर जबर्दस्‍त प्रभाव दीखता है। कुमार संभव और रघुवंश में कालिदास ने शिवपार्वती को देखने के लिए कैलास की युवतियों के उत्‍सुक हुजूम और अज-इंदुमती को देखने विदर्भ की ललनाओं के मनोभावों को जिस तरह व्‍यक्‍त किया है, अश्‍वघोष ने सिद्धार्थ को देखने उमड़ी कपिलवस्‍तु की युवतियों के आवेग को भी उसी भाव में समेटा था। उनके लेखन में अपरिमित काव्‍यक्षमता है, लेकिन इसका उपयोग उन्‍होंने केवल अपने धर्म के प्रति लोगों में रागात्‍मक लगाव के लिए ही किया। यह उनमें संगीत के प्रति जुड़ाव का प्रतीक भी है, जो तब बौद्धदर्शन से सर्वथा प्रतिकूल भी था। खास बात यह है कि अश्‍वघोष गौतम बुद्ध के प्रति अगाध श्रद्धा रखते हैं, मगर दूसरे धर्मों व आस्‍थाओं के प्रति पर्याप्‍त सम्‍मान भी उनमें है। कनिष्‍क के सिक्‍कों पर महादेव और शिव-नंदी की आकृतियां उकेरे जाने में इसके प्रमाण की कोई आवश्‍यकता नहीं। कनिष्‍क की कैद में भी अश्‍वघोष ने बौद्ध दर्शन का प्राणप्रण से प्रचार किया और उसकी पराजय के बाद मगध की राजधानी लौटने पर भी वे बौद्धदर्शन पर ही काम करते रहे। किसी तरह का अवसाद शेष नहीं रहा। पा‍टलिपुत्र में उन्‍होंने अगले 49 वर्षों तक अपनी तपस्‍या को जारी रखा और सन 150 ईस्‍वी में बौद्धत्‍व में विलीन हो गये।

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